गाय-बैल का पालन-पोषण समाज की ज़िम्मेदारी

इस बात पर गहन मंथन होना चाहिए कि दूध न देने वाली गायों का लोगों के घरों में पालन- पोषण कैसे हो। हम खेती, सिंचाई, कटाई और मड़ाई किस तरह करें कि उसमें बैलों का उपयोग हो और अनाज के साथ भूसा भी घर पहुंचे। हर गांव और क़स्बे में खुले चरागाह हों। इसी तरह गांव-गांव में गोशालाओं के साथ गोबर गैस प्लांट लगाये जा सकते हैं। जैविक या प्राकृतिक खेती में गोबर की कम्पोस्ट खाद बनाने के लिए हर परिवार को ग्राम समाज की जमीन दी जानी चाहिए।

 

छुट्टा जानवरों का मामला उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव-2022 में मुख्य मुद्दा बनकर छाया रहा। अख़बार, टीवी और डिजिटल मीडिया ग्रामीण इलाक़ों में छुट्टा घूम रहे गाय, बैलों से अपने खेतों की रखवाली कर रहे किसानों के बयानों, फ़ोटो और वीडियो से भरे रहे। किसान रात-रात भर जागकर खेतों की रखवाली करते हैं। नींद पूरी न होने से दिन भर थकान रहती है, मानसिक तनाव अलग से रहता है। बहुत से किसानों ने खेत बोना ही बंद कर दिया है। गांव में घर के नाम पर बहुतों के पास या तो झोपड़ी होती है या उनके घर छोटे होते हैं। अनेक जगहों से ऐसी भी खबरें आयीं कि ये छुट्टा गाय, बैल भोजन की तलाश में कई बार घरों के अंदर घुस गए और लोगों को घायल कर दिया। ये आवारा जानवर कई बार कई जगह सड़कों पर जानलेवा दुर्घटनाओं के कारण भी बने।

सरकार ने गांव-गांव गौशालाएं बनाने का आदेश दिया। प्रति जानवर नौ सौ रुपये का मासिक अनुदान दिया जा रहा है। शिकायत है कि सब जगह गोशालाएं बन नहीं पायीं। जहां बनीं भी वहां चारे और पानी के अभाव में हज़ारों गाय बैल मरे। गायों को खूंटे में बांधकर नहीं रखा जा सकता, लेकिन अब गांवों में सार्वजनिक चरागाह भी नहीं बचे, जहां ये जानवर चरने के लिए ले जाये जा सकें। एक बात यह भी विचार करने की है कि आधुनिक खेती या रोज़मर्रा के जीवन में बैलों का उपयोग धीरे-धीरे करके ख़त्म-सा हो गया है। खेती का ज़्यादातर काम अब ट्रैक्टर से होने लगा है। पहले खेत से फसल काटकर खलिहान तक बैलगाड़ी से लायी जाती थी और फसल की मड़ाई बैलों से होती थी, जिसमें अनाज के साथ-साथ भूसा भी घर आता था। अब फसल की मड़ाई का काम भी हार्वेस्टर या मशीन के ज़रिए होता है, जिसमें न बैल का उपयोग रह गया है, न खेतिहर मज़दूर का। एक जमाना था, जब बैलगाड़ी यातायात का बड़ा साधन थी और नेता लोग उस पर सवार होकर विरोध प्रदर्शन करने जाया करते थे। इसलिए एक बड़ा सच यह है आधुनिक खेती या ग्रामीण समाज में बछड़ों या बैलों का कोई उपयोग नहीं रह गया है।

भूसा और चारा आज इतना महंगा हो गया है कि दुधारू गाय को पालना भी मुश्किल हो गया है, बूढ़ी और अनुपयोगी गायों को कौन पाले! उनको पालकर चारे पानी का जुगाड़ करने के बजाय लोग अब उन्हें छुट्टा छोड़ देना पसंद करते हैं। यह मुद्दा अचानक चर्चा में नहीं आया है। हमारे समाज में गलती से भी गाय की मौत को पाप समझा जाता रहा है और उसके लिए कड़े सामाजिक दंड निर्धारित रहे हैं। गोहत्या पर पाबंदी के लिए अंग्रेज़ी राज में ही आंदोलन शुरू हो गए थे। आज़ादी के बाद भी समय-समय पर यह मुद्दा ज़ोर पकड़ता रहा है। यह पुराना धार्मिक और राजनीतिक मुद्दा रहा है। बीच के कालखंड में यह मुद्दा गौण हो गया था, लेकिन जबसे स्वयंभू गोरक्षक घरों में घुसकर फ्रिज में गोमांस की तलाशी और उसके शक में इंसान की जान लेने लगे या गाय के साथ आते जाते रास्ते में लोगों को पकड़कर मारने लगे, तब से इस मसले ने नया और ख़तरनाक रूप ले लिया। यह क़ानून व्यवस्था का भी मामला बन गया।

उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के आने के बाद गोवंश का बाज़ार और उनको लेकर इधर से उधर आना-जाना बिलकुल बंद-सा हो गया है। यहां तक कि कन्या के विवाह के अवसर पर दान में दी जाने वाली गाय को उसके नए घर तक भेजना भी जोखिम भरा काम हो गया है। धार्मिक और सांस्कृतिक कारणों से हिंदू समाज में गाय अब भी पूजनीय है, लेकिन आर्थिक कारणों से अब गोसेवा की भावना नहीं रही, जिसमें पहली रोटी गोमाता को देने की प्रथा थी। एक तथ्य यह भी ग़ौरतलब है कि गाय या बैल की स्वाभाविक मृत्यु पर उनको उठाकर ले जाने और चमड़ा उतारने की प्रथा भी अब बंद-सी हो गयी है। अब मृत जानवर का मांस खाने के लिए गिद्धों के झुंड भी नहीं आते। ऐसा संभवतः कीटनाशकों के अधिक इस्तेमाल के कारण हुआ है। सरकार की जरूर यह कोशिश थी कि अनुपयोगी या छुट्टा गाय बैल पकड़कर गौशालाओं में रखे जायं। कई जगह गोशालाएं हैं भी पर चारे पानी का इंतज़ाम कठिन है, उसमें भी भ्रष्टाचार की शिकायतें हैं। ज़िम्मेदार अधिकारियों का कहना है कि यह एक आर्थिक समस्या है और इसका समाधान प्रशासनिक मशीनरी से नहीं हो सकता।

इसलिए इस बात पर गहन मंथन होना चाहिए कि दूध न देने वाली गायों का लोगों के घरों में पालन पोषण कैसे हो। हम खेती, सिंचाई, कटाई और मड़ाई किस तरह करें कि उसमें बैलों का उपयोग हो और अनाज के साथ भूसा भी घर पहुंचे। हर गांव और क़स्बे में खुले चरागाह हों। यह भी एक बड़ा प्रश्न है कि बड़ी संख्या में छुट्टा घूम रहे बैलों को किस प्रकार उपयोग में लाया जाए, उदाहरण के लिए गांव में कोल्हू स्थापित करके तेल निकालने का काम बैलों के ज़रिए हो। इसी तरह गांव-गांव में गोशालाओं के साथ गोबर गैस प्लांट लगाये जा सकते हैं। जैविक या प्राकृतिक खेती में गोबर की कम्पोस्ट खाद बनाने के लिए हर परिवार को ग्राम समाज की जमीन दी जानी चाहिए।

सर्वोदय जगत के इस अंक में महात्मा गांधी से लेकर अनेक विद्वानों के लेख इसी आशय से दिए जा रहे हैं, ताकि समाज में गोसेवा के लिए एक सकारात्मक पहल हो और गोवंश गांव वालों के लिए बोझ या समस्या न रह जाय।

-राम दत्त त्रिपाठी

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