फोर्टिफायड चावल : मुनाफाखोरी का नया हथियार

बिजनेस की शब्दावली में इसे चावल की खुद्दी का वैल्यू एडीशन कहेंगे. लेकिन इसका लाभ उद्योग को मिल रहा है, न कि खेती किसानी को। किसान तो अपना धान राइस मिल को बेचकर गंगा नहा चुका है। अब धान का छिलका, खुद्दी, ब्रॉन सब कुछ मिल का है। अब मसला ये है कि चावल की खुद्दी, राइस मिल के मार्फत फोर्टिफिकेशन उद्योग को देने में किसान के चावल का वैल्यू एडीशन तो हुआ, लेकिन फायदा उद्योग को हुआ, न कि किसान को. यह मसला इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि सबसे उबड़खाबड़ स्थिति कृषि की ही है। एक आयाम यह भी है कि भारत में चावल के सरप्लस उत्पादन से किसानी भले ही मुनाफे में न रही हो, लेकिन इन्हीं कारणों से उद्योग जगत ने खूब चांदी काटी है।

अगर मैं आपसे कहूं कि चावल अब खेत खलिहान से नहीं कारखानों से आता है, तो ये बात आपको फोर्टिफायड राइस के मामले में माननी पड़ेगी। जी हाँ, फोर्टिफायड राइस कारखाने में बनता है। बनाने की प्रक्रिया कोई बहुत जटिल भी नहीं है। चावल की खुद्दी (चावल के सबसे छोटे कण) को पीस कर पहले पाउडर बनाना, फिर उसमें विटामिन, मिनरल, आयरन जैसे पोषक तत्वों के रसायन की एक निश्चित मात्रा मिलाना, फिर उसे चावल के लंबे दानों के रूप में ढालना, जिससे वह सप्लीमेंट रीच चावल हो जाये. जैसे मुरी होती है, बेक्ड राइस; यही है फोर्टिफायड राइस। इसे बहुत कम तापमान पर उसी तरह पानी में उबाल भर देना है, लेकिन पानी उतना ही डालना है कि वह चावल को भात बनाने में पूरी तरह सूख जाये। वैसे ही, जैसे हम कूकर में चावल से भात बनाते हैं।

बिजनेस की शब्दावली में इसे खुद्दी का वैल्यू एडीशन कहेंगे, क्योंकि 15 रुपए किलो की खुद्दी + 5 रुपए के पोषक तत्व+ 5 रुपए की टेक्नोलोजी = 25 रुपये का फोर्टिफायड राइस। फोर्टिफायड राइस आज बाजार में 40-45 रुपए प्रति किलो है, जबकि लागत आप देख सकते हैं, 25 रुपए के आस पास ही आती है। यही तो राइस का वैल्यू एडिशन है। लेकिन ये 40-25=15 रुपये का डिविडेंट लाभ उद्योग को मिल रहा है, न कि खेती किसानी को। किसान तो अपना धान राइस मिल को बेचकर गंगा नहा चुका है। अब धान का छिलका, खुद्दी, ब्रॉन सब कुछ मिल का है। अब मसला ये है कि 15 रुपए की चावल की खुद्दी, राइस मिल के मार्फत इस फोर्टिफिकेशन उद्योग को देने में किसान के चावल का वैल्यू एडीशन तो हुआ, लेकिन फायदा उद्योग को हुआ, न कि किसान को. यह मसला इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि सबसे उबड़खाबड़ स्थिति कृषि की ही है।

इस फोर्टिफिकेशन उद्योग के पहले अबतक ये खुद्दी डिस्टिलरी उद्योग में जाती रही है या पशु-चारा उद्योग में जाती रही है, जहां डिस्टिलरी वाले इससे बियर शराब बनाते रहे हैं और कोविड काल में सैनिटाइजर भी। एक आयाम यह भी है कि भारत में चावल के सरप्लस उत्पादन से किसानी भले ही मुनाफे में न रही हो, लेकिन इन्हीं कारणों से उद्योग जगत ने खूब चांदी काटी है।

आपको जानकारी होगी ही कि एक बफर स्टेट की हैसियत से भूटान को यूएनओ से भारी मात्रा में चावल की आपूर्ति एक सब्सिडाइज्ड रेट पर की जाती है। ग्लोबल फूड सिक्योरिटी स्कीम के तहत यूएनओ ने यूएसए को कहा कि वह बीस हजार मैट्रिक टन चावल भूटान को दे। यूएसए ने भारत को कहा कि वो उसके (यूएसए) के इस ऑर्डर की डेलिवरी भूटान को करे। अब भूटान के पास इस तरह चार-पांच देशों से बीस-बीस हजार टन चावल आ गया, जो उसके देश के कुल सालाना उपभोग से तीन गुना ज्यादा है। अब भूटान के पास इस सस्ते चावल की उपयोगिता बियर शराब बनाने के लिए एकदम मुनासिब है। आखिर वह इतने चावल का क्या करे? और यह काम इतना मुनासिब है कि भूटान की रॉयल आर्मी खुद डिस्टिलरी फैक्टरी डालकर ये काम करती है, आखिर आर्मी का भी तो खर्च है। इसे आप क्या कहेगें? उद्योग ही तो चांदी काट रहा है! कितना बेपरवाह है उद्योग, जो सौ रुपए के बियर के मुनाफे से किसान की खुद्दी चावल के लिए 15 रुपए की जगह बीस रुपया निकालने को तैयार नहीं है। और हमारी व्यवस्था के पास सब कुछ टुकुर टुकुर देखते रहने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं है।

अगर खुद्दी चावल की कीमत बियर या शराब के मूल्य के हिसाब से तय होने लगे तो उद्योग को कितना नुकसान होगा? खुद्दी चावल की कीमत शराब बियर के मूल्य के हिसाब से क्यों नहीं तय होनी चाहिए? जहां सब कुछ बाजार से तय होना है, वहां 100 से 2000 रुपए की शराब या बियर बनाने में न तो उद्योग जगत को किसानों के खुद्दी चावल पर रहम खाना है और न ही उद्योग जगत की किसी सरकारी एजेंसी को, जिसने उद्योग को मुनाफ़ाखोरी की छूट दे रखी है। आखिर किसी में तो खुद्दी के भाव पर किसानों के लिए कोई रहमदिली हो!


जब इतने मंहगे शराब बियर के उद्योग खुद्दी चावल को रिसोर्स के रूप में इस्तमाल कर रहे हों तो जिस शराब बियर पर सरकारों के लिए सौ प्रतिशत, उद्योगों के लिए 35-40 प्रतिशत, तथा वितरक (डिस्ट्रिब्यूटर, डीलर, रिटेलर) के लिए 30-40 प्रतिशत मुनाफ़ा है, वहां किसान के लिए चावल पर पांच रुपये का प्रीमियम हमारी बाजार व्यवस्था के पास नहीं है, न ही किसी सरकारी एजेंसी को इसकी गरज है। उद्योग मालामाल हो जायें, पूंजी बाजार कागजी उद्यमिता पर बाजार के मुनाफे पर जुआ खेल ले और किसान अपने उत्पादन की लागत निकालने के लिए मोहताज बना रहे, यह ग़जब का ट्रेंड हमारी इकोनॉमी में स्थापित हुआ है। लेकिन यह मूलभूत अर्थव्यवस्था का हिस्सा कतई नहीं है, ये आर्थिक भ्रष्टाचार है। आर्थिक असमानता की बुनियाद भी यही है।

किसान के लिए फोर्टिफिकेशन उद्योग; वही ढाक के तीन पात
किसान या हमारे समाज के लिए चावल क्या महज चावल भर है, जो हमारा पेट भरता है? जिस वक्त चावल जमीन से अलहदा एक दूसरे उद्योग के पाले में जा रहा है या जा चुका है, ऐसे वक्त में उस समाज की पीड़ा कौन समझेगा, जिसकी सामाजिक, सांस्कृतिक धारणाएँ ही धान चावल से निकली हैं? इन सांस्कृतिक धारणाओं की एकरूपता की एक बानगी देखिये कि हमारे विविधाताओं से भरे समाज में चाहे शादी कहीं भी हो, उसकी रस्मों में धान या चावल का ही प्रयोग होता है, किसी दूसरे अन्न का नहीं। क्यों? क्योंकि धान ही एक वाहिद ऐसी फसल है, जो बीज के रूप में जहां उगाया जाता है, फसल के रूप में वहां से कहीं दूर अलग जगह पर उगाया जाता है। अब जरा सोचिये कि क्या हमारी बेटियां ऐसी ही सामाजिक स्थिति में नहीं हैं, जो जन्म तो हमारे घरों में लेती हैं, लेकिन अपना घर वहां से कहीं दूर जाकर बसाती हैं? इसी एग्रेरियन बिलीफ ने हमें सामाजिक संरचना की एक समझ दी है। अब यही धान-चावल जब कल कारखानों से आयेगा, तो हमारी धारणाओं, हमारे विश्वासों का क्या होगा?

अब चूंकि फ़ोर्टिफिकेशन उद्योग का आह्वान खुद देश के प्रधानमंत्री ने किया है कि भारत के सरकारी स्कूलों में मिड डे मील में यही चावल बच्चों को खिलाकर उनका कुपोषण दूर किया जायेगा, इसलिए इस फ़ोर्टिफ़ाइड चावल का बाजारी एडजस्टमेंट दस बटा दस एकदम फिट है, इसे राष्ट्रहित में भी स्वीकार्य करना पड़ेगा। लेकिन किसानों की हूक का क्या? उनकी आह का क्या?

ये बाजार है, उद्योग है और टेक्नोलॉजी है, जो जादू मंतर से 15 रुपए की खुद्दी से सौ रुपए का बियर या चालीस रुपए का पौष्टिक चावल बनाती है। अब सरकार अगर किसानों की होती, तब न उद्योग के मुनाफे में किसानों का भी बराबर हिस्सा रखती। फोर्टीफ़ायड चावल को अभी इस जांच से गुजरना है कि इस सप्लीमेंटेड चावल का जीवन काल यानी एक्सपायरी साधारण चावल जितना ही होगा या उससे कम?

एक मुद्दा यह भी कम वजनी नहीं है कि इस चावल में जो खनिज और विटामिन मिलाये गये हैं, वे कितने दिनों तक कारगर रहेंगे?

एफएसएसएआई के तय मानकों के अनुसार 99 किलो चावल +1किलो मिनरल, विटामिन, आयरन का मिक्सचर को तापमान नियंत्रण तकनीकी कुशलता से फोर्टिफायड चावल बनाया जा रहा है।

हरियाणा, पंजाब और छत्तीसगढ़ की राइस मिलों नें इसमें भी बाजी मार ली है, क्योंकि यहां मिलों की संख्या ज्यादा है और फोर्टिफायड राइस का मुख्य रिसोर्स तो सस्ते दर पर मिलने वाली खुद्दी ही है, जो हर हाल में इन मिलों से ही मिलेगी।

अब चूंकि इस फोर्टिफायड राइस की मुख्य खरीदार सरकार खुद है, इसलिए फोर्टिफायड राइस बनाना उतना बड़ा मुद्दा नहीं है, जितना सरकारी एजेंसियों से इसके सप्लाई का ऑर्डर लेना। जाहिर है कि राजनीतिक साख, पूंजी, टेक्नोलॉजी और बाबूगिरी संयुक्त रूप से अपना जलवा दिखा रहे हैं और फोर्टिफायड राइस की कीमत, मिड डे मील और पीडीएस की दुकानों तक पहुंचाने का खर्च सरकारी बजट को दुह रहा है।

खुले बाजार में जहां तक इसकी आपूर्ति की बात है, अभी इस फोर्टिफायड राइस ने बनिये की दुकानों में कोई जगह नहीं पाई है, लेकिन अमैजॉन जैसे बाजार के रिटेल डीलर के पास ये सरकारी रेट की अपेक्षा तीन गुने ऊंचे दाम पर जाने कबसे उपलब्ध है। दावत, कोहिनूर, लालकिला जैसे इसके ब्रांड को अभी निर्यात से ही फुर्सत नहीं है।

कुल मिलाकर फोर्टिफायड राइस के इस नये धंधे से किसान को कोई लाभ नहीं है और न ही नशाबंदी से टूटी हुई अर्थव्यवस्था वाले बिहार की राइस मिलों को ही आशा की कोई किरण दिखती है। नशाबंदी में जब बिहार की डिस्टिलरियां बंद हुईं, तो कई राइस मिलें भी बंद हुईं, क्योंकि उनकी खुद्दी से बियर शराब बनाने का घरेलू बाजार खतम हुआ. अब जब तक नीतीश सरकार इन मिलों को फिर से जीवित करेगी, हरियाणा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य बिहार को पीछे छोड़ देंगे और बिहार धान बेचने को ही अभिशप्त रहेगा।

-जितेश कान्त शरण

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