पूर्वोत्तर भारत में खादी उद्योग; एक अवलोकन

यदि एकता का महत्व हमारी समझ में आता है, तो खादी हमारे बीच एक कॉमन सूत्र बन सकती है, जो भावनात्मक रूप से हमें हमारी जड़ों से जोड़ती है। बांग्लादेश और असम भौगोलिक रूप से एक दूसरे से सटे हुए हैं, दक्षिण पूर्व एशिया के इस हिस्से में रहने वाले लोग एक गहरी सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक आइडेन्टिटी से जुड़े हुए हैं।

गांधी जी ने कहा था कि ‘असम की हर महिला पैदाइशी बुनकर है। कोई भी असमिया लड़की, जो बुनाई करना नहीं जानती, वह शादी करने के बारे में सोच भी नहीं सकती। असम की लड़कियां कपड़ों में परियों की कहानी बुनती है। बुनाई के कुछ पुराने पैटर्न देखें, तो उनमें अतुलनीय सुंदरता दिखती है। जब मैंने ये खूबसूरत पैटर्न देखे, तो भारत के अतीत के गौरव और उसकी इन विलुप्त होती हुई कलाओं पर चुपचाप बह चले अपने आंसुओं को नहीं रोक सका।’ हमारा स्वदेशी कपड़ा खादी, जो कभी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पर्याय था, एक सर्व-समावेशी फैशन की तरह रहा है। यह हाथ से काता और हाथ से बुना जाने वाला कपड़ा है। खादी भारत और भारत से बाहर, बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी बुनी जाती है।

तालिका-1


खादी का एक लंबा इतिहास रहा है। 12वीं शताब्दी में मार्को पोलो ने बंगाल क्षेत्र की खादी को मकड़ी के जाले से भी महीन बताया था। रोमन भी मलमल किस्म की खादी के बहुत बड़े प्रशंसक थे। मुगल काल के दौरान, बांग्लादेश के बुनकर अपने विशिष्ट कौशल के लिए जाने जाते थे, 1890 के दशक के त्रिपुरा गजेटियर में यह सूचना दर्ज है। खादी हमारी त्वचा के अनुकूल एक ऐसा कपड़ा है, जो सांस भी लेता है, भारत की आत्मनिर्भरता, विरासत, परंपरा और ग्रामीण उत्पादकता के गौरव का प्रतिनिधित्व भी करता है।

तालिका-2


पूर्वोत्तर भारत में खादी, एक संभावना क्षेत्र है, इसके बावजूद इस क्षेत्र में इसकी प्रगति नगण्य है। यहाँ के खादी संस्थान आर्थिक रूप से कमजोर हैं, उनका वार्षिक कारोबार कम है और ये कार्यशील पूंजी की कमी से पीड़ित हैं। फिर भी खादी की अपनी ताकत है, जिसने इसे कायम रखा है, इसके इस महत्व और विशिष्टता को पहचानने की जरूरत है। यद्यपि देश के अन्य हिस्सों में खादी की अवधारणा गांधी जी द्वारा शुरू की गई थी, परन्तु पूर्वोत्तर में यह बहुत पहले से ही थी. उसके लिए खादी शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाता था, लेकिन अवधारणा एक समान थी।

तालिका-3


इतिहास गवाह है कि पूर्वोत्तर का भारत से अलगाव पहले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के परिणामस्वरूप शुरू हुआ, जब यह क्षेत्र अपने पारंपरिक व्यापारिक भागीदारों भूटान, म्यांमार और भारत-चीन से कट गया था। फिर भी, अपने पूरे इतिहास में इस इलाके को भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के बीच एक महत्वपूर्ण भौतिक और सांस्कृतिक पुल के तौर पर जाना जाता रहा है। शेष भारत से पूर्वोत्तर के इस अलगाव ने उसके विकास की गति पर गहरा और प्रतिकूल प्रभाव डाला। उसकी समृद्धि और विकास तथा वहां की जनता के बारे में कुछ भी सोचे समझे बिना उसके व्यापार मार्ग छीन लिए गए। इस मजबूरी के बावजूद दक्षिण एशिया के बाजारों में यहाँ की खादी व्यापक रूप से स्वीकार की जाती रही है। याद रखें कि खादी बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी बनती है। यह हमें याद दिलाता है कि दशकों पहले ये राष्ट्र एक इकाई थे, जो अब खंडित हो गए हैं। यदि एकता का महत्व हमारी समझ में आता है, तो खादी हमारे बीच एक कॉमन सूत्र बन सकती है, जो भावनात्मक रूप से हमें हमारी जड़ों से जोड़ती है। बांग्लादेश और असम भौगोलिक रूप से एक दूसरे से सटे हुए हैं, दक्षिण पूर्व एशिया के इस हिस्से में रहने वाले लोग एक गहरी सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक आइडेन्टिटी से जुड़े हुए हैं।


पूर्वोत्तर अपनी कलात्मक परंपराओं के लिए जाना जाता है. उनकी यह कलात्मकता उनके बुने हुए एरी, मुगा और पैट रेशमी कपड़ों की उत्कृष्टता में अभिव्यक्त होते हैं। खादी इस क्षेत्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में न केवल गाँव के आर्थिक आधार को मजबूत करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है, बल्कि विशाल प्राकृतिक संसाधनों और महत्वपूर्ण जनशक्ति के सदुपयोग में भी अद्वितीय स्थान रखती है। खादी क्षेत्र अपनी विभिन्न योजनाओं के जरिये वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करके क्षेत्र के बेरोजगार युवाओं के लिए रोजगार के अवसर पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सर्वविदित है कि रोजगार पैदा करने के लिए किसी क्षेत्र का विकास जरूरी तत्व है और निरंतर प्रगति के लिए सरकारी सहायता की आवश्यकता पड़ती है। खादी ग्रामोद्योग आयोग, गुवाहाटी में अपने क्षेत्रीय कार्यालय के साथ इस क्षेत्र में खादी ग्रामोद्योग के कामकाज की निगरानी और पर्यवेक्षण करता है। खादी और ग्रामोद्योग आयोग, सरकार की विभिन्न योजनाओं के तहत सूक्ष्म और लघु औद्योगिक उत्पादन इकाइयों की स्थापना के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करके ग्रामीण गरीबों, बेरोजगार युवाओं और दलित कारीगरों को रोजगार प्रदान करने के लिए प्रयासरत है। भारत के संशोधित बाजार विकास सहायता (एमएमडीए), ब्याज सब्सिडी पात्रता प्रमाणपत्र (आईएसईसी), कारीगर कल्याण और पेंशन ट्रस्ट (एडब्ल्यूएफटी), खादी कारीगरों के लिए वर्क-शेड योजना, मौजूदा कमजोर खादी संस्थानों के बुनियादी ढांचे को मजबूत करना और विपणन बुनियादी ढांचे की सहायता, इन योजनाओं से खादी संस्थानों के उत्पादन, बिक्री और रोजगार के मूल्य में वृद्धि हुई है। उत्पादन, बिक्री और रोजगार के मामले में प्राप्त की गई उपलब्धियों का ब्योरा तालिका-1 में देखें.

असम के रौमारी गांव में एक पुनर्जीवित खादी संस्था


ऐसे असंख्य उदाहरण हैं, जहां कताई और बुनाई परंपरागत रूप से की जाती है, लेकिन उन्हें खादी ग्रामोद्योग आयोग के प्रशासनिक दायरे में नहीं लाया गया है. वास्तव में, वे अलग-थलग काम कर रहे हैं। यद्यपि वे हाथ से कताई करते हैं और हाथ से अपनी आजीविका और परंपराओं का निर्वाह करते हैं, फिर भी हजारों ग्रामीण कारीगरों, जिनमें ज्यादातर महिलाएं हैं, का पंजीकरण होना अभी बाकी है.


इन कारीगरों को इस इलाके में सक्रिय विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से खादी ग्रामोद्योग आयोग के दायरे में लाने और खादी ग्रामोद्योग की गतिविधियों के माध्यम से कारीगरों के लिए उनके घर में रोजगार पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है। हाल ही में, खादी प्रमाण पत्र जारी करने के लिए 10,000 रुपये और खादी मार्क प्रमाणपत्र जारी करने के लिए 15,000 रूपये में मिली छूट ने एक प्रभाव पैदा किया है, क्योंकि जमीनी स्तर पर काम करने वाले कई छोटे एनजीओ केवीआईसी से संपर्क कर रहे हैं। इसके अलावा केवीआईसी की निष्क्रिय खादी संस्थाओं के पुनरुद्धार की नीति ने उन ग्रामीण कारीगरों के चेहरों पर मुस्कान ला दी है, जो आजीविका कमाने के लिए खादी संस्थानों पर निर्भर हैं। हाल ही में, कमजोर खादी संस्थाओं के बुनियादी ढांचे के सुदृढ़ीकरण के लिए लायी गयी एक योजना के तहत केवीआईसी द्वारा की गयी सहायता ने असम के रौमारी गांव के बुनकरों के लिए फिर से आशा की किरण पैदा की है।


पूर्वोत्तर में खादी क्षेत्र के अवसर और संभावनाएं


पूर्वोत्तर भारत एक ऐसा क्षेत्र है, जहां सदियों से खादी कताई और बुनाई लगभग हर घर में की जाती है। यह न केवल उन महिलाओं के लिए एक पारंपरिक व्यवसाय रहा है, जो परिवार के सदस्यों के लिए कपड़े का उत्पादन करती हैं, बल्कि यह आजीविका का एक स्रोत भी है। दिलचस्प बात यह है कि यहाँ महिलाएं ही असली नायक हैं, क्योंकि भारत के बाकी हिस्सों में पुरुषों ने इस व्यवसाय में महिलाओं को डोमिनेट कर के रखा है, पर इसके विपरीत, पूर्वोत्तर में बुनाई की जिम्मेदारी महिलाओं पर ही है. पूर्वोत्तर में अधिकांश जनजातियों की एक अनूठी बुनाई और पैटर्न है, जो न केवल एक ही जनजाति के परिवारों के भीतर भिन्न होते हैं, बल्कि एक गांव से दूसरे गांव में भी उनमें विविधता पायी जाती है।
यहाँ इस बात का उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा कि मूगा और गोल्डन सिल्क में असम का विश्व में एकाधिकार है, क्योंकि 97 प्रतिशत से अधिक मूगा सिल्क का उत्पादन असम में ही होता है। राज्य ने मूगा धागे के लिए भौगोलिक संकेतक का अधिकार भी हासिल कर लिया है। असम, पूरे देश की तुलना में लगभग 56 प्रतिशत एरी सिल्क का उत्पादन करता है। ये तथ्य बताते हैं कि इस क्षेत्र में खादी क्षेत्र के लिए अपार संभावनाएं हैं.


वैश्विक बाजार में खादी का भविष्य


• एरी सिल्क का बड़ा हिस्सा पहले से ही विभिन्न डिजाइन हाउसों को निर्यात किया जा रहा है, लेकिन उसके मूल की पहचान मुश्किल से की जा रही है.
• लोग दिनोंदिन पर्यावरण के प्रति जागरूक हो रहे हैं, इसलिए बाजारों में एरी जैसे टिकाऊ और पर्यावरण के प्रति अनुकूल कपड़ों की बहुत आवश्यकता होगी.
• आरामदायक कपड़ों की बढ़ती मांग के चलते एरी सिल्क के कपड़ों की मांग भी बढ़ सकती है, क्योंकि इसके ढीले बुने हुए धागे सर्दियों में गर्म और गर्मियों में ठंडा रखते हैं.
• एरी रेशम के कीड़े असम के जंगलों के मूल निवासी हैं. इस विशेष प्रकार के रेशम को जंगल के कोकून से बनाया जाता है, जहां कीड़े स्वाभाविक रूप से अपने कोकून से निकलते हैं और उड़ जाते हैं, इसलिए यह क्रूरता मुक्त और अहिंसक भी है।
पूर्वोत्तर में खादी क्षेत्र की चुनौतियां
अगर हम क्षेत्र में जमीनी स्तर पर कताई और बुनाई के काम में लगे गैर सरकारी संगठनों को खादी संस्थानों के रूप में केवीआईसी के साथ पंजीकृत कराने के लिए हतोत्साहित करने वाले अंतर्निहित कारणों का विश्लेषण करें, तो इसके कम से कम तीन पहलू समझ में आते हैं.

  1. क्षेत्र में प्रचलित उच्च मूल्य सूचकांक के कारण आने वाली लागत आधारित समस्या, एक ऐसा प्रासंगिक मुद्दा है, जो विकास कार्यक्रम में बाधक रहा है। चूंकि उत्तर पूर्व एक कैप्टिव क्षेत्र है, जहाँ देश के अन्य हिस्सों से चरखे, करघे, सभी प्रकार के उपकरण, मशीनरी, टीएमटी बार, फिटिंग्स, सीमेंट आदि निर्माण सामग्री अधिकांश उत्पादों का आयात करना पड़ता है, स्वाभाविक रूप से खादी उत्पादों का मूल्य बढ़ जाता है। अंतर-क्षेत्रीय परिवहन भी उच्च लागत वाला है। स्थिति को नियंत्रित करने के लिए निर्माण और खरीद से संबंधित सभी योजनाबद्ध घटकों में 25 प्रतिशत धनराशि की वृद्धि पर विचार किया जा सकता है। इस प्रकार खादी वर्कशेड के निर्माण के प्रावधान को वर्तमान 60,000 से रु. 1, 00,000 रु प्रति यूनिट बढ़ाया जा सकता है। तालिका-2 और 3 के ग्राफिक इस तथ्य की खुदबखुद व्याख्या करते हैं.
  2. प्रत्यक्ष लाभांतरण के वर्तमान तरीके के चलते कुछ हद तक गरीब कारीगर अपनी आजीविका को लेकर हतोत्साहित हुए हैं, इनमें ज्यादातर ग्रामीण महिलाएं हैं। असम में एक कत्तिन साप्ताहिक रूप से लगभग 150-250 रूपये मजदूरी कमाता है, जो वर्तमान महंगाई के सामने लगभग नगण्य कमाई है। इतनी कम मजदूरी के लिए कारीगर बैंक शाखाओं में जाने से कतरा रहे हैं। इसके अलावा वे पूर्वोत्तर में बैंक नेटवर्क के खराब संचार, इंटरनेट सुविधाओं, ग्राहक की अज्ञानता और निरक्षरता आदि के चलते दुर्दशा का शिकार हैं। कारीगर कहते हैं कि इतने कम पैसे के लिए उन्हें पूरे दिन लाइन में खड़े रहना पड़ता है। हम जमीनी वास्तविकताओं का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि रु. 500 प्रति सप्ताह या रु. 2000 प्रति माह पर विचार किया जा सकता है और उन्हें नकद में भुगतान करने की अनुमति दी जा सकती है। गरीब कारीगर अधिकारियों के सामने अपनी तकलीफ कहने में असमर्थ होते हैं.
  3. तीसरा कारण, जो खादी संस्थाओं को बढ़ावा देने में बाधक बनता है, वह यह कि हमारी वर्तमान योजनाओं में कारीगरों को वर्किंग कैपिटल से सपोर्ट करने का कोई प्रावधान नहीं है. लेकिन नयी संस्थाओं को कम से कम कताई और बुनाई शुरू करने के लिए एक प्रारम्भिक पूँजी की जरूरत होती है। वैसे अब ऐसा प्रस्ताव है कि प्रत्येक नयी संस्था को लगभग दस लाख रूपये प्रारंभिक कार्यशील पूंजी दी जाय. संगठित तरीके से कताई और बुनाई दोनों तरह की गतिविधियों को शुरू करने के लिए कारीगरों को संगठित करने करने की दृष्टि से यह सार्थक कदम होगा। हालांकि व्यावहारिक रूप से यह पूर्वोत्तर में नहीं हो रहा है, क्योंकि बैंकरों को ऋण देने में दुविधा होती है। पूर्वोत्तर में 10 नयी संस्थाओं को प्रोमोट करने के लिए औसतन एक करोड़ रुपये के प्रावधान की आवश्यकता होगी। यह इस क्षेत्र में केवीआईसी के बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए खर्च नहीं, बल्कि निवेश होगा। प्रस्तावित कार्यशील पूंजी में उपयुक्त अनुपात में अनुदान और सॉफ्ट लोन की व्यवस्था भी की जा सकती है।
    निष्कर्ष
  4. पूर्वोत्तर में नयी संस्थाओं के लिए आनुपातिक अनुदान और सॉफ्ट लोन के साथ कार्यशील पूंजी रूपये 10.00 लाख तक दी जा सकती है।
  5. असाधारण परिस्थितियों में वेतन को एक निश्चित सीमा तक नकद वितरित करने की अनुमति कुछ समय के लिए दी जा सकती है।
  6. निर्माण सामग्री के लिए उच्च मूल्य सूचकांक की स्थिति के साथ-साथ परिवहन की उच्च लागत को कम करने के लिए, यानी लागत आधारित मुद्दे के लिए, निर्माण और खरीद से संबंधित सभी योजनाबद्ध घटकों में 25% की वृद्धि करने पर विचार किया जा सकता है .
    इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में लाभकारी स्थायी रोजगार का सृजन और गैर-कृषि क्षेत्र में बिक्री योग्य उत्पादों का उत्पादन, कम से कम ये दो लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं.

-डॉ सुकमल देब

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