केदारनाथ के बाद जोशीमठ में त्रासदी

बद्रीनाथ, केदारनाथ धाम आदि तीर्थों पर जाने में सावधानी बरती जाती थी कि न शोर शराबा हो और न कचरा छोड़ा जाये। वहां पांच सितारा होटल की सुविधा तो सोच भी नहीं सकते थे। यह सब अनुशासन रखना समाज का काम है, लेकिन जिन संस्थाओं का काम समाज को सही राह दिखाना था, वही पथ भ्रष्ट हैं।

केदारनाथ त्रासदी के बाद जोशीमठ, यानी बद्रीनाथ का प्रवेश द्वार धँस रहा है। यह तो होना ही था। मुनाफ़ाखोर बिज़नेस कंपनियां सरकार के सहयोग से जिस तरह हमारे प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध, अवैज्ञानिक और अवैध दोहन कर रही हैं, उसमें जल, जंगल, ज़मीन और पहाड़ सब निशाने पर हैं। ये हमारे तीर्थ स्थानों को भी नहीं छोड़ रहे हैं।

सोचा गया था कि केदारनाथ त्रासदी के बाद कंपनियों के मालिकों और संचालकों की अंतरात्मा जागेगी। संसद, सरकार, नौकरशाही और न्याय पालिका प्रकृति के संरक्षण की अपनी ज़िम्मेदारी समझेंगे, लेकिन आर्थिक उदारीकरण की होड़ में प्राकृतिक संसाधनों पर हमला और बढ़ गया, क्योंकि अब सरकार को न तो कोई शील-संकोच है और न ही उस पर किसी की लगाम। वैसे भी कहा है – “Power Corrupts, absolute power corrupts absolutely” यानी भ्रष्ट कर देती है, सम्पूर्ण सत्ता सम्पूर्ण रूप से भ्रष्ट कर देती है।

क्या हमारे नीति निर्माताओं और इंजीनियरों को इतनी भी समझ नहीं है कि हिमालय दूसरे मज़बूत पत्थर के पहाड़ों जैसा नहीं है? यह कच्चा है, इसमें ढेर सारी मिट्टी है और इसमें ब्लास्ट कर चौड़ी फ़ोर लेन सड़क, पुल, टनल, बिजली घर या बांध बनाने से यह दरक सकता है। उसके अंदर पानी अपना रास्ता बना लेता है, जो भयंकर तबाही का कारण बनता है। क्या हिमालय पर रिसर्च करने वाले इंस्टीट्यूट उन्हें या सरकार को सावधान नहीं करते या सरकारें बिलकुल बहरी हैं और अदालतों ने उन्हें अभयदान दे रखा है?

प्राकृतिक संसाधनों के इस अवैज्ञानिक दोहन से आदिवासी, पहाड़ों और जंगलों या नदियों के किनारे रहने वाले लोग त्राहिमाम कर रहे हैं, पर उनकी सुनता कौन है? जो राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल सत्ता में हैं, वे सब तो कंपनियों और पूँजीपतियों के इशारे पर काम कर ही रहे हैं, जो आज विपक्ष में हैं, उनकी डोर भी वहीं बंधी लगती है। स्थानीय कंपनियां और विदेशी चंदा लेने वाले एनजीओ लड़ाई नहीं लड़ सकते।

जनता अफ़ीम खाकर धर्म-रक्षा की ख़ुशफ़हमी में है, जबकि संकट केवल आस्था के केंद्रों पर ही नहीं, जीवन यानी अस्तित्व पर भी है। अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों व कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल और गोबर या जैविक खाद के अभाव में बीमार मिट्टी दूषित अनाज, फल और औषधियां पैदा कर रही है। हवा में बीमारी के कण हैं। आकाश में शोर, युद्ध और दूसरे तरह का कचरा है। जल की तो पूछिये मत; न केवल नदियों और सतह का जल प्रदूषित है, हमने अंडरग्राउंड जल भी प्रदूषित कर डाला है। जीवनदायिनी गंगा के किनारे के गांवों में कैंसर फैल रहा है और हम बनारस की रेती पर आलीशान टेंट सिटी बसाकर या गंगा विलास क्रूज़ चलाकर अपनी पीठ ठोंक रहे हैं। जिस गंगा को हम मां कहते हैं, उसी में मल-मूत्र डालते हैं और गंगा-सफ़ाई का ढोंग रचाकर धन की बंदरबाँट करते हैं।

हम अपने जिन पुरखों को अविकसित समझते हैं, उन्हें इस बात की समझ ज़्यादा थी कि जीवन के आधारभूत प्राकृतिक संसाधनों से ज़रूरत भर का लेकर कैसे उनकी पवित्रता और अखंडता बरकरार रखें। नदियों में स्नान से पूर्व उनसे अनुमति लेना और अपने हिस्से की गंदगी साफ़ करने के लिए दूध डालना इसका एक उदाहरण है।

बद्रीनाथ, केदारनाथ धाम आदि तीर्थों पर जाने में भी सावधानी बरती जाती थी कि न शोर शराबा हो और न कचरा छोड़ा जाये। वहां पांच सितारा होटल की सुविधा तो सोच भी नहीं सकते थे। यह सब अनुशासन रखना समाज का काम है, लेकिन जिन संस्थाओं का काम समाज को सही राह दिखाना था, वही पथ भ्रष्ट हैं।

इसीलिए गांधी स्वतंत्रता आंदोलन के साथ- साथ समाज के नैतिक उत्थान की लड़ाई लड़ रहे थे। वह सत्य, अहिंसा, अस्पृश्यता निवारण आदि एकादश व्रत की बात करते थे। प्रकृति के संरक्षण की बात करते थे।

आज समाज में फिर से इस बात पर सहमति बनाने की ज़रूरत है कि हम अपने आस्था केंद्रों को सादगी और शांति का स्थान बनाना चाहते हैं या सुख सुविधा के नाम पर उन्हें नष्ट करना चाहते हैं। जब उत्तराखंड में इतनी चौड़ी सड़कें, हेलीकॉप्टर सेवा और पांच सितारा होटल नहीं थे, क्या तब वहां तीर्थ यात्री सुरक्षित रूप से नहीं आते जाते थे?

जिन वेद-पुराणों की हम आज दुहाई देते हैं, क्या प्रकृति संरक्षण के उनके मंत्रों को समझना और मानना ज़रूरी नहीं है? क्या धर्म, आस्था और संस्कृति की रक्षा के नाम पर आक्रामक आंदोलन हम सिर्फ़ इसलिए चला रहे हैं, ताकि उसकी आड़ में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था बेरोकटोक हमारे प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल कर कुछ लोगों काे मालामाल कर सके और बाक़ी को कंगाल?

अभी भी सब कुछ नहीं बिगड़ा है, जब जागो तभी सबेरा। हमें आत्मघाती नीतियों को त्यागकर यह सोचना होगा कि हमारे पुरखों ने हमें क्या दिया था और हम भावी पीढ़ी के लिए क्या छोड़कर जायेंगे।

-राम दत्त त्रिपाठी

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