गांधी-150 और आजादी-75 के संदर्भ में खादी – न खुदा ही मिला, न विसाले सनम

जो खादी कभी स्वावलंबन आधारित जीवन जीने के माध्यम के रूप में मिली थी, वह आंकड़ों के मकड़जाल में जकड़ती हुई उत्पादन में कम, लेकिन बिक्री में अधिक होती हुई प्रतीत होने लगी है। इन कारणों से एक अविश्वास का वातावरण बनता नजर आता है। ग्रामोद्योग का आधार खादी अपने वास्तविक अर्थ में कहीं पीछे छूट गया दिखाई देने लगा है।

खादी, गांधी जी के रचनात्मक कार्यो के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति के रूप में भारत में आई. गांधी जी ने रचानात्मक कार्यक्रमों को सत्य और अंहिसात्मक साधनों द्वारा पूर्ण करने के काम को स्वराज्य की रचना कहा. खादी सहित 19 बिंदुओ को इसके अन्तर्गत रखते हुए उन्होंने उसके एक-एक अंग पर विचार करने के लिए प्रेरित किया। हालांकि समय के साथ खादी के विषय में गांधी जी की सोच से पृथक कार्यशैली, व्यवहार, भावना, व्यवस्था व विचार अपनाने से बदलाव हुए, जिसके कारण पूर्व की भांति समर्पण, सम्मान और संबंध नहीं रहे. आपसी संबंध शासक और शासित, मालिक और नौकरी करने वाले आदि के रूप में परिभाषित होते हुए नजर आने लगे तथा इस आपाधापी के युग में ट्रस्टीशिप की भावना व कार्यकर्ता का समर्पण भाव कहीं पीछे छूटता चला गया, असमानता व असहिष्णुता की खाई भी इस प्रक्रिया में गहरी होनी ही थी। सहयोगी आपस में प्रतियोगी या प्रतिद्वन्द्वी की भूमिकाओं में बंट गए। कथनी-करनी में अंतर आने के परिणाम जो होते हैं, वे स्पष्टतया हुए ही हैं. सामूहिक हित के कार्य के स्थान पर व्यक्तिवादी सोच हावी होने से न लाभ, न हानि के सिद्वान्त की उपेक्षा के दुष्परिणाम सामने आने लगे। साधन की पवित्रता का ध्यान न रखने से साध्य के सही होने की आशा व्यर्थ सिद्व होती है। जो खादी कभी स्वावलंबन आधारित जीवन जीने के माध्यम के रूप में मिली थी, वह उद्वेश्य से भटकने के कारण परावलंबित नजर आने लगी है। आंकड़ों के मकड़जाल में जकड़ती हुई, उत्पादन में कम, लेकिन बिक्री में अधिक होती हुई प्रतीत होने लगी है। इन कारणों से एक अविश्वास का वातावरण बनता नजर आता है। ग्रामोद्योग का आधार खादी संस्थाओं के केवल नाम में ही रह गया है और अपने वास्तविक अर्थ में यह कहीं पीछे छूट गया दिखाई देने लगा है। असंतोष चरम पर है और नकारात्मक धारणाएं बलवती होती दिखाई देती हैं। विचार और व्यापार के घालमेल से स्थिति यूं लग रही है, जैसे न खुदा ही मिला, न विसाले सनम।


खादी कार्य प्रारंभ हुए 100 वर्ष से भी अधिक समय यूं ही निकल गया और इस कार्य को महज आर्थिक गतिविधि मानकर बाजार के हवाले करके इसकी विशिष्ट पहचान समाप्त करने के प्रयास दिखाई देने लगे. प्रिवी कौंसिल के समय भी किसी भी कर से मुक्त खादी पर जीएसटी जैसे करारोपण से उसकी विशिष्ट पहचान पर संकट आ खड़ा हुआ है। समाज के वैचारिक मूल्यों में परिर्वतन का प्रभाव पड़ना ही था। अपने गौरवशाली अतीत की विरासत को सहेजने के लिए विनोबा द्वारा स्थापित खादी मिशन की सभा में खादी कार्य में लगे खादी प्रेमी मिलकर निर्णय लेते हैं. उनके साथ कार्य कर चुके वयोवृद्व बालविजय के सान्निध्य में आज भी यह आयोजन, चिंतन होता है। वर्तमान दशा पर विचार कर भविष्य की दिशा का निर्धारण किया जाता है और खादी प्रेमियों तथा खादी संस्थाओं द्वारा सभी को समीक्षा करने का अवसर मिलता है। देश की 65% युवा आबादी को भारतीय स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष और खादी कार्य के महत्व से परिचित होना चाहिए. गांधी-150 के द्विवर्षीय आयोजनों की श्रृंखला निरंतर जारी है। लेकिन गांधी जी का अनुसरण कर ट्रस्टीशिप सिद्वांत पर कायम की गयी संस्थाएं इसका पूर्ण उपयोग करने में असमर्थ हैं।


वैचारिक धरातल पर आधारभूत कार्यों का परिणाम सुखद होगा, ऐसी आशा है। निश्चित ही भविष्य में भी विश्व जनमत गांधी की खादी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखेगा. संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 2 अक्टूबर गांधी जयंन्ती को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में घोषित किये जाने के बाद खादी के काम में गतिशीलता दिखनी चाहिए। कोविड के इस दौर में आर्थिक व स्वास्थ्य संबंधी परिस्थितियों का समाधान खादी व गांधी मार्ग पर चलकर ही खोजा जा सकता है, संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग से लोगों का कल्याण किया जा सकता है, ऐसे अनुभव आये हैं। गांधी जी की विरासत के रूप में खादी की समृद्ध परंपरा को अपनाने व अनुसरण करने को विश्व उद्यत व तैयार है। भारत की आजादी के 75 वें वर्ष का अवसर भी संपूर्ण विश्व तक पहुंचने का उपयुक्त समय है. खादी मात्र वस्त्र का एक टुकड़ा भर नहीं है, बल्कि जीवन जीने का तरीका है, संपूर्ण जीवन दर्शन है और एक मार्ग है, जिस पर चलकर प्रकृति हितैषी होकर जीवन जिया जा सकता है।

-भगवती प्रसाद पारीक

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