सरकार ने अब खादी के मर्म स्थान पर चोट की है. महात्मा गांधी के अपने सेवाग्राम आश्रम को एक नोटिस देकर कहा गया है कि सरकार से खादी मार्क का प्रमाणपत्र न लेने के कारण उनका उत्पादन अवैध यानि ग़ैरक़ानूनी है. संस्था को अपना उत्पादन और बिक्री बंद करने का आदेश दिया गया है.
महाराष्ट्र के वर्धा ज़िले में सेवाग्राम आश्रम महात्मा गांधी की धरोहर है। यहां बापू कुटी के अलावा उनके द्वारा शुरू किये गये अनेक रचनात्मक कार्यों में से एक खादी कपड़े का उत्पादन भी है।
हाथ से सूत कातकर कपड़ा बुनना हज़ारों साल पुराना हुनर, रोज़गार और बिज़नेस है. भारतीय वस्त्र उद्योग का यह व्यापार पूरी दुनिया में फैला था, जो भारत की सम्पन्नता का एक प्रमुख आधार था।
औद्योगिक क्रांति ने यह समीकरण उलट दिया. जो अंग्रेज पहले भारत का कपड़ा आयात करते थे, उन्होंने मैंन्चेस्टर में कपड़ा बनाने के कारख़ाने लगाये और भारत से कपास का आयात कर हमें कपड़ा निर्यात करने लगे। सरकार और डंडे के ज़ोर पर उन्होंने तमाम टैक्स लगाकर, ज़ोर ज़बरदस्ती से हमारे वस्त्र उद्योग को बर्बाद कर दिया।
महात्मा गाँधी लंदन में पढ़े और अफ़्रीका में कढ़े थे, वे ब्रिटिश समाज, उनके बिज़नेस कल्चर और राजकाज के तौर तरीक़ों से बहुत अच्छी तरह वाक़िफ़ थे, इसलिए भारत में अंग्रेज़ी व्यापार की कमर तोड़ना भारत की आज़ादी की लड़ाई की रणनीति का मुख्य आधार बना। उन्होंने चरखा संघ की स्थापना की और कपास से सूत कातकर कपड़ा बुनने के घरेलू उद्योग को पुनर्जीवित किया। इस कपड़े की बिक्री के लिए देश भर में खादी भंडार और गांधी आश्रमों की विशाल श्रृंखलाएं खड़ी हुईं। यह भारत को आत्मनिर्भर बनाने के अभियान का हिस्सा था.
यह सब चमत्कार कैसे हुआ, बिजनेस स्कूलों के लिए शोध का विषय है। आज़ादी के बाद खादी एवं ग्रामोद्योग की मदद के लिए सरकार ने आयोग स्थापित किया। उधर चरखा संघ का विलय नवगठित सर्व सेवा संघ में हो गया. प्रारंभ में आयोग गांधी स्कूल में प्रशिक्षित लोगों के हाथ में था, पर बाद में अनुदान और राज्याश्रय से खादी उद्योग भी धीरे-धीरे भ्रष्टाचार और लाल फ़ीताशाही की भेंट चढ़ गया। सूत कातने वाले, बुनकर और खादी संस्थाएं इस सरकारी व्यवस्था में कराहने लगे।
अनुदान की व्यवस्था से बहुत से मुनाफ़ाख़ोर व्यापारी और कंपनियां भी इस धंधे में घुस आये. सरकार ने इनसे छुटकारा दिलाने के बजाय एक ऐसा क़ानून बना दिया, जिससे वास्तव में ज़मीन पर खादी उत्पादन में लगी संस्थाओं पर ही मुसीबत आ गयी. क़ानून के मुताबिक़ खादी के नाम से कोई कपड़ा बेचने के लिए खादी मार्क का परमिट लेना जरूरी होगा। यह क़ानून भी एक तरह से गरीब की खादी का कारपोरेटीकरण है। होना यह चाहिए था कि प्रमाणीकरण का काम पुरानी अनुभवी खादी संस्थाएं स्वयं करें। खादी वस्त्र गांव-गांव घर-घर बनते हैं, फिर छोटी-छोटी संस्थाओं द्वारा संचालित भंडारों के माध्यम से बिकते हैं। इन संस्थाओं के पास सरकारी तंत्र से डील करने का न तो ज्ञान है और न ही मैनपॉवर। सरकारी तंत्र के पास भी खादी की समझ का अभाव है. ऐसे में यह खादी प्रमाणीकरण क़ानून शोषण और भ्रष्टाचार का नया ज़रिया बन गया है, जिसमें चालाक मुनाफ़ाख़ोर व्यापारी बिना चरखा रखे, बिना सूत काते और बिना बुनाई-धुलाई माल काट रहे हैं. सूत कातने वाले, बुनकर और खादी संस्थाएं परेशान हैं।
सरकार के सामने यह परेशानी रखी गयी पर कोई ध्यान देने वाला नहीं है। सर्वोदय और खादी संस्थाओं में भी अब जुझारू लोग कम बचे हैं, जो सरकार की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिए संघर्ष करें. इसलिए मनबढ़ सरकार ने अब खादी के मर्म स्थान पर चोट की है. महात्मा गांधी के अपने सेवाग्राम आश्रम को एक नोटिस देकर कहा गया है कि सरकार से खादी मार्क का प्रमाणपत्र न लेने के कारण उनका उत्पादन अवैध यानी ग़ैरक़ानूनी है. संस्था को अपना उत्पादन और बिक्री बंद करने का आदेश दिया गया है।
गांधी संस्थाओं पर यह पहला प्रहार नहीं है. कुछ स्वार्थी लोगों ने सरकारी तंत्र से मिलकर राजघाट, बनारस में लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित गांधी विद्या संस्थान की सोसायटी को भंग करवा दिया। अपील हाईकोर्ट में सालों से लंबित है. गुजरात में बापू के साबरमती सत्याग्रह आश्रम पर क़ब्ज़े के लिए एक नया सरकारी ट्रस्ट बना दिया गया है। जिस देश में लोगों को पेट भर भोजन के लिए हाथ पसारने पड़ते हैं, वहां 1200 करोड़ रुपयों से आलीशान टूरिस्ट कॉम्प्लेक्स बनाकर गांधी की आत्मा को कष्ट पहुंचाने का काम होगा। सत्तारूढ़ लोग वहां अपने नाम का पत्थर लगाकर गांधी के आश्रम को भव्यता देने का ढोंग करेंगे। साबरमती आश्रम दुनिया में सादगी, त्याग, तपस्या, सामाजिक समरसतावादी और शांतिपूर्ण अहिंसक संघर्ष का जीता जागता उदाहरण है. इसे अगली पीढ़ी को प्रेरित करने के लिए इसी रूप में सुरक्षित रखना चाहिए, अन्यथा लोगों को विश्वास नहीं होगा कि शक्तिशाली ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने वाले संघर्ष के नायक का निजी जीवन और सार्वजनिक काम करने का तरीक़ा कैसा रहा होगा।
आश्रम की व्यवस्था का पहले से संचालन करने वाले ट्रस्टों के पदाधिकारी सरकार के आतंक से ख़ामोश हैं. बाक़ी गांधीवादी, सर्वोदयी, जेपी और लोहिया के अनुयायी, तमाम राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और क्रांतिकारी लोग भी ख़ामोश हैं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं है। यह सब तब हो रहा है, जब देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव और गांधी के जन्म की डेढ़ सौवीं जयंती मना रहा है।
गांधी ने अपनी कोई सम्पत्ति अपने परिवार को नहीं दी, लेकिन अब गांधी की धरोहर और उनके सम्मान की रक्षा के लिए गांधी के प्रपौत्र को आगे आना पड़ा है। हाईकोर्ट से याचिका ख़ारिज होने के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में है.
जिस गांधी ने न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की रक्षा के लिए जीवन भर संघर्ष और आत्म बलिदान दिया, अब स्वतंत्र भारत में उसकी निशानियों और धरोहरों के ऊपर ख़तरा मंडरा रहा है, इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है?
-राम दत्त त्रिपाठी