सहनशीलता, मानव में विकसित वह अतिश्रेष्ठ गुण है, जो उसके व्यक्तिगत उत्थान के साथ ही उसके वृहद कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है।
पर्याप्त धैर्य रखते हुए दूसरों के विश्वास, विचार और कार्य को तब तक स्वीकार करना, जब तक वह विश्वास, विचार अथवा कार्य अपने विश्वास, विचार या कार्य को बाधित न करे, सहनशक्ति है। अपने विश्वास, विचार अथवा कार्यपद्धति को दूसरों पर न लादने का विचार सहनशीलता है। जबकि अपने विश्वास, विचार या कार्यपद्धति को ही वास्तविक मानते हुए दूसरों को उसे स्वीकार करने के लिए विवश करना असहनशीलता है।
अपने ही विश्वास को श्रेष्ठतम स्वीकार करना और अन्यों के विश्वास को अपने से हीन मानने की चेष्टा करना, असहनशीलता है। सहनशीलता वृहद मानव-कल्याण को समर्पित एक महागुण है।
सत्य तक पहुँचने के अनेक मार्ग हो सकते हैं। इस वास्तविक स्थिति की स्वीकार्यता सहनशीलता को सहिष्णुता के समीप ले आती है। यह पर-श्रद्धा, विचार या विश्वास अथवा कार्यपद्धति को स्वीकार करने के साथ ही सामंजस्य और सौहार्द के पथ का सृजन करती है। यही वृहद मानव-कल्याण का मार्ग है।
सनातन धर्म का सहनशीलता-सम्बन्धी विचार मानव से व्यक्तिगत और सामाजिक सहित जीवन के समस्त क्षेत्रों में इसी के अनुरूप आचरण की अपेक्षा करता है। सहनशीलता को केन्द्र में रखकर ही परस्पर व्यवहार का मानवाह्वान करता है।
वाल्मीकि रामायण में सहनशीलता श्रीराम के महाव्यक्तित्व के माध्यम से धृति (धैर्य) के साथ सम्बद्ध होकर सहिष्णुता की पूरक के रूप में जिस प्रकार प्रमुखता से उभर कर सामने आती है; मानव से सदा ही सहनशील रहने की अपेक्षा सामने आती है, वह सहनशीलता के एक उच्चतम गुण होने ही की वास्तविकता का प्रकटीकरण है। यह श्रेष्ठ गुण एक सुदृढ़ सेतु की भाँति जोड़ने का कार्य करता है; दो तटों को एकता के सूत्र में पिरोता है।
वेदों, उपनिषदों, रामायण और श्रीमद्भगवद्गीता सहित सनातन धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में एक प्रमुख गुण के रूप में निरन्तर विकास और जीवन-सार्थकता हेतु सहनशीलता के अनुसरण का आह्वान है। श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में सहनशीलता को सहिष्णुता के रूप में स्वीकार कर इसे अहिंसा, आत्मसंयम, इन्द्रिय-निग्रह और समभाव के साथ प्रस्तुत किया गया है। इस अध्याय के श्लोक आठ से बारह में इन मानवीय गुणों को परमसत्य की खोज हेतु ज्ञान घोषित किया गया है। सहनशीलता, अहिंसा, आत्मसंयम, इन्द्रिय-निग्रह व समभाव आदि की अनुपस्थिति को अज्ञानता माना गया है।
सहनशीलता, मानव में विकसित वह श्रेष्ठ गुण है, जो उसे अहंकार के साथ ही अधैर्यता और एकांगिता जैसे अवगुणों से मुक्त कर, उसके वृहद कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। विश्वास, विचार और विभिन्न कार्यपद्धतियाँ होने पर भी मानव-समानता की वास्तविकता का आधार बनता है। सनातन-हिन्दू धर्म में इसे इसीलिए एक महागुण के रूप में स्वीकार किया गया है; सहनशीलता को मनुष्यता की पहचान माना गया है। सहनशीलता के अभाव में कोई भी सच्चा सनातनधर्मी नहीं हो सकता। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द का यह कथन कितना श्रेष्ठ और बोधगम्य है!
‘हिन्दू (सनातनधर्मी) कभी विश्वासों पर श्रेष्ठता का दावा नहीं करते हैं, लेकिन सभी धर्मों के मध्य समानता की घोषणा करते हैं। यदि हम यह मानते हैं कि हममें से प्रत्येक अपने ढंग से ईश्वरानुभूति कर सकता है, तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि ईश्वर के लिए हमारा मार्ग ही ‘एकमात्र मार्ग’ या ‘सर्वश्रेष्ठ’ मार्ग नहीं हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति का ईश्वर के लिए अपना मार्ग होता है और यह उनके लिए उचित मार्ग है। इसके अतिरिक्त अपने विश्वासों को किसी पर थोपना उचित नहीं है।’
-डॉ रवीन्द्र कुमार