सोवियत क्रांति भी एक दौर में पूरी नहीं मानी जानी चाहिए. उसे क्रांति के एक और दौर से गुज़रना होगा.- मिखाइल गोर्बाचेव
यह 1985 का साल था. इंटरमीडिएट में पढ़ते हुए मैंने तीस रुपये में चेखव, गोर्की, तुर्गनेव और टॉल्स्टॉय की सात रूसी किताबें खरीदी थीं.तीस रुपये में यह ख़ज़ाना हाथ में लगने जैसा था. रूसी साहित्य से यह मेरा पहला विपुल परिचय हो रहा था. आने वाले वर्षों में इस ख़ज़ाने में और भी किताबें जुड़ती चली गईं, जो आने वाले दिनों में हमें कुछ कम्युनिस्ट, कुछ समझदार, कुछ प्रगतिशील और कुछ साहित्यिक बनाती रहीं. यह सियासत से ज़्यादा किताबों और बदलाव की चाहत से मोहब्बत थी, जो हम कुछ से कुछ होते चले गये. अगर सोवियत संघ ने अपने संसाधन नहीं झोंके होते तो शायद बहुत सारे बहुमूल्य साहित्य से हम अपरिचित रह जाते.
1985 के इसी साल मिखाइल गोर्बाचेव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने. उसके पहले सोवियत संघ अपने दो राष्ट्रपतियों की बहुत तेज़ विदाई देख चुका था. यह वह दुनिया थी, जिसमें कई जाने-माने राष्ट्र प्रमुख अपने-अपने देशों की सत्ता संभाल रहे थे. इन तमाम लोगों के बीच गोर्वाचेव की हैसियत शायद सबसे ऊंची थी- कुछ सोवियत संघ की विराट हैसियत की वजह से और कुछ अपनी निजी शख़्सियत के कारण. निश्चय ही वे कुछ अलग से नेता थे. सोवियत सत्ता की सीढ़ियों पर बहुत कम उम्र में पहुंच गये थे. उनके सामने कई सपने और कई लक्ष्य थे. उनको एहसास था कि देश में घुटन बढ़ रही है और दुनिया में तनाव. पश्चिम से वे बेहतर रिश्ते चाहते थे. किसी भी सूरत में तीसरा विश्वयुद्ध रोकने के पक्षधर थे. चालीस साल से धधक रहे शीतयुद्ध को ख़त्म करना चाहते थे. उन्होंने ‘ग्लास्तनोस्त’ और ‘पेरेस्त्रोइका’ शुरू किया- यानी खुलापन और बदलाव.
मिखाइल गोर्बाचेव
रूसी किताबों की खरीद का मेरा सिलसिला जारी था. सोवियत संघ के अटूट बने रहने पर मेरा विश्वास दूसरों से ज़्यादा था. क्योंकि अध्ययन कम था. जिनका अध्ययन ज्यादा था, उनमें भी कोई शख़्स यह कल्पना तक नहीं कर सकता था कि अगले पांच साल में सोवियत संघ टूट जाएगा. मैंने इन्हीं दिनों कभी गोर्बाचेव की लिखी किताब ‘पेरेस्त्रोइका’ ख़रीदी. गोर्बाचेव ने लिखा था कि दुनिया की कोई भी क्रांति एक दौर में सफल नहीं हुई है. उन्होंने अमेरिकी क्रांति, ब्रिटिश संसदीय सुधार और फ्रांसीसी क्रांति के उदाहरण दिए. कहा कि सोवियत क्रांति भी एक दौर में पूरी नहीं मानी जानी चाहिए. उसे क्रांति के एक और दौर से गुज़रना होगा.
लेकिन यह स्वप्नदर्शिता गोर्बाचेव के बहुत काम नहीं आई. वे सोवियत संघ की खिड़कियां खोलने चले थे, ताकि कुछ हवा आए, लेकिन उससे ऐसा बवंडर भीतर आया जिसने घर की छत ही उड़ा दी. सोवियत संघ का अंत हो गया. यह बहुत सारी चीज़ों का अंत था. हमारे सामने दुनिया ढह या बन रही थी. जर्मनी की दीवार गिर चुकी थी. सोवियत संघ बिखर गया था. युगोस्लाविया-चेकोस्लोवाकिया के नक्शे फट रहे थे और ज़मीन पर गृहयुद्धों में उलझी जातीय अस्मिताएं इस आधुनिक समय के बर्बर युद्धों में लगी थीं. सोवियत संघ के साथ शीत-युद्ध का भी अंत हो गया, इतिहास का भी अंत हो गया, विचारधारा का भी अंत हो गया, बहुत सारे सपनों का भी अंत हो गया. मेरी किताबों की ख़रीद का भी अंत हो गया.
बहरहाल, सोवियत संघ ढह गया और शीतयुद्ध ख़त्म हो गया. लेकिन क्या इसके बाद जो शीत शांति आई, वह कुछ ज़्यादा मानवीय थी? विचारधाराओं के पुराने संघर्ष नहीं बचे, लेकिन सभ्यताओं के संघर्ष शुरू हो गये. अमेरिका के नेतृत्व में जो एकध्रुवीय दुनिया बनी, उसने सब कुछ बदलकर रख दिया. पश्चिमी वर्चस्ववाद के आक्रामक रवैये ने, दक्षिण एशिया से पश्चिम एशिया तक धार्मिक कट्टरता को पोसने और उसे वहां की सत्ता के ख़िलाफ़ खड़ा करने की अमेरिकी रणनीति ने कहीं तालिबान पैदा किये, कहीं अलक़ायदा बनाये. पुराने छापामार युद्ध आतंकी हमलों में बदले, देश ढहते गये, प्रगतिशील मूल्य पीछे छूटते गये, धार्मिक कट्टरताएं दक्षिणपंथी राजनीति के उभार की बुनियाद बनीं और दुनिया भर में तकनीक पर आधारित संस्कृतिशून्य बाजार व्यवस्था का क़ब्ज़ा बढ़ता चला गया. इस पूरी प्रक्रिया में तकनीक का भी बड़ा योगदान रहा. आज स्थिति ये है कि दुनिया भर में बाज़ार और बड़े औद्योगिक घराने सत्ता का स्वरूप तय कर रहे हैं. अपने भारत में भी लोकतंत्र या तो पुरानी धार्मिक और जातीय जकड़नों में जकड़ा हुआ है या आवारा-काली पूंजी की गिरफ़्त में है. कम्युनिस्ट आंदोलन या तो उपहास की वस्तु है या उपेक्षा की.
हमारे लिए गोर्बाचेव लगभग गुजर चुके थे. 91 बरस की उम्र में उनकी मौत की ख़बर जिन्होंने सुनी, उन्हें हैरत हुई होगी कि वे अब भी ज़िंदा थे! हमारी तरह के बहुत सारे लोगों के लिए सोवियत संघ का ख़त्म होना बस एक देश का, दुनिया की एक व्यवस्था का ख़त्म होना नहीं था, अपने बहुत सारे सपनों के निर्माण की सामग्री का भी मिट्टी हो जाना था. अगर सोवियत संघ न होता तो हम कैसे जान पाते कि दुनिया और सभ्यता में कितना कुछ मूल्यवान है और कितना कुछ छोड़ दिए जाने लायक?
लेकिन ठीक है. सब कुछ नष्ट होने के लिए बना है. सभ्यताएं बनने और बिखरने को अभिशप्त होती हैं. यह एक दार्शनिक मायूसी भर नहीं है, एक ठोस सच्चाई है जो हमारे सामने घटी है. जिसकी वजह से घटी, उसके जाने से याद आया- हम कितनी चीज़ों के गवाह रहे हैं.
-प्रियदर्शन