मिथक हर संस्कृति में पाये जाते हैं, पर भारतीय मिथक-साहित्य और लोक-संस्कृति इतनी व्यापक और वृहत्तर है कि उससे प्रकृति से संबंधित हर सवाल के जबाव की अपेक्षा होती है। ये घटनाएं भले ही कभी घटी हों या न घटी हों, पर लगता है कि आज भी घट रही हैं, उनके अर्थ उन्हें प्राचीन से समीचीन बना देते हैं।
पृथ्वी का एक नाम धरणी भी है, यह शब्द धारिणी शब्द से बना है, धरणी यानी, जो जीव मात्र को धारण करती है, जीवन के लिए जो कुछ भी जरूरी है, उन संसाधनों को धारण करती है। लोक संस्कृति और वेद दोनों ने पृथ्वी को माँ कह कर पुकारा है। धरणी के अलावा पृथ्वी का एक नाम रत्नगर्भा भी है। यही नाम पृथ्वी के लिए ही नहीं, पृथ्वी की पूरी संसृति के लिए आज संकट का कारण बन गया है। पृथ्वी के रत्नगर्भा होने का ज्ञान जब मनुष्य को हुआ होगा, उसी समय से पृथ्वी का शोषण भी आरम्भ हुआ होगा, जो आज इस हालत में पहुँच गया है कि पृथ्वी के संरक्षण और सुरक्षा के लिए अभियान चलाने पड़ रहे हैं।
अब यहाँ सवाल यह उठता है कि पृथ्वी क्यों और कैसे खतरे में पड़ गयी, जिससे पृथ्वी की सुरक्षा और संरक्षण की आवश्यकता आन पड़ी है? पृथ्वी को खतरे में किसने डाला है? पृथ्वी की सुरक्षा-संरक्षा के लिए चिन्तित कौन है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उत्तर तो सभी जानते हैं, पर जिम्मेदारी के साथ दोष स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। दुनिया विकास के उस दौर में पहुँच चुकी है, जहाँ से लौटना मुश्किल लगता है।
उपरोक्त प्रश्नों की गहराई में जाने के लिए विश्व के वृहत्तर मिथक-साहित्य पुराणों का रुख करना आवश्यक है, जहाँ पृथ्वी को धरणी और रत्नगर्भा कहा गया है। वैसे तो मिथक हर संस्कृति में पाये जाते हैं, पर भारतीय मिथक साहित्य और लोक संस्कृति इतनी व्यापक और वृहत्तर है कि उससे प्रकृति से संबंधित हर सवाल के जबाव की अपेक्षा होती है। ये घटनाएं भले ही कभी घटी हों या न घटी हों, पर लगता है कि आज भी घट रही हैं, उनके अर्थ उन्हें प्राचीन से समीचीन बना देते हैं।
इस प्रसंग में भगवान विष्णु के वाराह अवतार की कथा प्रासंगिक लगती है। वाराह अवतार की दो कथाएं पुराणों में मिलती हैं। दोनों में भिन्नता के बावजूद पृथ्वी के अपहरण और सुरक्षा-संरक्षा ही मूल सांकेतिक विषय हैं। यह भगवान विष्णु का तीसरा अवतार माना जाता है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु सृष्टि के पालक, प्रबंधक, संचालक देवता हैं, इसलिए पृथ्वी के खतरे में पड़ने पर हमेशा अवतार की बात कही गयी है। इस उद्धारक शक्ति को शाक्त साम्प्रदाय व तंत्र ने वाराही शक्ति के रूप में स्वीकार किया है। वाराही देवी की गणना अष्टमातृकाओं में की जाती है। कानपुर में वाराही देवी का प्रसिद्ध मंदिर है, अब इस मुहल्ले का नाम ही बारादेवी पड़ गया है। पुरातात्विक खोजों में कई शताब्दी पुरानी वाराही देवी और भगवान महावाराह की मूर्तियां प्राप्ति हुई हैं, जो यह सिद्ध करती हैं कि किसी समय वाराह व वाराही मुख्य देवता के रूप में प्रतिष्ठित रहे होंगे। सम्राट हर्षवर्धन के काल में विष्णु का महावाराह अवतार ही इष्टदेवता के रूप में लोकप्रिय था। उदयगिरि, अजन्ता आदि की गुफाओं, खजुराहो के मंदिरों और भित्तियों के अलावा संग्रहालयों में वराह अवतार व वाराही शक्ति की मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भगवान वाराह की मूर्ति जंगली सूअर या मानवकाय के रूप में चित्रित मिलती है।
वर्तमान संदर्भ में देखने पर ऐसा लगता है कि वाराह और पृथ्वी की कथा आज के पृथ्वी और पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण है। परन्तु आज जब यह अवतार ही उपेक्षित हो चुका है तो पृथ्वी का खतरा स्वभाविक-सा है। दरअसल पुराणों की कथाएं व्यंजना शैली में लिखी गयी हैं, उन्हें इतिहास की तरह नहीं पढ़ा जाना चाहिए। पुराणों की कथाओं में सांकेतिक और गूढ़ अर्थ छुपे होते हैं, जिनका अर्थबोध देश-काल के अनुसार होना चाहिए, पर हमारे देश के विश्वविद्यालयों में मिथकों के अध्ययन की विधा विकसित नही हो पायी है, न ही इस प्रकार का कोई संस्थान ही स्थापित हो सका है। शायद इसीलिए पृथ्वी और पर्यावरण से संबंधित इस महत्वपूर्ण कथा में हिरण्याक्ष को अमानवीय दैत्य और वाराह-अवतार को जानवर मानकर इससे निकलने वाले गहरे संदेश को उपेक्षित कर दिया जाता है। उचित विश्लेषण और व्याख्या के अभाव में हमने दैत्य और वाराह दोनों शब्दों को अछूत बना दिया है, फिर इस कथा का संदेश हमें कैसे पता चले?
इस व्यंजनात्मक कथा का यथार्थ यह है कि वास्तव में हिरण्याक्ष देवों का सैतेला भाई और देवमाता अदिति की छोटी बहन माता दिति का पुत्र था। अदिति-पुत्रों को आदित्य या देव कहा गया, जबकि दिति-पुत्र दैत्य कहे गये। दोनों के पिता महर्षि कश्यप तथा पिता ब्रह्मा थे। इन्हें दो पृथक कबीले या संस्कृतियाँ मानकर देखने पर ऐसा लगता है कि दोनों में हिस्सेदारी, सत्ता और विचारधारा का संघर्ष है। वर्तमान संदर्भ में यह कथा इस रूप में बनती है कि देव-दानव सभी मानवीय कबीले रहे होंगे। बड़ी माँ अदिति के पुत्रों के अधिकार में स्वर्ग अर्थात पृथ्वी के शीर्ष स्थान पर स्थित समृद्ध व विकसित राज्य रहा होगा। भूलोक का तात्पर्य यह कि समतल भूमि मानव के अधिकार में रही होगी। चूंकि दिति का विवाह सबसे अंत में होता है, तो संतानें भी सबसे छोटी होंगी, जिनके हिस्से में समुद्रतटीय नीची भूमि आयी होगी. अनिश्चित मौसम और तूफानों के कारण इसे पाताल या नर्क कहा गया होगा। इसलिए सत्ता-संघर्ष होना स्वाभाविक था। महर्षि कश्यप की छोटी पत्नी से उत्पन्न छोटे पुत्रों हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप ने पितामह ब्रह्मा को प्रसन्न कर तीनों लोकों पर बिना युद्ध का अधिकार पा लिया, फिर उन्होंने पृथ्वी का दोहन कर स्वर्ग की तरह ऐश्वर्य प्राप्त किया. हिरण्य का तात्पर्य सोना होता है। सोना भौतिक संसाधनों से परिपूर्ण होने का संकेत है। भौतिक संसाधन अर्थात भूगर्भ की सम्पत्तियाँ-सोना, चाँदी, खनिज, जल, जंगल, जमीन आदि सभी प्राकृतिक संसाधनों पर दैत्यगण का अधिकार हो जाता है। खनिजों के अति दोहन से पृथ्वी खोखली हो जाती है, वन-संपदा व जल के अति दोहन से पर्यावरण-संतुलन और जैव-विविधता पर संकट उत्पन्न हो जाता है। दूसरे अन्य कबीलों या संस्कृतियों से इन प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग का अधिकार छिन जाता है, ऐसी स्थिति में संसाधनों के लिए युद्ध होना निश्चित था, भला मरता क्या न करता!
वाराह, जिसे हम पशु समझते हैं, वह भी महर्षि कश्यप की ही एक पत्नी से उत्पन्न मनुष्य था। आज भी बहुत से लोग पशुओं और जानवरों का सरनेम लगाते हैं। सिंह, शाही, बाघ, मोर(मौर्य) आदि तो सामान्य रूप से देखा जा सकता है। नृविज्ञान के अनुसार प्राचीन काल में गणगोत्र लगाने की प्रथा रही है। किसी न किसी जानवर, पशु, पेड़ से हर कबीले का संबंध रहा है, विशेष रूप से मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, महाराष्ट्र, उड़ीसा के आदिवासी अब भी यह परम्परा बनाये हुए हैं। स्थानीय भाषा में नेताम-नेवला, वरकाडे-जंगली बिल्ली, करपेची-मेढक, शेडमाके आदि जीव जन्तुओ-पेड़-पौधों के नाम से गोत्र या सरनेम पाये जाते हैं, इसलिए संभव है कि महावाराह अर्थात जंगली सूअर भी किसी मानव जाति का गणचिन्ह हो। जंगली सूअर एक लड़ाकू जीव है, जिससे शेर भी टकराने से घबराते हैं। इस प्रकार वाराह कबीले के लोगों ने पृथ्वी के दोहन और संसाधनों पर कब्जा करने वाले हिरण्याक्ष को संघर्ष में पराजति किया होगा। आज दुनिया में तेल के लिए युद्ध हो रहे हैं, पानी के लिए भी युद्ध जैसी स्थितियाँ बन रही हैं। हिरण्याक्ष और वाराह युद्ध में वाराह विजयी हुए होगें, पृथ्वी के संसाधनों, जल, जंगल, खनिज आदि को उपभोग लिए मुक्त कराया होगा। देवजाति को भी उनकी खोया हुआ राज्य प्राप्त हुआ होगा, परिणामस्वरूप वाराह को विष्णु के अवतार के रूप में मान्यता मिली होगी और वाराह पूजनीय हुआ होगा।
भागवत की कथा के अनुसार हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को मल से भर दिया था। ब्रह्मा की छींक से वाराह अवतार होता है, जो पृथ्वी को मल अर्थात प्रदूषण से मुक्त कर पृथ्वी का उद्धार करता है। आज के संदर्भ में उपभोक्ता संस्कृति के विकास के कारण अपशिष्ट अर्थात मल से पृथ्वी पुनः ढंकती जा रही है। जितना ही स्वच्छ, सुन्दर, सुविधाजनक और सोने की तरह चमकते शहरों का विकास हो रहा है, उतना ही अधिक कचरा भी उत्पादित होता है, जो पृथ्वी को नर्क बनाता जा रहा है। ब्रह्मा यानी बौद्धिक-वैज्ञानिक वर्ग को यह विचार व अनुसंधान करना होगा, तकनीक का विकास करना होगा, जो वाराह अवतार की तरह अपशिष्ट को नष्ट कर पृथ्वी का उद्धार करे।
इन कथाओं के संदर्भ में यह विचारणीय है कि आज पृथ्वी का एक बार फिर अपहरण हो रहा है। हिरण्याक्ष की तरह ही उपभोक्तावादी संस्कृति द्वारा विकास के बहाने हवा, पानी, जंगल, जमीन, सोना, कोयला तेल, लोहा, ताँबा, अभ्रक आदि के लिए पृथ्वी को खोखला किया जा रहा है, पेड़ों-पहाड़ों को काटकर नंगा किया जा रहा है। पूरे जीव-जगत के लिए कभी मुफ्त में मिलने वाली चीजें बाजार के हवाले होती जा रही हैं। एक बार फिर हिरण्याक्ष और वाराह का संघर्ष होने की संभावना बन रही है, चिंताजनक बात यह है कि आज पूरा मानव समाज हिरण्याक्ष की प्रवृत्ति धारण करता दिख रहा है, कुछ देश व व्यापारिक समूह पृथ्वी की सम्पत्तियों पर अधिकार करते जा रहे हैं, जिसे बचाने के लिए पुनःवाराह अवतार की आवश्यकता है। इसके लिए बौद्धिक समुदाय का दायित्व है कि वह जनजागरण कर पृथ्वी को इस संघर्ष से बचाये, पर यहाँ आश्चर्य है कि वही देश पृथ्वी को बचाने का अभियान चला रहे हैं, जो पृथ्वी और पर्यावरण का दोहन कर अधिकतम संसाधनों का उपभोग कर रहे हैं। यानी हिरण्याक्ष ही वाराह बनने की कोशिश करता दिख रहा है। ऐसी स्थिति में आदिवासी और अविकसित कहे जाने वाले देशों या लोगों से ही यह संभावना बनती है कि वे पुनः वाराह अवतार धारण करें, जहाँ आज भी पर्यावरण और पृथ्वी काफी हद तक सुरक्षित व संरक्षित है।
दुनिया में आज जो भी चमचमाता हुआ विकास दिख रहा है, सड़कें, मकान, महल, भवन, अट्टालिकाएं ये सभी पेड़, पहाड़, पानी के विनाश की शर्त पर ही बने हुए हैं. लोहा, अल्यूमिनियम, सिमेंट, चूना, लकड़ी आदि सारे उत्पाद पर्यावरण के ध्वंस से ही प्राप्त होते हैं। विनाशकारी विकास का परिणाम यह है कि दिनों-दिन पृथ्वी का तापमान बढ़ता जा रहा है, कहीं बाढ़ से विनाश लीला हो रही है तो कहीं सूखे से तबाही आ रही है, जिससे निपटने के लिए अतिरिक्त ध्वंसात्कम तरीके अपनाये जा रहे हैं। ताप से बचने के लिए एसी का प्रयोग बढ़ रहा है, बाढ़ से बचने के लिए बाँध बनाये जा रहे हैं, तो सूखे से निपटने के लिए भूजल का शोषण किया जा रहा है। पर्यावरणविदों के अनुसार इससे दिनों-दिन अधिक भयावह स्थिति की ओर दुनिया बढ़ती जा रही है। तापमान बढ़ने के कारण ध्रुवीय बर्फ पिघलने से समुद्र बढ़ता जा रहा है, जिससे समुद्रतटीय इलाकों के डूबने का खतरा बढ़ता जा रहा है। यंत्रों, उद्योगों से वायु विषाक्त होती जा रही है, जिससे धरती के जीव-जगत पर खतरा बढ़ता जा रहा है, परन्तु वैज्ञानिकों द्वारा भी एक खास स्थिति की उपेक्षा की जा रही है, वह यह कि तापमान और नमी के परिवर्तन से अनेक स्थूल, सूक्ष्म जीवों का विनाश तथा अनेक नये जीवों का जन्म होता है। नये जीवाणुओं-विषाणुओं के सक्रिय होने पर मानव शरीर उन्हें सहन नहीं कर पाता है, जिससे वे महामारी बनकर मानव जीवन के संकट बन जाते हैं। कोविड के बाद तो ऐसा लगता है कि ग्लोबल वार्मिंग के विनाश से पहले ही इस तरह की महामारियाँ दुनिया को खत्म कर देंगी, इसलिए यदि दुनिया को बचाना है तो विकास परिभाषा बदलनी ही होगी।
-डॉ आर अचल पुलस्तेय