प्रकृति के पास कोटिश: नर-नारियों के पालन की क्षमता है, परंतु कमर्शियल और पूंजीवादी परिवार संसाधनों पर कुंडली मारकर बैठे हैं। सरकार ने वैसी योजनाओं से मुंह मोड़ लिया है, जो रोजगार दे सकें। रोजगार का मसला इन लोगों की समझ से बहुत अधिक और कई गुना बड़ा है और फिलहाल विद्यार्थियों ने सड़कों पर आना तय कर लिया है। इस युवा उभार का मंतव्य उस अर्थव्यवस्था की मांग के रूप में ही परिणत हो सकता है, जो रोजगारपरक हो।
डेढ़ करोड़ लोग रेलवे परीक्षा मे बैठे थे. डेढ़ लाख की वैकेंसी के लिए इस से 100 गुना ज्यादा लोगों ने आवेदन दिया। डेढ़ लाख वैकेंसी में भी 20-22 हजार वैकेंसी ही गार्ड, टीटी इत्यादि तीसरे स्तर की नौकरी के लिए है। 1. 28 लाख नौकरियां चतुर्थ श्रेणी की हैं। इस तरह यहां भी एक करोड़ 40 लाख परीक्षार्थी निराश ही होंगे। इस तरह से भारतवर्ष में करोड़ों की बेरोजगारी का मसला सड़कों पर आ चुका है। बेरोजगारी का मसला बार-बार उभरते ही रहने वाला है।
इस समय यह सबका दायित्व है कि छात्रों, युवाओं के लिए भरोसे का वातावरण बनाएं। अर्थशास्त्रियों और कॉलम लेखकों पर, रोजगार छुपाने वाले सारे आर्थिक क्रियाकलापों को लोगों के सामने लाने का दायित्व है। उन्हें चाहिए कि वे रोजगार के अवसर पैदा करने वाली योजनाओं के बारे में बताएं। संपूर्ण रोजगार की मांग को फिर से समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति का विषय बनाएं। भारतवर्ष में 20 करोड़ रोजगार की आवश्यकता है।
भारतवर्ष में करोड़ों छात्र-छात्राएं मेहनत कर रहे हैं। वे आपस में स्टडी सर्किल चलाकर अपनी योग्यता को मांज व चमका रहे हैं। दुनिया के बारे में और देश तथा जनतंत्र के बारे में इनकी समझ बनी हुई है। इन छात्र-छात्राओं को रेलवे भर्ती बोर्ड के इस धोखे से यह एहसास हुआ है कि वे ठगे जा रहे हैं। इस एहसास को बनाए रखें और सब को रोजगार देने वाली अर्थव्यवस्था को राजनीति के एजेंडे और अर्थव्यवस्था के केंद्रबिंदु पर लाएं।
पीड़ादायक बेरोजगारी
नीति आयोग के अनुसार आज 3 करोड़ बिहारवासी अपने राज्य से बाहर भटक रहे हैं। बेरोजगार नौजवान, दूसरों के रहमोकरम, लॉटरी और भाग्य पर निर्भर हैं। उत्तर प्रदेश से पलायन इससे दोगुना है. उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुनाव हो रहा है, परंतु किसी भी राजनीतिक दल ने वहां के कुछ करोड़ बेरोजगारों के लिए किसी आर्थिक नीति की घोषणा अब तक नहीं की है। बहुत हिम्मत कर कांग्रेस का घोषणा पत्र जारी करते हुए प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश में 20 लाख रोजगार और अखिलेश यादव ने आईटी क्षेत्र में 22 लाख रोजगार देने का वादा किया है। विपक्ष भी इस विकराल समस्या के आकार को 10% करके ही आंक रहा है। देशव्यापी बेरोजगारी के परिणामस्वरूप लोग रोजगार के लिए इधर उधर खाक छानते फिरते हैं. अपने यहां से पलायन करते हैं और बहुत खराब परिस्थितियों में रहकर काम करते हैं।
बिहार की बात करते हैं। छोटे उद्यम लगाने के लिए जिन लोगों का आवेदन, जांच परख कर मान्य हुआ, बिहार में ऐसे 60 हजार लोग हैं। उद्योग विभाग के माध्यम से इन्हें 10-10 लाख रुपए की सरकारी सहायता से अपनी इकाई बनानी है. इनमें से प्रत्येक यूनिट से 5 लाख वापस करना है और 5 लाख सरकारी अनुदान का प्रावधान है। इनमें से भी लॉटरी के जरिये केवल 8 हजार लोगों को ही चुना गया है, जिनको इसका लाभ दिया जाएगा। ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार के पास संसाधनों की कमी है, इस वजह से स्क्रूटनी के बाद योग्य साबित हुए इन 60 हजार अभ्यर्थियों को वह पूंजीगत सहयोग नहीं दे पा रही है, बल्कि इससे बेरोजगारों के प्रति सरकार की नजरिया पता चलता है। बिहार सरकार वैसी परियोजनाओं में दिलचस्पी ले रही है, जिनमें 1 किलोमीटर के फ्लाईओवर पर 150 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं. छोटे उद्यम वाली यह योजना 10 लाख रुपए की पूंजी से कुछ लोगों को रोजगार देने की संभावना रखती है, परंतु 60,000 को 8000 में बदलने के लिए लॉटरी प्रणाली का उपयोग किया गया और 52000 अभ्यर्थियों को अयोग्य करार दे दिया गया।
इन दोनों ही प्रांतों में शिक्षकों की लाखों की संख्या में कॉन्ट्रैक्ट पर बहाली हुई है। यह बहाली अभी भी जारी है। बिहार में कॉन्ट्रैक्ट शिक्षकों ने पे स्केल बढ़ाने के लिए लगातार संगठित आंदोलन किया है। यहां फिर से लाखों की संख्या में शिक्षकों की बहाली होनी है। इनके लिए स्क्रूटनी करने और इन्हें नौकरी देने के लिए भ्रष्टाचार को सबसे अच्छी व्यवस्था माना गया है। दोनों ही राज्यों में इस भ्रष्टाचार की बलि अगर कोई चढ़ रहा है, तो वह है मेधा। रोजगार की मांग और रोजगार के अवसर इन दोनों में इतना बड़ा भेद है कि बेरोजगारों का आंदोलन अलग-अलग रूप लेकर प्रकट होता है। कई जगह डोमिसाइल की मांग होती है। कई बार एक प्रांत के अभ्यार्थी दूसरे प्रदेश से आए विद्यार्थियों को अपना दुश्मन और प्रतिद्वंदी मान लेते हैं।
भारतवर्ष में छात्र-छात्राएं आपस में स्टडी सर्किल चलाकर अपनी योग्यता को निखार रहे हैं। बिहार में सैकड़ों छात्र-युवा अपनी योग्यता का परिमार्जन करने के लिए एक दूसरे के साथ सार्वजनिक स्थान साझा करते हैं और स्टडी सर्किल चलाते हैं। बेरोजगारी की समस्या की वजह से युवा वर्ग के हर स्तर पर सामाजीकरण की ओर से आंखें नहीं चुरायी जा सकतीं। काम के लिए उचित वातावरण बनाने के साथ-साथ रोजगार के 20 करोड़ अवसरों के निर्माण का सवाल बड़ा है।
प्रकृति के पास कोटिश: नर-नारियों के पालन की क्षमता है, परंतु कमर्शियल और पूंजीवादी परिवार संसाधनों पर कुंडली मारकर बैठे हैं। सरकार ने वैसी योजनाओं से मुंह मोड़ लिया है, जो रोजगार दे सकें। रोजगार का मसला इन लोगों की समझ से बहुत अधिक और कई गुना बड़ा है और फिलहाल विद्यार्थियों ने सड़कों पर आना तय कर लिया है। इस युवा उभार का मंतव्य उस अर्थव्यवस्था की मांग के रूप में ही परिणत हो सकता है, जो रोजगारपरक हो।
नरेंद्र मोदी ने सन् 2014 के चुनाव में हर साल एक करोड़ रोजगार के अवसर पैदा करने की घोषणा की थी. इस चुनावी घोषणा के बेअसर होने की वजह यह है कि आर्थिक विकास अपने आप में रोजगार की मांग को पूरा नहीं कर रहा है और 5 करोड़ रोजगार की घोषणा का महत्व यह है कि बेरोजगारी का परिमाण बहुत बड़ा है।
20 करोड़ की बेरोजगारी है
1980 में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी ने काम का अधिकार विषय की अपनी पुस्तिका में यह आकलन किया था कि देश में 20 करोड़ स्त्री पुरुष बेरोजगार हैं। उस समय की आबादी का यह लगभग 25% था। सन 2005 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक समन्वय नाम के अखिल भारतीय मोर्चा ने कोलकाता से दिल्ली साइकिल मार्च के दरमियान एक पुस्तिका का वितरण किया था, जिसमें उस समय की कुल आबादी के सापेक्ष 17-18% बेरोजगारी का आकलन किया गया था। यह आंकड़ा 20 करोड़ बेरोजगारों का ही था। यह अनुमान स्त्रियों की बेरोजगारी और काम के अभाव में अमानवीय काम में लगे लोगों की आबादी को भी शामिल कर लगाया गया था. इसके अलावा जातीय व क्षेत्रीय भेदभाव की वजह से बेरोजगारी को भी इसमें जोड़ा गया था। मनमोहन सिंह की सरकार को इसी वजह से गांव के पलायन की समस्या से थोड़ी राहत देने के लिए महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) देनी पड़ी थी.
रोजगार गारंटी
काम करने की क्षमता और योग्यता के आधार पर देखें, तो भारतवर्ष में आज भी 20 करोड़ लोगों को रोजगार की आवश्यकता है। इस समय यह आवश्यक है कि सब के लिए रोजगार की गारंटी की मांग हो। देश का विकास और दुनिया के मुकाबले देश का उठ खड़ा होना, निश्चय ही आज के भारत के सामने ये दो मसले भी हैं। परंतु रोजगार विहीन विकास के बूते पर या अपने देश में विषमता को बहुत ऊंचा करने वाली अर्थव्यवस्था के आधार पर भारत दुनिया के मुकाबले खड़ा नहीं हो सकता है।
संपूर्ण रोजगार में ही देश की वास्तविक तरक्की
इस समय विमर्श का नियमित और आवश्यक मसला यह है कि अर्थव्यवस्था के मामले में निर्गुण तौर-तरीके को छोड़कर देश के प्राकृतिक संसाधनों का, देश की कुल मैन्युफैक्चरिंग क्षमता का, उद्योगों का, खेतों और नदी जल संसाधनों का आकलन होता रहे। उत्तर प्रदेश और बिहार के लिए यदि 3 करोड़ रोजगार की बात सामने आती है, तो इन प्रदेशों के मानव संसाधन और प्राकृतिक संसाधनों के मेल से इस तरह का विकास किस प्रकार किया जा सकता है, इसका पूरा आकलन होना चाहिए। कुटीर उद्योग सही है तो उसके मशीनें और उत्पादक मैन्युफैक्चरिंग कारखाने भी चाहिए। विकास चाहिए तो उसके साथ खाद्यान्न प्रसंस्करण के उद्योग भी चाहिए। कृषि विकास सही है, तो कृषि संयंत्र भी चाहिए। आज हम जहां पहुंच गए हैं, हम ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ तो कहेंगे, परंतु सुंदर कृषि और औद्योगिक संरचना के लिए हिमालय के आकार के बड़े उत्पादन को भी सहयोगी मानना होगा।
आज जरूरत है कि चिन्तनशील लोग पूरी अर्थव्यवस्था का समष्टिपरक और व्यष्टिपरक अध्ययन करें। इसके बाद अर्थव्यवस्था के समुचित और तकनीक आधारित विकल्प दें।
पूर्ण रोजगार को केवल नारा नहीं, एक विचारधारा और नीति देने का वक्त है। यह निर्गुण नारा नहीं है। इसलिए बात यहीं से शुरू होती है और यहीं पर खत्म होती है कि भारतवर्ष के लिए करोड़ों रोजगार देने वाले आर्थिक विकास की योजना आवश्यक है। इसे राजनीति के एजेंडे पर लाना जरूरी है।