जीएसटी परिषद की 47 वीं बैठक ने एकाउंटिंग के स्तर पर, जीएसटी के विवाद कम करने और कंप्लायंस में कुछ सहूलियतें जरूर दी हैं, लेकिन सोलह राज्यों की राजस्व क्षति का सवाल अनसुना करके सरकार ने अपने एक राष्ट्र-एक टैक्स के गाजे-बाजे का स्वर स्वयं ही बेसुरा कर दिया है।
जीएसटी परिषद की 47 वीं बैठक
जीएसटी परिषद की 47 वीं बैठक की तमाम अनुशंसाओं के बाद सरकार की ओर से कानून के रूप में जो नोटिफिकेशन आये हैं, उनके तात्कालिक प्रभाव मंहगाई को बढ़ाने वाले ही हैं. एक ऐसी उथल-पुथल पैदा की जा रही है, जिससे मुनाफाखोरी के लिए अवसर बने रह सके। इससे जीएसटी के ऑपरेशनल पक्ष में व्यापार संबंधी सहूलियतें जरूर होती हैं, जिसे ईज ऑफ डूइंग बिजनेस कहा जाता है। जीएसटी के ये नये नियम आदमी की मूलभूत जरूरियात; खाने पीने संबंधी तमाम चीजों को और महंगा ही करने वाले हैं। इन नियमों में अस्पष्टता और उलझनें भी कम नहीं हैं।
कोई भी कर प्रणाली एक स्पष्टता की मांग तो करती है, रैशनैलिटी और एक दृष्टिकोण की मांग भी करती है। सीमित संसाधनों से बड़े-बड़े काम कैसे हों, जिससे अर्थव्यवस्था की दूरगामी तस्वीर उभरे, इसके लिए नीति निर्माताओं के पास जिस अंतर्दृष्टि और कौशल की आवश्यकता होती है, उसका सर्वथा अभाव दिखाई पड़ता है।
नये जीएसटी नियमों के तहत अब खाने-पीने की ब्रैंडेड ही नहीं, पैक करके बेची जाने वाली चावल, दाल, आटा, चीनी, नमक, तेल, मसाला, दलिया आदि जैसी किसी भी चीज पर अब 5 प्रतिशत जीएसटी लागू होगा। वहीं आटा, चावल और दाल की बोरी अगर 25 किलो से ऊपर वजन की हो, तो जीएसटी नहीं लगेगी। अभी तक यह सिर्फ रजिस्टर्ड और ब्रैंडेड वस्तुओं पर ही लगता था।
अब जैसे पारंपरिक बनिये की दूकान से अगर किसी ने आधा किलो चीनी, चावल, दाल, मूंगफली आदि खरीदी, बनिया ने अपनी दूकान के बोरे से निकाल कर इस तरह का कोई भी सामान दिया, तो ये जीएसटी मुक्त हुआ, लेकिन यही सामान अगर बनिया पैक्ड रूप में देता है, जो एक ब्रैंड के रूप में पंजीकृत भी नहीं है, तो उस पर 5 प्रतिशत की जीएसटी लगेगी।
एक पेचीदगी और समझिये. पारंपरिक बनिये ने ये चावल, दाल, आटा, मसाला और मूंगफली आदि अगर 25 किलो के बोरे में रजिस्टर्ड ब्रैंड के बजाय, सिर्फ पैक्ड रूप में खरीदा हो और 5 प्रतिशत जीएसटी न भी दी हो, तो भी जीएसटी के चलते सामान महंगा हो गया है, यह कहने का अवसर उसको जरूर मिल गया है। जाहिर है कि अब वह 5 प्रतिशत जीएसटी जोड़ कर ही ये सामान बेचेगा..! इस तरह देखें, तो खाने पीने का खुला सामान भी जीएसटी से मुक्त कहाँ हुआ? यह तो बस घुमाकर कान पकड़ने का तरीका हुआ!
आप बड़े-बड़े मॉलों में खाने-पीने के सैकड़ों आइटम पैक्ड रूप में मॉल के नाम से ही बिकते हुए देखते रहे हैं, जो किसी ब्रैंड के रूप में भी पंजीकृत नहीं होते, अभी तक जीएसटी से मुक्त होते थे, अब इन पर भी 5 प्रतिशत की जीएसटी लगेगी। 5 प्रतिशत की यह जीएसटी वस्तुओं के केवल पैक्ड रूप में होने से लगेगी, चाहे वे ब्रैंड हों या नहीं, चाहे वे रजिस्टर्ड हों या नहीं।
47 वीं जीएसटी परिषद की अनुशंसाएं, जो अब नोटिफिकेशन के रूप में 18 जुलाई 2022 से लागू कर दी गई हैं, बाजार में खाने-पीने की वस्तुओं के दामों में नाहक आग लगायेंगी। जीएसटी के मामले में आम आदमी का सबसे बड़ा सरोकार यही है।
आम आदमी के सरोकार से देखें, तो बाजार का मुनाफाखोर चरित्र कोई छुपी हुई चीज़ नहीं है। बाजार को मुनाफ़ा कमाने का मौका चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि पिछले दस सालों में देश में खाने-पीने की वस्तुओं के उत्पादन में कोई भारी कमी देखी गई हो, लेकिन वस्तुओं के दाम फिर भी बढ़ते ही गये हैं।
तो, इन वस्तुओं के दाम बढ़ने के कारण क्या रहे हैं? दाम बढ़ने का वाहिद कारण यही उथल-पुथल है। यह उथल-पुथल कभी टैक्स में परिवर्तन को लेकर, तो कभी जमाखोरी करके बनावटी शॉर्टेज, जिसे आजकल सप्लाई चेन इफेक्ट कहा जाता है, पैदा करके बधाई जाती है. इस तरह बाजार में वस्तुओं के दाम बढ़ाये जाते हैं। पेट्रोल, डीजल के बेतहाशा बढ़े दामों ने भी मुनाफाखोरी को खूब उकसाया है, यहाँ तक कि मझोले व्यापारियों को काम करने के लायक नहीं छोड़ा है। यह मंहगाई असल में एक षड्यंत्रकारी योजना है, जिसे पूंजी, तकनीक और सरकारी नीतियां मिलकर अमली जामा पहनाती हैं।
जहां तक सरकार की दृष्टि की बात है तो एक बात जान लीजिये कि एक अनुमान के अनुसार 47 वीं जीएसटी परिषद की इस अनुशंसा पर जो नयी दरें और नये परिवर्तन लागू हुए हैं, इनसे सरकार को 15 हजार करोड़ का अतिरिक्त टैक्स मिलेगा, मतलब सरकार के रेवेन्यू में 15 हजार करोड़ का इजाफा होगा, लेकिन गौरतलब है कि इससे बाजार की मुनाफाखोरी में कितने हजार करोड़ का इजाफा होगा..! और यह भी कि अंततः लूटा कौन गया?
एक तर्क ये है कि सरकार के जितने बेतहाशा खर्च हैं, उस हिसाब से सरकार को अपनी आय बढ़ानी ही पड़ेगी। रेवेन्यू बढ़ाने का सबसे नजदीकी हथियार होता है टैक्स। लेकिन सरकार की दृष्टि पर तब सवाल खड़े होते हैं, जब आम आदमी के रोजमर्रे के जीवन से होशियारीपूर्वक 15 हजार करोड़ की उगाही करके, एक तरफ बाजार को मंहगाई की आग में झोंक दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ देश के चंद उद्योगपतियों को लाखों करोड़ के कॉर्पोरेट टैक्स से छूट दे दी जाती है। इसे आप क्या कहेगें?
बैंक से कर्ज लेकर पैसे कॉर्पोरेट डुबाये और कॉर्पोरेट टैक्स की छूट भी कॉर्पोरेट ही ले..! ऊपर से जीएसटी जैसे टैक्स का बोझ जनता के कंधे पर..! तो ये सरकार पूंजीपतियों की हुई या 135 करोड़ देशवासियों की? ये सवाल तब और अधिक चुभन पैदा करते हैं, जब लाखों करोड़ के कॉर्पोरेट टैक्स की छूट और बैंक कर्ज की अंधाधुंध सहूलियत से लैस इस देश का उद्योगपति देश की बेरोजगारी के प्रति आँख मूंदकर और अधिक मुनाफाखोरी में व्यस्त हो जाता है।
यह दलील थोथी है कि कॉर्पोरेट टैक्स की छूट से देश के मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार बढ़ेगा। अगर इस ट्रिकल डाउन से देश की मैन्यूफैक्चरिंग इतनी ही प्रोत्साहित होती तो देश की बेरोजगारी आज 45 साल के रिकॉर्ड तोड़ स्तर पर नहीं होती। अभी दुनिया के निर्मम पूंजीवाद के बोझ तले रोजगार के अवसरों को रौंदती टेक्नोलॉजी, औटोमैशन और आयात की किसको परवाह है? पिछले चार सालों में बीमा कंपनियों के लिये बाजार खोला गया, मतलब इस ट्रेड में प्राइवेट कंपनियों का आना हुआ। यद्यपि इनका काम सरकारी बैंको के मार्फत ही होता है।
अभी-अभी एक खबर आई है कि इन प्राइवेट कंपनियों को 40 हजार करोड़ का फायदा हुआ। अब सवाल यह है कि 40 हजार करोड़ की कमाई करने वाली इस इंडस्ट्री की ऑडिट क्यों नहीं होनी चाहिए कि इसने कितने रोजगार दिये..?
47 वीं जीएसटी परिषद ने कुछ विचित्र सुझाव भी दिये हैं, जिनमें दो सुझाव आपको हस्यास्पद लगेंगे। जिस होटल के कमरे का किराया एक हजार रुपया प्रतिदिन होगा, उस पर 18 प्रतिशत जीएसटी लगेगी, मतलब कमरे का किराया हो गया 1180 रूपये। अगर होटल अपने कमरे का किराया एक हजार की जगह 975 रुपये कर दे तो वह अपने ग्राहक को लगभग दो सौ रुपये की छूट से नवाज सकता है। एक दूसरी घटना देखिये। अगर अस्पताल के एक कमरे का किराया पांच हजार रुपये प्रतिदिन है, तो 12 प्रतिशत जीएसटी टैक्स लगेगा। मतलब कमरे का किराया हो गया 5600 रुपये।
अब अगर हॉस्पिटल अपने कमरे का किराया पांच हजार की जगह 4900 रुपये कर दे तो वह अपने ग्राहक को 700 रुपये के डिस्काउंट से लुभाने की स्थिति में आ गया..! आखिर कॉम्पिटीशन तो वहां भी है। वह क्यों नहीं ऐसा करेगा?
जीएसटी परिषद की इस 47 वीं बैठक से कानूनन जो भी परिवर्तन बाजार में आये हैं, निश्चित ही बाजार उनके साथ एडजस्ट कर लेगा और जो अंतिम उपभोक्ता है, उसके लिए भी मुर्दे पर क्या पांच मन मिट्टी और क्या नौ मन वाली स्थिति होगी, अंततः वह भी यह बोझ सह ही लेगा, लेकिन जो सोलह राज्यों का रेवेन्यू शॉर्ट फॉल यानी राजस्व की कमी है, उस पर जीएसटी परिषद की चुप्पी, सरकार द्वारा सच्चाई से आँख चुराने जैसी है।
जीएसटी को लागू हुए पांच साल हुए और अभी तक राज्य स्तर पर जीएसटी के ट्रिब्यूनल नहीं बने हैं, इस कारण हाईकोर्ट्स में जीएसटी से संबंधित विवादों के अंबार लगे हुए हैं। कुल मिलाकर जीएसटी परिषद की इस 47 वीं बैठक ने एकाउंटिंग के स्तर पर, जीएसटी के विवाद कम करने और कंप्लायंस में कुछ सहूलियतें जरूर दी हैं, लेकिन सोलह राज्यों की राजस्व क्षति का सवाल अनसुना करके सरकार ने अपने एक राष्ट्र-एक टैक्स के गाजे-बाजे का स्वर स्वयं ही बेसुरा कर दिया है।
-जितेश कांत शरण