गांधी ने भगत सिंह को क्यों नहीं बचाया?

गांधी अपने जीवन के हर आयाम में अहिंसक होने की कोशिश करते थे। ये कोशिश उन्हें बहुत ही विनम्र और साहसी बनाती थी। वे किसी को भी मृत्युदंड दिए जाने के विषय में बहुत विनम्रता से विचार करते हैं। वे भगत सिंह ही नहीं, किसी भी व्यक्ति को मृत्युदंड दिए जाने के सख्त विरोधी थे। उनका मानना था कि मृत्युदंड प्रकृति के नियमों के विपरीत है।

23 मार्च को भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा हो गई। ये सब जल्दबाजी में हुआ था। फांसी की खबर देश में आग की तरह फैली और आग की तरह ही इस प्रश्न को फैलाने में तबकी सरकार ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि गांधी ने भगत सिंह को बचाने की कोई कोशिश क्यों नहीं की? वे चाहते तो भगत सिंह और उनके साथी आज जिंदा होते। 26-31 मार्च तक कांग्रेस का कराची में अधिवेशन तय था। जाहिर है, शहीदों की फांसी के बाद माहौल बहुत गंभीर और नाजुक था। गांधी के प्रयासों के संदर्भ में उठते प्रश्नों की आंच इस अधिवेशन को लगनी ही थी। गांधी जब कराची पहुंचे तो नौजवान भारत सभा के कुछ युवकों ने उन्हें काले कपड़े के बने गुलाब भेंट किए और भगत सिंह जिंदाबाद और गांधीवाद का नाश हो के नारे भी लगाए।

26 मार्च को कांग्रेस के अधिवेशन में इस पूरी घटना पर गांधी ने बहुत ही धीरज के साथ अपनी बात रखी और कहा कि मैं भगत सिंह और उनके साथियों की मौत की सजा में परिवर्तन नहीं करवा सका, इसी कारण नवयुवकों ने मेरे प्रति अपना क्रोध प्रदर्शित किया है। मैं इसके लिए पूरी तरह से तैयार था। यद्यपि वे मुझ पर बहुत नाराज थे, फिर भी मैं सोचता हूँ कि उन्होंने अपने क्रोध का प्रदर्शन बहुत ही सभ्य ढ़ंग से किया। वे चाहते तो आसानी से मार-पीट कर सकते थे, पर उन्होंने अपने क्रोध पर अंकुश रखा। मेरा अपमान केवल काले कपड़े के फूल, जो कि मैं समझता हूँ, तीनों देशभक्तों की चिता की राख के प्रतीक थे, देकर किया। इन्हें भी वे मेरे ऊपर बरसा सकते थे अथवा मुझ पर फेंक सकते थे, पर उन्होंने यह सब न करके मुझे अपने हाथों से फूल लेने की छूट दी और मैंने कृतज्ञतापूर्वक इन फूलों को लिया। निस्सन्देह उन्होंने गांधीवाद का नाश हो, गांधी वापस जाओ के नारे लगाये और इसे मैं उनके क्रोध का सही प्रदर्शन मानता हूँ।

गांधीजी के साथ हो रहे ऐसे बर्ताव से बहुत लोग दुखी थे, चिंतित भी थे, साथ ही गुस्से में भी थे। इस संदर्भ में वे आगे बोलते हैं कि ‘ऐसा भय करने का कोई कारण न था। वे नौजवान तो सिर्फ यही पुकार रहे थे कि गांधी वापस जाओ और गांधीवाद का नाश हो। उन्हें ऐसा करने का हक था, क्योंकि वे मानते थे कि मैंने भगत सिंह को बचाने के लिए अपनी शक्ति भर कोशिश नहीं की या अहिंसाधर्मी होने के कारण मैं भगत सिंह और उनके साथियों को एकदम भूल गया। किन्तु उन नौजवानों का इरादा मुझे या किसी और को हैरान करने का नहीं था। उन्होंने सबको जाने दिया और तब एक नौजवान ने आकर काले कपड़े के फूल मेरे हाथों में दिये। ये फूल मुझ पर फेंक कर वे मेरा अपमान कर सकते थे, पर वैसा करने का उनका इरादा न था।

आगे वे कहते हैं कि ऐसा न करके यदि वे मुझे मारना चाहें, तो भले मार डालें, पर गांधीवाद को वे नष्ट नहीं कर सकते। यदि सत्य को मिटाया जा सकता है, तो गांधीवाद को भी मिटाया जा सकता है। अगर अहिंसा नष्ट हो सकती है, तो गांधीवाद भी नष्ट हो सकता है। क्योंकि सत्य और अहिंसा के जरिये स्वराज्य प्राप्त करने के सिवा गांधीवाद और है ही क्या? क्या सत्य और अहिंसा द्वारा प्राप्त स्वराज्य को नामंजूर करेंगे?


गांधी, खड़े किए गए इन प्रश्नों का मुकाबला बहुत ही ईमानदारी और साहस से करते हैं। विरोध और असहमति का सम्मान और उसे जगह देने का भाव गांधी के जीवन में हम पग-पग पर देखते हैं। इस नाजुक समय में भी वे अपने सिद्धांतों को नहीं छोड़ते हैं। यही कारण हैं कि गांधी से जिनकी असहमतियाँ रहीं, उसके बावजूद वे उन्हें एक आदमकद इंसान मानते थे।

गांधी और भगत सिंह के विचारों की जमीन अलग जरूर थी। बावजूद इसके दोनों एक दूसरे के देश प्रेम और साहस की सराहना करते थे। गांधी, भगतसिंह और उनके साथियों के साहस की सराहना करते हुए 26 मार्च 1931 को कराची में प्रेस के लोगों से कहते हैं कि आत्मदमन और कायरता से भरे दब्बूपने वाले इस देश में हमें इतना अधिक साहस और बलिदान नहीं मिल सकता. भगत सिंह के साहस और बलिदान के सामने मस्तक नत हो जाता है। वहीं भगत सिंह, लोगों से जुड़ाव और उनकी चेतना में जागरूकता के लिए गांधी का सम्मान करते थे।

गांधी अपने जीवन के हर आयाम में अहिंसक होने की कोशिश करते थे। ये कोशिश उन्हें बहुत ही विनम्र और साहसी बनाती थी। वे किसी को भी मृत्युदंड दिए जाने के विषय में बहुत विनम्रता से विचार करते हैं। वे भगत सिंह ही नहीं, किसी भी व्यक्ति को मृत्युदंड दिए जाने के सख्त विरोधी थे। उनका मानना था कि मृत्युदंड प्रकृति के नियमों के विपरीत है।

26 मार्च, 1931 को ही कांग्रेस के कराची अधिवेशन में भगत सिंह के संदर्भ में बोलते हुए वे कहते हैं कि आपको जानना चाहिए कि खूनी को, चोर को, डाकू को भी सजा देना मेरे धर्म के विरुद्ध है। इसलिए इस शक की तो कोई वजह ही नहीं हो सकती कि मैं भगत सिंह को बचाना नहीं चाहता था।

इसी सभा में से किसी ने रोष में पूछा- ‘आपने भगत सिंह को बचाने के लिए किया क्या?’ इस पर गांधी ने जवाब दिया- ‘मैं यहां अपना बचाव करने के लिए नहीं बैठा था, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया।’

वे आगे बोलते हैं, ‘मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया। समझाने की जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उन पर आजमा देखी। भगत सिंह की परिवार वालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन यानी 23 मार्च को सवेरे मैंने वाइसराय को एक खानगी खत लिखा। उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उड़ेल दी थी। पर सब बेकार हुआ।’

इस चिट्ठी में गांधीजी ने वायसराय को लिखा कि ‘जनमत चाहे सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है। जब कोई सिद्धांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान रखना हमारा कर्तव्य हो जाता है…. मौत की सजा पर अमल हो जाने के बाद तो वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता। यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी-सी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को, जिसे फिर वापस नहीं लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें…. दया कभी निष्फल नहीं जाती।’

जरा सोचकर देखिए कि गांधी की करुणा यहाँ कितने ऊँचे स्तर पर है। वे एक ऐसे व्यक्ति के लिए लड़ रहे हैं, जो उनके देश की आजादी के आंदोलन का हिस्सा जरूर है, लेकिन विचारों में ठीक उनके विपरीत। ये सवाल भी लोगों के जेहन में था कि क्या गांधी-इरविन समझौते में भगत सिंह की रिहाई भी एक शर्त के रूप में डाली जा सकती थी, अगर डाली जा सकती थी तो डाली क्यों नहीं गई? गांधी ने उत्तर दिया, ‘आप कहेंगे कि मुझे एक बात और करनी चाहिए थी- सजा को घटाने के लिए समझौते में एक शर्त रखनी चाहिए थी, पर फाँसी की सजा समझौते के बाद सुनायी गयी और अब ऐसा नहीं हो सकता था। सजा को घटाने के लिए समझौता-भंग की बात नहीं हो सकती थी। समझौता वापस ले लेने की धमकी देना तो विश्वासघात कहा जाता।’

वे आगे कहते हैं कि कार्यसमिति इस बात में मेरे साथ थी कि सजा घटाने की शर्त समझौते की शर्त नहीं हो सकती। इसलिए मैं इसकी चर्चा तो सुलह की बातों से अलग ही कर सकता था। मैंने उदारता की आशा की थी। मेरी वह आशा सफल होने वाली न थी; पर इस कारण समझौता तो कभी नहीं तोड़ा जा सकता। आगे वे कहते हैं कि मनुष्य की शक्ति भर प्रयत्न मैंने अकेले ही नहीं किया, पूज्य पंडित मालवीय जी और डॉ सप्रू ने भी अपनी शक्ति भर प्रयत्न कर देखा…।

गांधी ने भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए कानूनी रास्ते भी तलाशे, लेकिन वे असफल हुए। 29 अप्रैल 1931 को सी विजयराघवाचारी को भेजी चिट्ठी में गांधी ने लिखा, ‘इस सजा की कानूनी वैधता को लेकर ज्यूरिस्ट सर तेज बहादुर ने वायसराय से बात की, लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं निकला।’

इन सबके बीच हमें यह ध्यान रहना चाहिए कि वायसराय इरविन थे, न कि गांधी। गांधी तो चाहते थे कि सरकार भगत सिंह और उनके साथियों को मानवीय धरातल पर फांसी की सजा न दे, लेकिन सरकार ऐसा क्यों करती! सरकार ने इस मामले को गांधी और कांग्रेस को लोगों की नजरों में छोटा बनाने के लिए इस्तेमाल किया। वह चाहती थी कि कांग्रेस में फूट पड़े और गांधी कमजोर हों। इसके लिए उसने भगत सिंह की फांसी कराची कांग्रेस के समय ही मुकर्रर करना तय किया, ताकि गांधी और कांग्रेस पर गांधी-इरविन समझौता तोड़ने का दबाव बने और समझौता टूट जाए। अंग्रेज ऐसा सोचते थे कि ऐसा करने से आगे वे यह आरोप लगाकर कि देश के नेताओं की अपनी कोई टेक नहीं है और वे गैर जिम्मेवार हैं, इसलिए वे (अंग्रेज) किसी भी समझौते में उतरने की गुंजाइश को सिरे से ही खत्म कर सकते हैं। सुभाष बाबू इस समझौते के बिल्कुल पक्ष में नहीं थे, लेकिन वे ये जानते थे कि सरकार कांग्रेस को दो फांक करना चाहती है। इसलिए उन्होंने इसके खिलाफ कुछ बोला ही नहीं। यह अलग बात है कि सरकार को कुछ हाथ न लग सका। साम्राज्यवादी सरकार की इस असफलता को सफल बनाने का कार्य आज भी बराबरी से चल रहा है।

गांधी दूर का देखते थे। वे हमेशा ही देश को चेताने का काम करते रहे कि भले ही भगत सिंह और उनके साथियों का साध्य बहुत ऊँचा रहा हो, लेकिन उनका साधन गलत था और ये भी कि जब हम इन लोगों का अवलोकन करें तो उनके हिंसक कार्यों के परिणाम के समाज और मानवता पर होने वाले प्रभाव को भी संज्ञान में ले लें।

शहीद भगत सिंह नामक लेख में गांधी लिखते हैं, ‘मैं उन नवयुवक देशभक्तों की स्मृति में जो कुछ भी प्रशंसा के भाव कहे जा सकते हैं, उनके साथ अपने आपको सम्मिलित करता हूँ। मैं देश के नौजवानों को उनके उदाहरण का अनुकरण करने के विरुद्ध सावधान करना चाहता हूँ। हमें हर सूरत में उनकी कुर्बानी, उनके श्रम और उनके असीम साहस का अनुकरण करना चाहिए, परन्तु हमें उनके इन गुणों को उस प्रकार से इस्तेमाल न करना चाहिए, जिस प्रकार उन्होंने किया था। हमारे देश का उद्धार हत्या के जरिए नहीं होना चाहिए।’

दुबारा भगत सिंह को बहुत ही भावुक श्रद्धांजलि देते हुए गांधी 29 मार्च 1931 के नवजीवन में लिखते हैं, ‘‘भगत सिंह अहिंसा के पुजारी नहीं थे, लेकिन वे हिंसा को भी धर्म नहीं मानते थे। वे अन्य उपाय न देखकर खून करने को तैयार हुए थे। उनका आखिरी पत्र इस प्रकार था, ‘मैं तो लड़ते हुए गिरफ्तार हुआ हूँ। मुझे फाँसी नहीं दी जा सकती। मुझे तोप से उड़ा दो, गोली मारो।’ इन वीरों ने मौत के भय को जीता था। इनकी वीरता के लिए इन्हें हजारों नमन हों।’’

इन दो महान लोगों का देशप्रेम कितनी कोमलता से भरा है! भले ही भगत सिंह ने हिंसा का मार्ग चुना हो, लेकिन वे भी मनुष्यता के पुजारी थे। दोनों में ही लोगों के लिए बहुत मार्मिक करुणा दिखाई पड़ती है। गांधी या भगत सिंह किसी को ही संवेदनहीन भावों से नहीं समझा जा सकता।

-आयुष द्विवेदी

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