नेहरू और सुभाष : याद करेगी दुनिया, तेरा मेरा अफसाना

दोनों का स्वभाव अलग था। जवाहर नर्म, शांतचित्त, ओपन माइंड और सुभाष जरा गर्म, लेकिन जहीन, वाद विवाद पसन्द करने वाले। मगर समानताएँ भी थीं। दोनों बड़े परिवारों से थे, दोनों अंग्रेजीदां, दोनों कैम्ब्रिज में पढ़े, दोनों ने अच्छे कैरियर ऑप्शन त्यागकर आंदोलन ज्वाइन किया था। दोनों दुनिया में चल रही गतिविधियों से वाकिफ थे, दोनों की सोच समाजवादी थी, दोनों पढ़ाकू थे…और दोनों गांधी से प्रेरणा लेते थे।

ये लाइन फिल्मी जरूर है, मगर सुभाष और नेहरू का अफसाना किसी फ़िल्म की पटकथा से कम है भी नहीं। इन दो युवा और बिलकुल जुदा शख्सियतों की राहें भी जिंदगी अलग कर गयी, मगर जीवन की अंतिम सांस तक दोनों के बीच गजब का मित्रभाव और दोनों के मन में दोनों के प्रति गहरा सम्मान बना रहा।


गांधी युग की शुरुआत होते ही कांग्रेस की मुम्बई और हिंदूवादी लॉबी का पराभव शुरू हुआ। यह सेकुलर युग का आगाज था। अब तक जिनकी चलती थी, उनकी चलनी बन्द हुई, उन्होंने अपने नए ठिकाने खोज लिए। कोई लीग में भागा तो कोई हिन्दू महासभा में। मुम्बइया वकीलों का क्लब प्रभावी न रहा और गांधी ने देश भर में नेतृत्व उभारना शुरू किया। उत्तर प्रदेश, गुजरात, बंगाल, पंजाब, तमिलनाडु, कर्नाटक और दीगर प्रदेशों से नए नए लीडर कांग्रेस से जुड़ने लगे। कांग्रेस अब देश भर में जड़ें जमाने लगी थी।


इसी दौर में दो लड़के गांधी की टीम में आये। बंगाल में सीआर दास का एक चेला, जो आईसीएस पास करने के बाद राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़ा था, नेशनल यूथ कांग्रेस का प्रेजिडेंट बना। दूसरा यूपी से मोतीलाल का लड़का, जो ब्रिटेन से बैरिस्टरी करके आया और यूनाइटेड प्रोविंस (उत्तर प्रदेश) कांग्रेस कमेटी का स्टेट सेक्रटरी था। दोनों का स्वभाव अलग था। जवाहर नर्म, शांतचित्त, ओपन माइंड और सुभाष जरा गर्म, लेकिन जहीन, वाद विवाद पसन्द करने वाले। मगर समानताएँ भी थीं। दोनों बड़े परिवारों से थे, दोनों अंग्रेजीदां, दोनों कैम्ब्रिज में पढ़े, दोनों ने अच्छे कैरियर ऑप्शन त्यागकर आंदोलन ज्वाइन किया था। दोनों दुनिया में चल रही गतिविधियों से वाकिफ थे, दोनों की सोच समाजवादी थी, दोनों पढ़ाकू थे…और दोनों गांधी से प्रेरणा लेते थे।


वक्त असहयोग आंदोलन के बाद का था। कांग्रेस होमरूल की हल्की मांग छोड़, अब पूर्ण स्वराज की मांग करने लगी थी। लार्ड बिरकन हेड नाम के ब्रिटिश सांसद ने चैलेंज किया कि भारतीयों की औकात नहीं कि अपना संविधान तक लिख सकें। यह चैलेंज स्वीकार किया गया। मोतीलाल नेहरू को जिम्मा मिला एक ड्राफ़्ट लिखने का। सुभाष और जवाहर, इस काम के लिए मोतीलाल के सचिव हुए। नेहरू रिपोर्ट आई, जाहिर है इसमें दोनों लड़कों के विचार और सहमति शामिल थी। ध्यान रहे कि सन 1947 के बाद जिन दस्तावेजों की रोशनी में भारत का संविधान लिखा गया, उनमें यह नेहरू रिपोर्ट प्रमुख थी।


1921-30 का वह दौर दूसरे बड़े लीडर्स का था। ये दोनों युवक, बैकरूम सपोर्ट की गतिविधियों में शामिल होते, लेकिन वक्त के साथ दोनों का कद बढ़ता गया। पहले सुभाष को मौका मिला, 1927 में कांग्रेस महासचिव हुए। फिर जवाहर को मौका मिला अध्यक्ष होने का 1929-30 में। अध्यक्षी के साथ ही जेल की सौगात भी आई। दौर सविनय अवज्ञा आंदोलन का था। नेहरू जब भी जेल से छूटते, घर जाते हुए रास्ते में किसी धरने- प्रदर्शन में शामिल हो जाते, और वापस जेल पहुंच जाते। सुभाष भी कलकत्ते में गिरफ्तार हुए। सरकार ने राजनैतिक गतिविधियों पर प्रतिबन्ध की शर्त पर छोड़ा तो यूरोप चले गए। सुभाष को वहीं प्यार हुआ, एमिली से ब्याह किया। इस चक्कर में यूरोप आना जाना अब नियम सा हो गया था। इस दौर में वे मुसोलिनी से भी मिले, फासिस्ट मूवमेंट का अध्ययन भी किया।


इसी दौर में जेल में पड़े दोस्त की बीवी, कमला सख्त बीमार हुईं। यूरोप में सुभाष मौजूद थे। कमला को लेकर फिरोज गांधी यूरोप पहुंचे। फिरोज अभी दामाद नहीं हुए थे, बल्कि कमला नेहरू के प्रति समर्पण ने इंदिरा को फिरोज की ओर आकृष्ट किया। सुभाष इन सबके साथ कमला को लेकर विएना से प्राग गए और उन्हें सेनिटोरियम में भर्ती करवाया। जेलबन्द नेहरू, पत्नी को देखने के लिए पेरोल पर यूरोप पहुंचे, सुभाष ने उन्हें सन्देसा लिखा- “यहीं हूँ, अगर जरूरत पड़े तो भाई को याद करना।” कमला न बच सकीं। नेहरू कमला को सुपुर्दे खाक कर भारत वापस आये। अब कांग्रेस ही जिंदगी थी और मोतीलाल के गुजरने का बाद, बापू ही पिता थे। नेहरू दो बार कांग्रेस प्रेजिडेंट रह चुके थे। प्रोविंशियल इलेक्शन में सुभाष और नेहरू ने कांग्रेस को अधिकांश स्टेट्स में जीत दिलाई। जनवरी 1938 में सुभाष फिर यूरोप में थे। गांधी की चिट्ठी मिली- “तुम्हें कांग्रेस के 51 वें हरिपुरा अधिवेशन के लिए अध्यक्ष चुन लिया गया है, आ जाओ…’’


कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष ने कई निर्णय लिए। एक कमेटी बनायी, जिसे देश के लिए योजनाबद्घ विकास और समाजवादी नीतियों का आधार बनाना था। यह ख्याल ही बाद के प्लानिंग कमीशन का आधार हुआ। इस कमेटी के अध्यक्ष कौन थे? जवाहर .. और कौन? लेकिन सुभाष, अध्यक्ष जरा दूसरे किस्म के थे। तेज और चपल सुभाष की नीतियां वामपंथी थीं, तरीके दक्षिणपन्थी। यह गर्म मिजाजी कांग्रेस के युवाओं को बड़ी पसन्द आयी। मगर पार्टी के पुराने लीडर्स को नहीं। साल भर तो गुजार लिए, लेकिन अगला साल आया तो उन्हें रिपीट करने पर सहमति न बनी। सुभाष मामला चुनाव तक ले गए, त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष जीत गए। माला पहने सुभाष के संग नेहरू खड़े थे, मगर गांधी नहीं।
गांधी को सुभाष की अल्ट्रा लेफिस्ट पॉलिसी और आक्रमकता से ओल्ड गार्ड की असहमति में कांग्रेस का विभाजन दिखता था। गांधी का मान रखते हुए सुभाष ने इस्तीफा फेंक दिया। नेहरू दोस्त और बापू के बीच बंट गए। आगे एआईसीसी की कलकत्ता मीटिंग थी। नेहरू सुभाष के घर पर ही रुके थे। बैठक में उन्होंने सुभाष से इस्तीफा वापस लेने का आग्रह किया। बड़े भाई शरतचंद्र बोस सहित, पूरा बोस परिवार गांधी के रवैये से आहत था। नेहरू से अपेक्षा थी कि वे सुभाष के साथ लामबन्द हों। मगर नेहरू गांधी के खिलाफ नहीं जा सकते थे। इस्तीफा मान्य हो गया। दिल अवश्य टूटे होंगे। सुभाष ने गतिविधियां सीमित कीं। कांग्रेस के भीतर ही फारवर्ड ब्लॉक बनाया। अब तक वर्ल्ड वार भी शुरू हो गया था।


सुभाष गांधी से निराश हो, दो साल में हिटलर और फिर तोजो तक पहुंच गए। मगर गांधी पर उनकी श्रद्धा कभी कम न हुई। जब गांधी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। सुभाष ने जर्मनी रेडियो पर इसे गांधी का “अहिंसक गुरिल्ला युद्ध’’ कहा, शुभकामनाएं दीं। गांधी और गुरिल्ला युद्ध?? ये सुभाष ही सोच सकते थे। खैर.. आजाद हिंद फौज का गठन हुआ तो एक ब्रिगेड गांधी के नाम से बनी और दूसरी- वह नेहरू के नाम पर। प्रधानमंत्री नेहरू नहीं, दोस्त नेहरू, लीडर नेहरू, डियर नेहरू के नाम पर। जब जापान के साथ मिलकर ब्रिटिश पर हमला शुरू किया, रेडियो पर ऐतिहासिक सन्देश में सुभाष ने गांधी को राष्ट्रपिता कहा (जी हां, गांधी को यह नाम उन्होंने दिया) और उनका आशीर्वाद चाहा।
अगस्त 1945 का वह दिन भी आया, जब सुभाष की मौत की खबर आई। यूरोप में एमिली अकेली हो गयी थी। एक बेटी भी थी-अनीता। नेहरू प्रधानमंत्री हो चुके थे। उनकी अनुपस्थिति में कभी सुभाष ने उनके परिवार का ख्याल रखा था। अब बारी जवाहर की थी। नेहरू ने एक ट्रस्ट फंड बनाया, जिसमें एमिली के लिए दो लाख रुपये रखे गए। ट्रस्ट फंड यानी बेनेफिशियरी ब्याज को स्वेच्छा से यूज करेगा। इसके साथ अनीता के लिए एक और ट्रस्ट बना, जिसमें कांग्रेस की ओर से माह में 500 रुपये दिए जाते रहे। याद रहे, तब डॉलर 4 रुपये का था, कलेक्टर की तनख्वाह 200 रु थी।


1961 की सर्दियों में सुभाष की बेटी अनीता पहली बार भारत आयीं। वह प्रधानमंत्री के आधिकारिक आवास तीन मूर्ति भवन में रुकीं। नेहरू की बेटी ने निजी सचिव की तरह उनका ख्याल रखा। कमला के साथ जाकर, जब सुभाष प्राग में उन्हें सेनेटोरियम में दाखिल करा रहे थे, किशोरवय इंदिरा को भी स्थानीय स्कूल में दाखिल करवाया था। यानी कुछ कर्ज इंदिरा पर भी था। यह सारी जानकारी लिखित में मौजूद है, अलग अलग स्थानों पर है, अलग अलग लेखकों के संस्मरणों में है, सरकारी फाइलों में है, गुप्त फाइलों में है, जिन्हें खोलने का वादा 2014 में किया गया था।
फिर फाइलें खोली गयीं, बड़ी उत्सुकता से.. कि उनमें नेहरू सुभाष की दुश्मनी के किस्से निकलेंगे, व्हाट्सप पर फेक की जगह असली दस्तावेज तैराये जा सकेंगे, लेकिन उनसे ट्रस्ट फॉर्मेशन, सुभाष के गुप्त विवाह, परिवार और उसकी फाइनेंशियल हेल्प के किस्से निकले। खीझकर फाइलें वापस रद्दी में डाल दी गयीं।


बीते सात साल में, सत्तर सालों से कहे गए सारे झूठ औंधे गिरे हैं। नकली पत्र, नकली फोटो, नकली किस्से तार तार होते गए। रह गया तो सच, जिसमें दो दोस्तों ने एक दूसरे का साथ दिया, इज्जत दी, दोस्ती निभाई और जिम्मेदारी भी। जीते जी और जिंदगी के बाद भी। इस अफ़साने को याद रखा जाना चाहिए।

-मनीष सिंह

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