साक्षात्कार
क्लाइमेट चेंज; इन दो शब्दों ने दुनिया को डिस्टर्ब कर रखा है. हम दो तरह की बातें अक्सर सुनते हैं. एक तो ये कि इससे दुनिया को क्या क्या और कैसे कैसे खतरे हैं और दूसरा ये कि इन खतरों से निपटने के लिए दुनिया भर के राजनीतिज्ञ क्या क्या राजनीति करने में मशगूल हैं। हममें से कम ही लोगों को इस बात का एहसास होगा कि यह दुनिया को उसके अंत तक भी ले जा सकता है. अगर आपको इस बात पर भरोसा नहीं हो रहा है, तो कोई बात नहीं, यह साक्षात्कार पूरा पढ़ने के बाद हो जाएगा. सोपान जोशी जल मल थल किताब के लेखक हैं और क्लाइमेट चेंज के मुद्दे पर लगभग पचीस सालों से सघन काम कर रहे हैं। क्लाइमेट चेंज का कांसेप्ट आखिर है क्या चीज़? क्या हमारे विकास में ही हमारे विनाश के बीज छुपे हुए हैं और क्या क्लाइमेट चेंज के दुष्प्रभावों से हम इस दुनिया को महफूज़ रख पाएंगे? इन्हीं और ऐसे ही सवालों पर सोपान जोशी से यह बातचीत की है नितिन ठाकुर ने.
सोपान जोशी नितिन ठाकुर
प्रश्न- क्लाइमेट चेंज की भारत में जो स्थिति है, सो तो है ही, लेकिन विदेशों में; खासकर विकसित देशों में, अपनी हर समस्या के समाधान के लिए जिनकी तरफ हम देखते हैं, उनकी क्या स्थिति है, वो क्या कर रहे हैं?
उत्तर- देखिये, उनके पास साधन बहुत ज्यादा हैं और आबादी का दबाव बहुत कम है. लेकिन इसके बावजूद मौजूदा दुनिया में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जो सीवर के साथ बिना प्रदूषण के सफाई का काम कर सके. मैं वाशिंगटन डीसी में रह चुका हूँ. वहां का ब्लू प्लेन्स सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट दुनिया भर में बहुत जाना जाता है. उसमें बहुत पैसा डाला गया है, मैंने अमेरिका के सीवेज मैनेजर्स के साथ भी समय बिताया है, इसका जवाब किसी के पास नहीं है, क्योंकि सभी मानते हैं कि यह सहज व्यवस्था नहीं है कि हम अपने मलमूत्र को बहाकर किसी नदी नाले में पहुंचा दें. अगर नदियों में डालने के बजाय इसे हम गड्ढों में भी डालते हैं, तो यह भूजल को दूषित करता है. पिछले 40-50 साल में हमने अपने भूजल का जो कबाड़ा किया है, वह डरावना है. इस बात का लेना देना इस बात से है कि आज गंगा में जितना आर्सेनिक मिल रहा है या गंगा के किनारे जितना कैंसर है, उतना और कहीं नहीं है. अब ये नदियाँ तो हमारी जीवन रेखा रही हैं. खासकर गंगा से हमारा नाता तो जीवन से लेकर मरण तक का रहा है. अब जीवन साइलेंट हो गया है. इनकी यह हालत हमने ही की है, अब हमारी नदियों में पानी नहीं, जहर बह रहा है, हमारी कल्पना का ताना बाना नालों से बना हुआ है, दरअसल नदी हमें समझ में ही नहीं आती, हम नदियों को नाला ही बनाकर रखना चाहते हैं, क्योंकि उसमें हमें विकास दीखता है, गंगा कोई सरकार के आदेश से नहीं बनी थी. इन नदियों की जो उम्र शोधों से पता चल रही है, वह लाखों करोड़ों साल में आंकी जाती है. तो जैसे ये हमारे बनाने से बनी नहीं हैं, वैसे ही ये हमारे खतम किये खतम भी नहीं होंगी. तुलसीदास जी की एक चौपाई है- सरिता जल जलनिधि महुं जाई, होइ अचल जिमि जिव हरि पाई।
नदी जानती है कि उसके पास जो पानी है, वह सारा सागर का है, वह अपना सारा पानी सागर तक पहुंचना चाहती है, क्योंकि सागर वही पानी बादलों के जरिये हमें लौटाता है. अब जो पानी सागर ने हमें दिया, यह नदी का काम है कि उसे समेटकर फिर सागर को लौटा दे, प्रकृति ने कैसा सुंदर यह चक्र रचा है! अब दुनिया भर के इंजीनियरों को इस बात से बहुत दुःख पहुंच रहा है कि बताइए भला, नदियों का सारा पानी सागर को जा रहा है। वे कहते हैं कि यह सारा पानी तो बर्बाद हो रहा है। ऐसा लगता है, जैसे उन्होंने पानी को पैदा किया हो। विज्ञान ने इस बात का पता लगाया है कि हमारे इस ग्रह पर पानी की हर बूँद अन्तरिक्ष से धूमकेतुओं के जरिये आई है. और पानी की हर बूँद जो इस गढ़ पर है, वह शुरू से ही रही है. आज जो पानी हमारी गिलास में है, हो सकता है कुछ लाख साल पहले वह किसी जीव का खून रहा हो, हो सकता है, वह डायनासोर का लार रहा हो, जो घूम फिर कर सागर तक पहुंच गया हो, सागर ने फिर हमतक पहुंचा दिया हो। कोई एक बूँद भी पानी बना नहीं सकता। एक तथ्य यह भी है कि कुल मिलाकर जितना पानी इस ग्रह पर था, वह बहुत धीरे-धीरे कम हो रहा है, क्योंकि अपना भोजन बनाने के लिए वनस्पतियाँ जब पानी को H2O में तोड़ती हैं, तो ऑक्सीजन रह जाता है और हाइड्रोजन ब्रह्माण्ड में मिल जाता है. आप जानते हैं कि हमारा ब्रह्माण्ड हाइड्रोजन से बना है. इसमें 75% हाइड्रोजन है. ऐसा माना जाता है कि सौर मंडल के इस ब्रह्माण्ड में, जब यह बना था, तो कुल मिलाकर हाइड्रोजन ही था इस हाइड्रोजन से सितारों के गर्भ में दूसरे तत्व बनते चले गये. इस तरह से देखें तो हम सब सितारों के अंश हैं, हम सब सितारे हैं, उसी में से पानी बना, पानी कैसे बना, इस पर एक वर्णन मिलता है, जेपलिन नाम के बहुत बड़े गुब्बारे बनाये गये और एक जेप्लिन में आग लग गयी थी, हाइड्रोजन भरके उसे उड़ाते थे, क्योंकि वह हल्की गैस होती है. उसमे जब विस्फोट हुआ, तो इतनी ऊर्जा निकली कि उसके भीतर का हाइड्रोजन वातावरण में मौजूद आसपास की ऑक्सीजन से टकराया और इस तरह पानी बना. यानी हाइड्रोजन को ऑक्सीजन से जोडकर पानी बनाने के लिए इतनी बड़ी ताकत की जरूरत पड़ेगी. प्रकृति की ये चीजें हमें सितारों से मिली हैं, जिन्हें हम यूँ ही बर्बाद किये जा रहे हैं. अब ये लोग कहते हैं कि जो पानी हम गंदा करते हैं, उसका शोधन करके फिर साफ़ पानी निकाल लेते हैं. कितने बड़े बड़े भ्रम रच दिए गये हैं. दिल्ली का पानी क्यों नहीं साफ़ कर लेते? गंगा के किनारों का आर्सेनिक क्यों नहीं साफ़ कर लेते? दिल्ली में 22 किलोमीटर की यमुना का पानी वजीराबाद बाँध पर ऊपर जहाँ हरा नीला दीखता है, वहीं से यमुना का सारा पानी दिल्ली निकाल लेती है और मलमूत्र मिला हुआ अपना सारा सीवर उसके ठीक नीचे यमुना में ही मिला देती है, कभी इसी जगह पर साही नाम की एक बहुत पुरानी नदी आकर यमुना से मिलती थी, गूगल मैप पर आज भी देखिये तो वजीराबाद के ऊपर का पानी हर नीला है और उसके नीचे का पानी काला है।
ग्रीन हाउस गैसों का धरती और जीवन पर प्रभाव
प्रश्न- ये हमने क्या तरक्की की है, अगर हम इतनी पुरानी, इतनी व्यापक और इतनी जेन्यूइन समस्या का ये हल ढूंढ पाए कि अपना मलमूत्र अपनी जीवनदायिनी नदियों ही में डाल दो. करना क्या चाहिए, ये हम समझ नहीं पा रहे हैं या समझना ही नहीं चाहते? पिछले पचीस-तीस साल का आपका अनुभव क्या कहता है? आपने क्या पाया, जिन पर ये जिम्मेदारियां हैं, उनकी वास्तविक पोजीशन क्या है?
उत्तर- मैं इसे एक प्रकार का अन्धविश्वास मानता हूँ कि ज्यादा जानकारी होने से हम चीज़ों को ठीक कर सकते हैं. होता ये है कि ज्यादातर चीजें हमारे बस में ही नहीं होतीं, हमें इसका बोध होना चाहिए कि क्या हमारे वश में है और क्या नहीं है. हिमालय तो हमारे वश में नहीं है, अब ऐसे में हमें हिमालय में वैसी सड़कें नहीं बनानी चाहिए, जो वहीं के लोगों पर भारी पड़ जायं। उत्तर भारत, जिसे नदियों का इलाका कहते हैं, वह निचला इलाका है, इसके एक तरफ तो हिमालय नाम की दुनिया की सबसे बड़ी दीवार है और दूसरी तरफ विन्ध्य आदि पर्वतमालाएं हैं, जो बहुत पुरानी हैं. इन दोनों के बीच में यह कटोरे जैसा इलाका है, जहाँ नदियाँ होने के कारण हमारा रहना बहुत सुविधाजनक है. दुनिया की सबसे घनी आबादी वाले इलाके सिन्धु, गंगा, ब्रह्मपुत्र और चीन की येलो रीवर तथा मीकांग नदियों के बीच के इलाके हैं. ऐसा क्यों? क्योंकि नदियाँ केवल पानी नहीं हैं, ये उर्वरा मिटटी भी ले आती हैं। जहाँ-जहाँ नदियाँ इस मिटटी को जमाती जाती हैं, वहां-वहां रहना आसान होता जाता है और नई-नई सभ्यताएँ जनमती जाती हैं. अपने चारों और विशाल हिमालय और दूसरी पर्वतश्रृंखलाओं से घिरा हुआ यह दुनिया का सबसे निचला इलाका है. हिमालय की बर्फीली चोटियों से टकराकर ठंडी हवाएं इन इलाकों में आती हैं। इन निचले इलाकों में जो धुआं पैदा होता है, वह इस कटोरे जैसी गहराई वाले इलाके से बाहर नहीं निकल पाता. किसी और इलाके में ये धुआं हो तो हवाएं उसे उड़ा ले जाती हैं, पर सिन्धु और गंगा आदि के मैदानों से निकलने वाला धुआं यहीं का होकर रह जाता है क्योंकि इस पूरे इलाके के आसमान में हवा की एक ठंडी चादर है। प्रकृति का नियम है कि गरम हवा ऊपर जाती है, लेकिन यह गरम धुआं ऊपर जाता तो है, पर ठंडी चादर से टकराकर वापस लौट आता है. इसे इन्वर्जन कहते हैं. हमारे साहित्यकारों ने अपने विपुल साहित्य संसार में जीवन की अनेक जिन्दा कहानियों का वर्णन करते हुए गाँवों के चूल्हों से उठने वाले धुएं को आसमान में खड़े होकर उठते हुए देखा है. ऐसे निचले इलाकों में धुआं कम से कम होना चाहिए, लेकिन आप देखिये कि हमारे कारखानों की चिमनियाँ तो धुआं ही धुआं उगल रही हैं। यहाँ कारखाने कम होने चाहिए, गाड़ियाँ कम होनी चाहिए, निजी परिवहन की तो व्यवस्था ही खत्म कर देनी चाहिए। केवल सार्वजनिक परिवहन होना चाहिए। आप देख लीजिये, तीनों महानगरों के कुल ट्रैफिक से ज्यादा अकेले दिल्ली का ट्रैफिक होता है. दिल्ली में आप देखें तो एक-एक घर में पांच-पांच गाड़ियाँ मिल जायेंगी। अब जब लोकजीवन का दम घुटने लगता है, तो व्यवस्था से जुड़े लोग विशेषज्ञ बुलाकर लाते हैं कि देखो भई, इसे कैसे ठीक किया जा सकता है? अब ये कोई हमारे घर का एग्जास्ट फैन नहीं है कि एक खटका दबाया और हवा साफ़ कर ली, ये वो व्यवस्था है, जिसने हमको बनाया है और हम वो हैं, जो खुद को इसका नियंत्रक मान के बैठे हैं। हम समझते हैं कि हम सरकारी नीतियां बनाकर प्राकृतिक नीतियों को अपनी मुट्ठी में ले लेंगे. हमने प्रकृति की इज्जत करना छोड़ दिया. हम प्रकृति के प्रति कृतज्ञ नहीं रहे. हम कृतघ्नों की जमात हैं. अपने समाज के प्रति, अपने लोगों के प्रति, अपने परिवेश के प्रति, अपने पर्यावरण, अपनी मिट्टी, अपनी नदियों, अपने तालाबों के प्रति, अपने वृक्षों, वनों, जीवों के प्रति हम कृतघ्न होते चले गये क्योंकि हमें यह अहंकार हो गया है कि एक तो हम परम ज्ञानी हैं, दूसरे हमें विकास करना है और उसका सलीका हमें आता है. आज राजनीतिक क्षेत्र का हर आदमी विकास का वादा करता है। आप अपना इतिहास उठाकर देखिये; इतनी सभ्यताएँ, इतने साम्राज्य, इतने राज्य और इतने राजा हुए, कभी किसी ने विकास किया क्या? कभी किसी ने विकास विकास चिल्लाकर जनता को भरमाया क्या? कहीं पढ़ा है क्या कि राजा राम ने अयोध्या का विकास किया? कृष्ण ने गोकुल या मथुरा का विकास किया? विकास नाम की यह शब्दावली और इसका पूरा कांसेप्ट केवल तबसे चलन में आया, जबसे विश्व बैंक अस्तित्व में आया. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और यूरोप का अस्तित्व बचाने के लिए विश्व बैंक का निर्माण किया गया था। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक दोनों का निर्माण किया ही इसलिए गया था कि अमेरिका समेत यूरोप के सारे ताकतवर देश विकास के नाम पर दुनिया के बाकी देशों पर अपना अधिपत्य बनाकर रख सकें, मतलब उनका दिया हुआ ज्ञान हम अमृत मानकर पी रहे हैं। हर कोई कहता है कि विकास की राजनीति होनी चाहिए. अब इस पागलपन में समझदारी की बात कौन करे?
प्रश्न- क्लाइमेट चेंज के सवाल पर दुनिया भर में इतना शोर है, एक तरफ इसके खतरों को इंगित किया जा रहा है, तो दूसरी तरफ खाए पिए अघाए लोग हैं, जो इसे खतरा मानते ही नहीं, आपको क्या लगता है, यह खतरा एक सच्चाई है? क्या हम बचेंगे इस खतरे से?
उत्तर- कौन बचेगा, कौन नहीं बचेगा, दरअसल यह हमारे हाथ में नहीं है। हाँ, ये जरूर सही है कि जो हमारे हाथ में था, वो हमने नहीं किया. जो हमारे हाथ में है, वो हम नहीं कर रहे हैं। यह नहीं करने का जो सबसे बड़ा कारण है, वह है राष्ट्रवाद, यह जो हम अपनी कब्र खुद ही खोदने में लगे हुए हैं, उसका जो फावड़ा है, वह राष्ट्रवाद है। पिछले तीस सालों से यह परम्परा चली आ रही है. लगभग इसी समय दुनिया के सभी देश दुनिया के किसी एक कोने में इकट्ठा होते हैं और इस बारे में चर्चा करते हैं कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले खतरों को रोकने के लिए क्या करना है और किसे करना है। एक पत्रकार होने के नाते ऐसी दो बैठकों को कवर करने का मौका मुझे मिला है। मैंने देखा है कि इनमें बहुत लम्बे-लम्बे भाषण होते हैं, नीतियों के उपदेश होते हैं. बहुत हृदयविदारक बातें की जाती हैं। वहां कहा जाता है कि यह धरती हम सबकी साझा विरासत है और इसको बचाने के लिए हमें बहुत कुछ करना है, लेकिन जो कुछ भी करना है, वह आपको करना है, क्योंकि हम तो विकास कर रहे हैं। मैंने तो यह पाया है कि जलवायु परिवर्तन का संकट मनुष्यता के इतिहास में उपस्थित हुआ अबतक का सर्वाधिक जटिल प्रश्न है और इससे बड़ा और जटिल कोई दूसरा प्रश्न आएगा भी नहीं। मैंने दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों में इनवायर्नमेंट साइंस पढ़ाने वाले ऐसे प्रोफेसर देखे हैं, जिन्हें पता ही नहीं है कि क्या होता है क्लाइमेट चेंज? हालत ये है कि मैं जहाँ भी जाता हूँ, दुनिया के हर कोने में हर तरह के लोगों से मैं यह सवाल जरूर पूछता हूँ कि क्लाइमेट चेंज क्या है। कोई बता ही नहीं पाता, क्योंकि कोई जानता ही नहीं, समझता ही नहीं। विडम्बना देखिये कि दुनिया के लगभग सारे देश तीस सालों से इसी विषय पर सर जोडकर बैठते हैं और आजतक किसी को यह नहीं समझा पाए कि यह बला क्या है. चीन, इंडोनेशिया, बांग्लादेश और भारत; ये वे चार देश हैं, जिन पर क्लाइमेट चेंज की सर्वाधिक गाज गिरने वाली है, क्योंकि इनकी घनी आबादी के इलाके उन इलाकों में हैं, जहाँ जलवायु परिवर्तन की मार सबसे ज्यादा पड़ने वाली है।
प्रश्न- अच्छा तो अब जो प्रश्न पहला होना चाहिए था, संदर्भ आया, तो उसे यहाँ पूछ लेते हैं। आप ही समझाएं कि क्लाइमेट चेंज का अर्थ कोई क्या समझे?
उत्तर- कुछ मोटी-मोटी बातें हम सभी जानते हैं. जैसे हमारे वातावरण में ग्रीनहाउस गैसें बढ़ रही हैं, जिससे धरती का तापमान बढ़ रहा है, इससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं, समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, धरती घट रही है और जो बच रही है, वह रहने या उत्पादन के योग्य नहीं बच रही है। अब सवाल है कि ये सब हो क्यों रहा है? किन कारणों से ग्रीनहाउस गैसें बढ़ रही हैं? इसके मुख्यतः दो कारण हैं, पहला कोयला और दूसरा पेट्रोलियम, यानी जीवाश्म वाले ईंधन। सारी औद्योगिक क्रान्ति इन्हीं दोनों पर आधारित है. हम जिसे आधुनिकता कहते हैं, वह बस कोयला है और पेट्रोलियम है. हमने यह सब बहुत सुन रखा है कि औद्योगिक क्रांति ब्रिटेन में क्यों हुई? यहाँ क्यों नहीं हुई? इंग्लैण्ड के मिडलैंड्स में जितना कोयला मिल जाता था, उतना दुनिया में कहीं किसी के पास नहीं था. अब जहाँ कोयला था, वहां औद्योगिक क्रांति हुई। सीधी सी बात है कि जिन्होंने जितना ज्यादा औद्योगिक विकास किया है, उन्होंने उतना ज्यादा कोयला जलाया है. जिन्होंने ज्यादा कोयला जलाया है, वही ग्रीनहाउस गैसें बढ़ाने के कारण बने और क्लाइमेट चेंज के भी।
प्रश्न- ग्रीनहाउस गैसों को कैसे समझें? जो किताबों में लिखा है…
उत्तर- जो किताबों में लिखा है, वो पढ़ने वालों को डराने के लिए लिखा है, समझाने के लिए नहीं लिखा है. हमलोग सौरमंडल का हिस्सा हैं, हमारी अधिकतम ऊर्जा हमें सूर्य से मिलती है। सालभर में मनुष्य की जात कुल मिलाकर जितनी बिजली इस्तेमाल करती है, उससे कहीं ज्यादा ऊर्जा सूरज एक दिन में ही दे देता है. इस ऊर्जा की मात्रा इतनी अधिक है कि अगर वह अन्य ग्रहों पर न जाए और केवल धरती पर ही आये तो पूरी धरती को जला डालेगी. होता यह है कि सूरज 12 घंटे धरती के एक तरफ और 12 घंटा धरती के दूसरी तरफ होता है. हमारे पास सूरज की गरमी प्रकाश के रूप में आती है, लेकिन अन्तरिक्ष में एक अदृश्य विकिरण से जाती है, जिसको इंन्फ्राटेड रेडिएशन कहते हैं. ये दीखता नहीं है.अगर सूरज की सारी गरमी अन्तरिक्ष में ही चली जाए, तो धरती का औसत तापमान 0-18 डिग्री सेल्शियस नीचे चला जाएगा. आज पृथ्वी का औसत तापमान 16 डिग्री सेल्शियस है। यह एक बारीक संतुलन है कि सूरज की जरूरत से ज्यादा गरमी धरती पर रुकनी नहीं चाहिए, पृथ्वी के कुल साढ़े चार अरब साल के इतिहास में लगभग 85% समय तक हवा में ऐसी गैसों की मात्रा ज्यादा होती थी, जो सूरज की सारी गरमी को धरती पर नहीं आने देती थी, रोक लेती थी. इस 85% समय में पृथ्वी ग्रीनहाउस कंडीशन में रही और 15% समय आइसहाउस कंडीशन में रही. यह वह समय था, जब ग्रीनहाउस गैसें इतनी कम हो गयी थीं कि बरफ जम गयी। मनुष्य स्तनपायी जीव है, आइसहाउस कालखंड में ही बनकर तैयार हुए। अब हम इस ग्रह को उस ओर लेकर जा रहे हैं, जो डाइनासोर्स के रहने लायक थीं। आप जानते हैं कि सरीसृपों में अपना शरीर गर्म रखने की ताकत नहीं होती, वे ठंड में नहीं रह सकते। जाड़ों में देखिये हमारे घरों की दीवारों पर छिपकलियाँ ज्यादा हिलती डुलती नहीं हैं. ठंड के दिनों में उनमे ऊर्जा ही नहीं बचती, उनको सूरज की गरमी चाहिए। अब ये गरमी का जो हिसाब किताब है, वह न धरती से तय होता है, न समुद्र से तय होता है. यह जलवायु से तय होता है. हमारे वायुमंडल में 78% की मात्रा में मौजूद नाइट्रोजन पर जब ये इन्फ्राटेड रेडियेशन पड़ता है, तो उसमें कोई बदलाव नहीं आता। शेष 21 % ऑक्सिजन भी नाइट्रोजन की ही तरह अपने दो परमाणुओं में बंधी होती है, उस पर भी कोई असर नहीं होता। इन्फ्राटेड रेडिएशन इनके बीच से होकर इन्हें बिना प्रभावित किये निकल जाता है। अब वातावरण के 0.96% हिस्से में ओर्गोन नाम की गैस होती है, ये मोनोएटोमिक नोबल गैस होती, यह किसी से कोई प्रतिक्रिया ही नहीं करती। यानि हमारे वायुमंडल की कुल 99.96% गैसें ऐसी हैं, जो इन्फ्राटेड रेडियेशन से कोई प्रतिक्रिया नहीं करतीं। इंफ्राटेड रेडियेशन के साथ सारी प्रतिक्रिया शेष वायुमंडल में व्याप्त 0.04% कार्बन डाई ऑक्साइड करती है। कार्बन में यह विशेष गुण होता है की वह लम्बी कड़ियाँ बना सकता है। इसीलिए इस पर मनुष्य की बहुत सारी निर्भरता भी होती है। कार्बन प्रतिक्रिया भी करता है और स्थिर भी हो जाता है. ऑक्सीजन बहुत प्रतिक्रियाशील गैस है, इसलिए आज भी कहीं कोई गड्ढा खोदिये तो ऑक्साइड मिलती है, क्योंकि वह लाखों करोड़ों साल पहले ऑक्सीजन से प्रतिक्रिया करके स्टेबल हो चुकी है. नाइट्रोजन स्टेबल है, ऑक्सीजन रिएक्टिव है। लेकिन कार्बन रिएक्टिव भी है और स्थिर भी है। इसीलिए वह लम्बी कड़ियाँ बना लेता है. CO2 में एक कार्बन और दो ऑक्सीजन है। इसकी एक लंबी कड़ी है, इस पर जब इन्फ्राटेड रेडियेशन पड़ता है, तो उसके कण नाचने और कांपने लगते हैं, इस घटना से इन्फ्राटेड रेडियेशन का एक हिस्सा पलट के वापस लौट आता है। और हमारे वायुमंडल को गरम करता है. जब जब पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा ज्यादा रही है, तब-तब पृथ्वी की गरमी बढ़ी है और पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ा है और जब कम रही है तब घटा है, पृथ्वी पर जब पौधे बढ़ते हैं, तो हवा से कार्बन निकाल लेते हैं। पृथ्वी के इतिहास में ऐसा कई बार हो चुका है, जब पृथ्वी पर वनस्पतियाँ बढ़ी हैं, तो आइसहाउस कंडीशन आ गयी. और जब वनस्पतियाँ कम होती हैं, तो वातावरण में कार्बन के साथ-साथ गरमी बढने लगती है। यह सब प्रकृति में होता रहता है, लेकिन अभी जो कार्बन बढ़ा है, वह हमारे जंगलों को जलाने से बढ़ा है। कौन से जंगल? वे जंगल, जो लाखों करोड़ों साल पहले जमीन के नीचे दब के कोयला और पेट्रोलियम बन गये. वही कार्बन खोदकर हम बाहर ला रहे हैं और जला रहे हैं. वही सब हमारी हवा में जा रहा है, जैसे क्राइम मास्टर गोगो होता है न, वह अगर तय कर ले की सारी दुनिया को नष्ट करना है तो सारे जंगल जला दे, इस तरह देखिये तो हम सब खुद अपनी धरती के क्राइम मास्टर गोगो बने हुए हैं, और क्राइम मास्टर गोगो आजकल विकास कर रहा है। हम जो ढूंढ रहे हैं न, कि इस क्लाइमेट चेंज का अपराधी कौन है, वे हम ही हैं. ये है जलवायु परिवर्तन की कुल कहानी।
हर देश की राजनीति पर्यावरण का शिकार करने में लगी हुई है, वोट कौन देता है? आदमी देता है. नदियाँ तो नहीं देतीं, वायुमंडल तो वोट नहीं देता, हिमालय तो नहीं देता वोट. तो जो वोट देता है, जो सरकार बनाता है, उससे वादे किये जाते हैं। तुम गाड़ियाँ ले लो, तुम मकान ले लो, हम और कोयला, और पेट्रोलियम जलाएंगे, तुम बिजली ले लो और हमें तुम्हारा विकास करने दो। हम नदियों को और निचोड़ेंगे और तुम्हें तुम्हारे घर में पानी लाकर देंगे। यह जो विकास का सम्मोहन है, इसने एक तो हमें कृतघ्न बना दिया, दूसरे अपनी ही कब्र खोदने का बहुत बड़ा औजार हमें लाकर दे दिया।
यह सभी परम्पराओं में रहा है कि जो भी विधाएं बड़े परिवेश में ज्ञान की बात करती हैं, वे त्रासदी की बात करती हैं. महाभारत के अंत में सभी मारे जाते हैं, राम कथा के अंत में राम को जल और सीता को पृथ्वी समाधि लेनी पड़ती है। जब बड़े दृश्य में हम चीज़ों को देखते हैं, तो वह बहुत सुविधाजनक नहीं होता। जलवायु और मौसम में अंतर होता है. मौसम वह है, जिसका प्रभाव हमें अपनी इन्द्रियों के जरिये महसूस होता है। गरमी पड़े तो त्वचा जलने लगती है, बारिश हो तो बाल भींग जाते हैं, बादल गरजते हैं तो हमें सुनाई पड़ता है, बिजली कौंधती है, तो हमारी आँखें उसे देख लेती हैं, पानी की बूँदें जब धरती पर पड़ती हैं, तो मिट्टी की बैक्टीरिया से उठने वाली सोंधी सी गंध हमारी नाक सूंघ लेती है, ये सब मौसम है। जलवायु इससे अलग है. जलवायु का मतलब पृथ्वी के सभी सजीव और निर्जीव तत्वों के संबंधों का औसत तापमान। हमारे शरीर का जो औसत तापमान है, वही शरीर की जलवायु है, हमारे सर, पेट, हाथ विभिन्न हिस्सों के अलग अलग तापमान होते हैं। इनका औसत ही शरीर की जलवायु कहलाता है। यह बिना नापे पता नहीं चलता। इसी तरह पृथ्वी की जलवायु हमें दिखती नहीं है, उसका बोध नहीं कर सकता कोई, यह हमारे इन्द्रियबोध से परे है। इसे समझने के लिए एक रूपक का सहारा लेते हैं. मौसम एक तरह का विग्रह है, मूर्ति है, उसे हम पूज सकते हैं और जलवायु यानी निराकार, यह हमारे इन्दियबोध के परे है, जलवायु को समझने का काम कोई रातोंरात नहीं हुआ है. इसका शुरुआती काम 1823 में फ्रांस के एक गणितज्ञ ने शुरू किया था, उसका नाम था जेम्स फूरियर, फूरियर का थर्मो डाइनामिक्स में बड़ा काम है, यानी तापमान किस विधि से बदलता है, पिछले दो सौ सालों में न जाने कितने वैज्ञानिकों और गणितज्ञों की जीवन भर की अथक साधना से धीरे धीरे हम समझ पा रहे हैं कि जलवायु क्या है, जलवायु परिवर्तन क्या है?अस्सी के दशक में आते आते इसका विज्ञान लगभग साफ़ हुआ। इसी समय हमें पता लगा कि हम अपनी कब्र खोद रहे हैं, नासा के एक वैज्ञानिक जेम्स हैनसन ने अमेरिकी संसद के सामने 1988 में इस बात की गवाही दी, उसके बाद अचानक दुनिया भर में यह चिंता व्यापी कि अब आगे क्या होगा। मजेदार बात ये है की उस साल अमेरिका में चुनाव था, दोनों प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने जनता से वादा किया की हम इसे ठीक कर देंगे. उस चुनाव में जीतकर राष्ट्रपति बने जॉर्ज बुश ने चुनाव के दौरान कहा था कि ग्रीनहाउस गैसों की बात करने वालों को व्हाइटहाउस इफेक्ट नहीं पता। जब मैं व्हाइट हाउस में आऊंगा तो दुनिया भर के नेताओं को इकट्ठा करके सब ठीक कर दूंगा. लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद उनको समझ में आ गया कि ग्रीनहाउस और व्हाइटहाउस की तुकबंदी वाला जुमला किसी काम नहीं आया। राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने अपने वैज्ञानिकों की जुबान पर लगाम लगानी शुरू कर दी. 1992 में चुनाव हारने से पहले जब वे रियो सम्मेलन में बोले कि हम अमेरिकी लोग अपने जीवन स्तर और शैली में कोई बदलाव करने को राज़ी नहीं हैं, तो दुनिया के देशों ने यह देखा कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश ने अपनेआप को बाकी पृथ्वी से अलग कर लिया। उस दौर में भारत की जैसी नैतिक साख थी, दुनिया के किसी दूसरे देश की नहीं थी. रियो में जो समझौते हुए, उनमें भारत की अहम भूमिका थी और दुनिया के सारे गरीब देश भारत के पीछे खड़े थे। तब से अबतक हमारी एक से एक सरकारों ने हमारी ऐसी गत बनाई है कि आज हमें कोई सुनने वाला नहीं है, आज हम भी अपराधियों के कठघरे में खड़े हैं।
प्रश्न- लेकिन ऐसा क्यों? हम तो अपने उसी पुराने स्टैंड पर आज भी हैं?
उत्तर- क्योंकि हमने मौकापरस्ती का सहारा लिया, बजाय ठीक कदम उठाने के। राजनीति में मौकापरस्ती भी उतने ही महत्व की चीज़ होती है, जितने महत्व की आदर्शवाद. सामने आदर्शवाद की बात करनी पड़ती है और पीछे से मौकापरस्ती की बात करनी पड़ती है। राजनीति ऐसे ही चलती है. इससे कोई दल अछूता नहीं है। ये सभी दलों का दलदल है. इसीलिए जलवायु परिवर्तन पर पिछले तीस सालों में कुछ नहीं हुआ।
प्रश्न- लेकिन हम तो विकासशील देश हैं, हमारी तो मजबूरी है दुनिया के सामने ताकतवर देशों की शर्तों पर चलना। ये तो अमीर देशों को आगे बढ़ना चाहिए, कुछ तो इसमें अनुदान आदि की भी डील हुई थी?
उत्तर- वे कुछ नहीं देंगे आपको, न टेक्नोलोजी देंगे, न पैसे देंगे। इसका तरीका यही था कि भारत अपनी नैतिक ताकत पर खड़ा रहता और गरीब देश हमारे साथ रहते तो अमीर देशों की नाक में नकेल डाल सकते थे। उसके लिए हमें पाप के इस विकास को छोड़ना पड़ता, लेकिन पाप के विकास से हमें बहुत प्यार है। उसका सम्मोहन हमारे भीतर बहुत गहरा पैठा हुआ है, साम्राज्यशाहियाँ सड़कों का निर्माण लोगों को लूटने के लिए करवाती थीं। आज उन्हीं सड़कों को हम विकास का मानक मान के बैठे हैं। अंग्रेजों ने भारत में रेल इसलिए नहीं चलाई कि उन्हें हमें कोई सुविधा देनी थी, उन्हें रसद बाहर निकालनी थी। सुविधा के फेर में अपनी आत्मा बेचना; ये मौकापरस्ती मनुष्य के स्वभाव में है. उसका परिष्कार करके राजनीति बनती है.
प्रश्न- आखिर इसका समाधान क्या है? अगर हम कहें कि गाँवों की ओर वापस लौट चलें? तो भी आप कहेंगे कि नहीं, मैं ये नहीं कह रहा हूँ. आखिर कौन है वह व्यक्ति, वह दल, वह देश या वह समूह, जो इस जहरीली हो रही जलवायु में जीने का रास्ता तलाशे और कैसे तलाशे?
उत्तर- बिलकुल आसान तरीका है. हमने असल में एक बहुत व्यवस्थित और जटिल झूठ बना लिया है, जो विकास पर आधारित है. ये हमको यह बताता है कि जबतक मैं और न खा लूँ, तबतक मुझे चैन नहीं है. मुझे और चाहिए. और कपड़े, और गाड़ियां, और साधन..कोई हद ही नहीं है. अलग बात है कि जिनके पास बहुत साधन हैं, वे बहुत सुखी भी हैं, ऐसा नहीं है. विकास ने हमें यह झांसा दिया है कि हम अकेले बैठकर खाएं तभी हम सुखी रहेंगे, जबकि भारतीय जीवन दर्शन में परिवार और समाज का कांसेप्ट व्यक्ति की तुलना में हमेशा से अधिक स्वीकार्य और व्यापक रहा है। आनन्द हमारे मन की वस्तु है, लेकिन सुख हमेशा दूसरों से मिलता है। दूसरों से मिलने वाली प्रशंसा और प्यार से मिलता है. लेकिन विकास हमसे कहता है की ये लो नई शर्ट और खुश रहो। यह जीवनशैली मानसिक रोगों का सबसे बड़ा स्रोत है. दुनिया में इस पर बहुतेरे शोध हैं कि जिन समाजों में साथ बैठकर खाना पीना, उत्सवादि मनाना नहीं रह जाता, वहां डिप्रेशन महामारी के रूप में आता है। चाहे वे कितने भी अमीर हों, चाहे उनके बड़े में सैकड़ों गाड़ियाँ हों। अमेरिका जैसे देश इसके उदाहरण हैं. हमारे यहाँ तो ऐसा नहीं है, आदिवासियों का जीवन देख लीजिये.
यूरोप में इवीक्सा का नाम सुना होगा. जब लोग खूब पैसे कमा लेते हैं तो क्या करते हैं? घूमने जाते हैं। अमेरिका, यूरोप. ऐसी ही एक जगह है इवीक्सा, वहां जाकर लोग एक साथ खाते-पीते, नाचते-गाते हैं, ये सब तो हमारे आदिवासी पहले से ही कर रहे हैं। नाचते-गाते, खाते-पीते खुशहाल लोग हैं, इसलिए खुशहाल हैं क्योंकि इनका विकास नहीं हुआ है। मनुष्य बिल्ली नहीं है, जो अकेले रह सके। मनुष्य कुत्तों की तरह है, जो झुण्ड में रहकर ज्यादा ऊर्जावान होते हैं। ये विकास हमें बिल्ली बनाकर छोड़ देता है।