जब तक शरीर में आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी का संतुलन है, तब तक मानव शरीर स्वस्थ रहता है। इन तत्वों का सही संयोजन ही प्राक़तिक चिकित्सा है।
प्राकृतिक चिकित्सा कोई नई विधा नहीं है। यह उतनी ही पुरानी है, जितना मानव स्वयं। मानव शरीर पाँच तत्व आकाश, वायु, अग्नि जल, पृथ्वी से मिलकर बना है। जब तक शरीर में यह मौजूद तत्व संतुलित है मानव शरीर स्वस्थ रहता है। इसके असंतुलन पर बीमारियाँ घर करने लगती है। इन्हीं तत्वों का पुन: संयोजन शरीर को स्वस्थ करता है और यही संयोजन प्राकृतिक चिकित्सा है।
आदिम काल में जब मानव पूरी तरह वनवासी था, पशु पक्षियों की तरह पूर्ण प्राकृतिक अवस्था में जंगलों में रहता था, तो प्रथमत: वह अवस्थ नहीं होता था और यदि वह अस्वस्थ हो भी जाए तो जंगली पशु-पक्षियों के भाँति ही उपवास, आराम, आवश्यकतानुसार ठंडे या गर्म स्थान का परिवर्तन कर स्वस्थ हो जाता था। मनुष्य जैसे-जैसे तथाकथित सभ्य समाज में बदलता गया, वैसे-वैसे ही वह प्रकृति से दूर होता गया। बनावटी संयमित जीवन जीने लगा और धीरे-धीरे उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने लगी। तब स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए जड़ी बूटियों का प्रयोग आरम्भ हुआ, जिसका सर्वप्रथम उल्लेख चिकित्सा शास्त्र की पुस्तक ‘आयुर्वेद’ में मिलता है। जड़ी बूटियों के अन्वेषकों (वैद्यों) ने जड़ी बूटियों के प्रयोग के पहले पंचकर्म और मर्मदाब (वर्तमान एक्यूप्रेशर) का प्रयोग किया, जो प्राकृतिक रूप से मनुष्य में मौजूद ऊर्जा को प्रसारित कर स्वत: स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रेरित करता है।
मर्म दाब चिकित्सा एवं प्राकृतिक चिकित्सा की विधा मूल रूप से भारतीय थी। हजारों वर्ष की गुलामी के दौरान यहाँ से लुप्त प्राय हो गयी थी। प्राकृतिक चिकित्सा का पुन: प्रारंभ पश्चिमी देशों से एवं मर्म दाब चिकित्सा का पुन: प्रारम्भ चीन में एक्यूपंचर/एक्यूप्रेशर के नाम से हुआ। धीरे-धीरे इसका प्रचार विश्व पटल पर हो गया। भारत में इसका प्रचार-प्रसार जर्मन लेखक ‘लुइस पुणे’ की पुस्तकों ‘न्यू साइंस ऑफ हीलिंग’ और ‘फेशियल एक्सप्रेशन’ से हुआ, जिनका अनुवाद हिन्दी में ‘नई वैज्ञानिक विधि तथा आकृति निदान’ के नाम से हुआ। इसके अतिरिक्त इन पुस्तकों का अनुवाद भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में हुआ। भारत में इस प्रकार के साहित्य आदि के माध्यम से प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार प्रसार का श्रेय महात्मा गाँधी जी को ही जाता है।
गाँधी जी जब विलायत में बैरिस्टर की पढ़ाई करने गये तो उस समय वे सर्दी जुकाम और सर दर्द से पीड़ित रहने लगे थे। एक दिन स्थानीय समाचार पत्रों में ‘नो ब्रेकफॉस्ट मूवमेंट’ (नाश्ता छोड़ों आंदोलन) संबंधी सभा का विज्ञापन देखा और उसमें शामिल हुए, तो दूसरे ही दिन उन्होंने नाश्ता करना छोड़ दिया। उन्हें आश्चर्य हुआ कि नाश्ता छोड़ देने मात्र से सिरदर्द व जुखाम ठीक हो गया। यह सभा प्राकृतिक चिकित्सा संबंधी थी। इस प्रकार वहीं पर प्राकृतिक चिकित्सा से उनका प्रथम साक्षात्कार हुआ। अब इसका और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने संबंधित साहित्य का अध्ययन आरम्भ कर दिया। वह सबसे अधिक प्रभावित हुए, ‘ऐडोल जस्ट’ की पुस्तक ‘रिटर्न टू नेचर’ (प्रकृति की ओर लौटो) तथा ‘लुइस पुणे’ की पुस्तक ‘न्यू साइंस ऑफ हीलिंग’ (उपचार का नया विज्ञान) से। ये दोनों पुस्तकें अभी भी भारत में मौजूद हैं। विलायत में रहते हुए गांधी जी ने अपने ऊपर प्राकृतिक चिकित्सा का बार-बार प्रयोग किया। भारत आने पर उन्होंने अपने परिवार, सहयोगियों तथा आश्रमवासियों पर भी इसका प्रयोग किया। यहाँ तक कि अपनी बकरी के चर्म रोग का भी उपचार प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से सफलतापूर्वक किया। गाँधी जी ने अपने साप्ताहिक समाचार पत्रों नवजीवन’ एवं
हरिजन’ में प्राकृतिक चिकित्सा से संबंधित लेखों का नियमित रूप से प्रकाशन किया। उन्होंने इससे संबंधित कई पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें आरोग्य की कुंजी’ को अत्यधिक पसंद किया गया और हिन्दी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी किया गया। यह पुस्तक आज भी बहुत चाव से पढ़ी जाती है। उनकी दूसरी पुस्तक
डाइट एण्ड डाइट रिफॉर्म’ (आहार और आहार सुधार) भी अपने समय की अत्यंत उपयोगी पुस्तक रही।
गाँधी जी चाहते थे कि प्राकृतिक चिकित्सा का प्रचार गाँव-गाँव में हो। लोग इसका उपयोग करके न केवल निरोगी बने, बल्कि आर्थिक रूप से भी सबल हो सकें। उन्होंने महाराष्ट्र के पुणे जनपद में उरुलि कांचन’ स्थान पर विशाल प्राकृतिक चिकित्सालय’ की स्थापना की और उसके प्रथम चिकित्सक भी बने। यह चिकित्सालय आज भी सेवारत है। गाँधी जी का प्राकृतिक चिकित्सालय के क्षेत्र में सर्वाधिक योगदान रहा। उन्होंने पाँच महाभूतों के साथ-साथ छठें तत्व के रूप में
ईश तत्व’ को भी शामिल किया और इसके अत्यन्त सुखद परिणाम प्राप्त किये।
उपचार के क्षेत्र में वैचारिक क्रांति को जन्म देने के लिए गाँधी जी का अतुलनीय योगदान भुलाया नहीं जा सकता। उनका मानना था कि नाम स्मरण और प्रार्थना के बगैर प्रकृति भी पूर्ण और स्थायी स्वास्थ्य प्रदान नहीं कर सकती। प्रकृति और पुरुष दोनों का साथ और सहयोग उत्तम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
गाँधी जी की प्रेरणा से उनके अनेक सहयोगी प्रबुद्ध जन प्राकृतिक चिकित्सा से न सिर्फ जुड़े, बल्कि उन्होंने संबंधित साहित्य का सृजन भी किया। साथ ही उन्होंने अनेक प्राकृतिक चिकित्सालयों की स्थापना भी की। विनोबा भावे, बालकोवा भावे, मोरार जी भाई देसाई, श्रीमन नारायण, निर्मला देशपांडे आदि ने गाँधी जी की प्रेरणा से `अखिल भारतीय प्राकृतिक चिकित्सा परिषद् की स्थापना की, जहाँ से प्राकृतिक चिकित्सा का मासिक पत्र परिषद् प्रभा आज भी निरन्तर प्रकाशित हो रहा है। निधि भवन में एक प्राकृतिक चिकित्सालय आज भी संचालित हो रहा है।
प्रकृति के सान्निध्य में रहते हुए मर्मदाब का प्रयोग ही वर्तमान समय में एक्यूपंचर/एक्यूप्रेशर है। यह विधा विशुद्ध रुप से प्राकृतिक विधा है। सामान्य रूप से प्राकृतिक चिकित्सा के नाम से जानी जाने वाली चिकित्सा विधा और एक्यूप्रेशर/एक्यूपंचर में मूलभूत अंतर यह है कि एक में पंचमहाभूतों का प्रयोग भौतिक रूप में किया जाता है और दूसरे में इसकी ऊर्जा का सीधे प्रयोग किया जाता है, जो मानव शरीर में स्वत: मौजूद होती है। दोनों में ही औषधियों का प्रयोग नहीं किया जाता है तथा दोनों ही प्रति प्रभाव से मुक्त है। कम पढ़े-लिखे लोग भी इसे आसानी से सीख सकते हैं। दोनों में ही जाँच पड़ताल और मशीनी ताम-झाम की जरूरत नहीं होती है।
गाँधी जी का प्राकृतिक चिकित्सा का व्यापक दृष्टिकोण, ग्राम स्वराज के साथ-साथ स्वस्थ समाज की आधारशिला बन सकता है। कोरोना महामारी के दौर में जब हर विधा अपने-अपने क्षेत्र में प्रयासरत थी और लगातार निराश हो रही थी, तब पूरे विश्व में प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास कर कोरोना वायरस से मुक्ति का साधन ही विकल्प के रूप में विश्व स्तर पर अपनी मौजूदगी सिद्ध करने में सफल रहा।