सर्वोच्च अदालत ने न केवल दंगा पीड़ित जकिया एहसान जाफ़री की याचिका ख़ारिज कर दी, बल्कि उन लोगों को कठघरे में खड़ा करने के हुक्म दे दिया, जो याचिकाकर्ता के हमदर्द माने जाते हैं, यद्यपि वे न तो मामले के पक्षकार थे और न उनको दोषी करार देने से पहले उन्हें सुनवाई का मौक़ा दिया गया।
न्याय के लिए अदालत के दरवाज़े खटखटाना या समाज में अभियान चलाना अब जोखिम भरा काम हो गया है। सुप्रीम कोर्ट में गुजरात दंगों के दोषियों को सजा दिलाने की याचिका के बाद जो हुआ, उससे तो यही धारणा बनती है। सर्वोच्च अदालत ने न केवल दंगा पीड़ित जकिया एहसान जाफ़री की याचिका ख़ारिज कर दी, बल्कि उन लोगों को कठघरे में खड़ा करने का हुक्म दे दिया, जो याचिकाकर्ता के हमदर्द माने जाते हैं, यद्यपि वे न तो मामले के पक्षकार थे और न उनको दोषी करार देने से पहले उन्हें सुनवाई का मौक़ा दिया गया।
अदालत के फ़ैसले में इस बात पर भी प्रश्नचिह्न लगाया गया कि इन लोगों ने ऊँचे पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ अभियान चलाने की धृष्टता कैसे की. उच्च पदस्थ लोगों को न्यायिक प्रक्रिया के तहत जवाबदेह बनाना कब से जुर्म हो गया?
अगर सुप्रीम कोर्ट की बेंच को लगा था कि कोई न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग कर कर रहा है तो वह उन लोगों को अदालत की अवमानना का नोटिस देकर उनको अपनी बात कहने का मौक़ा देने के बाद उचित आदेश पारित कर सकती थी.
आम तौर पर पुलिस प्रशासन अदालत के आदेश पर तबतक कोई कार्यवाही नहीं करता, जब तक उसकी प्रमाणित प्रति मिलने के बाद सरकार का न्याय विभाग उसका परीक्षण करके दिशा निर्देश नहीं देता, पर ऐसा लगता है कि गुजरात पुलिस ने इस मामले में पहले से अनुमान लगाकर सारी तैयारी पहले ही कर ली थी, जैसे कि उन्हें पता था कि अदालत यही आदेश देगी.
पुलिस ने उसी शाम मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली तीस्ता सीतलवाड़ा, गुजरात के पूर्व पुलिस महानिदेशक आरबी श्रीकुमार और एक अन्य पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट के ख़िलाफ़ मुक़दमा क़ायम कर लिया। फटाफट तीस्ता और श्रीकुमार की गिरफ़्तारी हो गयी, संजीव भट्ट पहले से एक दूसरे मामले में जेल में हैं।
लोग सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से स्तब्ध हैं. देश के तमाम वकीलों और पूर्व जजों ने इस मामले में लेख लिखकर और बयान देकर चिंता प्रकट की है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मदन बी लोक़ुर ने तो एक लेख लिखकर फ़ैसला देने वाली बेंच के जजों को सुझाव दिया कि वे एक स्पष्टीकरण जारी करें कि उन्होंने तीस्ता सीतलवाड़ और दोनों पुलिस अधिकारियों की गिरफ़्तारी का सुझाव नहीं दिया है न उनकी ऐसी नीयत थी. उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि फ़ैसला लिखने वाली बेंच को फ़ौरन तीस्ता सीतलवाड़ को जेल से रिहा करने का आदेश देना चाहिए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट बेंच की ओर से ऐसी कोई पहल नहीं हुई है.
इस सिलसिले में यह भी विचारणीय है कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने ही हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ जाकिया एहसान जाफ़री की याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार किया था, तो क्या उन जजों ने बिना किसी आधार के याचिका स्वीकार की थी?
चूँकि इस मामले में गिरफ़्तारी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हुई है, इसलिए निचली अदालतों से तीस्ता को ज़मानत या न्याय मिलना असंभव-सा लगता है.
सुप्रीम कोर्ट के कुछ वकीलों ने इस बात पर भी आश्चर्य प्रकट किया है कि अयोध्या जजमेंट की तरह इस फ़ैसले पर भी किसी जज ने हस्ताक्षर नहीं किया. यदि ऐसा है तो यह अपने आप में बहुत गंभीर बात है और कई प्रश्न खड़े करती है.
मामले की जड़ यह है कि जाकिया जाफ़री अपने सांसद पति और अन्य लोगों की दंगों में सुनियोजित हत्या के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और अन्य उच्च पदाधिकारियों की ज़िम्मेदारी का निर्धारण कराकर उन्हें सजा दिलाना चाहती थीं. तीस्ता सीतलवाड़ एवं अन्य लोग इस अभियान में केवल उनका साथ दे रहे थे.
यह आम चर्चा रही है कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने दंगाइयों को पूरी छूट दी थी और पुलिस प्रशासन को दंगों में हस्तक्षेप करने से मना किया था. अगर मुख्यमंत्री ने न भी रोका हो तो भी यह तो एक निर्विवाद तथ्य है कि पुलिस ने दंगाइयों को रोकने की कोशिश नहीं की. सांसद एहसान जाफ़री सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों को मदद के लिए फ़ोन करते रहे, पर किसी ने मदद नहीं की. ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोगों ने इसकी गवाही भी दी.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत किसी के खिलाफ आपराधिक लापरवाही या दंगे के षड्यंत्र में शामिल होने का सबूत नहीं पाया, लेकिन जाकिया जाफ़री और तीस्ता सीतलवाड़ ने हार नहीं मानी. जाकिया न्याय के लिए फिर सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुँची थीं.
सुप्रीम कोर्ट की ज़िम्मेदारी थी कि वह एसआईटी रिपोर्ट की छानबीन करती, आवश्यकता होती तो उन्हें फिर से जांच और सबूत जुटाने को कहती. कोई सबूत नहीं मिलते तो बेशक याचिका ख़ारिज कर दी जाती. किन्तु इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की लड़ाई में मदद करने वालों के खिलाफ टिप्पणी करके उन्हें जेल भिजवाया है तो अब उसके बाद कौन किसी दंगापीड़ित या गरीब की मदद करने अथवा बड़े लोगों के खिलाफ गवाही देने का जोखिम लेगा?
सुप्रीम कोर्ट देश में क़ानून के शासन और नागरिकों के अधिकारों का संरक्षक है, लेकिन इस मामले में फ़ैसले से ग़लत नज़ीर पड़ी है. बेहतर होगा कि चीफ़ जस्टिस इस फ़ैसले की समीक्षा के लिए एक बड़ी बेंच का गठन करें, जो दोनों पक्षों को सुनकर उचित आदेश पारित करे, अन्यथा समाज में यही धारणा बनेगी कि – समरथ को नहीं दोष गुसाईं .
-राम दत्त त्रिपाठी