बिहार का धान धन देने में असमर्थ क्यों है?

माना जाता है कि सिर्फ खेती में ही 30-35 प्रतिशत बेरोजगारी कम करने की क्षमता है, खासकर बिहार जैसे प्रदेश में, जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था ही एकलौता विकल्प है। रोजगार के संबंध में धान, चावल और कुल मिलाकर खेती की जटिलताएं क्या हैं, कैसे हाड़तोड़ परिश्रम करने वाले किसान की नियति गरीब होना ही तय कर दिया गया है, इसकी एक बानगी देखिये।

कभी हमारे कृषि आधारित समाज में धान ही धन होता था, लेकिन बिहार में अब ऐसा नहीं है। धान तो है, पर किसान के पास अब धन नहीं है। हालांकि यह विषय जटिलताओं से भरा हुआ है और इसके सैकड़ों आयाम हैं, लेकिन इसके महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। माना जाता है कि सिर्फ खेती में ही 30-35 प्रतिशत बेरोजगारी कम करने की क्षमता है, खासकर बिहार जैसे प्रदेश में, जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था ही एकलौता विकल्प है। रोजगार के संबंध में धान, चावल और कुल मिलाकर खेती की जटिलताएं क्या हैं, कैसे हाड़तोड़ परिश्रम करने वाले किसान की नियति गरीब होना ही तय कर दिया गया है, इसकी एक बानगी देखिये।

यह भी देखिये कि क्या सामाजिक, आर्थिक नजरिये से कुछ ऐसे प्रबंधकीय काम हो सकते हैं, जिनसे रोजगार क्षेत्र में कुछ सुगबुगाहट हो सके? सुगबुगाहट की अहमियत तो आप समझ ही रहे हैं। कुछ बाजारी संरचनाओं पर ध्यान दें तो बात समझ में आयेगी। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उत्तर बिहार जैसे मोतिहारी, बेतिया, रक्सौल और उधर भागलपुर आदि क्षेत्रों से भी धान का निजी उठाव कम हुआ है, लगभग नहीं के बराबर। लेकिन आखिर क्यों? इसलिए कि इस क्षेत्र की राइस मिलें अभी भी चल रही हैं। और धान बेचने से चावल बेचना अधिक मुनाफे का धंधा है। यह वैल्यू एडीसन की प्राथमिक पहल है। हाँ, इसमें ज्यादा फायदा राइस मिलों को ही होता है, लेकिन भागते भूत की लंगोटी भली वाली स्थिति में भी किसान के हाथ में धान बेचने के बदले चावल बेचना ज्यादा बेहतर विकल्प तो है ही।

बिहार के औरंगाबाद और सासाराम इलाके को आज भी धान का कटोरा कहा जाता है। इस इलाके में कतरनी और सोनम जैसे धान का उठाव बहुत बड़े पैमाने पर होता है, क्योंकि इस इलाके की राइस मिलें परित्यक्त पड़ी हुई हैं। पंजाब, दिल्ली, हरियाणा आदि के ट्रेडर इस इलाके से कतरनी और सोनम धान उठाकर निहाल हो गए हैं, आज भी हो रहे हैं और बिहार के इस इलाके के किसान अच्छी आमदनी से महरूम हैं। आपको पता होगा कि धान का सबसे कम निजी उठाव तेलंगाना, छत्तीसगढ़, पंजाब और हरियाणा से होता है। बंगाल तो धान बेचता ही नहीं है। राइस मिलों से मिलने वाले रोजगार और धान के मामले में बिहार को किस तरह लंगड़ी मारी जा रही है, इसे समझना हो तो कभी आंकड़ों पर एक नजर डालिये! आर्थिक जगत में एक टर्म होता है- ग्रॉस वैल्यू एडीसन. धान से चावल, चावल से उसका आटा, आटे से अन्य अनेक व्यंजन- ये सब वैल्यू एडीसन की ही जुगतें हैं, जिनमें एक से दूसरे, तीसरे तथा हर अगले चरण में मुनाफ़ा बढ़ता जाता है. कुल मिलाकर उद्योग का आकार, स्वरूप, पूंजी निर्माण, रोजगार सबकुछ बढ़ता जाता है। बस, किसान की आय नहीं बढ़ती है।


केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार सकल राष्ट्रीय आय के अनुमान के संदर्भ में कृषि और संबद्ध क्षेत्र ने वर्ष 2018-19 के दौरान भारत के ग्रॉस वैल्यू एडीसन ने लगभग 16.1% का योगदान दिया, मतलब कृषि क्षेत्र में उत्पादों के वैल्यू एडीसन से राष्ट्ररीय आय में 16.1% की ग्रोथ दर्ज हुई, जबकि 2014-15 में यह ग्रोथ 18.2% थी। स्पष्ट है कि कृषि और संबद्ध क्षेत्र में वैल्यू एडीसन ढलान की ट्रेंड पर है। अर्थात कृषि का योगदान राष्ट्ररीय आय में ही अपनी गुणवत्ता को लेकर ढलान पर है। कृषि की अपनी गुणवत्ता का अर्थ यहां कृषि उत्पादों की मूल्य वृद्धि, किसान के मुनाफे, निजी पूंजी निर्माण, उद्योग के विस्तृत होने और रोजगार बढ़ने के भाव से है। ये आंकड़े किसानों की दशा पर चिंता में डालने वाले हैं. 2013-14 में कृषि क्षेत्र के मूल्य संवर्द्धन से जहां 17.7% पूंजी का निर्माण होता था, वहीं 2015-16 में यह आंकड़ा घटकर 14.7% रह गया।

राष्ट्रीय ट्रेंड के इन आंकड़ों से आप समझ सकते हैं कि बिहार जैसे राज्य, जो आज भी कृषि प्रधान ही हैं और जहां जोत का आकार राष्ट्रीय औसत से आधा है, वहां खेती कितना मुनाफे का धंधा रह गयी है और कितनी नुकसान भरी। बिहार के किसान की प्रति व्यक्ति आय की कैसी कुटाई हुई होगी, बाजार और रोजगार कितना संकुचित होगा, अंदाजा लगाइये। बिहार की त्रासदी इतनी ही नहीं है कि बिहार अपने 70% धान को चावल के लिए दूसरे राज्यों को निर्यात कर देता है। असल में धान का यह भारी निर्यात चावल की मिलों के रोजगार से तो वंचित करता ही है, राइस ब्रॉन तेल के उद्योग और उसके रोजगार से भी वंचित करता है। एक बार जो धान के रूप में चावल बाहर गया तो उसकी अलाइड इंडस्ट्रीज भी बिहार से छूमंतर हो गयी।

इन्हीं अलाइड इंडस्ट्रीज ने छोटे बड़े उद्योगों से पहले इकॉनॉमी को तर किया है, फिर प्रति व्यक्ति आय और सब्सिडी से निहाल राज्यों की चकमक वाली अर्थव्यवस्था को देखिये, वैल्यू एडीशन से संपन्न वहां के उद्योग धंधों को देखिये! आपको ये जानकर हैरानी होगी कि नॉर्थ ईस्ट में जो अमूल का दूध बिकता है, वह बिहार का है, जबकि बिहार में सुधार ब्राण्ड बिकता है. सुधा नॉर्थ ईस्ट में भी है, लेकिन श्राप ये है कि बिहार का दूध अमूल के लिये रिसोर्स है, ब्रैंड डिविडेंट नहीं है। इसे आप बिहार की त्रासदी कहिये कि महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान आदि के जिस उद्योग के लिए बिहार केवल एक रिसोर्स है, उसी बिहार के लोग बिहार में ही उस उद्योग के कंज्यूमर भी हैं।


जनसांख्यिकीय लाभांश हमारे लिए जैसे सपने की बात हो गया है। क्यों? बिहार में सौ करोड़ रूपये की सड़क बनने से दस अफसर, दस ठेकेदार, चार नेता मालामाल होकर बिहार के विकास की जो तस्वीर पेश कर रहे हैं, वह कुल समाज के लिए कितनी जानलेवा है, इसे बिहार को समझना होगा। पलायन के लिए इस तरह के सूक्ष्म प्रबन्धन का अभाव बिहार को दिन ब दिन गर्त में डुबो रहा है। अंत में मेरा एक सवाल है, जिज्ञासा है। बिहार में कोई इंटरप्राइजिंग नेता क्यों नहीं पैदा होता? क्या यह बिहार की मिट्टी का दोष है?

बंगाल के मल मूत्र पर एक शोध है- जल थल मल। इस शोध से बंगाल का मत्स्य पालन का काम जुड़ा हुआ है, जिसने आंध्र की मछली का आवक नियंत्रित किया है। बंगाल की किसानी में मत्स्य पालन ने वैल्यू एडीशन किया, रोजगार दिया। अब ऐसा भी नहीं है कि बिहार में मल मूत्र की कमी है। मछली की मांग भी भरपूर है।

अभाव केवल नेतृत्व का है, जो बिहार के रीसोर्स पर बिहार की आमदनी की गारंटी दे। बिहार से एक पूर्व राज्य सभा सांसद को एटीएम में कैश पहुंचाने की व्यवस्था में व्यापार दिखता है, लेकिन वह सब नहीं दिखता, जो बंगाल और तेलंगाना के नेताओं को बड़ी आसानी से समझ में आता है, क्योंकि उन्हें अपने राज्य की संमृद्धि दिखती है।

पहले का प्लानिंग कमीशन अब नीति आयोग है, मतलब वहां नीतियों का निर्धारण होता है। बिहार और केंद्र सरकार की लापरवाही देखिये कि बिहार से पहले मंडी व्यवस्था समाप्त की गई, जिसका नतीजा हुआ कि बिहार में धान, गेंहू पर एमएसपी की बात तो छोड़ ही दीजिये, दूसरे राज्यों से भी कम दाम पर ये फसलें बिकती रहीं, निर्यात होती रहीं। कैसी विडम्बना है कि बिहार के मुख्यमंत्री 2021-22 के लिए 45 लाख मीट्रिक टन धान खरीदने का लक्ष्य तय करने के बाद, 35 लाख मीट्रिक टन की सरकारी खरीद पर अपनी छाती फुला रहे हैं। 45 लाख मैट्रिक टन धान का मतलब हुआ करीब 36 लाख टन चावल। अगर मुख्यमंत्री 10-20 राइस मिलों को चालू कर के राज्य के किसानों के लिए चावल जैसे उत्पाद के दाम बढ़ा पाते, इसके लिए कोई जुगत लगा पाते तो निश्चय ही बिहार की खेती उन्नत होती, रोजगारोन्मुखी होती। 45 लाख मीट्रिक टन धान को 36 लाख मीट्रिक टन चावल बनाने के उद्योग से जो रोजगार और मुनाफ़ा होता, बिहार का किसान आज उससे भी वंचित है, यद्यपि बिहार की किसानी के कुछ और भी आयाम हैं। नशाबंदी के पूर्व जितनी राइस मिलें चल रही थीं, उनमें से कुछ तो इसलिए भी बंद हुईं कि उनके ब्रोकन, खुद्दी की मुख्य खरीदार डिसिलरी बंद हो गयी। राइस मिलों के मार्फत यह किसानों पर तीसरी मार थी।

-जितेश कान्त शरण

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