ब्रह्मचर्य के प्रयोगों पर सवाल क्यों?

सुधीर चन्द्र ने एक किताब लिखी थी- गांधी एक असम्भव संभावना. यह किताब गांधी के अंतिम दिनों का मार्मिक दस्तावेज है. लेकिन बात केवल अंतिम दिनों की नहीं, आज हम गांधी की जिन्दगी से जुड़े सबसे मुश्किल सवालों पर चर्चा करेंगे. क्या गांधी ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में अहिंसक संघर्ष के अपने सिद्धांत की हार स्वीकार कर ली थी? गाँधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों की हकीकत क्या है? किसने कर दी थी गांधी की हत्या की भविष्यवाणी? आइये, इतिहास के इन पन्नों से रूबरू हों।

‘गांधी एक असंभव संभावना’ के लेखक सुधीर चन्द्र से नितिन ठाकुर की बातचीत

प्रश्न- क्या गांधी को एक असफल संत या असफल नेता मानना ठीक है? अपने आखिरी दिनों में उन्होंने खुद ही खुद को असफल माना. उन्होंने यह भी माना कि उनका प्रतिरोध अहिंसक नहीं रहकर, निष्क्रिय हो गया था. अपने जीवन के 32 साल, जो उन्होंने हिंदुस्तान में संघर्ष करते हुए बिताये, वह उनके निष्क्रिय प्रतिरोध का काल था अहिंसक प्रतिरोध का?

उत्तर- यह कहना बिलकुल अनुचित होगा कि गांधी निष्क्रिय प्रतिरोध कर रहे थे. उनके संघर्ष का स्वरूप निर्विवाद रूप से अहिंसक प्रतिरोध का था. यह उनको बाद में लगा कि जो लोग उनके साथ संघर्ष में शामिल थे, वे अहिंसा को नहीं साध पाए, दरअसल वही लोग निष्क्रिय प्रतिरोध कर रहे थे. गांधी तो अहिंसक प्रतिरोध ही कर रहे थे. यह जरूर है कि एक हद तक गांधी ने खुद को असफल माना, लेकिन इसके पीछे वजह ये थी कि जब आज़ादी बिलकुल नजदीक आकर खड़ी थी, तब देश में जो हिंसा और अमानवीयता का विस्फोट हुआ, वह उनके लिए असहनीय और अकल्पनीय था. वे दुखद आश्चर्य की भावना से भर उठे थे कि आखिर यह संभव कैसे हुआ. वे चिंतित थे. उनको लगा कि 32 साल के संघर्ष में अहिंसा की सार्वजनिक साधना की परिणति अगर इतनी रक्तिम है, तो फिर यह असफलता ही हुई. बहुत चिंतन-मनन के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इतने समय तक वे खुद, सारा देश और सारी दुनिया जिसे अहिंसक प्रतिरोध कह रही थी, वह अहिंसक प्रतिरोध था ही नहीं, निष्क्रिय प्रतिरोध था. लेकिन इससे गांधी असफल नहीं हो जाते. कोई भी महान व्यक्ति, जो इतना बड़ा विचार लेकर आता है और केवल विचार के धरातल पर ही नहीं छोड़ देता, उसे अमल में भी लाता है, उसे एक विशाल आन्दोलन में बदल देता है, उन्होंने निश्चित सफलता की सम्भावना तो इसी से दिखा दी. अपने समय में यदि व्यक्ति गांधी असफल भी हो जाता है, तो उससे यह सिद्ध नहीं होता कि गांधी का विचार असफल हो गया. क्योंकि गांधी तो मरने के बाद भी नहीं मरे. जब तक यह विचार जिंदा रहेगा और हमारे मनों को आंदोलित करता रहेगा, तबतक यह कहना गलत होगा कि गांधी असफल रहे. हो सकता है कि चार, पांच दशक के बाद हमें यह कहना पड़े कि गांधी संसार के सबसे सफल नेता थे.


प्रश्न- कभी नेल्सन मंडेला के रूप में, कभी मार्टिन लूथर किंग के रूप में या कभी बराक ओबामा (हमेशा जिनकी मेज पर गाँधी की प्रतिमा रहती थी) के शब्दों में गांधी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो सफल होते दीखते हैं, लेकिन जब वे खुद ये कहते हैं कि राष्ट्रीय आन्दोलन में वे खुद तो अहिंसक प्रतिरोध कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस सहित उनके साथ संघर्ष कर रहे लोग दरअसल निष्क्रिय प्रतिरोध कर रहे थे, तो ये क्यों न मानें कि कम से कम अपने अनुयायियों, अपने समर्थकों, अपने देशवासियों पर तो अपनी तपस्या का प्रभाव डालने में वे असफल रहे ही? अपने ही लोगों को अपनी बात समझाने में क्या वे नाकाम नहीं रहे?

उत्तर- मैं मानता हूं कि गांधी की अहिंसा को नेल्सन मंडेला या मार्टिन लूथर किंग के रूप में सफल बताना ठीक नहीं है. क्योंकि अमेरिका या दक्षिण अफ्रीका में जो कुछ हुआ, उसे अहिंसा की सफलता तो नहीं कह सकते. मान लीजिए, देश का बंटवारा न हुआ होता और साम्प्रदायिक हिंसा का वह ज्वालामुखी न फूटता, तब तो हम निस्संकोच कह रहे होते कि गांधी सफल रहे. भले दूसरे कई स्तरों पर हमें यह लगता कि देश ने अहिंसा को नहीं माना. ये मानने के अनेक कारण हो सकते हैं कि गांधी की अहिंसा सफल नहीं रही. उस दौर में गांधी, देश की अवाम और बाकी सभी के नेक इरादों के बावजूद अभी तक हमारे पास बड़े पैमाने पर अहिंसा की समग्र सफलता का कोई उदाहरण भी नहीं है. छोटे पैमानों पर भले अनेक उदाहरण मिलेंगे, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकलता कि अहिंसा संभव नहीं है.


प्रश्न- इतिहास के पन्नों पर दर्ज है कि भगत सिंह जैसा क्रांतिकारी गांधी से सहमत नहीं था, सुभाषचन्द्र बोस जैसा नेता भी उनसे सहमत नहीं था. दक्षिण अफ्रीका में अपने संघर्ष की सफलता के बाद भारत लौटे गांधी के पास संघर्ष का एक रास्ता तो था ही. ऐसे में उनके गुरु गोखले उनसे क्यों नहीं सहमत हो पा रहे थे? आखिर उन्होंने क्यों कह दिया कि गांधी का तरीका यहाँ नहीं चलेगा? वे क्यों नहीं भरोसा कर पा रहे थे?

उत्तर- गोखले बहुत साफ़ देख पा रहे थे कि उनके बाद की भारत की राजनीति गांधी के ही हाथ में थी. उनकी परेशानी यह थी कि गांधी ने भारत आते ही यह घोषणा कर दी कि मैं भारत में भी दक्षिण अफ्रीका के अपने प्रयोग दोहराऊंगा. ये बात गोखले के गले नहीं उतर रही थी और ऐसा मानने वाले गोखले अकेले आदमी नहीं थे. उनके अलावा भी अनेक लोग थे, जो इस विचार के थे कि भारत और दक्षिण अफ्रीका के भौगोलिक, सामाजिक और राजनैतिक हालात समान न होने के कारण दक्षिण अफ्रीका के प्रयोग भारत में सफल नहीं होंगे. असल में यह वह दौर था, जब देश में गांधी जी की खिल्ली उड़ाई जा रही थी. गांधी जी खुद भी खुद को शेखचिल्ली कह चुके थे. यानी गांधी जी 1916 में शेखचिल्ली थे. उनकी बात समझ में सबको आ रही थी, लेकिन उनको मूर्ख कहकर उनकी आदर्शवादी राजनीति से पल्ला झाड़ लेना सबको सुविधाजनक लग रहा था. तबतक वे हिन्द स्वराज भी लिख चुके थे, जिसे एक मूर्ख आदमी की रचना कहकर गोखले भी खारिज कर चुके थे. सौ सवा सौ साल बीत जाने के बाद आज भी हिन्द स्वराज के तर्क लोगों को समझ में नहीं आते. लेकिन ध्यान दीजियेगा, विज्ञान और विकास जब मनुष्यता को विनाश के कगार पर ला खड़ा करते हैं, अचानक जब युद्ध शुरू हो जाते हैं, संहार मच जाता है, हिंसा के कुचक्र चलने लगते हैं, कोविड जैसी महामारी सारी मनुष्यता को घेरने लगती है, तो वही तर्क सबको समझ में आने लगते हैं. भारत आने के दो साल बाद ही 1918 में जब गांधी रौलेट एक्ट के खिलाफ सत्याग्रह की घोषणा करते हैं, तो अचानक से 1916 के मूर्ख की बात सभी की समझ में आने लगती है. 1920 में जब देशव्यापी असहयोग आन्दोलन शुरू हो गया, तो गोखले समेत देश की तमाम लीडरशिप को लगने लगा कि भारत में दक्षिण अफ्रीका संभव है. 2022 में जब गाँधी ने चौरीचौरा आन्दोलन वापस ले लिया तो उसका विरोध जरूर हुआ, लेकिन आन्दोलन में जनता की भागीदारी देखकर, 1916 में गांधी की खिल्ली उड़ाने वालों की आँखें चुंधियाई हुई थीं. अचानक से सबको लगने लगा कि दक्षिण अफ्रीका की सफलता भारत में संभव है. 1929-30 में सविनय अवज्ञा के दौर में एक बार फिर लग गया कि हाँ, भारत में भी दक्षिण अफ्रीका संभव है. लेकिन विद्रूप का वह दौर एक बार फिर लौटा. 1947 में जैसे ही देश आज़ाद हुआ, देश के कर्णधार, चाहे वे पटेल हों या नेहरू, सब कहने लगे कि बापू, अहिंसा संभव नहीं है. अब सोचना तो हमें है कि हमारी वे कौन सी कमजोरियां हैं, जिनके कारण समूचे विश्व में स्वीकार्य इतने बड़े विचार के साथ हम इस तरह खेलते रहे. कभी लगने लगा कि वाह! क्या रास्ता है.. और कभी लगने लगा कि यह तो पागलपन है.

प्रश्न- ऐसा भी हो सकता है क्या कि कोई रास्ता, कोई विचार किसी ख़ास परिस्थिति में बहुत प्रासंगिक रहा, सफल हुआ और किसी दूसरी परिस्थिति में वही विचार न तो प्रासंगिक रह गया, न प्रभावी?

उत्तर- यह बात कहने-सुनने में ठीक लग सकती है, लेकिन यह भी अपनी-अपनी सुविधा की ही बात लगती है. सोचने की बात यह है कि आखिर कोई तो कारण है कि गांधी 1918, 20, 22, 29 और 30 का इंतज़ार नहीं करते. लोग उन्हें पागल कहेंगे, यह ख्याल छोडकर 1916 में ही पूरी दृढ़ता से खुद को व्यक्त कर देते हैं. आप इस बात को ऐसे समझिये कि देश में साम्प्रदायिक हिंसा फूट पड़ी है, मजहबी दुराव और संघर्ष चरम पर हैं. इतना ही नहीं, दो-दो परमाणु विस्फोटों से दुनिया दहल चुकी है, लेकिन एक आदमी है, जो अपनी आस्था नहीं छोड़ रहा है, अपने वैचारिक अधिष्ठान से रंचमात्र डिगने को तैयार नहीं है. अगर ऐसा एक भी विवेकशील पुरुष दुनिया में है, जो प्रतिकूल हो रहे समय की परवाह नहीं कर रहा, विचार की उत्कृष्टता को प्रभावशील करने में जुटा हुआ है, तो उसको आप अपनी सुविधा से नहीं बरत नहीं सकते. आज की दुनिया में अगर वैसा विवेक होता, तो कम से कम इस कोविड के दौर के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके होते कि आधुनिक विज्ञान में हमारी जो अनन्य आस्था है, उसका कोई तार्किक आधार नहीं है. यह विज्ञान तो अपने आप में अवैज्ञानिक सिद्ध हो चुका. इस महामारी ने जितने विशाल पैमाने पर संहार किया है, उसके लिए हम प्रकृति को कितना भी दोषी ठहराते रहें, लेकिन अगर कोविड के संहार ने हमें नहीं सिखाया, दो-दो परमाणु विस्फोटों नें हमें नहीं सिखाया, प्रकृति के अंतहीन दोहन से हम कुछ नहीं सीख पा रहे, रोज बढ़ रही हिंसा की प्रवृत्ति, नाश हो चुका पानी और हवा हमें कुछ नहीं सिखा पा रहे, तो अनुकूल होकर समय हमें क्या सिखा देगा? सिखाएगा तो वह प्रतिकूल समय ही, जो कम से कम हमसे हमारी वैचारिक निष्ठा का परिचय तो कराता है.

प्रश्न- कृपया एक चीज़ स्पष्ट करें कि यह अहिंसात्मक प्रतिरोध और यह निष्क्रिय प्रतिरोध; दोनों एकदूसरे के कितने दूर या कितने नजदीक हैं?

उत्तर- गाँधी की दृष्टि से देखें तो ये दोनों एकदूसरे से बहुत दूर हैं. दोनों में बहुत सीधा-सादा और बुनियादी फर्क है. असल में निष्क्रिय प्रतिरोध और अहिंसक सत्याग्रह के बीच का अंतर गांधी को भी बहुत देर से समझ में आया. 1909 में हिन्द स्वराज लिखने तक तो वे भी पैसिव रेजिस्टेंस की ही हिमायत करते हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनको यह समझ में आने लगा कि निष्क्रिय प्रतिरोध में जो अहिंसा है, वह डरपोक की अहिंसा है और सत्याग्रह की अहिंसा बहादुर की अहिंसा है. गांधी ने एनी बेसेंट का हवाला देते हुए कहा था कि गांधी जानते थे कि अंग्रेजों की तरफ फेंके गये एक रोड़े का जवाब भी गोली से मिलेगा और एटम बम बनाने की विद्या हमारे पास थी नहीं, इसलिए अहिंसा को हथियार बनाने वाले गांधी का सिक्का चल गया. कायर की अहिंसा के भीतर कहीं न कहीं दमित हिंसा होती है. अवसर मिलते ही वह उभरकर बाहर आ जाती है. फ्रायड ने इसी को ‘रिवेंज ऑफ़ द रिप्रेस्ड’ कहा है. आपको पता भी नहीं चल पाटा कि कब, कैसे और कहाँ से दमित इच्छाएं उभर आती हैं. अंग्रेज के जाते ही कायर की अहिंसा, हिंसा बनकर फूट पड़ेगी. यह बुनियादी अंतर है दोनों में. अहिंसा को यदि हम केवल व्यावहारिक स्तर पर स्वीकार करेंगे और आदर्श भूल जायेंगे, तो वह वास्तविक अहिंसा नहीं होगी. इसके पीछे का अन्तर्निहित तर्क यह है कि जैसे ही हालात आपके अनुकूल होंगे, अहिंसा आपसे छूट जायेगी.

प्रश्न- यह तो तय है कि गाँधी के दोनों बहुचर्चित अनुयायी नेहरू और पटेल उनके आदर्शों से प्रभावित होकर ही उनके अनुयायी बने. फिर ऐसा क्या हुआ कि आज़ादी के बाद की चुनौतियों के सामने खड़े होते ही दोनों को ही लगने लगा कि अब अहिंसा का विचार व्यावहारिक नहीं रह गया?

उत्तर- आप देखेंगे कि नेहरू जब गांधी के लिए कुछ भी लिखते या बोलते हैं, तो उनके लिए एक से एक और अनेक विलक्षण विशेषणों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन वही नेहरू अपनी आत्मकथा में एक जगह लिखते हैं कि उन दिनों हम मित्र लोग आपस में बातें किया करते थे कि ये जो इनका सनकीपन है, इससे हमें सचेत रहना होगा और आज़ादी मिल जाने के बाद तो इनको बिलकुल बढ़ावा नहीं देना होगा. ऐसा वे नैनी जेल की अपनी डायरी में भी लिखते हैं. ऐसा नहीं है कि वे उनकी इज्जत नहीं कर रहे हैं. बिलकुल घर-परिवार वाली स्थिति है कि घर का बुज़ुर्ग सबके सुख चैन के लिए परेशान है और सब मिलकर अकेले उससे परेशान हैं. बुज़ुर्ग अभिभावक के लिए सबके मन में आदर है, प्रेम भी है. लेकिन सब तय यही करते हैं कि अब इनके हिसाब से नहीं चलना है. इनको आज़ादी दिलानी थी, ये दिला चुके. अब इसका सत्यानाश कैसे करना है, वह हमलोग आपस में मिलकर तय करेंगे. क्योंकि ये अब सठिया गये हैं. यहाँ तक कि गांधी की हत्या के तत्काल बाद, जीवन भर उनके पीछे चलने वालों की त्वरित प्रतिक्रिया क्या रही होगी, अगर इस पर थोड़ा गहराई से विचार करें, तो पायेंगे कि हत्या की खबर सुनकर सारे के सारे जहाँ एक तरफ गहरे दुःख के सागर में डूब गये, वहीं दूसरी तरफ उन सबने अचानक से एक बहुत तीव्र किस्म की राहत भी महसूस की कि हमारे रास्ते का काँटा निकल गया. उन लोगों की मनःस्थिति का इससे ज्यादा सही वर्णन नहीं हो सकता. केवल यही दोनों नहीं, दूसरे बड़े नेता भी, बल्कि कहूँ तो जनता भी अब गाँधी से, उनके आदर्शों से अघा गयी थी, जैसे बहुत सारी मिठाई खा लेने पर मन अघा जाता है, लगभग ऊब जाना कहेंगे इसे, भारत के लोग भी कहीं न कहीं ऊब रहे थे गांधी से, गांधी की अच्छाइयों से. सुविख्यात साहित्यकार कृष्णा सोबती 1948 में 21 वर्ष की थीं. उन्होंने गाँधी की हत्या को पितृवध कहा. जैसा हम सबके अपने घर परिवारों में होता है, हम अपने बुजुर्गों से ऊब जाते हैं. शारीरिक हत्या भले न करें, पर मानस हत्या कई बार कर चुके होते हैं, इसलिए हमें इस द्वंद्व से निकल जाना चाहिए कि गांधी को गोडसे ने मारा. असल में तो गांधी को हम सबने मिलकर मारा. गांधी के प्रति गांधी के लोगों का रुख इतना पेचीदा है कि उसे ठीक-ठीक समझने के लिए हमें इन लोगों के साथ भी पूरी सहानुभूति रखकर सोचना पड़ेगा. नेहरू या पटेल के खिलाफ फतवा दे देना बहुत आसान काम हो जाएगा. हमें खुद को उनकी जगह रखकर सोचना होगा. इस तरह सोचकर देखिये कि अगर उस समय हम देश के प्रधानमन्त्री होते और गांधी हमसे कहते कि देश के विकास का मॉडल गाँव को केंद्र में रखकर बनाओ. बड़े उद्योग लगाओ, लेकिन वही लगाओ, जो बहुत जरूरी हों, उसमें भी उसकी संचालन व्यवस्था विकेन्द्रित होनी चाहिए, तो क्या हम मान लेते? क्या आज भी मानने को तैयार हैं? नेहरू और पटेल ने तो वही किया, जो उस समय पश्चिमी शिक्षा में दीक्षित मध्य वर्ग कर सकता था या आज भी कर सकता है.


प्रश्न- लेकिन गांधी बहुत खुलकर अपनी विरासत का उत्तराधिकारी नेहरू को चुनते हैं, बाकायदा उसका एलान भी करते हैं. गाँधी ने यहाँ तक कहा कि मेरे बाद जवाहर मेरी भाषा बोलेगा. अभी बहुत समय तो नहीं बीता, गांधी देश को नेतृत्व दे रहे थे और जितना हम सबने जाना है, तत्कालीन दुनिया के संदर्भ में वे भविष्य का आकलन भी बहुत ठीक-ठीक कर लेते थे. क्या यहाँ आकलन करने में गांधी चूक गये? या इसे विकल्पहीनता की स्थिति मानें कि गांधी ने सोचा हो, नेहरू पूरा नहीं तो औरों से बेहतर ही करेंगे?

उत्तर- मैं यह तो नहीं मानूंगा कि गांधी ने अपनी विरासत नेहरू को सौंप दी. गांधी अपने शब्दों के चयन में बहुत सावधानी बरतते हैं. असल में उनकी कुल विरासत के उत्तराधिकारी तो हम सब थे, और कहीं-कहीं नहीं भी थे. नेहरू को उन्होंने अपना राजनीतिक वारिस जरूर घोषित किया था. गौर करें तो पायेंगे कि लगभग 1926 से ही गांधी और नेहरू की सहमतियों में संगीन फर्क नजर आने लगे थे. उस दौर के उनके आपसी पत्र-व्यवहार पढने लायक हैं. वे दोनों किसी एक बिंदु पर मिल ही नहीं पा रहे थे. लेकिन उनके आपसी रिश्ते में, स्नेह और आदर के परस्पर सम्बन्ध में रंचमात्र भी दरार नजर नहीं आती. गांधी के बडप्पन की यह विशेषता थी कि कोई भी खुद को छोटा समझे बगैर उनमें श्रद्धा रख सकता था. इस आदर और प्रेम के निर्वाह की वजह गांधी भी थे, नेहरू भी थे. गांधी का सही मायने में अगर कोई आदर्श शागिर्द था, तो वे लोहिया थे. अलग बात है कि वे उस जगह कभी पहुंच ही नहीं पाए, जहाँ नेहरू पहुंच गये थे. इस जगह पहुंचकर गांधी के सामने दो रास्ते थे. एक तरफ पटेल थे, जिनके साथ लगभग पूरा संगठन था और दूसरे नेहरू, जिनमें उन्हें यह सम्भावना दिख रही थी कि गांधी की वैचारिक और राजनीतिक आवाज उन्हीं के कंठ से फूटेगी. चूंकि गांधी बहुत कुशाग्र मस्तिष्क रखते हैं और सारी समस्याओं पर पूरी समग्रता से सोचते हैं, तो वे यह साफ़ देख रहे हैं कि पटेल के जो अपने हित और सम्बन्ध हैं, वे आगे चलकर क्या रूप ले सकते हैं. उस समय के बड़े उद्योगपतियों से नेहरू के वैसे गहरे सम्बन्ध नहीं हैं, जो खतरनाक साबित हो सकें, जैसे पटेल के थे. इसी संदर्भ में हमें यह भी याद रखना होगा कि गांधी कह रहे थे कि मेरी अगली लड़ाई शिक्षित मध्यम वर्ग से होगी. आज़ादी के बाद देश की जो आंतरिक राजनीति होगी, अर्थनीति होगी, उस पर पटेल के आने का क्या अर्थ होगा और नेहरू के आने का क्या अर्थ होगा, यह गांधी से बेहतर कौन समझ रहा था भला! सब जानते हैं, गांधी के आर्थिक विचार मार्क्स के कितने नजदीक तक चले जाते हैं. ऐसे में कांग्रेस के भीतर राइटिस्ट धड़े के अगुआ कहे जाने वाले पटेल पर अपने सपनों का भार गांधी कैसे लाद देते! यह तो रहा देश की आन्तरिक नीतियों का सन्दर्भ; वैश्विक संदर्भ में विचार करें तो अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जो स्वीकार्यता नेहरू की थी, उस तुलना में पटेल देश के नेतृत्व के लिए कहीं से मुफीद नहीं बैठ रहे थे. गांधी ये तो जान रहे थे कि उनके हिन्द स्वराज पर अमल न नेहरू करने वाले हैं, न पटेल. लेकिन उनके दरिद्र नारायण के लिए अगर कुछ भी हो सकता है तो वह नेहरू के हाथ से ही हो सकता है, वे यह भी समझ रहे थे. इसलिए उनका यह फैसला सही था, सही साबित भी हुआ. वरना आर्थिक नवउदारवाद का दौर कहे जाने वाले अपने वर्तमान को देख लीजिए. वंचित तबके के लिए जो योजनाएं आयीं, जो नीतियाँ बनीं और जो अमल हुए, सब नेहरू के ही दौर के हैं. अब तो वंचितों के हकों की लूट और पूँजीपतियों को और अधिक मालामाल करते जाने की पद्धति को रिफॉर्म्स कहते हैं, सुधार कहते हैं. हम भाषा के साथ व्यभिचार के दौर में जी रहे हैं. अगर नेहरू की जगह पटेल आते तो जो 89 में शुरू हुआ, वह 47 में ही शुरू हो जाता.

प्रश्न- अब तो हम यह मान सकते हैं कि जो जादू दक्षिण अफ्रीका में चला, वह भारत में भी खूब चला और उसके मूल में अहिंसा थी. यद्यपि अहिंसा इस देश के लिए कोई नया शब्द नहीं था. इस शब्द के साथ बुद्ध गांधी से पहले ही आकर जा चुके थे. लेकिन किसी आदर्श से परिचित होना एक बात है और उस पर व्यवहारिक रूप से अमल करना बिलकुल दूसरी बात है. तिसपर गांधी ने तो राजनीतिक जमात पर भी यह प्रयोग आजमाया. यह कैसे संभव हो पाया कि ऐसे-ऐसे लोग, इतने सारे लोग अहिंसा का अनुगामी होने चल पड़े?

उत्तर- न केवल भारत में, बल्कि दुनिया में भी विचार के स्तर पर अहिंसा का स्थान तो रहा है. न केवल बुद्ध, बल्कि ईसा भी अहिंसा के प्रवर्तक रहे हैं. भारत के संदर्भ में एक ख़ास बात ये है कि यहाँ व्यवहार के स्तर पर भी अहिंसा की एक परंपरा रही है. गांधी उस परंपरा से पूरी तरह वाकिफ थे. कोई धनिक आपका पैसा आपको नहीं दे रहा, आप उसके सामने धरना दिए बैठे हैं. कोई राजा आप पर करों का बोझ लादे जा रहा है, आप काम छोड़कर घर बैठ गये हैं; इस तरह के अनेक उदाहरण लोकजीवन में मिलते हैं. आप समझ भले न पा रहे हों कि यह आपका सत्याग्रह है, पर है तो अहिंसात्मक प्रतिरोध ही. इन तरीकों से सिद्धांत और व्यवहार दोनों स्तरों पर हमारा परिचय था. लेकिन गांधी की अहिंसा को इसलिए नहीं स्वीकार कर लिया गया कि यह हमारी परंपरा में था, इसलिए स्वीकार कर लिया गया कि तब का राजनीतिक तबका भी और आम जनता भी यह समझ रहे थे कि अगर इधर से एक रोड़ा भी फेंका, तो उधर से गोलियां चलेंगी. इसको इस तरह भी कह सकते हैं कि उस वक्त लगभग दो तिहाई दुनिया पर राज कर रहे अंग्रेजों की, तोपों से लैस सशस्त्र सेनाओं से जूझने का तरीका किसी को नहीं मालूम था और गाँधी एक अचूक रास्ते की सफल आजमाइश विदेशी धरती पर करके दिखा चुके थे.

प्रश्न- चलो दोस्तों, पुलिस के सामने नारे लगाने हैं. और ये नारे उन्हें चिढ़ायेंगे. और उनके हाथ में बंदूक है, जिसे चलाने में उनके सामने कोई संकट भी नहीं है. आपको उन्हें गाली नहीं देनी है, लेकिन वहां से भागना भी नहीं है. खड़े रहना है और सत्ता का विरोध करते हुए सत्ता के सामने खड़े रहने का दंड भुगतना है. आम, भयातुर, गरीब और सदियों से गुलाम लोगों को यह समझा लेने का कोई मैकेनिज्म तो रहा होगा गांधी के पास. वह क्या था?

उत्तर- एक उदाहरण देता हूं. पंडित सुन्दरलाल गरम दल के बड़े क्रांतिकारी थे. वे गांधी से मिलने पहुंचे. गांधी उस वक़्त उनके सामने बैठी हुई एक छोटी सी बच्ची के बालों से जुएँ निकाल रहे थे और सामने एक कटोरी में पानी रखा हुआ था, उन जुओं को वे उसमें डालते जाते थे. पंडित सुन्दरलाल अपनी गतिविधियों से उन्हें सूचित कर रहे थे कि बापू, अमुक मोर्चे पर हमारे इतने आदमी हैं. अमुक जगह पर हमारे इतने हथियार हैं. और अमुक-अमुक हमारी तैयारी है. विस्तार से और देरतक उनकी सारी बातें सुनने के बाद गाँधी ने उनसे कहा कि लेकिन अंग्रेजों के पास तो आपसे ज्यादा सेना और हथियार दोनों हैं. आपको नहीं लगता कि आप अपने साथियों की जान लेने के सारे जतन करके यहाँ आये हैं? पंडित सुन्दरलाल बताते थे कि जब मैं आश्रम से निकला तो गांधी का अनुयायी हो चुका था. कहने का आशय यह है कि गांधी बड़ी सफाई से लोगों को यह समझा लेते थे कि जिनसे आपका मुकाबला है, वे लोग भी आप ही की तरह इंसान हैं. उनके पास भी हृदय है, उनके भी परिवार हैं, वे भी हमारी ही तरह हँसते, रोते, दुखी और सुखी होते हैं. पहले तो आप उनसे प्रेम कीजिये. उनकी इंसानियत पर भरोसा रखिये. उनको यही तो बताना है कि वे हमारे साथ जो कर रहे हैं, वह गलत है. यह समझाने के लिए उन पर हमला करने की क्या जरूरत है? आप उन पर हमला करेंगे तो वे आपसे बदला लेंगे. और होगा क्या, वे तो आपसे ज्यादा ताकतवर हैं. आप उनके दिल पर चोट क्यों नहीं करते? उनकी इंसानी भावनाएं क्यों नहीं जगाते? उनकी करुणा क्यों नहीं जगाते? उनके भीतर की मनुष्यता को क्यों नहीं आवाज़ देते? उनका मन बदल जाय तो क्या परिस्थितियाँ नहीं बदल जायेंगी? हमारी जो परिस्थितियां हैं, उनमें इस तरीके के कारगर होने की बड़ी संभावनाएं भी हैं. लोगों को अपनी बात समझाने का ये था गांधी का मैकेनिज्म.

प्रश्न- यह बात तो बाद में भगत सिंह को भी समझ में आयी कि जिनके लिए यह सारी लड़ाई है, बिना उन्हें विश्वास में लिए, बिना किसी संगठन के, यूँ ही यहां-वहां हिंसा करना ठीक नहीं है. इसी बिंदु पर पहुंचकर गांधी उन्हें समझ में आने लगे थे. उन्होंने कहा भी कि खेतों, खलिहानों, गावों, सिवानों में फ़ैल जाओ और लोगों को अभियान से जोड़ो. गांधी यह काम पहले से ही कर रहे थे. इस बारे में कुछ तफसील से बताएं.

उत्तर- गांधी के सन्दर्भ में यही असल बात है. उनके रचनात्मक कार्यक्रमों की चर्चा किये बिना गांधी का आकलन पूरा नहीं होता. बस इतना समझना काफी होगा कि गांधी जब कोई आन्दोलन नहीं कर रहे होते थे तो किसी न किसी रचनात्मक अभियान में लगे होते थे. चरखा चला रहे होते थे. छुआछूत मिटा रहे होते थे. खुद आगे बढकर उदाहरण पेश कर रहे होते थे. समाज को जीना सिखा रहे होते थे. लोगों में साहस भर रहे होते थे. जनसमुद्र को अहिंसक संघर्ष के लिए तैयार कर रहे होते थे. लोगों को आज़ादी के आन्दोलन से जोड़ रहे होते थे. उन्हें निर्भीक बना रहे होते थे. हुकूमत से संघर्ष की बिसात एक तरफ और राष्ट्र को रचने का विधान दूसरी तरफ; गांधी खुद को अपने सपनों में खो चुके थे.


प्रश्न- गांधी की आवाज़ कमजोर थी. बहुत धीरे बोलते थे. उनकी हिंदी ही नहीं, उनकी अंग्रेजी पर भी गुजराती एक्सेंट का प्रभाव होता था. आज संचार क्षेत्र में आयी क्रांति के बाद भी ऐसा नहीं हो पाता कि इतने बड़े देश में हम सबतक अपनी बात पहुंचा पायें, सबको अपनी बात मनवा पायें. यहाँ तो उत्तर वालों की बात दक्षिण वाले नहीं सुनते. पश्चिम वालों की बात पूरब वाले नहीं सुनते. और उस समय तो संचार के साधन भी बेहद सीमित थे. गांधी अपनी बात सबतक कैसे पहुंचा पाए? सबसे कैसे मनवा पाए?

उत्तर- गांधी की आवाज़ में गजब की सच्चाई होती थी. जो महसूस करो, वही बोल भी सको, यह बहुत मुश्किल काम होता है. और चूँकि यह आदमी सत्य का पुजारी था, तो यह तपस्या थी गांधी की. बुद्ध कहते हैं कि जिस जुबान ने कभी असत्य न बोला हो, उससे एक सुगंध फूटती है. भाषा की उस पारदर्शिता को महसूस करने की कोशिश कीजिये कि जब गांधी बोलते होते थे, तो एक सच्चा आदमी बोल रहा होता था. दिशाओं में उन शब्दों की सुगंध फ़ैल जाती थी. जहाँ तक उनकी भाषा और आवाज़ के कमजोर होने का सवाल है, तो इसे ऐसे समझें कि जैसे उन्होंने सोच समझकर पहले अपना पश्चिमी लिबास छोड़ा, फिर साफा छोड़ा, फिर अंगरखा छोड़ा और धीरे-धीरे आधी धोती पर आ गये, ठीक वैसे ही उन्होंने अपनी भाषा पर भी काम किया. कोई दोहराव या छुपाव नहीं, कोई अन्वाश्यक विशेषण या अलंकार नहीं. जो महसूस हो रहा है, बस वही बोलना है. इसका बहुत जबर्दस्त प्रभाव होता है. दूसरे वे जहाँ भी जाते, सबसे पहले वहां की परिस्थितियों, वहां की समस्याओं से जुड़ते थे, सारी जानकारियाँ इकट्ठी करते थे. एक उदाहरण सुनिए- स्वामीनाथन तेलगूभाषी कम्यूनिस्ट थे. जब वे गांधी से मिलने पहुंचे तो उनके सामने एक पत्रिका रख दी और बोले कि बापू, हम मजदूरों के लिए यह पत्रिका निकालते हैं. गांधी ने पत्रिका को उलट-पलट के देखा और पूछा कि मजदूर इतने छोटे अक्षर पढ़ लेते हैं? स्वामीनाथन अचकचा गये. गांधी ने कहा कि अरे भलेमानस, इसके फॉन्ट बड़े करो, मजदूर तभी पढ़ पायेंगे. यह बताने का आशय ये कि उन्हें हर जगह, हर विषय में यह पता होता था कि किसकी क्या जरूरतें हैं? और वे बेधड़क मर्म पर उंगली रख देते थे. उनकी यह आतंरिक ईमानदारी और तदनुसार भाषा का प्रयोग गांधी की क्रांतिकारिता की दो ख़ास विशेषताएँ थीं.

प्रश्न- दलितों के सवाल पर गांधी ने बहुत काम किया. खूब लिखा. खूब समझाया,आगे बढ़कर नजीरें भी पेश कीं, पर अंबेडकर को अपनी बात, अपना दृष्टिकोण नहीं समझा पाए. इस पर आपकी क्या दृष्टि है? रंगभेद को लेकर गांधी पर लगने वाले आरोपों को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे?

उत्तर- अब अंबेडकर कोई अकेले आदमी तो नहीं थे, जिनको गाँधी अपनी बात नहीं समझा पाए. सच पूछिए तो वे उनके अपने कहे जाने वाले लोगों को भी तो अपनी बात नहीं समझा पाए. समझने की जरूरत तो यह होनी चाहिए कि किसको वे प्रभावित कर पाए. गांधी और अंबेडकर के बीच के मतभेद ऐसे नहीं थे कि उनका मिलन बिंदु न खोजा जा सके. जहाँ तक दलितों का सवाल है, असल में ये दोनों एकदूसरे के पूरक हैं. इस विषय में गाँधी की बुनियादी बात क्या थी? गांधी ने कहा कि हमारे दिलों से अस्पृश्यता निकल जानी चाहिए. यह थी बुनियादी बात. मन्दिरों में प्रवेश दिला दो, आरक्षण दे दो, मंत्री बना दो. राष्ट्रपति बना दो, अगर इससे दलितों की समस्या हल होनी होती, तो अबतक हो गयी होती. जगजीवन राम तो उपप्रधानमन्त्री के पद पर रहे, पर यह कहते हुए गये कि हम कहीं भी पहुंच गये हों, पर लोगों के मन से हमारा दलित होना नहीं गया. यहीं गांधी की जरूरत पड़ने लगती है. यही बात वे पहले कहके जा चुके कि हमें यह भावना अपने दिलों से ही निकाल फेंकनी होगी. भारत में दलितों की समस्या का यही पहला और आखिरी समाधान है. अगर आप दलितों की समस्या का समाधान गांधी को छोड़कर करना चाहते हैं, तो वह कोई भी हो, मृगतृष्णा में जी रहा है. आरक्षण ने तो दलितों में मध्य वर्ग भी पैदा कर दिया है. अब सर्वहारा दलित के रास्ते में तो नया-नया बना यह बुर्जुआ दलित ही अड़चन बनकर खड़ा है. अब तो दलित पुरुष और दलित स्त्री के बीच भी समस्या है. ऐसे में अगर गांधी के स्तर पर दलितों के सवाल से नहीं जूझेंगे, तो अंबेडकर के स्तर पर जूझते रहिये, समाधान दूर ही रहेगा. जहाँ तक रंगभेद का सवाल है, मनुष्यमात्र की मनुष्यता का आवाहन करने वाले गाँधी ऐसे सवालों की जद में नहीं आते. निहित स्वार्थों में सने ऐसे सवालों से वे बहुत ऊपर उठ चुके हैं. जरूरत हमें है अपना नजरिया साफ़ करने की.

प्रश्न- गांधी की अहिंसा में हिंसा का कितना स्थान है?

उत्तर- इतना तो गांधी भी स्वीकार करते हैं कि मनुष्य के लिए पूर्ण रूप से अहिंसक होना संभव नहीं है. सब छोड़ दीजिये तो आप सांस तो ले ही रहे हैं, इस प्रक्रिया में ही बेशुमार हिंसा हो रही है. सवाल आपके इरादे का है. आप हिंसा करना चाहते हैं, इसलिए कर रहे हैं या गैरइरादतन हिंसा हो गयी. गांधी की एक बात पर ध्यान दीजिये. वे कहते हैं कि मुझे बहादुर आदमी की हिंसा भी पसंद है. कायर आदमी की अहिंसा का तो कोई मोल ही नहीं है. अब कायर की अहिंसा में कायर का अर्थ तो मालूम है, पर बहादुर की हिंसा में बहादुर का अर्थ क्या है, गांधी की अहिंसा में यह कहाँ फिट होता है, सवाल यह होना चाहिए. क्योंकि गांधी इतना संतुलन तो डंके की चोट पर रख रहे हैं कि वे बहादुर की हिंसा को अपनी अहिंसा के सामने दोयम भले मानें, पर खारिज नहीं करते. एक दूसरी बात भी है, अहिंसा को जो वास्तविक आधार है, वह है हृदय परिवर्तन पर विश्वास. सत्याग्रह का यह बुनियादी सिद्धांत है कि विरोधी का हृदय बदलेगा ही बदलेगा. किन्तु बदलते समय के साथ कुछ संशय सिर उठाने लगे हैं. आपके लाखों करोड़ लेकर भाग जाने वाला व्यापारी, बेहद क्रूरता के साथ आपकी संपत्तियां बेचकर और आपकी रोजी रोटी छीनकर आपको नित्य करों के बोझ से लाद देने वाला राजा या अपनी फैक्ट्री के गैस रिसाव में मर जाने वाले मजदूरों को छोड़कर अपनी जान बचाने की जुगत में लगा माफिया तो आपकी तरफ देख ही नहीं रहा है कि आप सत्याग्रह कर रहे हैं या उपवास या कुछ और? ऐसे में हृदय परिवर्तन के भरोसे का क्या होगा? सवाल यह पूछा जाना चाहिए. अगर गांधी सवा सौ साल जी गये होते तो क्या पता, इस सवाल का जवाब भी दे गये होते.

प्रश्न- गांधी के जीवन से जुड़े कुछ मुश्किल सवालों में से एक सवाल ब्रह्मचर्य के उनके प्रयोगों पर पूछा जाता है. हालांकि गांधी ने खुद इस विषय पर बहुत खुलकर बोला है, लेकिन नेहरू और पटेल जैसे लोग इन सवालों पर चर्चा भी नहीं करते थे और अक्सर इन्हें टाल जाया करते थे. लेकिन इतिहास तो ये सारे सवाल पूछेगा ही. इस विषय पर आपकी समझ क्या कहती है?

उत्तर- ‘माई डेज़ विद गांधी’ लिखने वाले निर्मल कुमार बोस, जो गांधी के नोआखाली के दिनों के साथी थे, उनके निजी सचिव भी थे, को जब इस बात का पता चला, तो उन्हें बहुत बुरा लगा, उन्होंने गांधी से पूछा कि आप ये क्या कर रहे हैं. गांधी ने इसके उत्तर में उनसे सवाल ही पूछ लिया कि इसमें गलत क्या है. तब निर्मल बाबू ने कहा कि यह ठीक है कि आपका मन साफ़ है, आपकी इच्छाएं आपके नियंत्रण में हैं, लेकिन जिनके साथ आप ये प्रयोग कर रहे हैं, उनके बारे में आपको कैसे भरोसा है? और ठीक है, आपको भरोसा है भी, तो इस बात का क्या भरोसा है कि आज से दस साल बाद ये स्त्रियाँ वैसे ही नहीं सोचेंगी, जैसे आज बाकी लोग सोच रहे हैं? या इन्हें बुरा नहीं लगेगा? फ्रायड इसे मेंटल ट्रामा कहते हैं. गांधी ने कहा कि देखो, मैंने फ्रायड को नहीं पढ़ा, कभी अवसर हाथ लगे तो तुम मुझे फ्रायड जरूर समझा देना. पर इतना मैं जानता हूं कि फ्रायड को समझकर भी मैं उससे प्रभावित नहीं होने वाला हूं. मैं जो कर रहा हूं, उसमें कुछ भी गलत नहीं है, इस बात का मुझे भरोसा है. निर्मल बाबू इसके बाद यह कहकर गांधी को छोड़कर चले गये कि अगर कभी आपको मेरी जरूरत लगे, तो बुलवा लीजियेगा, लेकिन अभी तो मैं आपके पास नहीं रुकूंगा. पहले तो मुझे भी निर्मल बाबू का पक्ष सही लगा, लेकिन बाद के दिनों में भारत के एक बड़े दार्शनिक केजे शाह को मैंने इस बारे में शिमला में बोलते हुए सुना, फिर इस विषय पर उनसे बात भी की. उनका तर्क यह था कि इस दुनिया में विज्ञान के प्रयोगों के नाम पर अनगिनत जीवों और प्राणियों की बर्बर हत्याएं सदियों से की जा रही हैं, उन पर कोई सवाल नहीं उठते, लेकिन यहाँ दुनिया को मनुष्यता के नये आदर्श देने वाला और दुनिया की सबसे शक्तिशाली हुकूमत को घुटनों पर ला देने वाला एक महान आदमी अपनी साथी महिलाओं को कोई मामूली-सा भी आघात पहुंचाए बिना कुछ प्रयोग कर रहा है, तो उस पर इतने सवाल क्यों? ये सुनकर मेरे विचार थोड़ा बदले. मुझे पहली बार लगा कि निर्मल बाबू सही नहीं भी हो सकते हैं. महाभारत में यम दमयन्ती की कहानी आती है. दमयंती, यम के पीछे-पीछे चलती जाती है और अपने पति के प्राण मांगती जाती है. यम कहते हैं कि कोई भी वरदान मांग लो, बस तुम्हारे पति के प्राण वापस नहीं करूंगा. यहाँ मुझे लगता है कि यम, दमयंती पर मुग्ध हो गये हैं और वे खुद चाहते हैं कि वह उनके पीछी चलती रहे. लेकिन अंत आते-आते मेरे विचार तब बदलने लगते हैं, जब यम प्राण वापस न करने की अपनी शर्त हटा लेते हैं और दमयंती से कहते हैं कि अब तुम कोई भी वरदान मांग लो. यहाँ आकर मुझे अपना तर्क निराधार लगने लगता है. फिर इस विषय पर जब मुझसे गीतांजलि (बुकर विजेता गीतांजलि श्री सुधीर चन्द्र की पत्नी हैं) ने यह कहा कि अगर यह बात गांधी की है, तो मेरे स्त्री मन में उपजते एक सवाल का जवाब दो मुझे. क्या स्त्री-पुरुष के बीच के सारे सम्बन्ध काम से ही संचालित हो सकते हैं? शेष सारी संभावनाओं पर कब सोचा जाएगा? इस बात ने भी मुझे और मेरी मान्यताओं को काफी हद तक हिलाया और मुझे केजे शाह के तर्क में जान महसूस हुई. गांधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोगों के पक्ष में एक मजबूत तथ्य यह खड़ा होता है कि गांधी जिनके साथ मिलकर ये प्रयोग कर रहे थे, वे स्त्रियाँ थीं, वयस्क थीं और वे गांधी के बाद भी जीवित रहीं. उनमें से किसी ने कभी ऐसा कुछ लिखा हो या कहा हो कि उन प्रयोगों में उनका किसी प्रकार का शोषण हुआ या उनका लाभ उठाया गया या उन्हें ऑब्जेक्ट समझा गया तो स्थूल स्तर पर इन सवालों को कोई बल भी मिले. यदि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा तो खुले मैदान में सैकड़ों लोगों के बीच किये गये इन प्रयोगों में काम की तलाश करना हमारी समझ की सीमा हो सकती है. गांधी का विराट व्यक्तित्व इस सीमा में नहीं समाता.

प्रश्न- गांधी अपने सामजिक संघर्षों में जितने सफल हैं, या राष्ट्रनिर्माण की अपनी कल्पनाओं में जितने सुदृढ़ हैं, उनके उन सपनों, उन विचारों को मूर्त रूप दे पाना उतना ही दुरूह क्यों है? क्योंकि हिन्द स्वराज की स्थापनाओं को उनके उत्तराधिकारियों ने तो हाथ लगाकर भी नहीं देखा, आजमाया.

उत्तर- ये बहुत मुश्किल सवाल है. इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता. लेकिन जितना मैंने अबतक कहा, उसके बाद मुझे यह तो कहना ही है कि आज मनुष्यता जिस मुकाम पर खड़ी है, वहां सामूहिक नरसंहार अवश्यम्भावी है. इससे बचने का गांधी की कल्पनाओं और उनकी स्थापनाओं के अलावा दूसरा कोई उपाय है ही नहीं. उन्हें जमीन पर उतारना, चाहे जितना भी दुरूह लगे, जीवन का अर्थ और सम्भावना उन्हीं स्थापनाओं में है. दूसरी तरफ तो भयानक मृत्यु का भयानक अट्टहास भर है.

प्रश्न- गाँधी की हत्या को क्या यह समाज इस रूप में देख सकता है कि यह इतिहास का वह क्षण है, जिसकी रोशनी में हमें बार-बार अपने भीतर झाँकते रहना चाहिए?

उत्तर- अगर यह समाज इतना भी नहीं करेगा तो खुद को आंकेगा किस आईने में? कि वह अपनी इंसानियत के प्रति कितना सचेत है? कि वह अपनी विभूतियों के प्रति कितना सचेत है? कि वह खुद अपने राष्ट्रपिता के प्रति कितना सचेत है? गाँधी की हत्या को जो लोग सही ठहराते हैं, उनसे कुछ् कहकर भी क्या होगा. पर वे लोग, जो गांधी की हत्या को गलत समझते हैं, उन्हें खुद से यह सवाल जरूर पूछना चाहिए, पूछते रहना चाहिए कि क्या सच में? गांधी को गोडसे ने मारा? तीन गोलियों से गांधी का मरना एक मरना है. पर जो आदमी सवा सौ साल जीना चाहता था, वह अगर ईश्वर से प्रार्थना करने लगा था कि अब ले चलो. तो उसे मरण के किनारे तक तो हम ही ले आये. सच तो यह है कि गोडसे ने हमको उस सामूहिक अपराधबोध से बचा लिया.

एक घटना सुनिए अमेरिका के पांच पत्रकार ऐसे थे, जो गांधी के प्रति बहुत विनय और भक्ति रखते थे. उनमें से एक था विन्सेंट शेन. अचानक एक दिन उसको महसूस हुआ कि मुझे गांधी से अभी मिलना चाहिए. वह न्यूयॉर्क आया और अपने मित्र विलियम शेयरर को फोन किया कि मुझे तुमसे अभी मिलना है. दोनों मिले तो उसने उसे अपनी इच्छा बताई. उसके मित्र ने कहा कि यार, मैं तुमको 1930 से ही गांधी के साथ के अपने अनुभव बताता, सुनाता आ रहा हूं. तुमने कभी कान तक नहीं दिया और अभी अचानक ये..? उसने कहा कि ऐसा नहीं है. गांधी हमेशा से मेरे लिए बहुत बड़े आदमी रहे हैं. असल में मैं ही खुद को उनसे मिलने के लिए तैयार नहीं पा रहा था. लेकिन अब तो मुझे मिलना ही पड़ेगा, क्योंकि गांधी तो मरने जा रहे हैं. विलियम हड़बड़ा उठा. ये क्या कह रहे हो तुम? हां, मैं सही कह रहा हूं, वे मरने वाले हैं. उसने पूछा, लेकिन तुमको ऐसा लगता क्यों है कि गांधी के मरने का समय आ गया है? उसने कहा, क्योंकि मानवता का इतिहास यही कहता है. मैं इन महात्माओं की परिपाटी को महसूस कर पा रहा हूं. मुझे लगता है कि गांधी को सुकरात की तरह ही मरना है, और इसलिए अब उनका समय आ गया है. शेयरर ने इस घटना का जिक्र करते हुए बाद में अपनी किताब में ईसा का नाम भी जोड़ा, हालांकि उसने केवल सुकरात का नाम लिया था. 28 जनवरी 1948 को विन्सेंट भारत आया. 29 को उसकी मुलाक़ात गांधी से हुई. खूब बातें हुईं. चलते समय गांधी ने कहा कि अगर समय हो तो कल शाम को प्रार्थना के बाद फिर आओ. उसने बताया कि कल तो मैं नेहरू के साथ पंजाब जा रहा हूं. गांधी ने कहा, ठीक है तुम जवाहर के साथ जरूर समय बिताओ. उसने कहा कि फिर परसों 31 को मिलते हैं. यह मुलाक़ात तय हो गयी, जो फिर कभी संभव न हो सकी. विन्सेंट ने अपनी डायरी में लिख रखा था कि गांधी विल डाई विद द हैण्ड ऑफ़ अ हिन्दू. अमेरिका का विन्सेंट उनके लिए चिंतित था. हमें उनकी चिंता नहीं थी. 32 साल तक वह आदमी अंग्रेजों से लड़ता रहा, वे उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाए. हमने साढ़े पांच महीने में ही उनसे मुक्ति पा ली.

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