दो बूंद गंगाजल

वैश्विक तापमान में वृद्धि और इसके परिणामस्वरूप जलवायु में परिवर्तन। निःसंदेह, इस वृद्धि और परिवर्तन के कारण स्थानीय भी हैं, किंतु राजसत्ता अभी भी ऐसे कारणों को राजनीति और अर्थशास्त्र के फौरी लाभ के तराजू पर तौलकर मुनाफे की बंदरबांट में मगन दिखाई दे रही है। जन-जागरण के सरकारी व स्वयंसेवी प्रयासों से जनता तो कम जागी; बाज़ार ने अवसर ज्यादा हासिल कर लिए। राजसत्ता ने बाजारसत्ता से हाथ मिला लिया और धर्मसत्ता, इस गठजोड़ के आगे दण्डवत हो गई। पढ़ें! पर्वतराज हिमालय, हिमनद और गंगा को माध्यम बनाकर इन विषम परिस्थितियों को रेखांकित करती अरुण तिवारी की यह सशक्त कहानी !

फागुन में जेठ की आहट!

छटपटाने की बात तो थी ही। लालवर्णी रश्मियों के असमय आगमन से छटपटाहट बढ़ गई। राजाओं के राजा…गिरिराजों के महाराज – पर्वतराज हिमालय के आसन पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा। वह अभी भी पांच सेंटिमीटर प्रति वर्ष की गति से उत्तर की ओर गतिमान थे। किंतु पर्वतराज पर समाधि लगाए बैठे हिमनद का अंग-अंग डोल उठा। उसकी सम्पूर्ण देह लहर-लहर जाने को बेचैन हो उठी। रेतीली चांदी ने देह की कांति को ढक कर हिमनद को और निढाल कर दिया था। अनेकानेक श्यामवर्णी प्रदूषक कामिनियों के गति-स्पर्श से हिमनद की देह जैसे विषाक्त हो उठी। धमनियों की गति इतनी तेज हो गई कि हिमनद अपना नियंत्रण खो बैठा। समाधि टूट गई। यह उसका स्वयं का क्रोध था या किसी अन्य का दाह; हिमनद की देह वाष्पित होने लगी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह हो क्या रहा है। हिमनद ने अपने शीत नयनों से सूर्यदेव को देखा। सूर्यदेव का ताप जैसे उसे ही ललकार रहा था।

हिमनद ने सोचा – क्या मुझसे कोई पातक हुआ…जाने अथवा अनजाने ?

उसने चारों ओर निगाह डाली। कोई उंगली उसकी ओर इंगित नहीं कर रही थी। वह समझ गया कि किसी ने प्रकृति के नियमों की अवहेलना की है। प्रकृति नियंता शक्तियां, ज़रूर उसे कोई कठिन दण्ड देना चाहती हैं। हिमनद तो सिर्फ माध्यम भर है। हिमनद ने ऩजरें झुका लीं। वह आत्म-विसर्जन को तैयार हो गया। मुहूर्त तय हुआ।

गंगा दशहरा !

अरे यह तो गंगा अवतरण की तिथि है; इस दिन क्षरण का आरम्भ !!

हा ईश्वर! अब क्या होगा ?

हिमनद की क्षरणशील मुद्रा को देख जलीय जीवों में हलचल मच गई। मां गंगा के जीवामृत ने स्वयं को स्वयं ही सोखना प्रारम्भ कर दिया। पृथ्वी की नीर वाहिनियां अपशकुन की आशंका से कांप उठीं। किनारे टूटने-सूखने को तैयार हो गए। नन्हे झुरमुटों ने शीश झुका लिए। डेल्टाओं ने डूबने की तैयारी कर ली। किंतु सागर? सागर के अट्टाहास ने हिमनद के स्वागत का संदेश दिया। मेघराज चुप्पी मारे इस कौतुक को देखते रहे। किंतु मानव अभी भी अपनी अट्टालिकाएं सजाने में मगन था।

देखते ही देखते हिमनद ढहने लगा। ढहते-बहते हिमनद के संग नीर वाहिनियां भी दौड़ पड़ीं। वेग, प्रबल आवेग में तब्दील हो गया। विहार करती सुंदर सलिल रमणियों के भीतर जैसे किसी ने कोई दावानल प्रवेश करा दिया हो। कसी कंचुकियां टूट गईं। यकायक उन्नत हो उठे उरोजों से फेन फूट पड़ा। नीर वाहिनियों के फेनिल वक्ष देख, सलिल तट दुग्धपान को लालायित हो उठे। किंतु आवेग से उत्पन्न आवेश इतना तीव्र था कि वे क्षत-विक्षत होकर नीर वाहिनियों में समा गए। नीर वाहिनियां आकंठ मटियारे रंग से भर गईं।
लालसा से अधिक, भय का वातावरण निर्मित हो गया।

हिमनद, हरहराता हुआ सागर के खार में समा गया। सागर तृप्त होते-होते यकायक तप्त हो उठा। ताप भी ऐसा कि गंगोत्री की प्रतिमा दरक गई; बद्री-केदार की आब झुलस गई।

सागर भी घबराया कि यह क्या हुआ !! पवन का रुख पलट गया। मेघ उड़ जाने के बजाय, उल्टे सागर में समा गये। नीर वाहिनियां अवशेष हो गईं। सागर की गुरु गंभीरता से पृथ्वी असंतुलित हो गई। तल, वितल, सुतल पर प्रहार शुरू हो गए। पंजे ऊपर की ओर उठा ही चाहते थे कि पृथ्वी ने अपनी एड़ियों को थोड़ा सा उचकाकर टेक बदल ली।

ओह! अब जाकर नूतन ऋषि कुमारों की तन्द्रा टूटी। वे आभासी दुनिया से बाहर आए। वे जानते थे कि पृथ्वी का टेक बदलना, कोई साधारण घटना नहीं है। नूतन ऋषि कुमारों ने अपने-अपने उपकरण खोले। वे अपनी-अपनी गणनाओं में लग गए।
गणनायें चीख-चीख कर कह रही थीं – मानुष खौं…मानुष खौं ! परिवर्तन, परिवर्तन…परिवर्तन!!

स्क्रीन पर कुछ उलट ही चित्र तैरने लगे। सहारा के रेगिस्तान में हरे-हरे झुरमुट। कच्छ, चुरु, झुंझनू, जैसलमेर….जहां ताप ही ताप, अब वहां कम दाब। हरियाणा, एमपी, यूपी में नया मंजर, नया बंजर….नया मरुस्थल। चेरापूंजी, मावसीरम से महाबलेश्वर तक छूटते-मिलते बारिश के तमगे। जहां बाढ़, वहां सूखते हलक। जहां सूखा, वहां वर्षा ही वर्षा। कभी ताप ही ताप, कभी एक दम से मेघों का धड़-धड़ाम। पवनदेव कहां मुड़ेंगे, कहां झुकेंगे; सब कुछ परिवर्तन, परिवर्तन…परिवर्तन।

नूतन ऋषि कुमार चीख उठे – परिवर्तन, परिवर्तन…. मानुष बदल, मानुष बदल।

जनमानस नहीं बदला, किंतु नूतन ऋषि कुमारों के संदेश ने सत्ताजीवियों के कान खडे़ कर दिए। वे बदलने लगे। सत्ताजीवी आफत में अवसर ढूंढ़ने में लग गए। सत्ताजीवी और बाज़ारुओं ने हाथ मिला लिए। उनके हाथ मिलाते ही अवसरों व अवसरवादियों की लाइन लग गई। बाज़ारुओं ने फण्ड बांटना शुरू कर दिया। सत्ताजीवियों ने चुनाव का ऐलान कर दिया। कुछ समाजजीवी चुनावी भर्तार, नूतन ऋषि कुमारों की गणनाओं का भय दिखाकर फण्ड बटोरने में लग गए।

अवसर मिलल बा तो खेला होइबे करी। खेल होने लगे।


मां गंगा के किनारे एक दिलचस्प मेला लग गया। जिन्हे बुलाया नहीं, वह भी ‘मां गंगा ने बुलाया है’ का गान गाने लगे। वह योगी, ऋषि, तपस्वी, गंगापुत्र…सब कुछ हो गए। मां गंगा को एक नूतन पुत्र मिल गया।

द्रौपदी समेत सभी पंच पाण्डव, शकुनि की द्यूतक्रीड़ा में फंस गए। नूतन गंगा पुत्र की जय-जयकार होने लगी। बनारस में घाट की जगह ठाठ सज गये। कश्तियां उड़-उड़कर ईको-टूरिस्टरों में तब्दील हो गईं। जलयानों के लिए गंगा का गर्भ क्षेत्र खोदा जाने लगा। जीव विहार उजा़डे़ जाने लगे। देवगंगा के गले में बंधन के बाजारू पहले से विराजमान थे ही। विकास को रा2जमार्ग देने के नाम पर पर्वतराज को क्षत-विक्षत करने की कोशिशें भी तेज़ी पर थीं। गंगा की गोद खोद के दुर्योधनों की निगाहें कुछ और ज्यादा हठीली…कुछ और अधिक नुकीली हो गईं। इस लोभक्रीड़ा ने गंगा के जीवामृत को पीछे ही रोक लिया। मां गंगा ने नूतन पुत्र की ओर देखा। नूतन गंगा पुत्र, मां गंगा को छोड़ भगवान केदारनाथ का पुत्र होने चला गया। बालक अभिमन्यु की भांति गंगा, चक्रव्यूह में आतताइयों के बीच अकेली रह गई। मानवीय संवेदनाओं का क्षरण देख गंगा सिसक उठी।

जनमानस अभी भी सोया ही था। किंतु ऋषि कुमार की गंगा तपस्या ने बाजारू और सत्ताजीवियों के आसन हिला दिए। मंत्रणा हुई। तय हुआ कि ऋषि कुमार को अपने पाले में मिला लिया जाये। यह काम, धर्मसत्ता को सौंपना तय हुआ। राजसत्ता ने उन्हें झुकने को कहा, धर्मसत्ता तो पूरी की पूरी लेट गई। धर्मसत्ता ने अपने सबसे खास मोहरों को दूत बनाकर भेज दिया।

दूतों ने देखा कि ऋषि कुमार तो अपनी गंगा तपस्या में इतने लीन हैं कि उनकी ओर देख तक नहीं रहे। दूत लौट गये। दूतों को असफल देख एक राजसाध्वी, महादूत बनकर आईं। महादूत ’भइया, भइया’ कह कर ऋषि कुमार से लिपटा ही चाहती थीं कि ऋषि कुमार ने आंखें खोल दीं।

‘नहीं देवी, नहीं। अभी तुम मेरी बहिन नहीं, तुम राजसाध्वी हो। तुम सत्ताजीवियों की प्रतिनिधि बनकर आई हो।’

महादूत सावधान हो गई। उसने अगला पांसा फेंका – ऋषि कुमार, मुझे गंगाजल से आपका अभिषेक करने का आदेश हुआ है।

ऋषि कुमार ने इंकार कर दिया।

महादूत ने पुनः निवेदन किया – ऋषि कुमार, अभिषेक न सही, गंगाजल तो मां का प्रसाद है। मां के प्रसाद को इंकार करना तो महापाप है। क्या आप यह महापाप करेंगे ? क्या एक गंगा-तपस्वी को यह शोभा देगा?


ऋषि कुमार ने एक पल सोचा। मां गंगा को प्रणाम किया। ऋषि कुमार ने अपनी अंजुली, महादूत की ओर बढ़ा दी। महादूत ने गंगाजली झुकाई। अभी पहली बूंद गिरी ही थी कि ऋषि कुमार हतप्रभ हो गए। हथेली कालिमा से भर उठी। ऋषि कुमार ने अंजुली पीछे हटा ली। ऋषि कुमार की आंखों से ज्वाला निकलने लगी।

ऋषि कुमार क्रोधित हो उठे – देवी, तुमने छल किया है। यह गंगाजल नहीं। यह तो जल है… जल भी कहां ? इसे तो हम भारतीयों के कुहृदयों की लिप्सा, कुत्सा, कुतृष्णा और कुकृत्यों की कालिमा से परिपूर्ण अवजल कहना ही बेहतर होगा।

महादूत को कुछ समझ नहीं आया। वह एक क्षण अपनी गंगाजली को देखती और दूसरे क्षण ऋषि कुमार को।

‘ऋषि कुमार यह गंगाजल ही है। इसमें बनारस के सभी 88 घाटों का जल मिश्रित है। नूतन गंगापुत्र ने इसे विशेष रूप से आपके लिए संग्रहित कराया है।’

ऋषि कुमार व्यंग्य मुद्रा में मुस्कराये – हुंह नूतन गंगापुत्र ! वे तो इतना भी नहीं जानते कि अब गोमुख से निकली एक भी बूंद बनारस तक नहीं पहुंचती।

महादूत अवाक थी।

‘ऋषिकुमार मैने छल नहीं किया। मैं अनजान थी। मुझे क्षमा करें। मैं लाऊंगी आपके लिए गंगाजल।’

महादूत लौट गई। महादूत ने गंगा मिशनधारियों से निवेदन दिया – मुझे गंगाजल चाहिए।

मिशन के दफ्तर में खोजबीन शुरू हुई। मिशन में दर-दर गंगे भी थी और हर-हर गंगे भी, लेकिन गंगाजल न था। एक हरकारा, डाकघर दौड़ाया गया। उसने लाकर पलास्टिक की एक छोटी सी गंगाजली पेश की। महादूत ने देखा कि गंगाजली पर अशोक चक्र चिन्हित है। महादूत, साध्वी तो थी, लेकिन सत्ताजीवी भी; लिहाजा, गंगाजली का पलास्टिक तत्व भी महादूत को शंकित न कर सका। महादूत आश्वस्त हुई। महादूत, नूतन गंगाजली को लेकर फिर ऋषि कुमार के पास पहुंची।

ऋषिकुमार को महादूत की अज्ञानता पर अफसोस हुआ। भारत की ज्ञान संस्कृति की वाहक…राजसत्ता की महादूत और ऐसा अज्ञान !! अफसोस की बात थी ही।

ऋषिकुमार बोले – देवी, मुझे ताज्जुब है कि तुम हिन्दू हो !….अरे देवी, क्या तुम इतना भी नहीं जानती कि गंगा का जीवामृत तो टिहरी की झील में कैद है। शेष जो कुछ है, वह टनल, टरबाइन, मानव मल और औद्योगिक अवजल में फंसकर नष्ट हो रहा है। जाओ, कर सकती हो तो मय जीवामृत मां गंगा को कै़द मुक्त करो। अपना साध्वी धर्म निभाओ। वरना एक दिन मां गंगा की कै़द की जद में तुम भी जाओगी और तुम्हारे नूतन गंगापुत्र भी। महापद हमेशा साथ नहीं रहता।

…हा ! क्या अब मृत्यु पूर्व दो बूंद गंगाजल, सिर्फ एक दिवास्वप्न ही रहेगा ?

ऋषिकुमार की आस टूट गई।

महादूत, गंगा को मुक्त तो न करा सकी; किंतु महादूत के अधिभार से खुद मुक्त हो गई। ऋषि कुमार ने भी खुद को मुक्त कर लिया। ऋषि कुमार की आत्मा, रामजी के दरबार में पहुंच गई। किंतु गंगा का जीवामृत आज भी वहीं कैद है; टिहरी की झील में। जन-मन को आज भी विश्वास है कि गंगा मैया सब ठीक कर लेंगी। मां गंगा पुत्रमोह से ग्रस्त ज़रूर हैं, लेकिन विवश नहीं। अपने प्राणतत्व को खोते कितना दिन देखेंगी ? जिस दिन उफनेंगी, अपने जीवामृत को मुक्त करा लेंगी।

इसी विश्वास को लिए जन-जन आज भी गंगा सेवा के नाम पर सिर्फ गंगा-आरती ही गा रहा है। मानुष खौं! मानुष खौं!…मनुष्य-मनुष्य को खा ही रहा है। सत्ताजीवियों को देव-दीपावली की चमक पसंद है। बाज़ारू शक्तियां जल, मल, थल…सभी का दोहन कर काला सोना बनाने में ध्यानस्थ है। और धर्मसत्ता ?…..धर्मसत्ता तो वाही में मगन, जेहमें हैं करोड़ों जन-धन।

‘चुनाव-दर-चुनाव, मुद्दा-दर-मुद्दा…वोट-पर-वोट; पर प्रकृति की चिंता कोई मुद्दा नहीं। ओह, यह कैसा दौर है ?’

अबकी बार आवाज़ रामजी के दरबार से आई थी। आवाज़ सुनते ही नूतन पुत्र की सवारी, मां गंगा औ भोले-भाले केदारनाथ को छोड़ सरपट दौड़ चली राम दरबार की ओर। किंतु यह क्या ! यहां तो श्रीराम हैं ही नहीं। सिंहासन खाली है। नूतन पुत्र का चेहरा दमक उठा। नजरें सिंहासन पर, हाथ दरबारियों की ओर। गले लगते, कानों में मिश्री घोलते; एक-एक कर दृश्य बदलते गए। रामराज्य गया; भ्रमराज्य भरमाने लगा। दरबारियों की बांछें खिल गईं। अब रामजी को नया पुत्र जो मिल गया है।

कलियुग! घोर कलियुग!!
तभी एक मद्धिम स्वर फूटा :
गंगा से कह गए राम थे,
कलियुग में जब नीर घटेगा,
पीर बढे़गी,
तब क्षीरसागर में हलचल होगी,
शेषनाग फन फैलाएगा,
इन्द्रदेव तब तरकश लेकर,
लोक-परलोक से ऊपर उठकर
कुछ संतानें साथ मिलेंगी।
साथ मिलेंगी, साथ चलेंगी।
संघर्षों की आब लहर बन,
नूतन निर्मल धार सजेंगी,
तब तक माता धीरज रखना,
मेरे पुरखों को तुमने तारा,
नए हिंदोस्तां को तुम्ही तारना।
माता ये निवेदन स्वीकारना।

नूतन पुत्र भूल जायें; दरबारी भूल जायें; किंतु क्या मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले श्रीराम भूल सकते हैं कि यह गंगा ही है, जिसने कभी उनके पुरखों का तारा ? मां गंगा भी राजा भगीरथ को कैसे भूल सकती है ! मां गंगा को अभी भी ऋषिकुमार के जी उठने की आस है। ऋषि कुमार की देह है कि मृत्यु पश्चात अभी भी जीवामृत मय गंगाजल ही तलाश रही है !!

है कोई सच्चा गंगापुत्र या गंगापुत्री इस दुनिया-जहान में, जो जीवामृत मय गंगाजल को सागर तक पहुंचा सके ?…हिमनद को उसका समाधिस्थ निर्मल स्वरूप लौटा सके ?? सागर और पर्वतराज हिमालय.. दोनों को इंतज़ार है.

-अरुण तिवारी

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