यह डिजिटल आग हमें जला भी सकती है

हम अक्सर भूल जाते हैं कि आग हमें प्रकाश दे सकती है, तो जला भी सकती है। सम्यक् विवेक एवं सद्बु़द्धि से ही सूचना प्रौद्योगिकी का भी उद्देश्यपूर्ण सदुपयोग किया जा सकता है। समाज को इस दिशा में विचार करना होगा।

समाज का एक हिस्सा यह मानता है कि मानव-समाज-राष्ट्र व अखिल विश्व का कल्याण केवल तकनीकी प्रगति से ही संभव हो सकता है। यही वर्ग भौतिक सफलताओं को, मानव की प्रगति व कल्याण का आधार भी समझता है। यह वर्ग इस वैभव व सम्पन्नता की अंधी दौड़ और गलाकाट प्रतियोगिता जनित विलासपूर्ण जीवन को ही सब कुछ समझता है। उनके लिए जीवन के शाश्वत मूल्यों का कोई महत्व नहीं है।

यह एक अत्यन्त विचित्र समय है। हम अक्सर भूल जाते हैं कि आग हमें प्रकाश भी दे सकती है और जला भी सकती है। सम्यक् विवेक एवं सद्बु़द्धि से ही सूचना प्रौद्योगिकी का भी उद्देश्यपूर्ण सदुपयोग किया जा सकता है। समाज को इस दिशा में विचार करना होगा।

आज जिस युग में हम रह रहे हैं, अपने बहुत सारे कार्यो के लिए डिजिटल माध्यमों पर बहुत हद तक निर्भर हैं। डिजिटलाइजेशन ने हमारे जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित किया है। कठिन और असम्भव लगने वाले कार्य भी डिजिटल प्रौद्योगिकी के उपयोग से सुचारु और सुगमतापूर्वक किए जा सकते हैं। डिजिटल प्रौद्योगिकी ने समाज की कार्यशैली में अनेक स्तरों पर आमूलचूल परिवर्तन किया है।

कोरोना महामारी के काल में एक तरह से नये डिजिटल युग का प्रार्दुभाव हुआ। लॉकडाउन के समय ऑनलाइन कक्षाओं ने शिक्षण की व्यवस्था चालू रखी। इस उपाय से कम्पनियों व सरकारी कार्यालयों का भी कार्य डिजिटल माध्यम से हुआ।

डिजिटल प्रौद्योगिकी से हमारी जीवनशैली में प्रत्यक्ष एवं सकारात्मक परिवर्तन भी हुए हैं। जो काम करने में पहले घंटों लगते थे, अब कुछ मिनटों में होना आरंभ हुआ है। चाहे देश का विकास हो या व्यक्ति का, तकनीक निश्चित ही लाभप्रद होती है। अब तो टेक्नॉलॉजी के नये-नये आयाम, आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स और रोबोटिक्स आदि भी हमारी जीवनशैली में प्रवेश कर रहे हैं।

वस्तुतः मस्तिष्क और हृदय की कार्यप्रणाली में अन्तर होता है। जब हम आत्महीन, हृदयहीन और भावहीन शब्दों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं तो उसका स्थायी प्रभाव नहीं होता। भारतीय परम्परा में गुरू के ज्ञानात्मक, विचारात्मक एवं भावनात्मक, तीनों प्रकार के प्रभाव से प्रभावित होकर शिष्य संस्कारवान होता है। डिजिटल माध्यम से कोई इंजीनियर या डॉक्टर आदि तो बन सकता है, परन्तु संस्कार तो गुरू से प्रत्यक्ष ही मिल सकता है। याद करिए ‘दरस-परस’ की हमारी परम्परा, मिलने-जुलने से लोगों में जो आत्मीय भाव पैदा होता है, वह वीडियो कॉल के माध्यम से कभी नहीं हो सकता है। डिजिटल प्रौद्योगिकी कई बार हमें हृदयहीन, उदासीन एवं स्वकेन्द्रित भी बना रही है।

आज अनेक लोग फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि में इतने ज्यादा व्यस्त हो जाते हैं कि ऐसा लगता है जैसे उन्हें यह व्यसन जैसा हो गया है। स्थिति तो यह हो गयी है कि एक ही घर-परिवार के लोग, एक ही छत के नीचे होते हुए भी आपस में बहुत कम बात करते हैं। परस्पर संवाद की मात्रा परिवारजनों में कम होती जा रही है। रात में भी जब नीद खुलती है तो लोग मोबाइल उठाकर देखते हैं। हमारा दैनिक जीवन आज डिजिटल मकड़जाल में फँस गया है। यदि कुछ घटनाओं पर ध्यान दें तो हम निस्संदेह कह सकते हैं कि डिजिटल माध्यमों का सदुपयोग कम और दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। यह दुरुपयोग यहाँ तक हो रहा है कि लोगों को चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन, बेचैनी, एकाग्रता में कमी, उग्रता तथा लोगों के साथ व्यवहार में रूखापन दिखायी पड़ता है। इसके अतिरिक्त कुछ लोगों में तो आँख की बीमारियाँ भी दिखायी पड़ती हैं। खासकर छोटे-छोटे बच्चों में भी आँखों के रोग बढ़ रहे हैं, यह अत्यन्त चिन्ताजनक स्थिति है।

हमारी पीढ़ी की चिन्ता है कि मोबाइल, कम्प्यूटर, लैपटाप आदि मिलने के कारण, बच्चे आपस में बातचीत करना, खेलना-कूदना आदि भूलते जा रहे हैं। हमारी समझ में यह नहीं आ रहा है कि जो मोबाइल उनके हाथ में पकड़ा दिया, अब उसे वापस कैसे लिया जाय। आज एक तरफ बच्चों के हाथों में इस तरह की अत्याधुनिक तकनीकें हैं, तो दूसरी तरफ लगातार उन्हें तरह-तरह के अपराधों का शिकार भी होना पड़ रहा है।

अब एकल परिवार व्यवस्था में ज्यादातर माता-पिता अपने दैनन्दिन कामों में व्यस्त रहते हैं। ऐसे परिवारों के अधिकांश बच्चे, केयर सेन्टर या सहायिकाओं के भरोसे पल रहे हैं। पहले घरों में दादा-दादी, नाना-नानी रहते थे, अब उनकी अनुपस्थिति ने बच्चों को और भी अकेला कर दिया है। आखिर रातदिन व्यस्त रहने वाले माता-पिता के बच्चे बात भी किससे करें?

इस टेक्नॉलॉजी का एक सकारात्मक पहलू यह है कि हमारे रिटायर्ड बुज़ुर्ग इण्टरनेट के जरिये अपने अकेलेपन को कुछ हद तक दूर कर रहे हैं। जहाँ एक तरफ बच्चे इण्टरनेट के बुरे प्रभावों को नहीं जानते, वहीं वरिष्ठ नागरिक इण्टरनेट के दुष्प्रभावों को अच्छी तरह जानते हैं। बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी अपने नाती-पोतों का इस दिशा में मार्गदर्शन कर सकते है। जीवन के अनुभव और संस्कार वरिष्ठ नागरिकों के पास होते हैं, वे किसी पुस्तक के पन्नों में नहीं मिलते। वरिष्ठजन अपने पूर्वजों के संस्कारों को इन्टरनेट के माध्यम से नई पीढ़ी को संप्रेषित कर सकते हैं। लोक संवेदनाओं व सामाजिक सरोकारों को डिजिटल प्रौद्योगिकी का साथ मिलने पर ये परम्पराएं आगे के लिए संरक्षित हो सकती है।

जरूरत इस बात की भी है कि नई पीढ़ी नई डिजिटल टेक्नालॉजी से जुड़ी जानकारियां अपने बुजुर्गों से शेयर करें, इससे पीढ़ियों की आपस में दूरी कम होगी। सीखने की कोई उम्र की नहीं होती। अनौपचारिक शिक्षा के साथ-साथ, अब भारत एक डिजिटल विश्वविद्यालय स्थापित करने की दिशा में प्रयासरत है। इसके जरिये उच्च शिक्षा से वंचित, दूर-दराज क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को इंजीनियरिंग व मैनेजमेन्ट जैसे कोर्स करने की सुविधा होगी।

जंगल के जीवन से कृषि-क्रान्ति, कृषि-क्रान्ति से औद्योगिक क्रान्ति और औद्योगिक क्रान्ति से डिजिटल क्रान्ति तक मानव समाज की सर्वांगीण उन्नति की नई श्रृंखला बन रही है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज ‘नीर-क्षीर-विवेक’ का ख्याल रखे।

-ओम प्रकाश मिश्र

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