नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र दोनों को कमजोर किया

एक गलत प्रक्रिया ने गलत नीति को जन्म दिया, जिसके परिणामस्वरूप न केवल लोकतंत्र को नुकसान हुआ, बल्कि जनता, खासकर गरीब जनता पर भारी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। वह प्रक्रिया जिसके द्वारा कोई नीति तैयार की जाती है, परिणामों को भी निर्धारित करती है। क्या ऐसा कहकर जान छुड़ाई जा सकती है कि औपचारिक रूप से प्रक्रिया कानूनी थी, भले ही परिणाम जो भी रहा हो? क्या उपलब्धि कोई मायने नहीं रखती?

नोटबंदी की बाबत सुप्रीम कोर्ट का बहुमत से आया फैसला मुख्य रूप से इस धारणा पर आधारित है कि जो लक्ष्य तय किया गया था, उससे नोटबंदी का एक ‘तर्कसंगत रिश्ता’ था। यह सवाल प्रासंगिक नहीं है कि लक्ष्य हासिल हुआ या नहीं, यह फैसला कहता है कि नोटबंदी का निर्णय ‘अच्छे इरादे’ से किया गया था और सुविचारित था, लेकिन कानूनी धरातल पर यह वैधानिक नहीं था। लिहाजा दोनों फैसलों में यह बात निहित है कि नोटबंदी वांछित उद्देश्य की पूर्ति के लिए लागू की गयी थी।

दोनों ही फैसलों में इस मुद्दे में जाना जरूरी नहीं समझा गया कि क्या उद्देश्य की पूर्ति हुई? और, जो उद्देश्य घोषित किया गया था, क्या उसकी सिद्धि नोटबंदी से हो सकती थी? इसके बगैर, यह कैसे कहा जा सकता है कि नोटबंदी का उसके घोषित मकसद से एक तर्कसंगत रिश्ता था, या नोटबंदी का निर्णय नेक इरादे से किया गया था?

अगर उद्देश्य की पूर्ति नहीं हुई और विशेषज्ञों की राय यह थी कि इस तरीके से उद्देश्य की पूर्ति की ही नहीं जा सकती, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि नोटबंदी का निर्णय तर्कसंगत था या नेक इरादे से किया गया था?

दरअसल, काली अर्थव्यवस्था पर लगाम लगाना देश के लिए तब भी जरूरी था और अब भी है, लेकिन यह मानी हुई बात है कि मुद्रा की वैधानिकता की अचानक समाप्ति या व्यापक नीति के तौर पर ‘नोटबंदी’ काले धन पर लगाम लगाने में मददगार नहीं हो सकती। यह भी पहले से मालूम था कि अगर ऐसा एकाएक किया जाएगा तो अर्थव्यवस्था में धन की कमी हो जाएगी, जिससे अर्थव्यवस्था में लेन-देन ठप पड़ जाएगा और संकट उत्पन्न होगा। इसलिए नोटबंदी को ‘नेक इरादे’ का या ‘तर्कसंगत’ फैसला करार देना निहायत बेतुका है।

नोटबंदी का कदम इस गलत धारणा पर आधारित था कि ‘काला धन यानी नगदी को अगर सिस्टम से निकाल बाहर कर दिया जाए, तो काली अर्थव्यवस्था रातोरात छूमंतर हो जाएगी। यह भी एक गलत धारणा थी कि इसे एकदम गोपनीय तरीके से और काफी तेजी से लागू किया जाना चाहिए। इसके पीछे खयाल यह था कि जिनके पास नगद काला धन है, उन्हें इसे सफेद करने का मौका न मिल पाए। जबकि हकीकत यह है कि जिनके पास नगद काला धन था, वे उसे नयी नगदी में बदलने में कामयाब हो गए।

रिजर्व बैंक आफ इंडिया के मुताबिक चलन से बाहर किए गए नोटों की कुल राशि की 99.3 फीसद राशि उसके पास लौट आई और नए नोटों में बदल गई। पिछले छह सालों में आयकर विभाग ने शायद ही किसी के खिलाफ इस काली नगदी को नए नोटों में बदलने की बिना पर कानूनी कार्रवाई की हो। तो सच्चाई यह है कि नोटबंदी के घोषित लक्ष्य हासिल नहीं हुए- हो भी नहीं सकते थे- उलटे अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ, लोकतंत्र की भी दुर्गति हुई।

लोकतंत्र में प्रक्रिया का महत्त्व
लोकतंत्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया बहुत मायने रखती है, लेकिन जब प्रक्रिया की केवल खानापूरी करके निर्णय लिया जाता है तो वह सिर्फ रस्म अदायगी होती है, उसमें कोई सारतत्त्व नहीं होता। उससे लोकतंत्र को क्षति पहुंचती है। मसलन, हो सकता है कि आरबीआई ने नोटबंदी के प्रस्ताव पर, बिना किसी बैठक में मसले को लाए, औपचारिक रूप से विचार-विमर्श किया हो और एक पूर्व नियोजित निर्णय को बैठक के नतीजे के तौर पर पेश कर दिया गया हो।

नोटबंदी को चार जजों ने सही और एक जज ने गलत ठहराया

सरकार कहती है कि उसने नोटबंदी की घोषणा के बारे में छह महीने पहले ही आरबीआई से विचार-विमर्श कर लिया था, जबकि जो व्यक्ति अधिकांश समय आरबीआई का गवर्नर रहा, उसका यह बयान प्रामाणिक रूप से दर्ज है कि उन्होंने सरकार को ऐसा कोई कदम न उठाने की सलाह दी थी, क्योंकि इससे काली अर्थव्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिए आरबीआई से विचार-विमर्श किया गया, इसका अर्थ यह नहीं है कि आरबीआई की सहमति भी थी। जाहिर है, सरकार ने निर्णय कर लिया था और आरबीआई से विचार-विमर्श महज कागजी रिकार्ड के लिए किया गया था। अगर पीछे इतिहास में जाएं, तो 1978 में जब नोटबंदी की गई थी, तब भी आरबीआई गवर्नर ने यह परामर्श दिया था कि इससे काले धन पर अंकुश लगाने में कोई मदद नहीं मिलेगी। लोकतंत्र में असहमति मायने रखती है क्योंकि अकसर यह नीति नियंताओं की एकतरफा कार्रवाइयों के बजाय बेहतर निर्णय की तरफ ले जाती है।

अगर इस मामले में आरबीआई को विशेषज्ञ माना जाए तो उसकी सलाह पहले भी और इस बार भी यही थी कि इस तरह का निर्णय व्यर्थ होगा। फिर नोटबंदी को तर्कसंगत या अच्छे इरादे से किया गया फैसला कैसे कहा जा सकता है? इस फैसले तक पहुँचने के लिए क्या कोई और आधार था?

किसी प्रक्रिया को उलट देने का दूसरा तरीका यह है कि आनन फानन में बैठक बुलाई जाए, बैठक जल्दी से खत्म कर दी जाए और यह दावा किया जाए कि विचार-विमर्श के बाद अमुक सहमति बनी है। यह पूछा जाना चाहिए कि क्या इतने कम समय में इतना महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए विचार-विमर्श की पर्याप्त गुंजाइश थी? चलताऊ बैठक लोकतंत्र को कमजोर करती है, क्योंकि इससे यही ध्वनित होता है कि पूर्व नियोजित एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए बैठक बुलाई गई थी और किसी सदस्य की कोई चिंता या शंका रही हो, तो उसका निवारण करने के लिए वक्त नहीं था। जैसा कि असहमति के फैसले से जाहिर है, आरबीआई बोर्ड की बैठक का नतीजा पहले से तय था।

लोकतंत्र पर आघात
जिस दिन रात 8 बजे नोटबंदी घोषित की गई, उसी दिन शाम 5:30 बजे आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड की बैठक बुलाई गई, महज चौबीस घंटे की पूर्व सूचना पर, इससे इतने महत्त्वपूर्ण निर्णय पर विचार-विमर्श के लिए पर्याप्त समय नहीं मिला होगा। न तो आरबीआई और न ही बोर्ड के सदस्य ऐसे विशेषज्ञ हैं, जिन्होंने काली अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया हो। अगर बोर्ड के आठ सदस्य मौजूद थे तो प्रत्येक को अपनी राय जाहिर करने के लिए चंद मिनट ही मिले होंगे, यह भी कहा गया कि बोर्ड ने एक योजना की रूपरेखा भी तैयार की थी। पर उसके लिए वक्त कहाँ था?

साफ है कि आरबीआई की कार्य-योजना बोर्ड की बैठक में नहीं, पहले ही तैयार की गई थी और बोर्ड के सदस्यों को तो उस पर कुछ कहने का भी वक्त नहीं मिला होगा। हैरत की बात नहीं कि जो भी योजनाएं बनी थीं, वे आधी-अधूरी थीं और बाद के कुछ हफ्तों में उनमें बार-बार फेरबदल करना पड़ा। सरकार में किसी भी स्तर पर विचार-विमर्श न होने के कारण योजना लड़खड़ा गई। न तो समस्याओं का पूर्वानुमान किया गया न उनके समाधान सोचे गए थे। आरबीआई भी कोई मदद नहीं कर सका, क्योंकि वह अधिक से अधिक यही कर सकता है कि काली अर्थव्यवस्था के प्रति आंख मूंद ले, उसके गुणा-भाग में काली अर्थव्यवस्था से पड़ने वाले प्रभाव शामिल नहीं किए जाते हैं। आर्थिक वृद्धि दर या महंगाई पर उसके वक्तव्यों में कभी भी काले धन का जिक्र नहीं आता है।

यह कहा गया कि आरबीआई ने नोटबंदी का कदम प्रस्तावित किया था, लेकिन अपनायी गई प्रक्रिया और आरबीआई के सर्वोच्च अधिकारी की आपत्तियों को देखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लोकतंत्र को कमजोर किया गया और एक अहम संस्था की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाई गई।

लोकतंत्र को इससे भी क्षति पहुँची कि संसद में कोई चर्चा किए बगैर नोटबंदी लागू की गई। 2016 में संसद का शीतकालीन सत्र 16 नवंबर से शुरू हुआ था, लेकिन न तो संसद में उपर्युक्त विषय पर बहस हुई, न ही संसद की स्वीकृति लेने की जरूरत समझी गई।

8 फीसद की वृद्धि दर पर भलीभाँति काम कर रही अर्थव्यवस्था, नोटबंदी के चलते, अचानक महीनों ठप रही। आंकड़े बताते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था 2016 में लगे आघात से अब भी पूरी तरह उबर नहीं पाई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के विशेषज्ञों के लिए, भारत में हुआ विमुद्रीकरण अध्ययन का विषय रहा, यह समझने के लिए कि जब इस तरह का कदम अचानक उठाया जाता है तो अर्थव्यवस्था पर उसका क्या असर पड़ता है।- लीफलेट

-प्रो अरुण कुमार

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