एक पुस्तकालय आंदोलन की शुरुआत होनी चाहिए!

कर लो दुनिया मुट्ठी में का नारा देकर हर हाथ में मोबाइल पकड़ा देने का अनुभव, एक दिन अपसंस्कृति बढाने वाला साबित होगा, क्या किसी ने सोचा था? मोबाइल ने किताबें पढ़ने की संस्कृति का ह्रास किया है। उत्तराखंड से आई यह रिपोर्ट बताती है कि आज के युवाओं की पढ़ाई-लिखाई किस कदर मोबाइल और इंटरनेट की भेंट चढ़ रही है। एक तरफ ये चिंतित करने वाले हालात हैं, तो दूसरी तरफ कुछ सकारात्मक और सार्थक प्रयत्न भी हो रहे हैं। पढ़ें, हिमांशु जोशी की रिपोर्ट।

आरम्भ स्टडी सर्कल पिथौरागढ़ द्वारा की जा रही एक पुस्तक परिचर्चा

नैनीताल में तिब्बती मार्केट के पास एक युवक बीच रास्ते में मोबाइल जमीन पर रखकर डांस करते हुए रील्स बनाने में मस्त था, उसे इस बात की बिल्कुल भी चिंता नही थी कि उसकी इस हरकत की वजह से राहगीरों को दिक्कत हो रही है। आसपास कुछ युवा सार्वजनिक स्थान पर सिगरेट पीते और कुछ सड़क पर कचरा फेंकते हुए दिख रहे थे।

नई पीढ़ी की इन हरकतों का कारण समझने का प्रयास किया जाए तो महसूस होता है कि देश के अधिकतर युवाओं में अब मोबाइल का भूत सवार है। ये युवा अपना अधिकतर समय सोशल मीडिया पर रील्स देखने और बनाने में बर्बाद कर रहे हैं, जिस वजह से उनका बौद्धिक विकास रुक-सा गया है।

आज के युवाओं, बच्चों का किताब पढ़ने का पैटर्न
नैनीताल के रहने वाले बाइस वर्षीय शुभम तल्लीताल में बाइक वर्कशॉप चलाते हैं। शुभम ने दस साल पहले आठवीं कक्षा में ही स्कूल छोड़ दिया था और फिर उन्होंने बाइक मैकेनिक का काम सीखना शुरू किया। शुभम कहते हैं कि स्कूल छोड़ने के बाद से उन्होंने कभी किताब के पन्ने नहीं पलटे हैं, पर अपने खाली वक्त में वह इंस्टाग्राम और फेसबुक को चार से पांच घण्टे जरूर देते हैं।

उन्नीस वर्षीय देवेन सिंह बिष्ट नैनीताल डीएसबी कैम्पस में बीसीए द्वितीय वर्ष के छात्र हैं और वह भी अपने कोर्स की किताबों के सिवाय कोई अन्य किताब नहीं पढ़ते। देवेन इंस्टाग्राम को दिन में अपने बहुमूल्य दो घण्टे देते हैं।

डीएसबी की ही छात्रा साक्षी जोशी प्रतियोगी परीक्षाओं की किताबों को दिन में सात घण्टे देती हैं, पर वह इन किताबों के बाद कोई और किताब नहीं देखतीं। साक्षी भी दिन का अपना एक घण्टा इंस्टाग्राम पर बिताती हैं। स्कूली छात्रों ने कोरोना काल में ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल से दोस्ती की, पर अब मोबाइल ने उनको पूरी तरह से अपने कब्जे में ले लिया है।

भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय, नैनीताल के प्रियांशु दिन के दो-तीन घण्टे मास्टरमाइंड से अपने कोर्स को याद करते हैं, पर मोबाइल पर अपने कीमती आठ-नौ घण्टे बर्बाद कर देते हैं। इसी स्कूल के हर्ष हफ्ते में एक बार ‘यू कैन विन’ जैसी किताब पढ़ते हैं, यह किताबी शौक उन्हें अपने बड़े भाई से लगा। हर्ष अपने स्कूल की लाइब्रेरी में कभी नहीं गए, पर पांच सालों बाद हाल ही में खुली नैनीताल की ऐतिहासिक दुर्गा शाह म्युनिसिपल लाइब्रेरी में जाकर कभी-कभी विज्ञान से जुड़ी किताबें पढ़ लेते हैं। हर्ष दिन में एक घण्टा मोबाइल को देते हैं, जिसमें वह यूट्यूब पर शिक्षा से जुड़े वीडियो देखते हैं।

मोबाइल हर हाथ में उपलब्ध, पर किताबों की पहुंच कितनी!
उत्तराखंड लोक पुस्तकालय अधिनियम-2005 में लिखा है कि लोक पुस्तकालयों के गठन एवं प्रशासन हेतु राज्य के प्रत्येक जनपद में सम्बंधित जनपद के नाम से एक जिला पुस्तकालय प्राधिकरण गठित किया जाएगा। इस जिला पुस्तकालय प्राधिकरण को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि अधिनियम की अधिनियमिति के पश्चात यथाशीघ्र प्रत्येक विकास खण्ड में एक विकास खण्ड पुस्तकालय, प्रत्येक नगरपालिका/कस्बे में एक नगर पुस्तकालय और प्रत्येक ग्राम पंचायत क्षेत्र में एक ग्राम पुस्तकालय चरणबद्ध योजना बनाकर स्थापित किया जाए।

अधिनियम बनने के सालों बाद भी ग्राम स्तर तक पुस्तकालय की बात सिर्फ किताबी ही लगती है। नई पीढ़ी को मोबाइल की लत से दूर करने के लिए ग्राम स्तर पर पुस्तकालय बनाना और उस पुस्तकालय के प्रति उनमें रुचि जगाना सबसे बड़ी चुनौती है। मोबाइल की चुनौती का सामना करने के लिए भारत में पुस्तकालय आंदोलन की आवश्यकता महसूस होने लगी है।

पुस्तकालय आंदोलन की शुरुआत हो चुकी है
उत्तराखंड में टनकपुर के एसडीएम हिमांशु कफल्टिया ने साल 2020 से अपने तहसील क्षेत्र में नागरिक पुस्तकालय खोलने की मुहिम छेड़ रखी है। इन पुस्तकालयों में प्रतियोगी परीक्षाओं की किताबों के साथ-साथ साहित्यिक किताबें भी हैं। क्षेत्र में अब तक लगभग एक दर्जन नागरिक पुस्तकालय खोले जा चुके हैं, जिनसे कई क्षेत्रीय युवा प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण भी हुए।

हिमांशु कफल्टिया कहते हैं कि उन्हें पुस्तकालय खोलने का यह विचार सिविल सर्विसेस की तैयारी के दौरान आया। वह सोचते थे कि जिन किताबों को पढ़ने के लिए क्षेत्र के छात्र दिल्ली, इलाहाबाद जैसे शहरों की तरफ दौड़ते हैं, क्यों नहीं वह उन किताबों को छोटे शहरों और गांवों में उपलब्ध करा सकते। उन्होंने आगे बताया कि मैं मानता हूं कि किताबें लाइफ चेंजिंग होती हैं, उनसे दोस्ती हो जाए तो इंसान बदल जाता है। यदि समाज में सकरात्मक परिवर्तन लाना है, तो यह पुस्तकों से ही संभव है।

हिमांशु ने अभी टनकपुर में पहली बार क्षेत्रीय लोगों के सहयोग से 24-25 दिसम्बर को पुस्तक मेले का आयोजित किया है, जिसमें लगभग पचास प्रकाशकों की किताबें उपलब्ध थीं। पुस्तक मेले के लाभ पर वह कहते हैं कि इस मेले को आयोजित करवाने का उद्देश्य युवाओं में पढ़ने की संस्कृति को बढ़ावा देना है। पुस्तक मेले से लोगों को बहुत-सी नई किताबों के बारे में पता चलेगा और स्थानीय लोगों को पुस्तक मेले में आने वाले अच्छे लोगों से मिलकर बहुत कुछ सीखने का मौका मिलेगा।

‘आरम्भ’ का कमाल
आरम्भ स्टडी सर्कल, पिथौरागढ़ में कॉलेज के कुछ छात्रों का एक ऐसा समूह है, जो क्षेत्र में पढ़ने-लिखने की संस्कृति को बढ़ावा देने के प्रयासों में जुटा है। आरम्भ से जुड़े महेंद्र रावत बताते हैं कि हम चाहते हैं कि क्षेत्र के बच्चों और युवाओं में पढ़ने लिखने की संस्कृति बढ़े, इसके लिए हम जगह-जगह पुस्तक मेलों का आयोजन करवाते हैं। इनमें धारचूला और डीडीहाट जैसे दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र भी शामिल हैं। मेलों में स्कूली बच्चों की भागीदारी उत्साहवर्द्धक रहती है। वह पुस्तक परिचर्चा भी आयोजित करते हैं, जिसमें लोग अपनी पढ़ी हुई किताबों पर प्रतिक्रिया देते हैं।

रचनात्मक शिक्षक मण्डल उत्तराखंड
रचनात्मक शिक्षक मण्डल, उत्तराखंड के प्राथमिक से डिग्री स्तर तक कार्यरत शिक्षकों का फोरम है। यह समूह पिछले पंद्रह सालों से शिक्षकों और छात्रों के लिए काम कर रहा है। शिक्षा के ज्वलन्त मुद्दों पर लगातार पहलकदमी करने वाले इस फोरम के राज्य संयोजक शिक्षक नवेन्दु मठपाल बताते हैं कि हमारा मानना है कि बच्चों में सृजनशीलता के विकास हेतु बच्चों को स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिए। वे सिर्फ कोर्स से जुड़ी किताबों से ऊब न जाएं, इसके लिए उन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का अनुभव प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया जाना आवश्यक है।

हम बच्चों के लिए समय-समय पर सिनेमा, रंगमंच, वाइल्डलाइफ फोटोग्राफी आदि की कार्यशालाएं करते हैं, उन्हें सिनेमा दिखाये जाते हैं, समाचार फीचर लिखना सिखाया जाता है और उनके लिए थियेटर वर्कशॉप भी आयोजित की जाती है। हमने जनसहयोग से रामनगर के आसपास पचीस पुस्तकालय खोले हैं, इसके साथ ही हमने पुछड़ी, रामनगर में सावित्री बाई फुले और ज्योति बाई फुले के नाम से सायंकालीन स्कूल खोले हैं। इन स्कूलों में रामनगर में रहने वाले खनन मजदूरों के 300 से अधिक बच्चों और कूड़ा बीनने वाले बच्चों को शाम के समय तीन घण्टे निःशुल्क पढ़ाया जाता है। यह शिक्षक मण्डल, शिक्षा के निजीकरण व बड़े-बड़े कारपोरेट घरानों की शिक्षा में बढ़ती दखलंदाजी के खिलाफ है।

– हिमांशु जोशी

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