जेपी, गफूर और आरएसएस

कुछ लोगों का कहना है कि 1971 के बाद से गफ़ूर विरोध आधारित आंदोलन के लिए आरएसएस से हाथ मिलाने तक जेपी पर मक्खियाँ भिनक रहीं थीं. आइये, इतिहास के उस दौर पर एक नजर डालें.

शरारत, झूठ और अज्ञान मिलकर शैतानियत पैदा करते हैं. इसके बदले सच, हमदर्दी और असलियत को एकसाथ रखने की ज़िम्मेदारी हमारी है. फ़िलहाल डॉ लोहिया पर कीचड़ फेंकने की कोशिश को अलग रखकर, जेपी पर लगाए गए इन लांछनों के बारे में सच याद करा देना काफ़ी होगा कि 1971 और 74 के बीच जेपी पर मक्खियाँ भिनकने लगी थीं. दूसरे, जेपी ने आरएसएस के साथ मिलकर अब्दुल गफ़ूर के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चलाया और तीसरे बिहार आंदोलन के दौरान समाजवादियों ने आरएसएस के साथ मिलकर सांप्रदायिक नारे लगाए.


पहले अंतिम बात के बारे में बात करते हैं. हमने बिहार आंदोलन के दौरान गफ़ूर साहब के गोमांस खाने का नारा कभी भी, कहीं भी न सुना, न पढ़ा. जेपी के भाषणों और वक्तव्यों में उनकी ईमानदारी की तारीफ़ और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के दिनों में उनके सहयोगी होने का ज़िक्र रहा. गफ़ूर साहब भी जेपी को अपना चाचा कहते थे. इसके लिए आंदोलन के कुछ लोगों द्वारा जेपी की; और कांग्रेस-कम्यूनिस्ट गिरोह के एक हिस्से में गफ़ूर की आलोचना जरूर होती थी. ललित नारायण मिश्र की रहस्यमय हत्या हो जाने के बाद इंदिरा गांधी द्वारा 13 अप्रैल, 1975 को गफूर को मुख्यमंत्री पद से हटाकर डॉ जगन्नाथ मिश्र को पदासीन करने के पीछे यह निकटता भी एक कारण थी. हमारे नारों में यह एक नारा जरूर क़ाबिल ए गौर था-

अख़्तर हुसैन बंद हैं, पटना की जेल में,
अब्दुल गफ़ूर मस्त हैं,सत्ता के खेल में!

अब जेपी की जीवनयात्रा का 1970-74 का विवरण देखें. जून, 1970 में, 69 बरस की उम्र में हम उन्हें प्रभावती जी के साथ नक्सलवाद की समस्या के समाधान के लिए बिहार के मुशहरी ब्लाक के गाँव-गाँव जन संपर्क में व्यस्त पाते हैं, जबकि डाक्टरों ने डायबिटीज़, सायटिका और रक्तचाप जैसे रोगों के कारण उन्हें पूर्ण विश्राम की सलाह दी थी. इसी दौरान जेपी ने वामपंथी और समाजवादी दलों के भूमि बाँटो आंदोलन का समर्थन किया. मुशहरी से ही उन्होंने 23 दिसंबर, 1970 को नागभूषण पटनायक आदि को मृत्युदंड की निंदा वाला बयान दिया. जेपी के मुशहरी हस्तक्षेप को इंदिरा गांधी का लिखित समर्थन मिला था. लेकिन जेपी ने 26 मार्च, 1971 को पत्र लिखकर इंदिरा सरकार द्वारा शेख़ अब्दुल्ला आदि को 1971 के चुनाव में हिस्सा लेने से रोकने की भर्त्सना की.

जेपी इंदिरा सरकार की तरफ़ से बांग्लादेश को मान्यता देने में विलंब के भी आलोचक थे. 29 जून, 18 सितंबर और 28 अक्तूबर को दिए गए बयान में उन्होंने सरकारी रवैये की सख़्त आलोचना की और सरकार ने 6 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश को मान्यता दी. तब जेपी ने इसे दक्षिण एशिया के भविष्य को तय करने वाली कार्रवाई की संज्ञा दी थी. इसी बीच प्रभावती जी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा. स्वयं जेपी को 16 नवंबर को हृदय रोग का दौरा पड़ा. उनको कम से कम एक साल पूर्ण विश्राम की सलाह दी गयी. लेकिन छह महीने में ही जेपी चंबल घाटी में 400 बाग़ियों (डाकुओं) के आत्मसमर्पण के लिए अप्रैल 1972 में भिंड आए. देश के लिए गांधी के हृदय परिवर्तन के आदर्श की यह एक अभूतपूर्व प्रस्तुति बन गयी.

दुर्भाग्यवश 1973 की शुरुआत प्रभावती जी के कैंसरग्रस्त होने की जानकारी से हुई. अगले 4 महीने बनारस और बंबई के अस्पतालों में लगाने के बावजूद 15 अप्रैल 1973 को प्रभा जी का महाप्रस्थान हो गया. जीवनसंगिनी का वियोग हृदयविदारक था. लेकिन शीघ्र ही जेपी अपने नागरिक धर्म के निर्वाह की ओर लौटे और संविधान के 24 वें संशोधन के ज़रिए मौलिक अधिकारों को संशोधित करने का अधिकार संसद को देने और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में मनमानी करने का प्रबल विरोध करके उन्होंने इंदिरा सरकार की शासन-शैली पर मई, 1973 में कई प्रश्न खड़े कर दिये.

इसी क्रम में जुलाई, 1973 से वरिष्ठ साहित्यकार अज्ञेय के संपादन में ‘एव्रिमैंस’ साप्ताहिक की शुरुआत करायी और अपने लेखों के ज़रिए भ्रष्टाचार को रोकने का स्वयं अभियान शुरू कर दिया. फिर प्रधानमंत्री समेत सभी सांसदों को पत्र लिखकर संथानम कमेटी के सुझावों की ओर ध्यानाकर्षण कराया. जवाब में इंदिरा गांधी ने इन प्रयासों के पीछे नेहरू की छवि धूमिल करने की कोशिश की मंशा की बात लिखी. इस पर जेपी ने कुछ ही दिनों के बाद ‘सिटिज़न्स फ़ार डेमोक्रेसी’ की स्थापना कराई. युवाओं से ‘यूथ फ़ार डेमीक्रेसी’ की अपील की. इस प्रयास में तारकुंडे, कुलदीप नायर, वर्गीज़, नूरानी, अजीत भट्टाचार्य आदि सहयोगी बने. किसी सांप्रदायिक व्यक्ति या राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों को इस सबसे दूर रखा गया. इसी बीच दिसंबर, 1973 को गुजरात में विद्यार्थी आंदोलन फूट पड़ा और जेपी ने अहमदाबाद जाकर शांतिपूर्ण आंदोलन की ज़रूरत पर बल दिया. 18 मार्च, 1974 को पटना में विद्यार्थी-रैली हुई और गोली चली. इससे जेपी का कोई संबंध नहीं था. इसकी योजना से जुड़े संगठनों, विशेषकर विद्यार्थी परिषद या जनसंघ से भी कोई संबंध नहीं था. बिहार में चल रहे विद्यार्थी दमन के ख़िलाफ़ जेपी ने 5 अप्रैल, 1974 को पहला मौन प्रदर्शन आयोजित किया. इससे भी जनसंघ समेत किसी दल का कोई संबंध नहीं था.

क्या अब भी इस दावे में कुछ सच मानना चाहिए कि 1971 के बाद से गफ़ूर विरोध आधारित आंदोलन के लिए आरएसएस से हाथ मिलाने तक जेपी पर मक्खियाँ भिनक रहीं थीं?

-प्रो आनन्द कुमार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Next Post

यह डिजिटल आग हमें जला भी सकती है

Fri Jan 6 , 2023
हम अक्सर भूल जाते हैं कि आग हमें प्रकाश दे सकती है, तो जला भी सकती है। सम्यक् विवेक एवं सद्बु़द्धि से ही सूचना प्रौद्योगिकी का भी उद्देश्यपूर्ण सदुपयोग किया जा सकता है। समाज को इस दिशा में विचार करना होगा। समाज का एक हिस्सा यह मानता है कि मानव-समाज-राष्ट्र […]
क्या हम आपकी कोई सहायता कर सकते है?