हमारे जैसे लोगों की जुबान पर पिछली 30 जनवरी को शहीद दिवस पर देश भर में एक सामान्य जुमला था – “गांधी कभी मर नहीं सकता”! ठीक है, पर क्या इस आत्मिक आश्वस्ति के साथ यह देश आये दिन गांधी का अपमान और मूर्तिभंजन चुपचाप देखता रहेगा? यह इस देश के लोकतांत्रिक मानस और स्वतंत्रता संघर्ष के बलिदानों के वारिसों के समक्ष एक बहुत बड़ा प्रश्न बन कर खड़ा है. हत्यारे नाथू राम गोडसे का महिमा मंडन, देश विभाजन के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराने, अल्पसंख्यकों का सफाया करने के आह्वान जैसे कारनामे आज आम हो गये हैं, जिसे आज-कल एक नयी शब्दावली में ‘न्यू नॉर्मल’ कहा जा रहा है. यह देश और समाज के विखंडन के खतरनाक संकेत हैं.
चरखा पार्क, मोतीहारी में गांधी की मूर्ति के समूल विखंडन से आज की राष्ट्रीय राजनीति का वीभत्स चेहरा उजागर होता है. जिला प्रशासन के अनुसार यह किसी “नशेड़ी” द्वारा की गयी कार्रवाई है. कैसी विडम्बना है कि जिस राज्य में कभी गांधी के आदर्शों के अनुरूप शराबबंदी कानून लागू किया गया था, जिस चम्पारण ने गांधी को महात्मा बनाया, उसी चम्पारण में गांधी की प्रतिमा को जड़ से तोड़ दिया गया!
इस घटना के अगले ही दिन चरखा पार्क से मात्र 9 किलोमीटर दूर तुरकौलिया चौराहे पर स्थित गांधी प्रतिमा के गले में शराब के रैपरों से बनायी गयी माला डाल दी गयी। इस घटना की सूचना भी पुलिस को दी गयी और आनन-फानन में वहां पहुंचकर प्रशासन ने बापू के गले से वह माला हटायी। इतना ही नहीं, गांधी प्रतिमा पर कई तरह के रंग लगाकर उसे गंदा करने का भी प्रयास किया गया था। लगभग एक साल पहले बिहार के नेपाल की सीमा से सटे सीमावर्ती गांव बेलवांडीह से खबर आयी थी कि वहां स्थापित गांधी और कस्तूरबा की संयुक्त मूर्ति से अपराधियों ने कस्तूरबा का गला काटकर फेंक दिया था। स्थानीय लोगों ने अनेक उपाय करके प्रतिमा को ठीक किया था, लेकिन कुछ ही दिन बाद बा और बापू की वह संयुक्त प्रतिमा ही ध्वस्त कर दी गयी।
आश्चर्य की बात है कि बिहार के मुख्यमंत्री, जिन्होंने गांधी के आदर्शों का हवाला देकर पूरे प्रदेश में शराब पर कानूनी प्रतिबंध लगा दिया और जिनके प्रशासन और पुलिस महकमे की आधी से अधिक शक्ति शराब और उसके कारोबार पर रोक लगाने में लग रही है, उस मुख्यमंत्री का अब तक गांधी की मूर्ति तोड़े जाने पर एक वक्तव्य तक नहीं आया. सभी जानते हैं कि केन्द्र में जो निजाम स्थापित है, नीतीश सरकार उसी के रहमोकरम पर चल रही है. महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस निजाम के मुखिया नरेन्द्र मोदी की जुबान गांधी के पुतले पर गोली मारने के नाटक पर नहीं खुलती हो, रायपुर में गांधी को गाली दिये जाने पर खामोश रहती हो; उसी की छत्रछाया में पल रही राज्य सरकार की चुप्पी का मतलब गांधी प्रेम के ढोंग के अलावा और कुछ नहीं है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सुशासन और साफ- सुथरी छवि की नैतिक और राजनैतिक कलई खुल गयी है. प्रशासन का नजरिया शातिराना और राजनीतिक निर्देश का परिणाम प्रतीत होता है. स्थानीय स्तर से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार यह कार्रवाई नियोजित षड्यंत्र का हिस्सा है. गांधी और उनसे जुड़ी स्मृतियों, आजादी और शहादतों की विरासतों को मिटाने की गहरी साजिश राष्ट्रीय स्तर पर चल रही है. मोतीहारी, चम्पारण की घटना उसी साजिश का परिणाम है.
हमारे जैसे लोगों की जुबान पर पिछली 30 जनवरी को शहीद दिवस पर देश भर में एक सामान्य जुमला था – “गांधी कभी मर नहीं सकता”! ठीक है, पर क्या इस आत्मिक आश्वस्ति के साथ यह देश आये दिन गांधी का अपमान और मूर्तिभंजन चुपचाप देखता रहेगा? यह इस देश के लोकतांत्रिक मानस और स्वतंत्रता संघर्ष के बलिदानों के वारिसों के समक्ष एक बहुत बड़ा प्रश्न बन कर खड़ा है. हत्यारे नाथू राम गोडसे का महिमा मंडन, देश विभाजन के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराने, अल्पसंख्यकों का सफाया करने के आह्वान जैसे कारनामे आज आम हो गये हैं, जिसे आज-कल एक नयी शब्दावली में ‘न्यू नॉर्मल’ कहा जा रहा है. यह देश और समाज के विखंडन के खतरनाक संकेत हैं.
लोकतांत्रिक समाज में आस्था रखने वाले, गांधीवादी, समाजवादी और धर्मनिरपेक्षता को मानने वाली जमात और संगठनों के समक्ष आज एक महती जिम्मेवारी खड़ी हो गयी है. स्वतंत्रता आन्दोलन के मूल्यों, रष्ट्रीय एकता और सामाजिक सौहर्द्र को बनाये रखने के लिए इस चुनौती को स्वीकार करने का वक्त है. आम जनमानस और विशेष कर नयी पीढ़ी के बीच इन मूल्यों को पुनर्स्थापित करना आज का आपद्धर्म है.
राज्यों और राष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए कोई संयुक्त पहल तो जरूरी है ही, इसके अलावा जिले और स्थानीय स्तर पर सशक्त हस्तक्षेप करना जरूरी हो गया है. महज बंद कमरों की गोष्ठियों, अखबारी चर्चाओं और आधुनिक व्हाट्सएप संवादों से इस चुनौती का मुकाबला करना असंभव है.
इसके लिए सड़कों पर प्रतिरोध, नुक्कड़ नाटकों, नुक्कड़ सभाओं, युवा शिविरों और विद्यलयों में चर्चा सत्र, लेख एवं चित्रकला प्रतियोगिताओं के आयोजन जैसे कार्यक्रमों की निरंतर श्रृंखला चलाने की आवश्यकता है. जन पहलकदमी के माध्यम से ही इस नकारात्मक और राष्ट्रविरोधी राजनीति का मुकाबला कर पाना संभव हो पायेगा.
प्रगतिशील और लोकतांत्रिक जमात के लोगों की नजर उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव पर टिकी हुई है. हम आशा भरी नजरों से उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की तरफ देख रहे हैं. संभव है कि अपेक्षित परिणाम आ जायें, साम्प्रदायिक राजनीति को पराजय का मुंह देखना पड़े. पर महज चुनावी राजनीति के भरोसे इस तथाकथित ‘न्यू नॉर्मल’ परिदृश्य का खात्मा संभव नहीं है. आजादी के बाद दशकों तक चली देश की राजनीति ने साम्प्रदायिकता के जहर को नजरअंदाज किया. 30 जनवरी 1948 के बाद देश के कर्णधारों और राजनेताओं ने मान लिया कि गांधी ने अपनी कुर्बानी देकर साम्प्रदायिकता के जहर को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया. दूसरी तरफ स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान पराजित “हिन्दू राष्ट्र” की स्वप्नदर्शी शक्तियां अंदर ही अंदर समाज की जड़ों में विष घोलती रहीं और अवसरवादी राजनीति में अपना स्थान तलाशती रहीं. इसी का परिणाम आज देश के सामने विकराल दैत्य के रूप में खड़ा है.
अत: उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के सकारात्मक परिणाम की आशा लगाये बैठे क्रियशील समूहों को सतर्क रहने की जरूरत है. इस चुनाव के परिणाम चाहे जो हों, साम्प्रदायिकता के विरुद्ध सामाजिक गोलबंदी और उसकी निरंतरता बनाये रखना प्रत्येक जागरूक, संवेदनशील तथा जिम्मेवार व्यक्ति और समूहों का दायित्व है. भवानी प्रसाद मिश्र के शब्द याद रखने का समय है –
“चलो गीत गाओ, चलो गीत गाओ
कि गा-गाके दुनिया को सर पे उठाओ ;
अगर गा न पाये तो हल्ला करेंगे
इस हल्ले में मौत आ गयी तो मरेंगे.”
-सुशील कुमार