गांधी की मृत्यु देखना चाहते थे औपनिवेशिक सत्ताधीश

आमरण अनशन के ग्यारहवें दिन अर्थात 20 फरवरी आते–आते तो गांधी की मृत्यु आसन्न प्रतीत होने लगी थी। उसके अगले दिन संकट की परिस्थिति निर्मित हो गई थी। तब सरकार के द्वारा नियुक्त तथा गैर–सरकारी कुल छह डॉक्टरों की टीम ने एक विज्ञप्ति जारी कर जनता को सूचित किया कि 21 फ़रवरी को अपराह्न 4 बजे गांधी की हालत बहुत नाजुक हो गई… वे बेहोश हुए तथा अब नब्ज़ बिलकुल नहीं है…। इधर अनहोनी की आशंका में कस्तूरबा ने तुलसी के पौधे के समक्ष घुटने टेक कर प्रार्थना शुरू कर दी।

जिस व्यक्ति को चर्चिल ‘अर्धनग्न फकीर’ कहता था, आंग्ल औपनिवेशिक सत्ता कभी उसी व्यक्ति से इतना त्रस्त हुई थी कि दक्षिण अफ्रीका में भी वह उसका सामना नहीं कर पाई थी। वही जब भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व संभालने लगा, तब वे अपनी संभावित पराजय से इतने भयभीत हुए कि वे गांधी को मृत देखने के इच्छुक हो गए थे? वैसे एक बार यही इच्छा दक्षिण अफ्रीका में भी अभिव्यक्त हो चुकी थी! दक्षिण अफ्रीका की यह अधूरी इच्छा तो पूरे वेग के साथ प्रकट ही नहीं हुई थी, पर उस मृत्यु की घटना के बाद भारतीय उद्वेग को कैसे संभाला जाए और उसकी सूचना कैसे देश भर के अधिकारियों को प्रेषित की जाए, इसके लिए यह कार्य-योजना तैयार कर ली गई थी कि इधर गांधी की मृत्यु हो उधर सत्ता अपने बल से किसी भी प्रदर्शन को दबाकर, कानून व्यवस्था बनाए रखने में कामयाब हो सके!

महात्मा गांधी जो दादा अब्दुल्ला के मामले में दक्षिण अफ्रीका गए थे, अंततः वहां पर औपनिवेशिक काल में गिरमिटिया मजदूरों के रूप में जबरदस्ती ले जाए गए प्रवासी भारतीयों के विरुद्ध हो रहे उत्पीड़न तथा पक्षपात के विरुद्ध संघर्ष में डूबते चले गए। इसी सिलसिले में जब अगस्त 22, 1906 का ‘ट्रांसवाल गवर्नमेंट गज़ट एक्स्ट्राआर्डिनरी’ पेश हुआ, तब गांधी उसका अध्ययन करने में जुट गए। उन्होंने निर्णय लिया कि ऐसे अश्वेत विरोधी तथा मारक प्रकृति के अधिनियम के साथ जीने से बेहतर है कि मृत्यु का वरण करने के लिए या आत्मोत्सर्ग के लिए भी एक दीर्घकालीन संघर्ष हेतु तैयार रहा जाय। अतः सितंबर 11, 1906 में जोहान्सबर्ग के पारसी थिएटर या ‘ओल्ड जुइश थिएटर’ में ‘सत्याग्रह’ की पहली सभा हुई। श्वेत लोग भी गांधी के विचारों से अवगत होने के लिए उनको सुनने लगे थे!

चर्चिल

उपर्युक्त बिल के पेश हो जाने के बाद ट्रांसवाल में फ़रवरी 20, 1907 को चुनाव हुए। इस चुनाव के फलस्वरूप लुई बोथा ने प्रधानमंत्री तथा जेसी स्मट्स ने ‘कोलोनियल सेक्रेटरी’ या औपनिवेशिक सचिव का कार्यभार ग्रहण किया। मार्च 21, 1907 को ही संसद के औपचारिक गठन के उपरांत यह बिल आनन-फानन में उसी दिन पारित भी हो गया। इसका अभिप्राय यही था कि जुलाई 31 तक भारतीयों को इस भेदभाव को स्वीकार करते हुए अपना पंजीकरण करवा कर दक्षिण अफ्रीका में अपने हेय स्तर को स्वीकार कर लेना चाहिए या देश छोड़कर भारत चले जाना चाहिए।
उक्त नागरिक पंजीकरण हेतु अनेक प्रमुख शहरों में पंजीकरण कार्यालय खोल दिए गए। इस ‘काले कानून’ के तहत जो लोग पंजीकरण नहीं करवाने के पक्षधर थे, उन्हें दिसंबर 1907 में एक चेतावनी दी गई कि वे दिसंबर 28, 1907 को अदालत में उपस्थित होकर अपना पक्ष रखें। उस घटना के दौरान कुछ लोगों को तीन माह का कारावास हुआ, कुछ लोगों के ऊपर आर्थिक दंड भी लगा।

इस सिलसिले में अंततः जब जनवरी 10, 1908 को गांधी अदालत में हाजिर हुए, तब उन्होंने मजिस्ट्रेट से मांग करते हुए कहा कि चूंकि असली नेता वही हैं, अतः उन्हें कठोरतम दंड दिया जाए! जैसे प्रिटोरिया में तीन माह का कठोर सश्रम कारावास दिया गया है, उससे भी अधिक अर्थात आर्थिक दंड भी लगाया जाए। गांधी जानते थे कि वे आर्थिक दंड कत्तई नहीं भरेंगे। अतः उन्होंने स्वतः जोड़ दिया कि आर्थिक दंड न भर पाने के एवज में उन्हें तीन माह की सजा अतिरिक्त दी जाए। अर्थात गांधी ने स्वयं अपने लिए अधिकतम सजा की मांग करके औपनिवेशिक सत्ता के लिए मार्ग सहज-सा कर दिया!

संभवतः हिंसक विरोध के आदी आंग्ल सत्ताधीश गांधी के ‘नैतिक बल’ या सत्याग्रह के सिद्धांत को नहीं समझ पाए थे। इसकी स्वीकारोक्ति स्वयं जनरल स्मट्स ने बाद में की भी थी कि संघर्ष के इस सत्याग्रही स्वरूप से पूर्णतया अनिभिज्ञ होने के चलते वे निरंतर असफल हो रहे थे। हिंसात्मक प्रदर्शन के विरुद्ध तो वे सफलतापूर्वक दमनात्मक कार्यवाही करके कामयाब हो जाते थे, किंतु इस तरह के आंदोलन को कैसे प्रभावहीन किया जाए, वे समझ ही नहीं पा रहे थे। इसी कारण अंततः गांधी दक्षिण अफ्रीका में एक लंबे संघर्ष के बाद सफल हुए।

किंतु, इसी समय हमें आंग्ल-औपनिवेशिक सत्ता के क्रूर स्वभाव का परिचय भी मिलता है, जब वे गांधी की मृत्यु देखना चाहते थे। वे चाहते थे कि गांधी की मृत्यु से ही दक्षिण अफ्रीका में उनकी राह का यह कांटा सदैव के लिए हट सकता है।

गांधी के अहिंसात्मक मानवीय रूप को समझने के बजाय वे इसे गांधी की हठधर्मिता मान रहे थे। अतः दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश उच्चायुक्त, लार्ड सेल्बर्न ने जनरल स्मट्स को लिखा कि गांधी को शिद्दत से शहादत की चाहत है। और कोई व्यक्ति यदि इतनी प्रबलता से यह इच्छा व्यक्त कर रहा हो, तब हमें स्वभावतः उसे यह प्रदान कर देना चाहिए।

भले ही आंग्ल शासक-प्रशासक उनके मर जाने के आग्रही रहे हों, किंतु न्यायप्रिय मजिस्ट्रेट अपनी न्याय की पुस्तक एवं उच्च आदर्शों के चलते तार्किक और न्यायसंगत फैसला दे गया। गांधी के अधिकतम दंड (छह माह का सश्रम कारावास तथा पांच सौ पौंड जुर्माना) की दलील के साथ ही अपने उच्चायुक्त की इच्छा को नजरंदाज़ करते हुए जोहान्सबर्ग के आंग्ल मजिस्ट्रेट ने गांधी को सिर्फ दो माह की साधारण कैद की सजा सुनाई थी। औपनिवेशिक अधिकारियों की गांधी की शहादत की इच्छा धरी की धरी रह गई। गांधी अपने मकसद में कामयाब होकर भारत लौट गए।
भारत में गांधी का दक्षिण अफ्रीका के विजेता के रूप में स्वागत हुआ और लोगों को आशा बंधी, क्योंकि गांधी ने स्वयं उन्हें आश्वस्त किया कि यदि वे सत्य और अहिंसा के मार्ग पर डटे रहेंगे तो साल भर में वे आजाद देश के नागरिक होंगे। किंतु लगभग पचीस वर्षों के लंबे सत्याग्रह के बाद भी जब भारत को आजादी नहीं मिली, तब अगस्त क्रांति की शुरुआत हुई। गांधी जी ने स्पष्टतः ट्रांसवाल वाला ही अपना नारा अगस्त 8, 1942 को दोहराया था, करेंगे या मरेंगे। मालूम नहीं कब अंग्रेजी से अनुवाद करते समय यह पुस्तकों, लेखों, विवरणों में करो या मरो के नारे में तब्दील हो गया, जबकि गांधी ने ऐसा नहीं कहा था। बिड़ला हॉउस, बॉम्बे में भोर से कुछ पहले पुलिस आयुक्त ने गांधी को गिरफ्तारी का आदेश सुनाते हुए उन्हें, महादेव देसाई, मीराबेन तथा सरोजिनी नायडू को पूना के आगा खान पैलेस पहुंचा दिया था। शीघ्र ही कस्तूरबा भी वहीं कैद होकर पहुंच गई थीं। इतना ही नहीं, कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में प्रतिभागिता करने आया कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व वहीं बॉम्बे में उपस्थित था, अतः वे सब गिरफ्तार कर लिए गए थे।

चूंकि सारे नेता गिरफ्तार हो चुके थे, अतः इसका नेतृत्व पुराने भूमिगत क्रांतिकारियों ने संभाला तथा कांग्रेस समाजवादी दल के बचे हुए नेताओं ने छुपकर क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित किया। अतः रेल-पटरियों, टेलीफोन तथा टेलीग्राम के तार काटने सहित डाकघरों, रेलवे स्टेशनों तथा सरकारी भवनों आदि संपत्तियों को निशाना बनाया गया। लूट के साथ ही उनको क्षति पहुंचाने का हिंसात्मक क्रम चल पड़ा। इसी ने अंग्रेजों की सत्ता को एहसास करा दिया कि अब स्थिति उनके हाथ के बाहर जा रही है। ऐसे में अंग्रेजों की सत्ता ने गांधी पर व्यापक हिंसा का आरोप लगाते हुए उन्हें इसके लिए उत्तरदायी ठहराया। इसी बीच एक सप्ताह के भीतर महादेव देसाई की मृत्यु से गांधी को गहरा क्षोभ हुआ। वे महादेव को पुत्रतुल्य मानते थे। इस मृत्यु की सूचना जब बाहर पहुंची, तब लोगों ने इसे सरकार के दमनचक्र और क्रूर व्यवहार का प्रतिफल माना और उनके क्रोध ने हिंसात्मक गतिविधियों को और बल प्रदान कर दिया।

अंग्रेज वाइसरॉय ने गांधी को हिंसा के लिए उत्तरदायी ठहराया था। गांधी सरकार के इस मिथ्यारोप से अत्यधिक विचलित हुए। उन्होंने वाइसरॉय को पहला लंबा पत्र अगस्त 14 को लिखा और कांग्रेस को हिंसा से दोष मुक्त करते हुए हिंसक कार्रवाइयों के लिए स्वयं वाइसरॉय को उत्तरदायी ठहरा दिया। उनके मतानुसार, यदि वाइसरॉय ने 8 अगस्त की मांग के अनुसार कांग्रेसियों से साक्षात्कार देने की अनुमति प्रदान कर दी होती तो स्थिति कभी इतनी अनियंत्रित नहीं होती। अपने संक्षिप्त किंतु बेरुखी वाले उत्तर में वाइसरॉय ने गांधी द्वारा शासन की आलोचना को सिरे से नकारते हुए कांग्रेस के प्रति सरकार की नीति पर पुनर्विचार की संभावना पर विराम लगा दिया।

दिसंबर 31, 1942 के पत्र में गांधी ने अपना विरोध दर्ज करते हुए लिखा कि सरकार उनके ऊपर असत्य आरोप लगाकर मिथ्या प्रचार कर रही है। अतः एक सत्याग्रही के रूप में मेरे पास यही विकल्प है कि मैं अपने हाड़-मांस का शरीर प्रायश्चित में गला डालूं। इस शरीर को त्याग देना शायद मेरे बेगुनाह होने का प्रमाण हो।

उधर लंदन में भारत के राज्य सचिव, एलएस ऐमरी ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के तात्कालिक निराकरण के लिए बेचैन थे। ऐसा वाइसरॉय लिनलिथगो के साथ उनके संवाद से समझा जा सकता है। वाइसरॉय लिनलिथगो ने गांधी को दिए अपने उत्तर में पुनः उन्हें ही कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता के रूप में इस आंदोलन में हिंसा के लिए पूरी तरह से उत्तरदायी माना। किंतु आरोप-प्रत्यारोप के दौर के बाद गांधी समझ चुके थे कि अंग्रेजों की सत्ता का भारतीय प्रतिनिधि, जिसे वे मित्र कहकर संबोधित करते थे, गांधी को ही दोषी माने बैठा है? अतः उन्होंने 29 जनवरी 1943 को वाइसरॉय को सूचित कर दिया कि वे फरवरी 9 से इक्कीस दिवसीय उपवास शुरू करेंगे। वाइसरॉय ने इस पत्र के उत्तर में गांधी की भूख हड़ताल को भयदोहन घोषित करते हुए इसे ‘राजनीतिक हिंसा’ करार देकर गांधी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। वह गांधी को अहिंसात्मक आंदोलन का पथ छोड़ने का गुनाहगार घोषित करने की कुत्सित चाल चल रहा था।

वाइसरॉय के इस आरोप भरे उत्तर के प्रत्युत्तर में 7 फरवरी को गांधी ने वाइसरॉय को पुनः पत्र लिखते हुए स्पष्ट कर दिया कि ‘एक सत्याग्रही के दृष्टिकोण से यह आमरण अनशन का आमंत्रण है।’ साथ ही यह भी स्वीकारोक्ति की, ‘इस आमरण अनशन से उत्पन्न किसी भी परिस्थिति के लिए वे (गांधी) स्वयं ही उत्तरदायी होंगे।’ इतना ही नहीं, गांधी ने यहां तक लिखा कि यदि वे इस आमरण अनशन के फलस्वरूप मर भी जाते हैं तो निश्चित ही वे अपनी निश्छलता और आत्मविश्वास के साथ दुनिया से जाएंगे कि वे हिंसा के लिए कतई उत्तरदायी नहीं हैं। साथ ही, उन्होंने आगाह किया, ‘इतिहास सर्वशाली सत्ता के प्रतिनिधि के रूप में वाइसरॉय और देश के एक विनीत सेवक के रूप में गांधी का तुलनात्मक मूल्यांकन करेगा ही।’

वाइसरॉय इस मत का था कि गांधी के लिए इस आमरण अनशन के द्वारा शहादत प्राप्त कर लेना ही श्रेयस्कर रहेगा। किंतु अपनी कार्यकारिणी, कुछ राज्यपालों तथा उच्च प्रशासनिक अधिकारियों के दबाव में उसने उपवास की अवधि के लिए गांधी को मुक्त करने का निर्णय लिया। संभवतः उसकी सोच थी कि यदि मुक्ति की अवस्था में आमरण अनशन के दौरान गांधी की मृत्यु होती है तो वह और उसका शासन दोषमुक्त रहेगा।

चर्चिल ने तो लिनलिथगो को स्पष्ट आदेश दिया था कि वह गांधी को कतई रिहा न करे। किंतु वाइसरॉय ने उसको नजरअंदाज करते हुए उन्हें रिहा किया, ताकि इस अवसर पर उसके ऊपर कोई आरोप न आए। उनकी यह मंशा उस टेलीग्राम से स्पष्ट है, जो उसने अपने प्रधानमंत्री को अपने निर्णय का औचित्य साबित करने के लिए किया था। ब्रिटेन का प्रधानमंत्री चर्चिल तथा वाइसरॉय लिनलिथगो दोनों निश्चित और निश्चिंत थे कि गांधी इस आमरण अनशन के पश्चात जिंदा नहीं बचेंगे।

उधर गांधी ने कारावास में ही अपने अनशन को जारी रखने का निर्णय लिया। भारत सरकार के तत्कालीन गृह सचिव सर रिचर्ड टोटेनहैम को लिखे अपने उत्तर में अंग्रेजों की सत्ता की चाल को समझते हुए उन्होंने लिखा था, ‘यदि उन्हें स्वतंत्र किया गया, तब वे तत्काल ही अपना आमरण अनशन रोक देंगे और यदि दुबारा गिरफ्तार होंगे तब उसे पुनः शुरू कर देंगे।’ अतः अब सरकार ने उनके हठ से उत्पन्न परिस्थितियों का सामना करने की नई योजना बनानी शुरू कर दी। उनके सामने यह स्पष्ट था कि जब उनकी इस मांग का कोई असर नहीं हुआ कि अंग्रेज भारत छोड़ दें तो चाहे अराजकता की पराकाष्ठा क्यों न हो, गांधी आत्मोत्सर्ग के जरिए बहुत बड़ी समस्या खड़ी करने की फिराक में थे। सरकार ने ऐसी परिस्थिति में स्थिति को नियंत्रित करने की पूर्ण योजना बना डाली थी, जो उनके इस विश्वास पर टिकी थी कि गांधी अंततोगत्वा जिंदा नहीं बचेंगे।

उनकी संभावित मृत्यु की स्थिति में बॉम्बे सरकार को समस्त प्रांतीय सरकारों को तत्काल एक तार से कोड अथवा कूट संदेश भेजना था। यह कोड था, रुबिकाँन! बस इतना सा संदेश भेजने के पश्चात पूना से सरकारी संदेशों के अतिरिक्त सभी लंबी दूरी के फोन अथवा टेलीग्राम को तत्काल प्रभाव से दो घंटे के लिए लंबित या प्रतिबंधित कर देना था। बॉम्बे की सरकार से अपेक्षित था कि वे प्रेस को बस गांधी की मृत्यु की घोषणा करके अपने कर्तव्य का निर्वहन कर देंगे। साथ ही, गांधी की संभावित मृत्यु के अवसर पर भारत सरकार का जो संक्षिप्त वक्तव्य जारी होना था वह भी तैयार हो गया था, बस संप्रेषण तथा प्रकाशन शेष था। सरकार पूरी तरह से गांधी की मृत्यु की प्रतीक्षा में थी और उससे उत्पन्न परिस्थितियों से निबटने के लिए योजना बना रही थी।

गांधी के विरुद्ध चर्चिल और उसकी सरकार को कितना रोष था, वह इन बातों से और साबित होता है कि यह निर्णय लिया गया कि सरकार की ओर से न तो कस्तूरबा गांधी को कोई शोक संदेश भेजा जाना है और न ही राष्ट्रीय ध्वज (यूनियन जैक) को आधा झुकाना है। इतना ही नहीं, सभी प्रांतीय राज्यपालों को परिस्थितियों से निपटने के सब अधिकार प्रदान कर दिए गए थे।

बॉम्बे की प्रांतीय सरकार को गांधी के सार्वजनिक दाह-संस्कार के लिए सशर्त आज्ञा देने की अनुमति प्रदान की गई, ताकि कानून व्यवस्था पूरी तरह बनी रहे। गांधी की शव-यात्रा का मार्ग, शव-दहन का स्थान और लोगों को नियंत्रित करने के मुकम्मल इंतजाम अभी से कर लेने के आवश्यक निर्देश भी भेज दिए गए थे। तैयारी की बारीकियों के सुनियोजित और विस्तृत स्वरूप से ही समझ में आता है कि वे गांधी को इस आमरण अनशन में मर जाने देना चाहते थे। अंग्रेजों की औपनिवेशिक सरकार ने निश्चय कर लिया था कि गांधी की अस्थियां कुछ दिन पूना में ही रखकर, उनके रिश्तेदारों के निर्णय के अनुसार निर्धारित स्थान पर गुप-चुप ढंग से हवाई मार्ग से भिजवाकर विसर्जित कर दिया जाएगा, किसी भी कीमत पर इन अस्थियों को रेल मार्ग से ले जाने की अनुमति नहीं प्रदान की जाएगी अन्यथा स्टेशनों के साथ रेलमार्ग को क्षति पहुंचने के साथ ही अव्यवस्था की प्रबल और निश्चित संभावना है! बॉम्बे के राज्यपाल ने महत्वपूर्ण स्थलों पर पहले से सैन्यकर्मियों की तैनाती निर्धारित कर दी थी। इतना ही नहीं, राज्यपाल के सलाहकार, चार्ल्स होल्डिच ब्रिस्टो को गांधी की शव-यात्रा की तैयारी हेतु पूना भेज दिया गया था।

वायसराय लिनलिथगो ने गांधी को दुनिया का सबसे सफल पाखंडी कहा

पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के एक दिन बाद ही 10 फरवरी 1943 को गांधी जी का घोषित आमरण अनशन प्रारंभ हो पाया। तीसरे दिन 72 वर्ष की आयु पूरी कर चुके गांधी की तबीयत बिगड़नी शुरू हो गई। यरवदा जेल में बंद डॉ. मंचेरशाह गिल्डर को दूसरे दिन ही आगा खान पैलेस पहुंचा दिया गया था। डॉ. बिधान चंद्र रॉय भी कलकत्ता से गांधी के निकट रहने और चिकित्सीय व्यवस्था के लिए आ गए थे। जब उनकी तबीयत और बिगड़ी तब वाइसरॉय के विधायी परिषद के तीन भारतीय सदस्यों ने विरोध प्रकट करते हुए अपने त्यागपत्र आंग्ल सरकार को सौंप दिए। उनका स्पष्ट मत था कि सरकार द्वारा गांधी के ऊपर मिथ्यारोपण से यह आमरण अनशन की स्थिति पैदा हुई है और गांधी की तबीयत बिगड़ी है। देश के हर कोने से गांधी की रिहाई की मांग आने लगी, किंतु चर्चिल और लिनलिथगो दोनों अटल रहे। वे गांधी की मौत की प्रत्याशा में थे, जैसा कि उनकी तैयारियों से स्वतः स्पष्ट है।

आमरण अनशन के ग्यारहवें दिन अर्थात 20 फरवरी आते–आते तो गांधी की मृत्यु आसन्न प्रतीत होने लगी थी। उसके अगले दिन संकट की परिस्थिति निर्मित हो गई थी। तब सरकार के द्वारा नियुक्त तथा गैर–सरकारी कुल छह डॉक्टरों की टीम ने एक विज्ञप्ति जारी कर जनता को सूचित किया, ‘21 फ़रवरी को अपराह्न 4 बजे गांधी की हालत बहुत नाजुक हो गई… वे बेहोश हुए तथा अब नब्ज़ बिलकुल नहीं है…।’ इधर अनहोनी की आशंका में कस्तूरबा ने तुलसी के पौधे के समक्ष घुटने टेक कर प्रार्थना शुरू कर दी।

खैर गांधी, गांधी थे, नैतिक बल के प्रतीक। उन्होंने डॉक्टरों की सलाह पर दूसरे दिन से अपने पानी में थोड़ा मौसमी (मौसम्मी) का जूस मिलाना शुरू कर दिया था। अब उनकी स्थिति में सुधार होने लगा। अब आप आंग्ल सत्ता की मंशा का अगला कदम देख सकते हैं, जब ‘फ्रेंड्स एम्बुलेंस यूनिट’ के होरेस एलेग्ज़ेंडर ने इस पूरे आमरण अनशन को ‘छल’ अथवा ‘धोखा’ घोषित कर दिया। उसके अनुसार यह आमरण अनशन था ही नहीं। खैर, 3 मार्च 1943 को गांधी का आमरण अनशन पूर्ण हुआ और भारतीयों ने चैन की सांस ली तथा आगा खां पैलेस में उपस्थित लोगों की जान में जान आई।

विंस्टन चर्चिल को समझ में ही नहीं आ रहा था कि इतना उम्रदराज़ व्यक्ति कैसे 21 दिनों तक भूखा रह सका। उसने फरवरी 13 को वाइसरॉय को लिखा था, ‘हमने सुना है कि गांधी अपने आमरण अनशन की हरकतों में ग्लूकोस मिश्रित जल ग्रहण करता है।’ लिनलिथगो ने अपने उत्तर में इस आरोप से स्पष्टतः इंकार करते हुए लिखा कि गांधी को जब डॉक्टरों ने ऐसा करने की सलाह दी, तब उन्होंने सख्ती से इंकार किया था। किंतु चर्चिल इस उत्तर से संतुष्ट नहीं था। उसने पुनः फरवरी 25 को वाइसरॉय को लिखा कि इस छलावे को उजागर करने की जरूरत है, ‘हिंदू कांग्रेसी डॉक्टरों से घिरे रहने वाला गांधी बड़ी आसानी से ग्लूकोस या अन्य पोषाहार निश्चित ही ग्रहण कर सकता है।’

वाइसरॉय ने इसके उत्तर में प्रधानमंत्री को अति गोपनीय टेलीग्राम में ‘गांधी को दुनिया का सबसे सफल पाखंडी कहा और आगे निश्चित भाव से लिखा कि गांधी की स्वास्थ्य संबंधी परीक्षण रिपोर्ट तथा उससे संबंधित सूचना/समाचार जानबूझकर विकृत किया जाता है, ताकि लोगों को उकसाया जा सके!’

चर्चिल के प्रश्रय और प्रोत्साहन के चलते उसने 21 फरवरी की उस बुलेटिन को, जिसमें गांधी के स्वास्थ्य पर संकट घोषित किया गया था, असत्य मानते हुए उसपर ही प्रश्नचिह्न अंकित कर दिया। उसने प्रधानमंत्री के सामने स्पष्ट किया, ‘हमारे सरकारी डॉक्टरों ने इसलिए चुप रहना समझदारी समझा, क्योंकि वे जानते थे कि भारतीय जनमानस सिर्फ कांग्रेसी डॉक्टरों के समाचार को ही सत्य मानेगा और हिंदुओं द्वारा इस विषय पर अतिरेक और हल्ला-गुल्ला अविश्वसनीय है।’ इसी तार में उसने अमेरिकी पत्रकारों को भी कटघरे में खड़ा किया। किंतु अंत में उसकी निराशा भी अभिव्यक्त होती है, क्योंकि वह लिखता है, ‘कुछ छल या धोखाधड़ी का निश्चित साक्ष्य मिलने पर मैं आपको तत्काल सूचित करूंगा, हालांकि हमें इसकी बहुत आशा नहीं है…।’

चर्चिल ने अपने वाइसरॉय द्वारा पूरे प्रकरण में सही ढंग अपनाने के लिए बधाई प्रेषित करते हुए फरवरी 28 के अपने टेलीग्राम में गांधी को ‘रास्कल’ तथा भारतीय सदस्यों के त्यागपत्र को पलायनवादी कृत्य घोषित किया।

गांधी जी के इस आमरण अनशन की सफल समाप्ति के पश्चात, अनेक कांग्रेसी तथा गैर-कांग्रेसी नेताओं; सप्रू, जयकर, भूलाभाई देसाई तथा चक्रवर्ती राजगोपालाचारी आदि ने सरकार सेगांधी की तुरंत रिहाई की मांग की, ताकि सरकार और जनता, जिसमें कांग्रेसी नेता भी सम्मिलित हैं, के बीच का गतिरोध समाप्त होने की कोई सूरत-ए हाल निर्मित हो सके। इन लोगों ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि सिर्फ गांधी ही इस गतिरोध को दूर करने की क्षमता रखते हैं। अड़ियल लिनलिथगो ने बेरुखी से गांधी की रिहाई से इंकार कर दिया। अतः कांग्रेस तथा ब्रिटिश शासन–प्रशासन के मध्य राजनीतिक अवरोध पूरी तरह से पक्का हो गया, जिसमें संधि, संवाद आदि की कोई गुंजाइश नहीं बची थी। वे संभवतः गांधी के न मरने से दुखी, हताश और अचंभित थे। अब उनके लिए मार्ग और दुष्कर प्रतीत होने लगा।

गैर-कांग्रेसी नेताओं ने गांधी से मिलने की आज्ञा सरकार से मांगी, ताकि वे उनसे बात करके मध्यस्थता से कोई रास्ता निकालें, ताकि सरकार को द्वितीय विश्वयुद्ध की तैयारियों में पूरे देश का समर्थन प्राप्त हो सके, किंतु चर्चिल और लिनलिथगो दोनों गांधी की छवि धूमिल करने के षड्यंत्र को अमली जामा पहनाने की कोशिश में जी-जान से लगे हुए थे। वे चाहते थे कि गांधी 1942 की हिंसात्मक गतिविधियों और 21 दिन के छलपूर्वक किए गए आमरण अनशन और भयदोहन के लिए ग्लानि व्यक्त करें, तभी कुछ संभव होगा। वे बुजुर्ग और कमजोर हो रहे गांधी को जलील करने के अतिरिक्त और किसी मंशा से काम नहीं कर रहे थे।

चर्चिल गांधी को संत के स्थान पर ‘रास्कल’ साबित करने के दृढ़ संकल्प के साथ काम कर रहा था। वह अमानवीय हठधर्मिता के चलते कुछ भी देखने-सुनने को तैयार ही नहीं था। अंततः अब औपनिवेशिक ब्रिटिश सत्ता को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के खिलाफ दमनचक्र के सिवा और कुछ दिमाग में नहीं आ रहा था। कमजोर औपनिवेशिक सत्ता का आखिरी हथियार यही था, किंतु गांधी की अनुपस्थिति में ‘अहिंसा’ का कोई अर्थ रह भी नहीं गया था। दूसरे नेता भी अंग्रेज़ों से भारत छोड़ने तथा भारतीयों से करने और मरने का आह्वान कर चुके थे। जब गांधी को बंदी बनाकर आगा खान पैलेस ले जाया गया था, तभी से जन ज्वार उमड़ा हुआ था। जनता महादेव देसाई की मृत्यु और गांधी के आमरण अनशन के दौरान संकट की घड़ी में और भी क्रोधित होकर हिंसात्मक प्रदर्शन पर उतारू हो गई थी। ऐसी परिस्थिति में दोनों तरफ से हिंसा और प्रतिहिंसा के एक चक्र का निर्माण हुआ। इन्हीं परिस्थितियों ने अंततः अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने को विवश किया, हालांकि उससे पूर्व वे इस देश को खंडित करने का मन बना चुके थे।

-हेरम चतुर्वेदी

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