भारत में कुल वस्त्र उत्पादन का 15 प्रतिशत हैंडलूम सेक्टर में होता है। विश्व भर में हाथ से बुने कपड़े में भारत प्रथम स्थान पर है और यह प्रतिशत के हिसाब से 95 प्रतिशत है। फिर भी हैंडलूम वीवर्स की स्थिति दयनीय बनी हुई है। सभी योजनाओं के पुनरावलोकन के बाद इन सभी को एकल विंडो के दायरे में लाने की आवश्यकता है।
मनुष्य परिवर्तनशील है। उसका मस्तिष्क नये नये अविष्कार करता है। इसका असर पूरी मानव जाति, सभ्यता और समाज पर पड़ता है। एक समय जो वस्तुएं आवश्यक जान पड़ती हैं, वह कालांतर में नुमाइशघर की शोभा बढ़ाती हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधी जी ने चरखा और गुंडी अर्थात कत्तिन और बुनकर को आजादी के आंदोलन से जोड़ दिया और उन्हें आजादी की लड़ाई का एक शस्त्र ही बना डाला। यूरोप में औद्योगिक क्रांति और मैनचेस्टर में कपड़ों की मिलों के अस्तित्व में आने के बाद भारत में भी विदेशी वस्त्र का आयात बहुतायत में होने लगा। फलस्वरूप कत्तिनों और बुनकरों की हालत बद से बदतर होने लगी। अंग्रेजी हुकूमत ने एक बहुत बड़ी आबादी को कंगाली के रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश ने मिक्स्ड इकोनामी का प्रारूप तैयार किया, जहां बड़े उद्योग भी होंगे और छोटे, मझोले उद्योग भी काम करेंगे। इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में खादी और ग्रामोद्योग के माध्यम से बड़ा काम होने लगा। बुनकरों को रोजगार प्राप्त हुए। उनके विकास के लिए अलग से योजनाएं बनाई गयीं। परंतु 70 के दशक के अंत तक हैंडलूम और खादी सेक्टर के बुनकरों की हालत खस्ता होने लगी। इसका मुख्य कारण बना पावरलूम और मिलों में कपड़े का बहुतायत में उत्पादन। बुनकरों के पास जो हाथ की कलाकारी थी, कसीदाकारी का जो हुनर था, उसकी नकल पावरलूम में होने लगी। हैंडलूम पर जो डिजाइनर साड़ी 4-5 दिन में तैयार होती थी, वह पावरलूम पर एक दिन में बनने लगी और बहुत सस्ते दामों पर बाजार में उपलब्ध होने लगी। इसलिए बुनकरों की आय कम होती गई और उन्हें गांव छोड़कर रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करना पड़ा। उन्हें रिक्शा चलाकर, फैक्टरी में मजदूरी और अन्य छोटे मोटे रोजगार करके गुजारा करना पड़ा। शहर में अपना गुजारा करने और गांव में परिवार के लिए पैसे भेजने से उनकी स्थिति बड़ी दयनीय हो गई। बुनकर समाज जो आत्मसम्मान का जीवन जी रहा था, देश विदेश में जिसके उत्पादों की ख्याति थी, जो ठीक ठाक पैसे भी कमा रहा था, उसको मजदूर बना दिया गया। सरकारों ने भी इस क्षेत्र पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। कारपोरेट सेक्टर को लाखों करोड़ों रुपए की सब्सिडी दी जाने लगी और खादी-हैंडलूम सेक्टर में, जहां से बुनकरों को रोजगार मिलता था, उनकी सब्सिडी कम होने लगी। उदारीकरण के युग में उनको भी मार्केट के भरोसे छोड़ दिया गया।
देश में कपड़े का उत्पादन आज चार पद्धतियों से हो रहा है. खादी, हैंडलूम, पावरलूम और मिल। इनमें से केवल खादी और हैंडलूम सेक्टर में ही बुनकरों को रोजगार मिलता है। पॉवरलूम में बिजली का प्रयोग होता है और मिल में मशीनों पर काम होता है, जिसमें बुनकरों के रोजगार की संभावना क्षीण होती है। अभी भी ग्रामीण भारत में कृषि के बाद हैंडलूम सेक्टर दूसरा सबसे बड़ा रोजगार देने वाला क्षेत्र है। भारत में कुल वस्त्र उत्पादन का 15 प्रतिशत हैंडलूम सेक्टर में होता है। विश्व भर में हाथ से बुने कपड़े में भारत प्रथम स्थान पर है और यह प्रतिशत के हिसाब से 95 प्रतिशत है। वर्ष 2020 में 223.19 मिलियन डॉलर का हैंडलूम एक्सपोर्ट हुआ है। सरकार की बुनकरों के लिए कई लाभकारी योजनाओं के बाद भी हैंडलूम वीवर्स की स्थिति दयनीय बनी हुई है। इन सभी योजनाओं के पुनरावलोकन के बाद इन सभी को एकल विंडो के दायरे में लाने की आवश्यकता है।
बुनकरों की दुर्दशा का एक प्रमुख कारण यह भी है कि सरकार ने उनके लिए विभिन्न योजनाएं तो बनाईं, पर कभी भी बुनकरों के लिए समग्र दृष्टि से सोच विचार नहीं किया। हथकरघा उद्योग के विकास के लिए बुनकरों को जो सहायता प्रदान की जा रही है, वह भी अलग-अलग माध्यमों और एजेंसियों द्वारा दी जा रही है। जैसे खादी से जो बुनकर जुड़े हैं, उनके विकास के लिए खादी और ग्रामोद्योग आयोग विभिन्न योजनाएं बनाकर सहायता देता है, जो भारत सरकार के सूक्ष्म, लघु, मध्यम उद्यम मंत्रालय के अंतर्गत आता है। इसी प्रकार हैंडलूम क्षेत्र से जो बुनकर जुड़े हुए हैं, उनके लिए वस्त्र मंत्रालय के माध्यम से सहायता दी जाती है। वस्त्र मंत्रालय के साथ पावरलूम व मिल सेक्टर भी जुड़ा है। वस्त्र मंत्रालय जो कपड़ा नीति निर्धारित करता है, उसका लाभ खादी और हथकरघा उद्योग को न के बराबर होता है। इसमें बुनकर गौण हो जाते हैं, हालांकि वस्त्र मंत्रालय में विकास आयुक्त, हैंडलूम के नाम से एक अलग विभाग है। इसके अतिरिक्त अन्य एजेंसियां भी हैं, जो हैंडलूम सेक्टर को मदद करती हैं, जैसे अल्पसंख्यक आयोग के माध्यम से भी बुनकरों को सहायता दी जाती है। सरकार ने समय समय पर बुनकरों के लोन भी माफ किये हैं, परंतु उसका लाभ सभी बुनकरों को नहीं मिला। खादी संस्थाओं के साथ जो बुनकर जुड़े थे, उनको भी इसका लाभ नहीं मिला।
सरकार ने हथकरघा उद्योग और बुनकरों के लिए पर्याप्त योजनाएं बनाई हैं। इन योजनाओं को लागू करने के बाद भी हथकरघा उद्योग और बुनकरों की दुर्दशा जारी है और वे पलायन करने के लिए मजबूर हैं। यदि हम वर्ष 1980 की वर्ष 2018 से तुलना करें तो हथकरघा उद्योग मंदी की ओर है। बुनकर अपना बुनाई का व्यवसाय छोड़ कर अन्य व्यवसायों में चले गये हैं। 80 और 90 के दशक में बुनकर बहुत ही दयनीय स्थिति में पहुच गए थे। इस दौरान 1985 में हैंडलूम्स की संख्या जहां 5.29 लाख थी, वहीं 1998 में घटकर 2.2 लाख रह गई। उत्तर पूर्व के आदिवासियों की परंपरागत सुंदर बुनाई की भी यही स्थिति हुई, जो कम मजदूरी और मार्केट न होने की वजह से अवसान की ओर अग्रसर है। वर्ष 2019-20 में चौथी अखिल भारतीय हथकरघा जनगणना के अनुसार देश में 26,73,891 बुनकर और 8,48,621 उससे संबंधित कारीगर थे।
सरकार की लोकलुभावन योजनाओं का विवरण इस प्रकार है- हैंडलूम कपड़ों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए हैंडलूम मार्क- इसमें देश और विदेश में बिकने वाले कपड़ों पर लगे मार्क में मामूली अंतर है; सामाजिक सुरक्षा के लिए महात्मा गांधी बुनकर बीमा योजना; हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम; इसके अतिरिक्त कुछ विशेष स्कीमें भी हैं, जैसे टेक्नोलॉजी अपग्रेडेशन फंड; इंटीग्रेटेड हैंडलूम डेवलपमेंट स्कीम; मिल गेट प्राइस स्कीम, जिसके अंतर्गत बुनकरों को बिना बिचौलियों के मिलों द्वारा उत्पादित दर पर सूती धागा उपलब्ध कराया जाता है; मार्केटिंग प्रमोशन प्रोग्राम- इसमें मेला आयोजित किया जाता है, बुनकरों को अवार्ड दिया जाता है, सेमिनार आयोजित किए जाते हैं और डिज़ाइनर आदि की सुविधा उपलब्ध करवाई जाती है; इंटीग्रेटेड हैंडलूम डेवलपमेंट स्कीम; ब्लॉक लेवल क्लस्टर, जिसमें दो करोड़ रुपये तक की सहायता दी जाती है, मुद्रा स्कीम, जिसमें बुनकरों को सस्ती ब्याज दर 6% पर ऋण उपलब्ध कराया जाता है।
उपर्युक्त तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए बुनकरों के लिए आज ‘सिंगल विंडो सिस्टम’ की आवश्यकता है, चाहे वह भारत सरकार के किसी भी मंत्रालय के अधीन हो। उनके विकास के लिए किस प्रकार सहायता दी जा सकती है, कैसे उनका उत्पाद मार्केट में आसानी से बिके, उसके लिए एक समग्र नीति बनाने की आवश्यकता है, ऐसा नहीं कि खादी ग्रामोद्योग आयोग अलग से एक नीति बनाकर सहायता दे रहा है, अल्पसंख्यक आयोग अलग से कोई नीति बना के सहायता कर रहा है और वस्त्र मंत्रालय कोई अलग नीति बनाकर उनके विकास की योजना बना रहा है। 12वीं पंचवर्षीय योजना में सिंगल विंडो सिस्टम के माध्यम से लोन आदि देने का प्रावधान किया गया था, परंतु बुनकरों की सभी समस्याओं के लिए, सभी सुविधाओं के लिए सिंगल विंडो सिस्टम होना चाहिए।
इसके अतिरिक्त 12वीं पंचवर्षीय योजना में और भी बहुत स्कीमें सुझायी गयी थीं, पर वे लागू नहीं हो पाईं। हालांकि सरकार के लिए यह काम कठिन नहीं है। नीति आयोग को भी इस विषय पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि किस प्रकार ‘एकल विंडो’ के माध्यम से बुनकरों की सभी समस्याओं का समाधान करें। इससे हथकरघा उद्योग के साथ साथ खादी के बुनकर भी लाभान्वित होंगे और देश में बढ़ती बेरोजगारी को रोकने में भी कुछ सहायता मिलेगी।
-अशोक शरण