जब बापू ने ईश्वर की आवाज़ सुनी

बापू के व्यक्तित्व का मूल पहलू आध्यात्मिक है। बापू ने हमारे सामने कितनी ही ऐसी बातें रखी हैं, जो केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही आती हैं। बापू को पहचानने के लिए उनके व्यक्तित्व की आध्यात्मिक भूमिका का आकलन होना चाहिए।

बापू के जीवन को देखेंगे, तो समझ में आयेगा कि उनके साथ कितने ही आध्यात्मिक सवाल थे। ये सवाल हल हुए बिना वे आगे बढ़ते ही नहीं थे। ईसा को देखिये, तैंतीस वर्ष जिये, लेकिन तीन ही वर्ष घूमे, इसी की हमें जानकारी मिलती है। पहले के तीस वर्षों में ईसा ने क्या किया, यह कोई नहीं जानता। कहते हैं कि पहले वे बढ़ई का काम करते थे, लेकिन इस दरम्यान उन्होंने उपवास किये थे और शैतान के साथ उनकी मुठभेड़ हुई थी–इसके सिवा हम और कोई बात नहीं जानते। अब तो यहां तक कहा जाता है कि वे तिब्बत तक आये थे।

मैं कहना चाहता हूं कि कुछ बुनियादी आध्यात्मिक सवालों को हल करने के बाद ही वे घूमने निकले थे। Love thy neighbour as thyself — अपने पड़ोसी पर अपने जैसा ही प्रेम करो। यह बात आंतरिक अनुभूति के बिना नहीं कही जा सकती। इसी तरह उन्होंने शत्रु से भी प्रेम करने की जोरदार बात कही थी। वह भी आंतरिक अनुभव के बिना नहीं कही जा सकती थी।

इसी प्रकार बुद्ध ने ‘यज्ञ में हिंसा नहीं होनी चाहिए’ यह प्रश्न उठाया और वे घूमे। इसकी जानकारी मिलती है। लेकिन जब उन्होंने तप किया था, तब क्या किया था, यह हम नहीं जानते। वे कितने मंडलों में गये, ध्यान के कितने प्रकारों को आजमाकर देखा, यह हम नहीं जानते। इन सबके परिणामस्वरूप उन्हें चित्त की शांति प्राप्त हुई और उनका निश्चय पक्का हुआ कि दुनिया में मैत्री और करुणा, ये दो महत्त्व की चीजें हैं। यह सब कैसे हुआ, सो हम नहीं जानते।

इसी तरह बापू की आत्मकथा पढ़ने पर कुछ झलक तो मिलती है। श्रीमद् राजचन्द्रजी के साथ उनकी चर्चा हुई थी, यह हम जानते हैं। लेकिन बावजूद इसके उनके मन में कितनी ही आध्यात्मिक शंकाएं थीं और जब तक इन शंकाओं का निवारण नहीं हो गया, और जिन्हें हम Mystic experiences—गूढ़ अनुभव कहते हैं, वैसे नहीं हो गये, तब तक वे काम में नहीं लगे थे।

बापू कहते थे कि Truth is God—सत्य ही परमेश्वर है। लोग मानते थे कि यह वैज्ञानिक बात है। लेकिन जैसा कि सब मानते हैं, यह सिर्फ वैज्ञानिक बात ही नहीं थी। खान अब्दुल गफ्फार खां की कुमुक जाने की बात चल रही थी, तब उन्हें लगा कि ऐसा भी हो सकता है कि वापस लौटना न हो। इसलिए मुझे उन्होंने बात करने को बुलाया। लगभग 15 दिन तक हमारी बातें चलीं। दो-तीन दिन तो वे सवाल पूछते गये और मैं जवाब देता गया। फिर एक दिन मैंने उनसे ईश्वर विषयक अनुभव के बारे में बात छेड़ी।

मैंने कहा, ‘‘आप ‘सत्य ही परमेश्वर है’ कहते हैं, सो तो ठीक है, लेकिन उपवास के समय आपने कहा था कि आपको अंदर की आवाज सुनायी देती है, यह क्या बात है? इसमें कोई रहस्य—गूढ़ता—है?’’ उन्होंने जवाब दिया, ‘‘हां, इसमें कुछ ऐसा है जरूर। यह बिल्कुल साधारण बात नहीं। मुझे आवाज साफ-साफ सुनायी दी थी।’’ मैंने पूछा कि ‘‘मुझे क्या करना चाहिए?’’ तो उन्होंने जवाब दिया कि ‘‘उपवास करना चाहिए।’’ मैंने फिर पूछा कि ‘‘कितने उपवास करने चाहिए?’’ उन्होंने कहा, ‘‘इक्कीस।’’

इसमें एक शख्स पूछने वाला था और दूसरा जवाब देने वाला। यानी बिल्कुल कृष्ण-अर्जुन-संवाद ही था। बापू तो सत्यवादी थे, इस वास्ते यह कोई भ्रम तो हो नहीं सकता। उन्होंने कहा कि साक्षात ईश्वर ने मुझसे बात की, इसलिए फिर मैंने पूछा, ‘‘ईश्वर का कोई रूप हो सकता है? उन्होंने कहा, ‘‘रूप तो नहीं हो सकता, लेकिन मुझे आवाज सुनायी दी थी।’’ मैंने कहा, ‘‘रूप अनित्य है, तो आवाज भी अनित्य है। फिर भी आवाज सुनायी देती है, तो फिर रूप क्यों नहीं दीखता?’’

फिर मैंने उनसे दुनिया में दूसरों को हुए ऐसे गूढ़ अनुभवों की बातें कहीं। अपने भी कुछ अनुभव कहे। ईश्वर-दर्शन क्यों नहीं होता, इस बारे में भी बातें हुईं। फिर मैंने कहा, ‘‘आपके मन में सवाल-जवाब हुए, उनका संबंध ईश्वर के साथ तो है ही न?’’ उन्होंने कहा, ‘‘हां, उसके साथ संबंध है। लेकिन मैंने आवाज सुनी, दर्शन नहीं हुए। मैंने रूप नहीं देखा, लेकिन उसकी आवाज सुनी है। उसका रूप होता है, ऐसा अनुभव मुझे नहीं हुआ और उसके साक्षात दर्शन नहीं हुए, लेकिन हो सकते हैं, जरूर।’’

इस तरह, अंत में बापू ने स्वीकार किया कि यदि ईश्वर को सुना जा सकता है, तो उसका दर्शन भी हो ही सकता है। किसी को श्रवण की अनुभूति होती है, तो किसी को दर्शन की। मुझे यह कहना ही पड़ेगा कि ईश्वर का दर्शन होता है, उसका साक्षात्कार होता है, उसका स्पर्श भी होता है। उसके बिना और किसी तरह विकारों का नाश नहीं होता। ऐसी किसी अनुभूति को हम भ्रम या मिथ्या नहीं कह सकते। परमेश्वर जिस भूमिका में अ-शब्द है; उस भूमिका में अ-रूप भी है, और जिस भूमिका में वह स-शब्द है, उस भूमिका में स-रूप भी।

यह सब मैं आपके सामने इस वास्ते रख रहा हूं कि हम ऊपर-ऊपर ही काम करते हैं और जीवन की गहराई में नहीं उतरते—इस तरफ आपका ध्यान जाय। बापू को भी हमने ऊपर-ऊपर से ही पहचाना है और उनकी बाह्य प्रवृत्तियों को ही महत्त्व दिया है। हमने उन्हें राजनीति आदि में सारे समय रचा-पचा या रचनात्मक कामों में डूबा हुआ देखा है। लेकिन उनकी यह सही पहचान नहीं है। बापू के व्यक्तित्व का मूल पहलू आध्यात्मिक है। बापू ने हमारे सामने कितनी ही ऐसी बातें रखी हैं, जो केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में ही आती हैं। बापू को पहचानने के लिए उनके व्यक्तित्व की आध्यात्मिक भूमिका का आकलन होना चाहिए।

-विनोबा

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