अडानी प्रकरण से देश में निवेश घटेगा- प्रो अरुण कुमार

प्रो अरुण कुमार जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर रहे हैं और देश के जाने-माने अर्थशास्त्री हैं। उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था, उसकी समस्याओं और उनके समाधान पर ‘द ब्लैक इकोनॉमी इन इंडिया’, ‘डिमोनिटाइजेशन एंड द ब्लैक इकोनॉमी’, ‘ग्राउंड स्कोर्चिंग टैक्स’ और ‘इंडियन इकोनॉमीज ग्रेटेस्ट क्राइसिस (इंपैक्ट ऑफ कोरोना वायरस एंड द रोड अहेड)’ जैसी किताबें लिखी हैं। वे देश के सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर बेबाकी से अपनी बात रखने के लिए जाने जाते हैं। अडानी प्रकरण और क्रोनी कैपीटलिज्म के विभिन्न पहलुओं पर उनसे बातचीत की है सुशील मानव ने। पढ़ें, इस बातचीत के संपादित अंश।

प्रो अरुण कुमार

सवाल- एक टर्म आजकल बहुत चल रहा है मोडानी। इसे आप कैसे परिभाषित करेंगे?

प्रो अरुण कुमार- दुनिया में जो भी बड़े और अमीर लोग हैं, उन्होंने या तो टेक्नोलॉजी विकसित की या फाइनेंस के क्षेत्र में कुछ किया, तब अमीर हुए। गौतम अडानी अधिग्रहण से अमीर हुए हैं। उन्होंने बहुत सारी फर्मों का अधिग्रहण किया, क्योंकि उनके कनेक्शन सरकार से बहुत अच्छे रहे हैं, इसलिए निवेशकों को लगा कि उनकी कंपनी आगे जाएगी। इस कारण उनकी कपंनियों के शेयरों के दाम बहुत बढ़ गये। कई कंपनियों के शेयरों के दाम तो कई गुना बढ़ गए। उनकी सम्पत्ति 8 बिलियन डॉलर से 140 बिलियन डॉलर हो गयी और कंपनी भी 20 गुना ज़्यादा बड़ी हो गयी

सुशील मानव

। ये किस प्रकार हुआ?

हमारे देश में क्रोनीज्म है। कैपीटलिज्म में क्रोनीज्म तब होता है, जब राजनेताओं और पूँजीपतियों के बीच सांठ-गांठ होती है। लेकिन इतने बड़े लेवल पर क्रोनीज्म दुनिया में कहीं नहीं देखा गया। कभी कहीं नहीं देखा गया कि किसी कॉर्पोरेट को सरकार से इतनी ज्यादा मदद मिली हो। मुंबई के इंटरनेशनल एयरपोर्ट को उसके ओनर नहीं बेच रहे थे तो उनके ऊपर रेड पड़ी और फिर उसने एयरपोर्ट अडानी को बेच दिया।

इसी तरह श्रीलंका में अडानी को बिजली परियोजना दिलाने पर सीलोन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के अध्यक्ष ने कहा कि राष्ट्रपति राजपक्षे के ऊपर दबाव था और यह उस दबाव के चलते हुआ है। आप समझ सकते हैं कि देश विदेश में सरकार की तरफ से उन्हें किस लेवल पर मदद की गयी। उस मदद के जरिए ही अडानी इतनी जल्दी इतने बड़े हो गये।

सवाल- क्या आप यह कह रहे हैं कि सरकार ने देश की तमाम संस्थाओं को अडानी की मदद के लिए लगाया?

प्रो अरुण कुमार- अडानी को बैंकों से जल्दी लोन मिला, जो अक्सर नहीं मिलता है। अगर आपका गेयरिंग रेशियो बहुत ज्यादा होता है तो बैंक लोन नहीं देते। लेकिन यहां अडानी को बैंकों से लोन मिला। सरकारी बैंकों ने ज्यादा लोन दिया, प्राइवेट बैंकों ने उतना नहीं दिया। दूसरी बात एलआईसी ने अडानी की कंपनी में निवेश किया। म्यूचुअल फंड अडानी की कंपनियों में निवेश नहीं कर रहे थे, जबकि वे प्रॉफिट को लेकर ज्यादा सोचते रहते हैं। जहां ज्यादा प्रॉफिट मिलता है, वहां वे निवेश करते हैं। अब अडानी के शेयर यदि इतने ही प्रॉफिट में थे, तो वहां प्राइवेट म्यूचुअल फंड पैसा क्यों नहीं लगा रहे थे? यही वजह है कि अडानी को बहुत ज़्यादा लोन मिला। उनकी कंपनी की जितनी कुल पूंजी है, उससे कहीं ज़्यादा उन्हें लोन मिला हुआ है। कुल इक्विटी और कुल ऋण के बीच के अनुपात को वित्तीय भाषा में गियरिंग रेशियो बोलते हैं। अगर यह लोन रेशियो इक्विटी से ज्यादा होता है तो रिस्क उतना ही ज़्यादा हो जाता है। म्युचुअल फंड देख रहे थे कि इनमें इनवेस्ट करेंगे तो रिस्क ज़्यादा है, इसलिए वे इन्वेस्ट नहीं कर रहे थे।

दूसरी बात, बहुत सारा पैसा बाहर से आया और अडानी की कंपनियों में निवेश किया गया। यहां राउंड ट्रिपिंग का सवाल उठता है कि कितना पैसा देश से बाहर गया और दुबई वगैरह में जहां अडानी के भाई बैठे हुए हैं, वहां से शेल कंपनियों के जरिये कितना पैसा यहां आया? अब सेबी ने क्यों जांच नहीं की कि इतनी तेजी से दाम कैसे बढ़े? फिर ऑडिटर्स का बड़ा रोल होता है। वही सर्टिफाई करते हैं कि एकाउंट वगैरह सब ठीक है। इतने यंग ऑडिटर्स, जिनकी नयी नयी फर्में हैं, वहां से कैसी ऑडिटिंग हो रही है?
फिर अडानी को इतने सारे कंट्रैक्ट कैसे मिल गये? अडानी की कंपनियों को जिस क्षेत्र में अनुभव नहीं है, वहां के कंट्रैक्ट उन्हें कैसे मिल गये? विदेशों में उनको कैसे कंट्रैक्ट मिले? जहां-जहां मोदी की विजिट होती है, उसके तुरन्त बाद उनको कंट्रैक्ट मिल जाते हैं। ये मुद्दे हैं, जिनको जनता को सोचना चाहिए।

सवाल- हिंडनबर्ग-अडानी प्रकरण को आम जन कैसे समझें?

प्रो अरुण कुमार- अडानी 27 जनवरी को एफपीओ लेकर आये, जो 31 जनवरी को पूरा सब्सक्राइब हुआ। उसमें कहां से पैसा आया, अगर ये बात आप समझ लें तो सारी रणनीति समझ में आ जाएगी। जब ये एफपीओ आया तो 27 तारीख को मार्केट में उनके शेयरों का दाम गिर गया। मार्केट में अडानी के शेयर का दाम 2700 रुपये था और उनका सब्सक्रिप्शन भी फुल नहीं हुआ था। उन्होंने इसे अरेंज किया कि किसी तरह से फुल सब्सक्रिप्शन हो जाये।

फुल सब्सक्रिप्शन दो तरीके से हुआ। एक तो एयरटेल के मालिक सुनील मित्तल, सज्जन जिंदल आदि जैसे कुछ जाने माने अरबपतियों ने एफपीओ में पैसा डाला। जब अडानी के शेयर मार्केट में 2900 रुपये में बिक रहे थे, उन्होंने 3200 रुपये में क्यों ख़रीदे? क्या वे बेवकूफ हैं, जो 300 रुपये नुकसान पर शेयर खरीद रहे थे? उन्होंने पैसा इसलिए डाला, क्योंकि उनके ऊपर पोलिटिकल प्रेशर था। उनको ऐसा ऑर्डर था कि आप इसमें निवेश कीजिये। दूसरी तरफ विदेश से भी पैसा आया। वे भी तो मार्केट से ले सकते थे, फिर 3200 में क्यों ख़रीदा? क्योंकि काला धन भी तो आना था। यह तो उनका ही पैसा था, जो घुमा फिराकर वापस आया।

सवाल- क्या आप यह कह रहे हैं कि कालेधन को खपाने के लिए एफपीओ लाया गया था?

प्रो अरुण कुमार- यह तो हिंडनबर्ग की रिपोर्ट में है कि गौतम अडानी के भाई विनोद अडानी दुबई में बैठकर 70-75 शेल कंपनियाँ चलाते हैं। इस तरह काला धन बाहर जाता है और घुमा फिराकर वापस आ जाता है। ये जो पैसा वापस आया, इसे इनको कहीं न कहीं दिखाना था, इसलिए आप देखिए कि फरवरी 27 के बाद दाम फिर बढ़ने लगे और 7-8 दिनों तक बढ़े। उस समय राजीव जैन की कंपनी जीक्यूजी ने 15 हजार करोड़ रुपये इनको दिए, लेकिन ये 15 हजार करोड़ रुपये भी इनके लिए काफी नहीं हुए, क्योंकि गिरावट तो लाखों करोड़ रुपये की हुई थी। दूसरी बात यह है कि उस समय कान्फिडेंस गिर गया तो स्टॉक मार्केट खुद भी गिरने लगा, जिसे ये अभी तक कंट्रोल नहीं कर पाये हैं।

सवाल- जब काले धन को खपाने के लिए लाया गया था तो फिर एफपीओ वापस क्यों लिया गया?

प्रो अरुण कुमार- इन्होंने एफपीओ में जो निवेश किया, उसकी वजह से ही 24 जनवरी को इनका क्राइसिस बढ़ा। वरना आखिर वजह क्या है? इनके पास पैसा था। पैसा बचाकर रखा ही इसलिए था कि एफपीओ पूरा सब्सक्राइब हो। जब 25 तारीख से मार्केट में दाम गिरने लगा तो अपने स्टॉक को बचाने के लिए वे इस पैसे का इस्तेमाल कर सकते थे, पर उनको लगा कि एफपीओ में पैसा लगाना ज़्यादा ज़रूरी है, इसलिए उन्होंने स्टॉक में पैसा नहीं लगाया। जब अडानी इंटरप्राइजेज कंपनी के शेयर का दाम गिरने लगा तो अडानी की बाकी कंपनियों के शेयरों का दाम भी गिरने लगा। उनकी गिरावट एक लाख करोड़ रुपये तक हो गई।

अगर वे तुरन्त 20 हजार करोड़ रुपये का इस्तेमाल करके स्टॉक को गिरने से रोक लेते तो बाक़ी कंपनियों का शेयर नहीं गिरता। फिर जब एफपीओ सब्सक्राइब हो गया तो उन्होंने उसको रिवर्स कर दिया, क्योंकि वे चाहते थे कि वह पैसा वापस उनके पास आ जाये, ताकि वे उसको मार्केट में डाल सकें।

दूसरी बात यह थी कि उन्होंने अपने बढ़े हुए शेयर प्राइस पर बैंकों से बहुत ज़्यादा लोन लिया हुआ था। अगर आपके पास शेयर प्राइस 100 रुपये हैं तो बैंक 50 रुपये का लोन देते हैं। पर अगर 100 रुपये का शेयर है और 70 रुपये का हो जाये तो आपको उसमें 35 रुपये ही मिलता है, 15 रुपये आपको अतिरिक्त देना होता है। उन्होंने 1.1 बिलियन डॉलर लोन रीपेमेंट किया, ताकि बैंक की कार्रवाई से बच सकें। फिर जो पैसा यहां से बचा, उसे उन्होंने वहां डाल दिया, लेकिन तब तक चिड़िया हाथ से उड़ गई और प्राइस गिरता चला गया।

सवाल- अडानी प्रकरण में बाज़ार नियामक संस्थाओं की भूमिका को आप कैसे देखते हैं?

प्रो अरुण कुमार- सरकार ने इनकी बहुत ज़्यादा मदद की है। इससे हमारे स्टॉक मार्केट के वातावरण पर सवालिया निशान उठ खड़ा हुआ है। जब स्टॉक मार्केट में इतनी तेजी से पैसा आया, उनकी इक्विटी बढ़ी तो उसकी जांच क्यों नहीं हुई? सेबी को पहले ही जांच करना चाहिए था कि इतनी तेजी से पैसा आ रहा है, इतनी ज्यादा बढ़त हो रही है, तो इसके पीछे राज क्या है? प्रधानमंत्री पहले ऑस्ट्रेलिया गये। अडानी ऑस्ट्रेलिया में कोलमाइनिंग शुरू करने वाले थे। वहां मल्टीनैशनल बैंक ने पैसा नहीं दिया तो तुरंत एक बिलियन डॉलर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने दे दिया। क्या स्टेट बैंक में आरबीआई के नुमाइंदे नहीं हैं? उन्होंने सवाल क्यों नहीं उठाया? हमारी जो रेगुलेटरी एजेंसीज हैं, उन पर भी सवाल उठ खड़े होते हैं।

हिंडनबर्ग ने कहा कि पैसा गया और फिर घूमकर वापस आया। इनकी शेल कंपनियां बाहर हैं। जो ऑडिटर हैं, वे 22-23-24 साल के हैं, जिन्होंने ट्रेस कंपनी फ्लोट करके सारे एकाउंट का ऑडिट किया। तो क्या इतनी बड़ी कंपनी का ऑडिट इतने यंग ऑडिटर्स कर पाते हैं? इतनी बड़ी कंपनी को ऑडिट करने के लिए बहुत अनुभवी ऑडिटर चाहिए होते हैं। हिंडर्नबर्ग ने कहा कि ऑडिटर्स को भी मैनिपुलेट किया गया। राउंड ट्रिपिंग भी मैनिपुलेट की गयी। स्टॉक मार्केट भी मैनिपुलेट किया गया।

सवाल- अडानी प्रकरण का भारत की अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा?

प्रो अरुण कुमार- भारतीय बाज़ार के बारे में विदेशी पूँजी का दृष्टिकोण रहेगा कि पता नहीं वहां क्या-क्या गड़बड़ होता रहता है। अडानी के शेयर के कोलैप्स के निहितार्थ बहुत ज़्यादा हैं। पिछले 8-9 सालों से देश में जो नीति चल रही है, उसके फेल होने के बहुत ज्यादा आसार बन गये हैं।

सवाल- अडानी प्रकरण पूंजीवाद का चरमोत्कर्ष है या भयावह विकृति?

प्रो अरुण कुमार- यह विकृति है। अभी तक जो पूंजीपति थे, वे मिल-बांटकर कैपीटलिज्म चलाते थे। कुछ एक को मिल गया, कुछ दूसरे को मिल गया, कुछ तीसरे को मिल गया। लेकिन इनको जिस अति विस्मयकारी स्तर पर संसाधन मिले हैं, ऐसा पहले कभी नहीं था।

सवाल- क्या हिंडनबर्ग रिपोर्ट के पीछे कोई साजिश भी हो सकती है?

प्रो अरुण कुमार- हो सकता है कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट के पीछे किसी पूंजीपति का हाथ हो, क्योंकि उसको कुछ न मिल रहा हो। बड़े-बड़े पूंजीपतियों के बीच भी एक तरह का युद्ध हो रहा है कि यदि इसी तरह होता रहा तो हम लोग कहां जाएंगे। अडानी के कई प्रोजेक्ट रुक गये हैं। वे बैंक से बहुत पैसा ले चुके हैं। अब उनको बैंक से पैसा नहीं मिल रहा है, क्योंकि उनके शेयर का दाम गिर गया है।

सवाल- सरकार का दावा है कि 35 देश उनसे डॉलर की जगह रुपये में कारोबार करने को तैयार हैं। इसका परिणाम हमारी अर्थव्यवस्था पर क्या होगा?

प्रो अरुण कुमार- ये जो दौर है, इसे डिडॉलरइजेशन कहते हैं। यानी अभी तक जो व्यापार है, उसका 80% डॉलर में होता आया है, लेकिन जब से रूस-यूक्रेन युद्ध हुआ और अमेरिका ने रूस के रिसोर्सेस को फ्रीज कर दिया, तो अब कोई कह रहा है कि व्यापार रूबल में हो, कोई कह रहा है कि रुपये में हो, कोई कह रहा है कि चीनी करेंसी यूआन में हो। यह प्रक्रिया अभी धीमी है, क्योंकि जो फाइनेंशियल सेक्टर है, वह अभी अमेरिका के क़ब्ज़े में है। यह प्रक्रिया धीरे धीरे बढ़ेगी। यदि यूक्रेन युद्ध लम्बा चला तो हो सकता है कि यह प्रक्रिया तेज हो।

यूक्रेन युद्ध लम्बा चलने पर हो सकता है कि रूस से तेल लेने वाले चीन और भारत का रिजर्व अमेरिका फ्रीज कर दे, लेकिन चूंकि प्रक्रिया अभी बहुत धीमे है तो बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ रहा है। मेरा मानना है कि एक नई कोल्ड वार शुरू हो गई है। इस कोल्ड वार के चलते बहुत ज़्यादा उथल-पुथल होगी। सिर्फ़ डीडॉलराइजेशन ही नहीं, डीग्लोबलाइजेशन की भी मांग उठ रही है। डीग्लोबलाइजेशन इसलिए है कि कैपिटल को रोल करके हमारे देश में ही आना है और कहीं नहीं जाना है। सप्लाई में मंदी होती है तो उत्पादन डिस्टर्ब होता है।

सबसे पहले ट्रंप ने कहा था कि वे तमाम देशों से अपने कैपिटल को वापस अमेरिका लाएंगे। ट्रंप ने एक तरह से डीग्लोबलाइजेशन की मांग की थी। ये मांग और तेज हो जाएगी, अगर यूक्रेन युद्ध इसी तरह चलता रहा और अमेरिका ने चीन और भारत के खिलाफ़ कोई क़दम उठाया, लेकिन फिलहाल अभी ऐसा कुछ असर दिख नहीं रहा है।

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