मुझे स्वयं को शून्य स्तर तक ले आना चाहिएI मनुष्य जब तक स्वेच्छापूर्वक अपने को सजातीयों में अन्तिम के रूप में नहीं रखता, तब तक उसकी मुक्ति सम्भव नहीं हैI यदि हम धर्म, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि से ‘मैं’ और ‘मेरा’ समाप्त कर दें, तो हम शीघ्र स्वतंत्र होंगे तथा पृथ्वी पर स्वर्ग ले आएँगेI” –महात्मा गांधी
गांधी जी दुनिया भर में अहिंसा-केन्द्रित अपने विचारों और उनके बल पर की गई जन-कार्यवाहियों, सत्याग्रहों के लिए जाने जाते हैं. अपने जीवन काल में सर्वजन के हित में निर्भीकता से जिस प्रकार उन्होंने अपना स्वर ऊँचा किया, अपने समय के संसार के सर्वाधिक शक्तिशाली अंग्रेजी साम्राज्य को उसकी अन्यायी, जनविरोधी, दमनकारी और शोषणकारी नीतियों और कृत्यों के लिए ललकारते एवं चुनौती देते हुए सत्याग्रहों का नेतृत्व किया; उनसे प्रेरित होकर मार्टिन लूथर किंग जूनियर तथा नेल्सन मण्डेला जैसे जननायकों ने जो अहिंसक कार्यवाहियाँ संचालित कीं, उनसे स्वतंत्रता, मानवाधिकार और न्याय की प्राप्ति का सार्वकालिक, सदा प्रासंगिक तथा सदानुकरणीय मार्ग प्रशस्त हुआ.
यह सम्पूर्ण मानव-इतिहास में सभ्य मानव समाज के समक्ष प्रकट एक अभूतपूर्व घटना थी. गाँधी-विचार अथवा गाँधी-दर्शन की बात यहीं तक सीमित नहीं है, यह तो एक महत्त्वपूर्ण पक्ष मात्र है. गाँधी-विचार तो अति विशिष्ट और अति व्यापक अवधारणा वाला दर्शन है. गाँधी-दर्शन की उत्कृष्टता और व्यापकता को मानवतावाद के प्रति उसके समर्पण में देखना चाहिए. उनके मानवतावाद की अनुभूति, मानव-एकता और सेवा के प्रति उनकी अडिगता में करनी चाहिए। इसी मानव-एकता और सेवा के प्रति अपनी अडिगता को केन्द्र में रखकर उन्होंने कहा, ‘मैं पराजित व्यक्ति की भांति मरना नहीं चाहता। एक हत्यारे की गोली मेरे जीवन का अन्त कर सकती है। मैं इसका स्वागत करूंगा। लेकिन इस सब के बाद भी अन्तिम श्वास तक अपने कर्त्तव्य को प्रेम करूंगा। मैं अपने मिशन में मरने से नहीं डरता, यदि यही मेरा भाग्य है।’
स्पष्ट है कि गाँधी-दर्शन के केन्द्र में मानवतावाद का श्रेष्ठ रूप मौजूद है. गांधी दर्शन, भारतीय दर्शन के सार्वभौमिक एकता जैसे विचार को, प्राणिमात्र जिसकी परिधि में है, समर्पित है. अद्वैत, अविभाज्य समग्रता उसके केन्द्र में है. इसलिए, गाँधी-दर्शन विश्व भर में समय-समय पर विकसित समस्त मानवतावादी विचारों में शीर्ष स्थान रखता है. वह निर्विवाद रूप से मानवतावाद के सर्वश्रेष्ठ स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है. वह सर्वोदय, सर्वकल्याण एवं सर्वोत्थान के लिए कटिबद्ध है. अंत्योदय और सर्वोदय, दोनों ही उसके प्राणरूपी पक्ष हैं. इसमें श्रेष्ठ और कल्याणकारी भारतीय अवधारणाओं की भली-भाँति अनुभूति की जा सकती है. गांधी जी की आत्मकथा (पृष्ठ 371) में एवं यंग इण्डिया में 3 सितम्बर, 1936 को ‘नो असेटिक’ शीर्षक के अन्तर्गत लिखे गए उनके एक लेख में उनके विचारों की यही मूल भावना प्रकट होती है.
II
गांधी-दर्शन सार्वभौमिक एकता में दृढ़तापूर्वक विश्वास करते हुए, जीवन के जिस सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु पर संकेन्द्रित होता है, वह है सर्वसमानता. हरिजन में 17 नवम्बर,1946 को लिखे एक वक्तव्य में उन्होंने कहा, ‘सभी को समान अवसर प्राप्त होने चाहिए; अवसर प्राप्त होने की स्थिति में, प्रत्येक मनुष्य में उन्नति की समान सम्भावनाएं विद्यमान हैं’।
गांधी जी के लिए मानव-समानता की स्वाभाविकता का आधार सर्वेकता की सत्यता थी। इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि रूप अनेक हैं, लेकिन सूचनात्मक भाव तो एक है। इसलिए रंग, वर्ग, लिंग, कायिक बनावट, स्थान आदि सहित किसी भी आधार पर, उच्च-निम्न के लिए कोई स्थान हो ही नहीं सकता। विविधता केवल वाह्य है; असमानता उसी के कारण है। मूल स्थिति तो यही है कि सबमें मौलिक और सर्वांगीण एकता है। वाह्य स्थिति में भी दिन-प्रतिदिन के व्यवहारों में, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और स्तर पर, कदम-कदम पर, हममें से हरेक का इस स्थिति से साक्षात्कार होता है। अनिवार्य एकता और समानता ही अन्ततः सत्यता है। इसलिए इक्कीसवीं शताब्दी में मानव-समानता को केन्द्र में रखकर ही गाँधी-दर्शन पर विचार करना श्रेष्ठ होगा.
समानता, मानव-जीवन की आधारभूत, सर्वाधिक मूल्यवान और सबसे महत्त्वपूर्ण वस्तु है. अद्वैत के मूल में भी यही समानता-सम्बन्धी भावना है. व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ ही सामाजिक न्याय और मानवाधिकार जैसे मूल विषय भी इसके साथ जुड़े हुए हैं. समानता, इसीलिए मानव-जीवन का सबसे सुन्दर आभूषण है. इसके विपरीत, असमानता जीवन की निकृष्टतम और सबसे दुखद वस्तु एवं स्थिति है. गांधी जी ने असमानता के सम्बन्ध में इसीलिए कहा है, ‘असमानता शब्द से बुरी गंध आती है और इसने पूरब एवं पश्चिम, दोनों में अहंकार तथा अमानवीयताओं को प्रेरित किया है.’
गांधी जी ने असमानता की अपनी बात को व्यक्तिगत स्तर पर अथवा मानव-जीवन तक ही सीमित करके समाप्त नहीं किया. उन्होंने इससे भी आगे बढ़कर राज्यों-राष्ट्रों के मध्य की असमानता को भी रद्द किया. असमानता-सम्बन्धी अवधारणा को पूर्णतः मानवता विरोधी घोषित किया और इसे शोषणकारी व दमनकारी बताया. उन्होंने कहा है कि ‘जो मनुष्य के सम्बन्ध में सत्य है, वही राष्ट्रों के सम्बन्ध में भी सत्य हैI असमानता-सम्बन्धी अवास्तविक और कठोर सिद्धान्त ने एशिया एवं अफ्रीका के देशों के अपमानजनक शोषण के लिए प्रेरित किया है’.
उन्होंने 11 अगस्त, 1927 को यंग इण्डिया में लिखा, ‘यद्यपिसभी मनुष्य एक ही आयु, कद, त्वचा, और समान बुद्धि वाले नहीं हैं, ये असमानताएं स्थायी तथा सतही हैं. आत्मा, जो लौकिक पपड़ी के नीचे छिपी है, वह समस्त राष्ट्रों और जलवायु की सभी नारियों-पुरुषों में एक समान है’. अतः, गांधी जी का स्पष्ट सन्देश था, ‘इस बाहर से दिखाई देने वाले भेद में हमें समानता उत्पन्न करनी है. कोई भी मनुष्य अपने को दूसरे से ऊंचा मानता है, तो वह ईश्वर एवं मनुष्य, दोनों के समक्ष पाप करता है’. इसलिए प्रत्येक मनुष्य को, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना, अपने विकास अथवा उत्थान के लिए अवसरों की प्राप्ति हो, यही समानता की मूल भावना है. यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने भी इसीलिए कहा था, ‘समानता सजातीयों के साथ समान व्यवहार में निहित होती है’.
प्राचीन काल से ही मानव-जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव डालने वाले धर्मक्षेत्र के अग्रणियों एवं पवित्र धर्मग्रन्थों के माध्यम से मानव-समानता-सम्बन्धी सन्देशों का निरन्तर प्रसारण हो रहा है, मनुष्य से तदनुसार व्यवहार की अपेक्षा के बाद भी समानता की स्थापना का कार्य आजतक दुष्कर बना हुआ है. मनुष्य के स्वभाव में ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता जैसी अस्थाई प्रवत्तियां विद्यमान हैं. दूसरों पर सर्वोच्चता स्थापित करना, बढ़त बनाना, इसीलिए व्यक्ति के स्वभाव में होता है. ये दो प्रवत्तियाँ व्यक्ति को दूसरों की कीमत पर भी अपने निजी हित को अधिकाधिक साधने व सजातीयों से अधिक प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती हैं. अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सजातीयों का दमन, शोषण और उन पर अत्याचार करना मनुष्य की व्यक्तिगत और संगठित शैली बन जाता है. इस वास्तविकता की बारम्बार पुष्टि के लिए सम्पूर्ण इतिहास हमारे सामने है.
गाँधीजी उक्त वर्णित सत्यता से परिचित न हों, ऐसा कैसे हो सकता था? वे इस वास्तविकता से भली-भाँति अवगत थे. जीवन के सभी क्षेत्रों की एक-दूसरे से परस्पर सम्बद्धता की स्थिति को स्वीकारते हुए भी उन्होंने नैतिक क्षेत्र को आगे रखकर मानव-समानता के लिए न केवल प्रासंगिक विचार प्रकट किए, अपितु इस हेतु हर सम्भव कार्य भी किया.
गांधी जी ने नैतिक क्षेत्र को ही इसलिए आगे रखा, क्योंकि एकमात्र नैतिकता ही मनुष्य को उसके कर्त्तव्यों की अनुभूति करा सकती है, मानव को दबाव और भय की स्थिति से मुक्त कर उसे उसके अपरिहार्य कर्त्तव्यों के प्रति जागृत रख सकती है, उसे स्वैच्छिकता तथा निडरता के साथ उत्तरदायित्वों के निर्वहन हेतु प्रेरित कर सकती है, इसके लिए उसे सक्षम बना सकती है. नैतिकता केवल श्रेष्ठ आदर्श ही नहीं है, यह अहिंसामूलक अस्त्र भी है. अहिंसा से ही इसकी उत्पत्ति होती है; इसीलिए यह अहिंसा की पूरक मान्यता है. यह सजातीयों, समाज, राष्ट्र, मानवता और सार्वभौमिक व्यवस्था के प्रति व्यक्ति के अनिवार्य उत्तरदायित्वों से जुड़ी है. दूसरे शब्दों में उत्तरदायित्व का निर्वहन ही नैतिकता की कसौटी है.
गांधी जी के नैतिकताधारित सत्यमय विचारों की सार्वभौमिक महत्ता और उनके प्रति जीवन भर रही उनकी कटिबद्धता के कारण मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था, ‘महात्मा गांधी के जीवन में उन सार्वभौमिक मूल्यों का समावेश था, जो विश्व के नैतिक ढांचे में स्वाभाविक रूप से विद्यमान हैं. जिस प्रकार गुरुत्वाकर्षण के नियम से अपने आपको पृथक नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार उन मूल्यों से भी पीछे नहीं हटा जा सकता’.
मनुष्य द्वारा नैतिकता की हृदय से अनुभूति मात्र ही उसमें सजातीयों के प्रति समानता की भावना का विकास करती है, व्यक्ति में मानवीय कर्त्तव्यों के प्रति अभूतपूर्व जागृति उत्पन्न करती है. यही अनुभूति सजातीयों के प्रति उत्तरदायित्वों के निर्वहन का मार्ग प्रशस्त करती है. इसीलिए, गांधी जी ने दबाव, भय और विवशता के विपरीत मनुष्य में नैतिक अनुभूति और नैतिकता की स्थिति के निर्माण पर पूर्ण बल दिया, व्यक्ति में कर्त्तव्यों-उत्तरदायित्वों के स्वेच्छापूर्वक निर्वहन की भावना के अधिकतम सम्भव विकास का आह्वान किया.
नैतिकता की अनुभूति और व्यवहार में इसका अंगीकार मानव-समानता का प्रभावकारी, परिणामसूचक एवं श्रेष्ठ मार्ग है. नैतिकता की अनुभूति और व्यवहार में इसके अंगीकरण का ही परिणाम था कि 1937 में सरदार पटेल सूरत, गुजरात के एक दर्जन से भी अधिक ग्रामों के किसानों-जमींदारों का हृदय-परिवर्तन कर उन्हें मानव-समानता के प्रति उनके कर्त्तव्यों की अनुभूति कराते हुए बंधुआ-श्रमिकों की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सके, जो जन्म-जन्मांतर से किसानों-जमींदारों का ऋण न चुका पाने के कारण उनके दास बने हुए थे. वे पशुओं से भी बुरा जीवन जीने को विवश थे. नैतिकता की अनुभूति और मानवता के प्रति उत्तरदायित्वों का जमींदारों को भान करा पाने का ही परिणाम था कि आचार्य विनोबा के नेतृत्व में 1951 से 1961 के मध्य की अवधि तक देश भर से पैंतालीस लाख एकड़ भूमि भूदान आन्दोलन में एकत्रित की जा सकी. बड़े-बड़े किसानों-जमींदारों ने स्वेच्छापूर्वक अपनी भूमि सजातीयों के कल्याण व समृद्धि के उद्देश्य से दान कर दी. गाँधी-विचार में नैतिकता की अनुभूति और मानवता के प्रति उत्तरदायित्वों के निर्वहन हेतु प्रबल भावना के विकास के फलस्वरूप हुआ यह एक अद्वितीय और अनुकरणीय कार्य था. ऐसे कार्य किसी पर दबाव डालकर, किसी को भयभीत अथवा विवश करके नहीं कराए जा सकते.
III
सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्र में प्रत्येक जन को उसकी उन्नति के लिए समुचित अवसर सुलभ कराकर अधिकतम सम्भव समानता स्थापित करने के उद्देश्य से गांधी जी द्वारा सत्ता के विकेन्द्रीकरण-सम्बन्धी जो विचार प्रस्तुत किए गए, वे न केवल विचारणीय हैं, अपितु स्वयं गाँधी-दर्शन को ही थोडा और उत्कृष्ट बनाते हैं.
संरक्षकता सिद्धान्त की मूल भावना धन-सम्पदा, भूमि व उत्पादन के स्रोतों पर स्वामी की भाँति अधिकार जताने एवं उनके मनचाहे उपयोग के विपरीत, उन संसाधनों के न्यासियों के रूप में व्यवहार करने में है. यह सिद्धान्त धन-सम्पदा के स्वामियों का, उत्पादन के स्रोतों का वृहद जनकल्याण में सदुपयोग करने का आह्वान करता है.
व्यवस्था-संचालन में, सर्वजन की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भागीदारी, सत्ता के विकेन्द्रीकरण-विचार की मूल भावना है. इस व्यवस्था की परिधि में जीवन के सभी क्षेत्र सम्मिलित हैं. ऐसी व्यवस्था कर्त्ताव्योन्मुख नैतिकता से भरपूर होती है. अहिंसक सामाजिक ढाँचा उसका आधार होता है. केन्द्रीकृत सत्ता अहिंसाधारित व्यवस्था का आधार नहीं हो सकती. स्वयं गाँधीजी का कथन है कि केन्द्रीकृत व्यवस्था अहिंसक सामाजिक ढाँचे के साथ असंगत है.
मनुष्य का असमानता का व्यवहार, आज विश्व की सभी प्रमुख समस्याओं के मूल में है. इस असमानता को मनुष्य के नैतिक उत्थान द्वारा तथा मानवता के प्रति उसके कर्त्तव्यों की अनुभूति द्वारा अवगत कराकर ही न्यूनतम स्थिति में लाया जा सकता है. यह स्वाभाविक तथा अनिवार्य सार्वभौमिक एकता का ही एक भाग है, उसका वास्तविक विकास सजातीयों के उत्थान के साथ ही सम्भव है. दूसरों की कीमत पर, उनके शोषण के बल पर की गई एकांगी उन्नति वास्तविक उन्नति नहीं होती. इस हेतु मनुष्य को अनुभूति कराने और इस दिशा में उसके व्यवहार में मार्गदर्शन हेतु गाँधी-दर्शन का यह पक्ष आज भारत ही नहीं, अपितु सारे विश्व के लिए विचारणीय है.
-डॉ रवीन्द्र कुमार