सर्वोदय शब्द पुराना था। गांधी द्वारा उसमें विशिष्ट अर्थ भरने के बाद एक अरसा बीत चुका था। दरअसल, हिन्द स्वराज्य का सपना सामने रखकर और उससे अपनी प्रतिबद्धता घोषित करके गांधी ने एक तरह से सर्वोदय आंदोलन का आगाज किया था, लेकिन न उसका रूप निखरा था, न उसकी पहचान बनी थी, इसलिए एक तरह से मार्च 1948 में ही सही मायने में सर्वोदय आंदोलन का सूत्रपात हुआ। अब उस ऐतिहासिक घटना को 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इन 75 वर्षों पर एक नजर डालना इस वक्त समीचीन होगा, ताकि आगे की यात्रा के लिए कुछ दिशा-निर्देश मिल सके।
गांधी जी की हत्या के बाद रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन (13 से 15 मार्च 1948) में जब गांधीजन सेवाग्राम में इकट्ठा हुए, तब उनकी चिन्ता थी कि गांधी की विरासत को कैसे संभाला जाय। वह विरासत तभी संभाली जा सकती थी, जब उसके बल पर आगे बढ़ना संभव होता। सवाल किसी महापुरुष का स्मारक खड़े करने या उसके नाम पर संप्रदाय खड़ा करने का नहीं था, बल्कि अहिंसक क्रांति का जो कार्य गांधी अधूरा छोड़कर गये थे, उसे अंजाम तक ले जाने का था। हालांकि देश स्वतंत्र हुआ था और एक अनुकूलता का निर्माण हुआ था, फिर भी परिस्थितियां बेहद प्रतिकूल और विषम थीं। सदियों की गुलामी और शोषण से समाज की रीढ़ टूट चुकी थी। गांव के गंवई भाव का तेजी से क्षरण हो रहा था। खेती और खेतिहर की हालत खस्ता थी। स्वतंत्र देश की बागडोर संभालने वाले नेता पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध से प्रभावित थे– उस सभ्यता की, जिसे गांधी ने शैतानी कहा था और जिसे जड़मूल से उखाड़ने का बीड़ा उठाया था।
सम्मेलन में रचनात्मक कार्य की विभिन्न संस्थाओं में समन्वय करके कार्य को एकात्म और समग्र रूप देने के लिए मिलापी संघ बनाने का निश्चय हुआ, अखिल भारत सर्व सेवा संघ का गठन हुआ और अनेक रचनात्मक संस्थाएं उसमें शामिल हुईं। सम्मेलन का दूसरा निर्णय था सर्वोदय समाज की स्थापना का, जिसके तहत गांधी-विचार मानने वालों का एक भाईचारा बनाने की कल्पना थी। विनोबा ने इसे ‘अ-रचना’ कहा, जो किसी भी रचना से ज्यादा कारगर बने, यह अपेक्षा थी। अहिंसक संगठन का एक नमूना खड़ा करने की यह पहल थी। गांधीजनों ने गांधी के नाम पर कोई संस्था या संगठन खड़ा करने और सत्ता से जुड़कर काम करने के मोह का संवरण किया, यह नि:संशय प्रशंसनीय निर्णय था।
काल प्रवाह में सर्व सेवा संघ और सर्वोदय समाज, दोनों का स्वरूप बदला। स्वरूप जैसा सोचा गया था वैसा ही रहे, यह जरूरी नहीं है, लेकिन इससे हमें लक्ष्य की तरफ जाने में सहूलियत हुई या नहीं, यह अवश्य जांचना होगा।
सर्वोदय शब्द पुराना था। गांधी द्वारा उसमें विशिष्ट अर्थ भरने के बाद एक अरसा बीत चुका था। दरअसल, हिन्द स्वराज्य का सपना सामने रखकर और उससे अपनी प्रतिबद्धता घोषित करके गांधी ने एक तरह से सर्वोदय आंदोलन का आगाज किया था, लेकिन न उसका रूप निखरा था, न उसकी पहचान बनी थी, इसलिए एक तरह से मार्च 1948 में ही सही मायने में सर्वोदय आंदोलन का सूत्रपात हुआ। अब उस ऐतिहासिक घटना को 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इन 75 वर्षों पर एक नजर डालना इस वक्त समीचीन होगा, ताकि आगे की यात्रा के लिए कुछ दिशा-निर्देश मिल सके।
सेवाग्राम में हुए मंथन से, क्या करना है और क्या नहीं, इसकी कुछ समझ तो आयी, लेकिन कैसे करना है, यह यक्ष प्रश्न बना रहा। इसके उत्तर के लिए मार्ग की तलाश जारी रही। सर्वोदय की अवधारणा का विकास करना और उसके निहितार्थ उजागर करना उस समय उपयोगी काम होता। विनोबा यही करते रहे। साथ-साथ कांचनमुक्ति और ऋषिखेती के गहरे प्रयोग करते रहे और बीच-बीच में देश के विभिन्न हिस्सों में घूमते रहे। सर्वोदय को साकार करने के लिए उन्हें एक कारगर सूत्र की तलाश थी।
भूदान गंगा
इस बीच 1949 और 1950 में सर्वोदय समाज के दो सम्मेलन हुए। तीसरा सम्मेलन शिवरामपल्ली (तेलंगाना) में होना तय था। उसके लिए विनोबा पैदल निकल पड़े। सम्मेलन का लोगों द्वारा जो स्वागत हुआ, उससे दीख रहा था कि लोग सर्वोदय से प्रकाश की चाह रख रहे थे। आम जनता ही नहीं, देश के प्रधानमंत्री भी। पंडित नेहरू ने सम्मेलन को भेजे संदेश में यही भावना व्यक्त की थी कि ‘पुरानी रोशनी बहुत धीमी हो गयी है और अक्सर अंधेरा मालूम होता है। ऐसे समय में हम सभी का कर्तव्य है कि रोशनी की तलाश करें। इसमें सर्वोदय बहुत सहायता दे सकता है।’
दस्तक जब ईमानदारी से दी जाती है, तब दरवाजा खुलता ही है। वही हुआ। सम्मेलन से लौटते हुए 18 अप्रैल 1951 को पोचमपल्ली में विनोबा को पहला भूदान मिला। विनोबा और सर्वोदय को वह सूत्र मिल गया, जिसकी उन्हें तलाश थी। इसके बाद फिर विनोबा भूमिहीनों के लिए जमीन मांगते गये और पाते गये।
तेलंगाना-यात्रा के बाद कुछ दिन पवनार में रहकर विनोबा, पंडित नेहरू के निमंत्रण पर सितंबर 1951 में पैदल ही दिल्ली के लिए निकले और फिर लगातार चलते ही रहे। पूरे तेरह साल चले। करीब 70 हजार किमी चलने के बाद ही उनके पांव रुके। देश के सभी प्रदेशों में भूदान ने जोर पकड़ा। सर्व सेवा संघ ने भूदान आंदोलन के संगठन की जिम्मेवारी ली और फिर आंदोलन विनोबा के मार्गदर्शन में संघ द्वारा ही संचालित होता रहा।
विनोबा ने भूमिहीनों के हक के तौर पर जमीन मांगी। उनका दावा था कि वे भूमिहीनों के लिए भिक्षा नहीं मांग रहे थे, बल्कि भूमिवानों को त्याग और समर्पण की दीक्षा दे रहे थे। मनुष्य के हृदय में मौजूद अच्छाई पर विश्वास करके विनोबा अपील करते रहे और छोटे-बड़े सभी जमीन मालिकों ने उनकी झोली भर दी। स्वेच्छा से, समझाने से, सौहार्द से समाज परिवर्तन का सूत्रपात हो सकता है, यह सिद्ध हुआ। देश-दुनिया का ध्यान इस अभूतपूर्व घटित की ओर आकृष्ट हुआ।
हवा, पानी और सूर्य के प्रकाश की तरह ही जमीन भी ईश्वर की देन है और सबका उस पर समान अधिकार है, यह विनोबा आरंभ से ही कहते रहे। जमीन मालिकों से जमीन का दान लेकर उसे भूमिहीनों में बांटना तो भूमिहीनों को राहत देने का महज एक तात्कालिक उपाय था। भूमि की समस्या का समाधान तो भूमि पर व्यक्तिगत मालिकी समाप्त होने और उस पर सामुदायिक नियंत्रण स्थापित होने में ही था। भूदान उसी की बुनियाद था। उससे ग्रामदान का उद्गम एक स्वाभाविक घटना थी। संयोग से वह भूदान के आरंभ के बाद एक वर्ष के भीतर ही घटित हुई। उत्तर प्रदेश के मंगरौठ गांव के सभी जमीन मालिकों ने अपनी सारी जमीन 24 मई 1952 को दान कर दी। एक नयी भूमि व्यवस्था और उसके आधार पर एक नयी ग्राम व्यवस्था खड़ी करने का अवसर उपस्थित हुआ और साथ में एक चुनौती भी।
उत्तर प्रदेश के बाद बिहार आये विनोबा ने प्रदेश की भूमि की समस्या हल करने के लिए बत्तीस लाख एकड़ जमीन की मांग की। जयप्रकाश जैसे दिग्गज नेता के राजनीति से दूर हटकर सर्वोदय में शामिल होने से आंदोलन को बल मिला। मार्च 1953 में चांडिल के सर्वोदय समाज सम्मेलन में विनोबा का भाषण ऐतिहासिक था, जिसे सर्वोदय का घोषणापत्र कहा गया। इसमें उन्होंने हिंसा शक्ति की विरोधी और दंडशक्ति से भिन्न तीसरी शक्ति – लोकशक्ति की अवधारणा प्रस्तुत की। उन्होंने कार्यपद्धति के दो तत्त्व भी समझाये– विचार-शासन और कर्तृत्व-विभाजन। विचार की शक्ति पर, विचार समझाने पर ही परिवर्तन के साधन के तौर पर विश्वास तथा शक्ति और सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा।
बोधगया में अप्रैल 1954 में हुए सम्मेलन में जयप्रकाश ने सर्वोदय के लिए जीवनदान घोषित किया। विनोबा ने भी अपना जीवनदान घोषित किया और इसका उद्देश्य भी स्पष्ट किया– भूदानयज्ञमूलक, ग्रामोद्योग प्रधान अहिंसक क्रांति के लिए।
सर्वोदय सेवकों के लिए आज भी यह सूत्र मार्गदर्शक है। भूदान-यज्ञ-मूलक का अर्थ है, जमीन का सूत्र पकड़े रखना, जमीन पर व्यक्तिगत मालिकी न रहे और उस पर सबका समान अधिकार प्रस्थापित हो, इसके लिए कृतसंकल्प रहना, उसी दिशा में रणनीति, कार्यक्रम और कार्यपद्धति तय करना। ग्रामोद्योग-प्रधान का अर्थ है, गांव-गांव में स्थानीय कच्चे माल पर आधारित व स्थानीय आबादी को काम देने वाले उद्योग खड़े हों, गांवों के पुनर्निर्माण तथा अर्थव्यवस्था की पुनर्रचना का मार्ग प्रशस्त हो, इसके लिए काम करना। कई सारे रचनात्मक कार्य इसमें समा जायेंगे। अहिंसक क्रांति के मानी है, परिवर्तन अहिंसा से ही करना है। स्थाई और शुभ परिवर्तन अहिंसा से ही संभव है। अर्थात समाज की, मनुष्यमात्र की एकता को मजबूत करते हुए परिवर्तन करना है, समाज के टुकड़े करके विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े करना तो सर्वनाश को निमंत्रण देना है।
बिहार में 22 लाख एकड़ भूदान मिला, जो एक कीर्तिमान था। आन्दोलन पूरे देश में फैल रहा था। छोटे-छोटे कार्यकर्ताओं को भी भूदान मिल रहा था। देश में देने की हवा बह रही थी। विनोबा ओडिशा में आये, तब वहां ग्रामदान की हवा बहने लगी। सैकड़ों गांवों ने ग्रामदान किया। वहां परिवार की सदस्य संख्या के आधार पर जमीन का समान वितरण होने लगा। विनोबा ने गरीबों से मालिकी का मोह छुड़वाकर श्रीमानों पर नैतिक दबाव लाकर मालिकी के गढ़ में सेंध लगाने की रणनीति अपनायी, उन्होंने कहा कि अमीरों की मालिकी छूटनी है, गरीबों को छोड़नी है। यह भारत का सद्भाग्य है कि कोई अमीर भी मालिकी छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है, लेकिन इस सद्भाग्य की ज्यादा परीक्षा लेना ठीक नहीं। ज्यादा तानने की कोशिश करेंगे, तो टूटने का खतरा है। ओडिशा के कोरापुट क्षेत्र में छह सौ से ज्यादा ग्रामदान हुए। इस तरह एक बड़ा क्षेत्र मिलने पर सर्व सेवा संघ ने अण्णासाहब सहस्रबुद्धे के संयोजन में वहां वैकल्पिक विकास का नमूना खड़ा करने की कोशिश की।
विनोबा तेरह साल चलते रहे और कार्यकर्ताओं को चलाते रहे। यात्रा तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से भी गुजरी, वहां भी भूदान मिला, जो तुरंत बांट दिया गया। 1963 में रायपुर सम्मेलन में रखा गया त्रिसूत्री कार्यक्रम– ग्रामदान, शांतिसेना और ग्रामाभिमुख खादी– सर्वोदय का दिशादर्शक अभियान बना। बढ़ती अशांति के दौर में शांति सेना, सर्वोदय की एक सार्थक पहल थी।
1964 में विनोबा पवनार लौटे। लेकिन कुछ महीने बाद ही उन्होंने फिर बिहार में चार साल ग्रामदान का सघन अभियान चलाया, जो तूफान आंदोलन के नाम से मशहूर हुआ। पूरे बिहार के ग्रामीण क्षेत्र का ‘न भूतो न भविष्यति’ मंथन हुआ। परिणामस्वरूप बिहार के बहुतांश गांवों के बहुतांश लोगों ने ग्रामदान-संकल्प पत्रों पर मुहर लगाकर ग्रामदान-ग्रामस्वराज्य का विचार मोटे तौर पर मान्य होने की रसीद दी। अक्टूबर 1969 में राजगीर सम्मेलन में उपस्थिति तीन लाख तक होने का अनुमान लगाया गया। सर्वोदय आंदोलन ने अपना चरम शिखर छू लिया था।
विचार के स्तर पर ग्रामस्वराज्य को जनमानस में व्यापक स्वीकृति दिलाने के लिए चलाये गये इस अभियान के बाद ज्यादा से ज्यादा गांवों में गांव वालों की सामूहिक शक्ति को संगठित करके ग्रामस्वराज्य की तरफ आगे बढ़ने के प्रयत्न होने चाहिए थे, लेकिन वे हो नहीं सके। आंदोलन ठिठक गया और थके-हारे कार्यकर्ता कुंठाग्रस्त होने लगे।
भूदान में अद्यतन उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, करीब 48 लाख एकड़ जमीन मिली, जिसमें से करीब 25 लाख एकड़ जमीन बंट चुकी है। सरकारों द्वारा लागू किये गये सीलिंग कानूनों के तहत इससे दुगुनी जमीन ही बांटी जा सकी है। एक स्वैच्छिक आंदोलन के लिए यह एक शानदार उपलब्धि मानी जायेगी। यह विरासत संभालना और उसे प्रामाणिकता से समाज के सामने पेश करना निश्चित रूप से सर्वोदय सेवकों का दायित्व है। ग्रामदान आंदोलन के दौरान हजारों गांवों ने ग्रामदान का संकल्प लिया, लेकिन सरकारी कानूनों के तहत ज्यादा गांवों की पुष्टि नहीं हो पायी। फिर भी आज 3972 गांव कानूनन ग्रामदानी गाँव के रूप में मान्य हैं। यानी वहां और कुछ हो या न हो, लेकिन अधिकांश जमीन पर व्यक्तिगत मालिकी नहीं है, वह जमीन ग्रामसभा के हाथ में है, इसलिए बाहर वाले वहां जमीन नहीं ले सकते। वह जमीन काश्तकारों के पास सुरक्षित है। आज जब भूदान की जमीनों पर अशुभ शक्तियों की निगाहें हैं, तब यह तथ्य मूल्यवान है।
उस दौर में हुआ वैचारिक आरोहण भौतिक उपलब्धियों से कहीं ज्यादा कीमती है। लोकनीति, सौम्य सत्याग्रह, गणसेवकत्व, जयजगत जैसी चिरकालिक मूल्य रखने वाली कई अवधारणाएं सामने आयीं। संपत्ति दान, सर्वोदय-पात्र, आचार्य कुल, स्त्री शक्ति जैसे कई कार्यक्रम उभरे, जिनके अनुभवों से काफी कुछ सीखा जा सकता है।
सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन
भूदान ग्रामदान आंदोलन के बिखराव से जो स्थिति बनी, उससे रास्ता निकालने की पहल जयप्रकाश को ही करनी थी, क्योंकि विनोबा क्षेत्र संन्यास लेकर क्षेत्र से हट चुके थे। जयप्रकाश ने पहल की भी। उन्होंने विद्यार्थी आंदोलन को समग्र परिवर्तन की दिशा में मोड़ने की कोशिश की। सर्वोदय का एक बड़ा खेमा संपूर्ण क्रांति आंदोलन से जुड़ गया और बाद में आये आपातकाल के विरोध में भी खड़ा हुआ। इस संघर्ष में उनकी भागीदारी यह इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। इस संघर्ष ने सर्वोदय तथा समाजकार्य और रचनात्मक कार्य से जुड़े दूसरे क्षेत्रों को कई जुझारू और सक्षम कार्यकर्ता दिये, यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा।
संपूर्ण क्रांति आंदोलन एक वैकल्पिक रणनीति थी। जयप्रकाश ने कभी नहीं कहा कि वे ग्रामस्वराज्य का लक्ष्य छोड़ रहे हैं। उनके लिए संपूर्ण क्रांति ग्रामस्वराज्य के लिए ही थी। जनता सरकार की कल्पना उन्होंने इसी संदर्भ में रखी। उस रणनीति की तटस्थ समीक्षा अब हो सकती है। किसी रणनीति के प्रति लगाव होना जरूरी नहीं है। आदर्शों और उसूलों के प्रति प्रतिबद्धता कायम रखकर परिस्थिति के मुताबिक अलग-अलग रास्ते टटोले जा सकते हैं। संपूर्ण क्रांति आंदोलन ऐसा ही एक रास्ता था। आंदोलन विरोधी सर्वोदय सेवकों ने गोरक्षा का मुद्दा उठाया, वह भी ऐसा ही एक रास्ता था।
लेकिन दुर्भाग्य से हुआ यह कि दोनों खेमों से जमीन का, गांव का सूत्र जाने-अनजाने में छूट गया। वह न छूटे, इसी के लिए विनोबा तड़प रहे थे, लेकिन वह छूट गया। उस सूत्र को लेकर नये रास्ते खोजने की कोशिश नहीं हुई। भूदान और ग्रामदान को लेकर जो हमारी जिम्मेवारी थी, उसे भी हमने अधूरा छोड़ दिया। तमिलनाडु में जगन्नाथपुरी की लाफ्टी योजना शायद एकमात्र अपवाद होगी। हम अलग-अलग कार्यक्रम तलाशते रहे। अलग-अलग नेताओं के पीछे जाते रहे। स्वदेशी आंदोलन, किसान आंदोलन जैसे कई जन-आंदोलनों में शिरकत कर वहां अपनी जगह बनाने की कोशिश करते रहे। इसका अंजाम हमारी आंखों के सामने है। भूदान-ग्रामदान आंदोलन हमारा आंदोलन था। हम उसे संचालित करते थे। दूसरों का सहयोग हम अवश्य चाहते थे और प्राप्त करते थे, लेकिन आंदोलन हमारा था। सहयोग की शर्तें हमारी थीं। अब दूसरे आंदोलनों से, प्रगतिशील कहे जाने वाले तत्त्वों से सहयोग करते-करते हम अपने मूल विचार, मूल उद्देश्य और अपनी बुनियाद से जाने-अनजाने हट तो नहीं रहे हैं, यह सोचने की बात है। ऐसे तत्त्वों या आंदोलनों से सहयोग न करने की बात नहीं है। सभी शुभ शक्तियों का अशुभ शक्तियों के खिलाफ साझा मोरचा होना निश्चय ही वंदनीय है। लेकिन उन तत्त्वों के अपने आदर्श हैं, अपनी कार्यपद्धति है, अपना एजेंडा है, यह भी नहीं भूलना चाहिए।
अत: गांव की तरफ, जमीन की तरफ, सर्व की तरफ फिर से मुड़कर हमें अपना वजूद खड़ा करना होगा। अपना कार्यक्रम तलाशना होगा। ग्रामदान के रूप में एक सार्थक क्रार्यक्रम आज भी उपस्थित है और आज भी उसे आजमाया जा सकता है। बेशक, परिस्थिति के संदर्भ में कुछ बदलाव हो सकते हैं। ग्रामस्वराज्य की दिशा में दूसरे कार्यक्रम भी खोजे जा सकते हैं, लेकिन ग्राम स्वराज्य का ध्रुवतारा हमारी आंखों से ओझल न हो, यही श्रेयस्कर है।
मोटे तौर पर देखें तो इन 75 वर्षों में से पहले 25 साल स्वर्णिम काल के थे। सर्वोदय आन्दोलन इस काल में शिखर तक पहुंच गया। लेकिन एक शिखर से दूसरे शिखर तक यात्रा होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई। कारण अनेक हैं। दरअसल, काल प्रवाह में हर चीज की एक नियति होती है। समय आने से पहले कोई चीज घटित नहीं हो सकती और समय आने पर वही चीज टाली नहीं जा सकती। विनोबा ने ठीक ही कहा था कि ग्रामदान सत्य-विचार है, इसलिए वह आज नहीं तो कल, इस देश में नहीं तो और कहीं उभर कर आयेगा ही।
सर्वोदय आन्दोलन के अगले 25 साल जमीन का सूत्र छोड़कर अपनी जमीन तलाशने के साल थे, इस काम में उसे कितनी कामयाबी मिली, यह हम जानते हैं। इसलिए अगले 25 साल अगर हम कठोर आत्मपरीक्षण का साहस करें तो कहना होगा कि यह सर्वोदय के संदर्भहीन होने का काल था।
लेकिन कोई स्थति स्थाई नहीं होती। जब चक्र घूमता है, तो आज जो बिन्दु नीचे है, वह कल ऊपर आ जाता है। परिस्थितियां बदलती हैं। हमारे पास विचार का जो संबल है, उसका कोई सानी नहीं है। दुनिया को अगर जिन्दा रहना है, तो इस विचार का कोई विकल्प नहीं है। हमें उससे प्रतिबद्ध रहकर, उससे कोई समझौता किये बिना अपनी रणनीति, कार्यक्रम और कार्यपद्धति तय करने होंगे। इसके कारण विचार की समझ गहरी करनी होगी। फिर सर्वोदय आरोहण के अगले पड़ाव की तरफ निकल सकता है।
75 वर्ष पूर्व सेवाग्राम सम्मेलन में विनोबा ने कहा था कि अगर हम अपनी श्रद्धा के अनुसार कुछ न कर पा रहे हों, तो भी कुछ न कुछ करना ही है, यह मोह न रखना बेहतर है- ‘निष्क्रिय चिन्तनात्मक तपस्या भी सेवा का एक तरीका है। जो जागृत रहकर प्रतीक्षा करते हैं, वे भी सेवा करते हैं। प्रतीक्षा के काल में हम अहिंसक शक्ति का विकास करने के उपाय सोचते रहें। मुझे इस वक्त इस निष्क्रिय अहिंसक शक्ति संग्रहात्मक तपस्या के सिवाय दूसरा रास्ता नहीं दिखायी देता।’
निष्क्रिय शब्द से चौंकने की जरूरत नहीं। खुद विनोबा निष्क्रिय नहीं बैठे थे, सक्रिय चिन्तनात्मक तपस्या में ही लगे हुए थे, जिससे आगे भूदान-ग्रामदान निकला। अहिंसक शक्ति का विकास करने के उपाय सोचना असली मुद्दा है। सर्वोदय आन्दोलन के 75 वर्षों का सिंहावलोकन और मूल्यांकन हमें इस दिशा में आगे की यात्रा करने के लिए पुष्टिदायक पाथेय दे सकता है।
-पराग चोलकर