मेरा पहला ही प्रश्न था कि जब आप अनपढ़ हैं, तो फिर पत्रिका पढ़ते कैसे हैं? मैं इसे घर ले जाकर बच्चों से पढ़वाता हूं और कुछ-कुछ नक्शा जोड़कर समझ लेता हूं। नक्शा जोड़कर? और क्या, अक्षर भी तो नक्शे ही होते हैं। कितनी गहरी बात है!
शिवमुनि अनोखे पाठक इसलिए हैं कि वे पढ़े-लिखे नहीं हैं। है न अजीब बात! अनपढ़ भी और पाठक भी! जी हां, जब विचारों और सद्गुणों का मेल होता है, तो ऐसा अजीब घट ही जाया करता है। दुनिया में दो महान व्यक्ति मोहम्मद पैगंबर और संत कबीर भी निरक्षर और अनपढ़ थे, पर उनके ज्ञान की कोई सीमा नहीं थी। वैसे भी ज्ञान अगर सच्चा हो तो सीमामुक्त होगा ही। जब ज्ञान दायरे में बंधता है तो सिकुड़ जाता है, सड़ जाता है।
खैर, बात एक अनपढ़ पाठक की हो रही है। 20 नवंबर 2021 को मुगलसराय रेलवे स्टेशन के सर्वोदय बुक स्टाल के संचालक प्रकाश चौहान के साथ बैठकर अपनी ट्रेन आने का इंतजार कर रहा था। मुगलसराय स्टेशन का यह स्टाल उन चुनिंदे स्टालों में से है, जो अपनी विविधता से पाठकों को सहज ही आकर्षित करता है। संचालक प्रकाश चौहान भी किताबों के पारखी हैं। मुगलसराय से जब भी ट्रेन पकड़नी होती है तो मेरी कोशिश होती है कि कुछ वक्त स्टाल पर जरूर बिताऊंं। मुगलसराय स्टेशन के बाहर की चाय भी वहां पीने को मिल जाती है, जो यात्रा को जायकेदार बना देती है।
तो उस दिन मैं इसी स्टाल पर बैठा हुआ था। इसी बीच एक सज्जन अपने झोले-लबादे के साथ सामने आकर खड़े हो गये। प्रकाश चौहान ने तपाक से उनसे मेरा परिचय कराते हुए कहा कि ये शिवमुनि हैं; सर्वोदय जगत पत्रिका के नियमित पाठक हैं, लेकिन ये अनपढ़ हैं। नियमित पाठक और अनपढ़! यह अजीब सा परिचय सुनकर मैंने शिवमुनी की ओर देखा। स्टाल में करीने से सजी हजारों किताबों से बेखबर उन्होंने सर्वोदय जगत की एक प्रति उठा ली। पत्रिका की कीमत 20 रुपये है, पर प्रकाश जी ने उनसे 15 रुपये ही लिये। इस दृश्य ने मेरे कौतूहल में चिंगारी डाल दी। फिर तो मैं शिवमुनि से मुखातिब हो गया और उनके बारे में विस्तार से जानने के लिए सवाल पर सवाल पूछने लगा। वे इतमिनान से जवाब देते रहे।
स्वाभाविक है, मेरा पहला ही प्रश्न था कि जब आप अनपढ़ हैं, तो फिर पत्रिका पढ़ते कैसे हैं? मैं इसे घर ले जाकर बच्चों से पढ़वाता हूं और कुछ-कुछ नक्शा जोड़कर समझ लेता हूं। नक्शा जोड़कर? और क्या, अक्षर भी तो नक्शे ही होते हैं। कितनी गहरी बात है! शिवमुनि लगभग 50 वर्ष पहले मोहनिया, बिहार से बनारस आ गये थे। वे उस साल बनारस आये थे, जिस वर्ष अकाल के चलते कर्मनाशा नदी में सिर्फ जहां-तहां गड्ढों में ही पानी बचा रह गया था, यानी 1967-68 में। बनारस आकर मेहनत-मजदूरी करने लगे। शरीर जरा बलिष्ठ हुआ, तो रिक्शा चलाने लगे। बाद में मुगलसराय स्टेशन आ गये और रेलवे में माल लोडिंग-अनलोडिंग का काम करने लगे।
फिर मैंने पूछा, अभी क्या करते हैं? रविदास जी का काम करते हैं, शिवमुनि का सधा हुआ जवाब। फिर एक गहरी बात! शिवमुनि जूता-चप्पल मरम्मत का काम करते हैं। वे चमड़े के कारीगर हैं।
आपको जब इतना पढ़ने का चाव है, तो आपने पढ़ाई क्यों नहीं की? मेरा अगला प्रश्न। हंसते हुए, खिलखिलाता-सा जवाब आया- मास्टर साहब ‘ठोपी मारते’ थे। उससे त्रस्त होकर स्कूल जाना छोड़ दिया। ठोपी-मार पद्धति में अंगुली को टेढ़ी करके उसके पोर से सर पर ठक-ठक मारा जाता है। इसमें मारने वाले पीटने का भरपूर आनंद लेते हैं, हालांकि उन्हें भी थोड़ी चोट तो लगती है। प्राय: स्कूलों में बच्चों को दंडित करने के लिए अपनायी गयी इस दंड-कला पर किसी जमाने में अमूमन स्कूलों को मास्टरों का एकाधिकार होता था।
उन्होंने एक और बात कही कि हमारे लड़के पत्रिका पढ़ तो देते हैं, पर कहते हैं कि यह फालतू है। वे अंबेदकर की किताब लाने को कहते हैं। मैंनें पूछा, तो आपने क्या किया? शिवमुनि का नपा-तुला उत्तर – 80 रुपये में एक किताब बाबा साहब का खरीद कर ले गया, बच्चे के लिए। उसने उसे पढ़ा भी।
आखिर इस पत्रिका में आपकाे क्या मिलता है, जो आप इसे पढ़ते हैं? इसमें जीवन का मंत्र है, पढ़कर मन तृप्त हो जाता है – शिवमुनि का उत्तर!
शिवमुनि सिर्फ चमड़े के कारीगर नहीं हैं, वे समाज के कारीगर हैं। जो अंबेडकरवादी, गांधी को कोसने में अपनी शक्ति और सामर्थ्य लगाते हैं, उनके लिए संत-कर्म करने वाला एक साधारण व्यक्ति शिवमुनी, उन्हें असाधारण रूप से सामंजस्य की प्रेरणा प्रदान करता है, जिस काम को ओछा समझा जाता है, उसे संत के साथ जोड़कर दिव्यता प्रदान करता है। सहज ही ऐसा है, न कोई दावा है, न कोई दंभ। शिवमुनि सिर्फ शिवमुनि हैं; वन एेण्ड ओनली! कोई और अगर इनके जैसा कहीं होगा भी, तो बांसुरी तो नहीं बजाता होगा। शिवमुनि बांसुरी भी बजाते हैं।
-अरविन्द अंजुम