हिमालय बचाओ यानी जय तिब्बत! जय भारत!! जय जगत!!!

भारतीयों के ऊपर आज हिमालय बचाने के साथ ही हिन्द महासागर बचाने का भी जिम्मा आ गया है. तिब्बत के मुक्ति साधकों ने अनेक कठिनाइयों के बावजूद 1959 से 2022 के बीच की लम्बी अवधि में दुनिया के हर महाद्वीप में अपनी पीड़ा का सच फैला दिया है. इसी के समांतर दलाई लामा भी भारत के प्रति अपनी श्रद्धा और आभार प्रकट करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते. आइये, हम भी भारत–तिब्बत मैत्री के परचम को देश के हर जिले में फहराएं, हर देशभक्त स्त्री-पुरुष को, विशेषकर विद्यार्थियों-युवजनों-भूतपूर्व सैनिकों को इस अभियान से जोड़ें. जब देश की सुरक्षा खतरे में हो तो राजनीतिक मतभेदों को पीछे छोड़कर राष्ट्रीय एकता के बल पर आगे बढ़ना ही नागरिक धर्म है.

हिमालय पर्वतमाला भारत, चीन और तिब्बत के बीच आध्यात्मिक, व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंधों की आधार भूमि है. इसे भारत, तिब्बत और चीन के बीच मैत्री और सहयोग का शांति क्षेत्र बनाना चाहिए. यह भारतीय चिंतन की ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ दृष्टि के अनुकूल होगा. तीनों की संस्कृति में बुद्ध की शिक्षा की सुगंध है. इससे एशिया की विश्व में भूमिका बढ़ेगी और दुनिया में शांति का युग शुरू होगा, लेकिन 1949 में तिब्बत में चीनी सेना के प्रवेश, पाकिस्तान के कब्ज़े के कश्मीरी भाग में 1963 से चीन द्वारा सामरिक महत्त्व के निर्माण और 1962 में चीन द्वारा भारत पर हमला करने के बाद क्रमश: चीन, भारत और पाकिस्तान ने परमाणु अस्त्रों की क्षमता विकसित कर ली और आज यह दुनिया का सबसे तनावग्रस्त क्षेत्र बन गया है. दुनिया के अन्य शक्तिशाली देश इस तनाव के बढ़ने में अपना हित मान बैठे हैं.

चीन का विस्तारवाद
चीन की सैन्य शक्ति और विस्तारवाद से पैदा हिमालय की असुरक्षा के कारण तिब्बत का राष्ट्रीय अस्तित्व खत्म हो गया है. भारत की उत्तरी सरहदें बेहद असुरक्षित हैं. चीन ने हिन्द महासागर को भी भारत की घेरेबंदी के लिए इस्तेमाल कर लिया है. श्रीलंका में हम्बंतोता और पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह बनाकर तथा म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, तंज़ानिया और सोमालिया में संसाधन लगाकर वह भारत के लिए समुद्री असुरक्षा पैदा करने में जुटा है.

भारत चीन के साथ अपनी कुल सीमा की लम्बाई 3488 किलोमीटर से लेकर 4057 किलोमीटर तक मानता है. भारत का आरोप है कि चीन ने कश्मीर में उसकी कुल 43180 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्ज़ा कर रखा है. जिसमें चीन-पाकिस्तान समझौते के अंतर्गत ली गयी 5180 वर्ग किलोमीटर जमीन भी है. जबकि चीन इसे सिर्फ 2000 किलोमीटर लंबा मानता है, क्योंकि यह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से जुड़े क्षेत्र के बारे में भारतीय शिकायत को अनुचित समझता है. उलटे चीन का आरोप है कि अरुणाचल प्रदेश के रूप में भारत ने चीन की 90000 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्ज़ा कर रखा है. उसके लिए सिर्फ अरुणाचल प्रदेश में, न कि अक्साई चिन, कश्मीर और लद्दाख में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद है! लद्दाख, जम्मू और कश्मीर (पश्चिमी सेक्टर), हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड (केन्द्रीय सेक्टर) तथा सिक्किम व अरुणाचल प्रदेश (पूर्वी सेक्टर) में चीनी और भारतीय सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं.


यह परिस्थिति पूरी दुनिया के लिए गंभीर चिंता का विषय है, क्योंकि चीन और भारत दोनों के पास परमाणु हथियारों का संग्रह है और सैनिक तैयारी पर दोनों का खर्च बढ़ता जा रहा है. एक अनुमान के अनुसार चीन और भारत द्वारा सेना और सुरक्षा पर खर्च का अनुपात 2010 में 2.5 और 1 था. यह 2019 में बढ़कर 3.7 और 1 का हो गया. 2018 में चीन ने सुरक्षा के लिए 225 अरब डालर की राशि खर्च की, भारत में यह खर्च 55 अरब डालर का था.

भारत–तिब्बत–चीन के संबंधों का इतिहास
चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के पहले मध्य एशिया में इसके तीन प्रधान मार्ग थे– बामियान और बैक्ट्रिया; कशगार के रास्ते तारिम घाटी से और कश्मीर, गिलगित व यासीन के जरिये पामीर पठार से. बाद के दिनों में तिब्बत के जरिये भी एक मार्ग विकसित हुआ, जो इस्लाम के विस्तार से मध्य एशिया के रास्तों के बाधित होने के बाद भी उपयोगी बना रहा. भारत और चीन के बीच प्रशांत महासागर के जलमार्गों से भी संपर्क रहा, जिससे दक्षिण चीन और दक्षिण भारत के प्रमुख व्यापार केन्द्रों के बीच चोला साम्राज्य (कांचीपुरम) से लेकर श्रीविजय साम्राज्य के 700 बरसों तक आदान-प्रदान हुआ करता था. इस सम्बन्ध ने मलाया, सुमात्रा और जावा समेत हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर की संस्कृतियों को विकसित होने में मदद की. जापान, कोरिया और मंगोलिया भी इस प्रक्रिया से प्रभावित हुए.

लेकिन 1498 में पुर्तगालियों के गोआ पर कब्जे के बाद के 400 बरसों में भारत और चीन के बीच के समुद्री संपर्क सिर्फ यूरोपीय शक्तियों के माध्यम से बनाए गए. ईसापूर्व 500 से शुरू सहअस्तित्व का सिलसिला 2500 बरसों तक निर्बाध बना रहा. इसमें भारत से बौद्धधर्म के प्रचार-प्रसार की प्रमुख भूमिका थी. चौथी और पांचवी शताब्दी में भारत से बौद्ध आचार्यों और भिक्षुओं की दूसरी लहर के चीन पहुँचने के ऐतिहासिक विवरण, इसके साक्ष्य हैं. भारत से कुमारजीव, बोधिधर्म और चीन से फा ह्यान और हुयेन चुवांग इस दौर के विख्यात नाम हैं, जिन्होंने इन दोनों महान संस्कृतियों के परस्पर परिचय को गहरा किया. चीन में बौद्ध धर्म की महायान परम्परा के प्रचार का 2000 बरसों का इतिहास उपलब्ध है. इसमें भारतीय प्रभाव और बौद्ध धर्म के खिलाफ प्रतिक्रियाओं के 446, 574, 845 और 955 ईस्वी के चार दौर भी शामिल हैं. दसवीं शताब्दी के बाद भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने लगा. उसके आगे की दो शताब्दियों में दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंधों में भी कमी आ गयी. भारत में इस्लाम के प्रवेश और 12 वीं शताब्दी से बढ़ते राजनीतिक प्रभुत्व का भी प्रतिकूल असर रहा. लेकिन 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के पश्चिमी देशों के 150 बरस के साम्राज्यवाद के हस्तक्षेप से इस क्षेत्र में विवाद और तनाव का बीजारोपण हुआ.

तिब्बत की कहानी
तिब्बत में बौद्ध धर्म का सातवीं शताब्दी में भारत से आगमन हुआ. इस धार्मिक संपर्क को सांस्कृतिक और व्यापारिक बल मिला. यही भारत-तिब्बत संबंधों की आधारशिला बना और आज भी दलाई लामा समेत तिब्बती समुदाय के स्त्री-पुरुषों को अपने तिब्बती होने और बौद्ध होने पर एक समान गर्व है. तिब्बत की अस्मिता बौद्ध धर्म की ‘नालंदा परम्परा’ पर आधारित है. चीन-तिब्बत संबंधों में इसकी तुलना लायक कोई तथ्य नहीं है. तेरहवीं शताब्दी में चीन और तिब्बत दोनों पर मंगोलों का कब्ज़ा था. 14वीं शताब्दी में मिंग सम्राट मंगोल के उत्तराधिकारी बने, उन्होंने तिब्बत के साथ कोई छेडछाड नहीं की और दलाई लामा को सम्मान दिया. पांचवें दलाई लामा नवांग लोबसांग ग्यात्सो (1617-1682) के शासन काल से तिब्बत और चीन परस्पर सम्मान के साथ सहस्तित्व को निभाते रहे. 18वीं शताब्दी में क्यिंग साम्राज्य के दौरान चीन का तिब्बत के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और रक्षातंत्र पर नियंत्रण हो गया लेकिन आतंरिक मामलों में कोई भूमिका नहीं थी. 19 वीं शताब्दी में क्यिंग साम्राज्य खुद ही बिखराव का शिकार हो गया इसलिए तिब्बत से उसका सम्बन्ध कागजों में ही सीमित रहा. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी तिब्बत के विशेष दर्जे, दलाई लामा के अधिकारों और तिब्बत की राजनीतिक व्यवस्था के शुरूआती दौर में कोई छेड़छाड़ नहीं की थी. इसका प्रमाण मई 1951 का 17 सूत्री समझौता था.

लेकिन 1959 के विद्रोह के बाद ‘तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र’ (तिब्बत ऑटोनोमस रीजन/ टार) का गठन किया गया. भारत इस नए स्वरूप को इस आशा से मान्यता देता आया है कि इससे तिब्बत की स्वायत्तता का वैधानिक आधार बचाया जा सकेगा.


दलाई लामा ने भी ‘मध्यम मार्ग’ का सूत्र प्रतिपादित किया है, जिसमें तिब्बत की स्वतंत्रता की मांग नहीं है. सिर्फ ‘वास्तविक स्वायत्तता’ का आग्रह है. इस सूत्र के आधार पर 1979 और 2002 के बीच दलाई लामा के प्रतिनिधियों और चीन सरकार के बीच अनेक मुलाकातें हुईं. क्योंकि माओ के देहांत और सांस्कृतिक क्रान्ति की विफलता के बाद सत्तासीन हुए देंग सिओपिंग और हु याओबांग चीन की तिब्बत नीति में सुधार चाहते थे. इसके फलस्वरूप तिब्बती प्रतिनिधियों और चीनी शासन के बीच 2002 में फिर 2003 और 2010 में संवाद हुआ. लेकिन 2008 आैर 2010 के बीच तिब्बत में आत्मदाह और प्रतिरोध की घटनाओं की बारंबारता के कारण बात रुक गयी. एक स्त्रोत के अनुसार दलाईलामा ने 2014 में चीन के सर्वोच्च नेता शी जिनपिंग की भारत यात्रा के दौरान मुलाकात करके बात करने की कोशिश की. लेकिन भारत सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी (देखें: सोनिया सिंह (2019) डीफाइनिंग इण्डिया थ्रू देयर आईज (गुडगाँव, पेंगुइन इण्डिया)। इस प्रक्रिया को 2015 में चीन के नए नायक शी जिनपिंग के निर्देश पर एक ‘श्वेतपत्र’ प्रकाशित करके दलाई लामा पर चीन को तोड़ने की साज़िश में शामिल होने का आरोप लगाकर समाप्त कर दिया गया.

वैसे भारत ने 1959 से आजतक तिब्बती प्रवासियों की पुनर्वास प्रक्रिया में प्रशंसनीय सहयोग किया है. इसीलिए आज तिब्बती साधकों ने भारत में धर्मशाला को एक वैकल्पिक प्रशासनिक केंद्र के रूप में बना लिया है. इसके चारों प्रमुख सम्प्रदायों – गेलुप, कर्ग्यु, निग्मा और साक्या के प्रमुख भारत में ही हैं. दलाई लामा के प्रशासन ने 225 मठ और 30000 तिब्बती भिक्षुओं की मदद से भारत को तिब्बती बौद्ध धारा का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र बनाने में सफलता पायी है. फलस्वरूप आज भी सभी तिब्बती सहज ही भारत को अपना ‘गुरु’ और चीन को आततायी मानते हैं. वैसे भी चीन को लगातार दो बड़े भय सताते हैं: एक, दलाई लामा का ‘मध्यम मार्ग’ सूत्र, जो वस्तुत: चीन से तिब्बत को अलग करने के सपने को मजबूत करेगा. दूसरे, पाकिस्तान से अलग हुए बांग्लादेश की तरह भारत रूस और अमरीका की मदद से तिब्बत को चीन के कब्ज़े से निकलकर एक स्वतंत्र देश बनने में सहायता कर सकता है (देखें: जॉन डब्ल्यू. गर्वर (2016) चाइना’ज क्वेस्ट : द हिस्ट्री ऑफ़ फोरेन रिलेशंस ऑफ़ द पीपुल्स रिपुब्लिक ऑफ़ चाइना (न्यूयार्क, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस), पृष्ठ 313-14.

दूसरी तरफ, तिब्बत – चीन संबंधों में कुबलाई खान (1271), मिंग साम्राज्य (14वीं शताब्दी का उत्तरार्ध), अल्तन खान (1578), क्विंग साम्राज्य (1644) और सम्राट कांग्सी (1720) के हस्तक्षेपों की भूमिका का महत्व है. नौवें दलाई लामा का 1720 में चीनी सम्राट की मदद से तिब्बत का राजनीतिक प्रमुख बनना तिब्बत और चीन के संबंधों की कथा में एक निर्णायक मोड़ रहा, क्योंकि इसके बाद के सभी दलाई लामाओं के पदारोहण में चीन के शासक की सहमति की परम्परा बन गयी. तिब्बत पर चीन के स्वामित्व के दावे के समर्थक बताते हैं कि ब्रिटेन ने चीन के साथ 1890 के एक समझौते में और ब्रिटेन तथा रूस ने 1907 में एक दस्तावेज पर दस्तखत करके तिब्बत पर चीन की ‘संप्रभुता’ (सूज़ेरेंटी) को मान्यता दी थी. ब्रिटिश राज से मुक्ति के बावजूद भारत की तिब्बत नीति या हिमालय नीति में कोई बदलाव नहीं आया. कांग्रेस की सरकार की जगह जनता पार्टी की सरकार बनी. 1999 में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार आयी. 2014 से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार का दूसरा दौर चल रहा है. लेकिन भारत की तिब्बत नीति 1954 से अब तक हमेशा चीन के वर्चस्व को स्वीकारती आयी है. कभी ‘पंचशील’, कभी ‘कैलाश मानसरोवर यात्रा’ और कभी ‘सिक्किम का भारत में विलय’! सिर्फ 1966 में भारत ने तिब्बत के सवाल पर संयुक्त राष्ट्रसंघ में चर्चा के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया. अन्यथा हम तटस्थ रहते आये हैं. चीनी दावेदारों के अनुसार ‘सूज़ेरेंटी’ का अर्थ चीनी संप्रभुता के अंतर्गत तिब्बती स्वायत्तता’ है. इसलिए तिब्बत की आज़ादी का सवाल ही नहीं उठता है. फिर भारत की हिमालय नीति और तिब्बत नीति के बारे में इन दावेदारों की तरफ से दो प्रश्न किये जाते हैं – क्या इतिहास में तिब्बत कभी स्वतंत्र देश था? और २) क्या तिब्बत निकट भविष्य में एक टिकाऊ स्वतंत्र राष्ट्र बन सकता है? (देखें: सुब्रह्मण्यम स्वामी (2020) हिमालयन चैलेन्ज (नयी दिल्ली, रूपा) पृष्ठ 23)

पहले तिब्बत की आज़ादी का सवाल देखा जाए. 1911 में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा की थी. तबसे 1949 में चीनी सेना के हस्तक्षेप तक 40 बरस तिब्बत एक स्वतंत्र राष्ट्र था. तिब्बत की अपनी मुद्रा, डाक टिकट और यात्रा-प्रवेश के लिए वीसा की व्यवस्था चीन में कम्युनिस्ट क्रान्ति होने तक अस्तित्व में थे. लेकिन 1950 से तिब्बत की आज़ादी चीनी राष्ट्रवाद के निशाने पर आ गयी. चीन में कम्युनिष्ट क्रांति के बाद चेयरमैन माओ ने जनवरी, 1950 में तिब्बत से पत्र लिखकर धमकानेवाली भाषा में मांग की कि ‘तिब्बत को अपनी मातृभूमि से पुन: एकजुट होने’ का निर्णय करना चाहिए. इसके 10 महीने बाद माओ ने अक्तूबर, 1950 में चीनी सेना को तिब्बत पर चढ़ाई के लिए आदेश दिया और चीन की सेना ने ल्हासा के पूर्वी इलाके में चामदो पर कब्ज़ा कर लिया.


इस खुले ‘चीनी विस्तारवाद’ से चिंतित होकर भारत के उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल ने 7 नवम्बर 1950 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक आठ-सूत्री पत्र लिखा और चीन द्वारा तिब्बत पर कब्ज़े के बाद भारत-तिब्बत की सीमांकन के लिए स्वीकारी गयी ‘मैकमहोन रेखा’ सम्बन्धी नीति को भी इनकारने की आशंका प्रकट की. प्रधानमंत्री नेहरू ने उत्तर में 18 नवम्बर को पत्र लिखा. इसमें तीन बातें महत्वपूर्ण थीं : भारत तिब्बत की कोई मदद नहीं कर सकता। ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका या कोई भी अन्य देश तिब्बत की मदद करने के बजाय चीन को बदनाम करने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं, और चीन से भारत की सीमाओं को ख़तरा एक बेबुनियाद आशंका है. (देखें; गोपाल, एस. (सम्पादक) सरदार पटेल्स करेस्पोंडेंस, खंड 8 (1973)(अहमदाबाद) पृष्ठ 335-347

इसके बाद सरदार पटेल की 15 दिसम्बर 1950 को मृत्यु हो गयी और 23 मई, 1951 को चीन की कम्युनिष्ट सरकार ने फौजी दबाव में एक 17 सूत्रीय ‘समझौते’ के जरिये तिब्बत का चीन में ‘विलय’ घोषित कर दिया. इस कदम को मजबूती देने के लिए चीनी सेना ने 26 अक्तूबर 1951 को ल्हासा में प्रवेश करके तिब्बत को अपने अधीन कर लिया. तिब्बत की रक्षा के अपने प्रयासों में विश्व-समर्थन जुटाने के लिए परमपावन दलाई लामा ने 1959 में अपने हजारो अनुयायियों के साथ भारत में शरण लेने का साहसिक निर्णय किया. दलाई लामा और उनके अनुयायियों के 31 मार्च 1959 को भारत सीमा में प्रवेश करने पर सरकार और जनता ने उनका पूर्ण सम्मान के साथ स्वागत किया. तबसे आजतक दलाई लामा और सभी तिब्बती भारत के सम्मानित अतिथि हैं और तिब्बत की मुक्ति साधना जारी है (देखें; दलाई लामा (1998) फ्रीडम इन एक्जाइल (लन्दन, अबेकस).

भारत में तिब्बत के प्रश्न पर लोकमत
भारत की सरकारी कमजोरी के बावजूद भारत में तिब्बत पर चीनी कब्जे को हमेशा निंदनीय माना गया. समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने इसे ‘शिशुहत्या’ कहा और चीन पर तिब्बत को कम्युनिष्ट चीन का उपनिवेश बनाने और नेहरू सरकार पर इस पापपूर्ण कार्यवाही की अनदेखी का आरोप लगाया. उन्होंने भाषा, लिपि, नदियों के बहाव, तीर्थों की ऐतिहासिकता और अंतर्राष्ट्रीय संधियों के आधार पर तिब्बत की स्वतंत्रता के दावे की पुष्टि की. लोहिया ने देश भर में ‘हिमालय बचाओ सम्मेलन’ का आयोजन करके ‘हिमालय नीति’ के लिए जनमत निर्माण भी किया. डाॅ. बाबासाहब भीमराव आम्बेडकर ने देश की संसद में तिब्बत की सहायता की मांग की. तिब्बत के प्रश्न को डाॅ राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपालानी, लाल बहादुर शास्त्री, मुहम्मद करीम छागला और डाॅ. रघुवीर से लेकर चौधरी चरण सिंह, रबि राय, मधु लिमये, निर्मला देशपांडे और जार्ज फर्नांडीज का समर्थन मिला. तिब्बत की आज़ादी और दलाई लामा की मदद के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 1959 में कलकत्ता में एक अफ़्रीकी- एशियाई सम्मेलन आयोजन करके दलाई लामा की मदद का अंतरराष्ट्रीय अभियान शुरू किया, जेपी की प्रेरणा से अनेक संगठन और मंच ‘तिब्बत बचाओ’ के प्रयासों से जुड़े. डाॅ. आंबेडकर के अनुयायियों में भी तिब्बत के प्रति प्रबल समर्थन है. सरकार से जुड़े होने के बावजूद राष्ट्रवादी संगठनों की भी तिब्बत के साथ हुए अन्याय को लेकर स्पष्ट सहानुभूति है.

अभी भी एक स्वाधीन अथवा स्वायत्त राष्ट्र के रूप में तिब्बत के पुन: स्थापित होने की संभावना के बारे में शंका के तीन कारण हैं : पहला तिब्बत पर सैनिक कब्जे के बाद चीन ने इसका अंग-भंग करके मूल तिब्बत देश के सीमावर्ती हिस्सों को अपने पड़ोसी प्रदेशों में मिला लिया है. तिब्बती भाषा की जगह चीनी भाषा लादी जा चुकी है. चीन से बड़ी तादाद में आबादी का स्थानान्तरण करके तिब्बत में ही तिब्बती अल्पसंख्यक बनाए जा चुके हैं. इसलिए तिब्बत देश का अब अस्तित्व ही नहीं बचा है. दूसरा, क्या चीन इसके लिए तैयार होगा? फिर वह सिंझियंग (‘नया प्रदेश’) अर्थात पूर्वी तुर्किस्तान के मुस्लिम बहुल उघ्युर स्त्री-पुरुषों को कैसे रख पायेगा? मंगोलिया के बड़े हिस्से पर कायम कब्जे को भी छोड़ना पडेगा. वस्तुत: मौजूदा चीन का दो तिहाई भौगोलिक क्षेत्र (तिब्बत, शिनजियांग और आतंरिक मंगोलिया) चीनी कम्युनिष्ट क्रांति के विस्तारवाद का परिणाम है. और तीसरा, चीन और भारत जैसे दो महादेशों के बीच तिब्बत अंतरराष्ट्रीय ताकतों के दांवपेंच का हमेशा के लिए शिकार बन जाएगा. उसकी स्वायत्तता चीन के लिए असुविधाजानक रहेगी और भारत भी लद्दाख से लेकर सिक्किम, भूटान, नेपाल और अरुणाचल में रहने वाले बौद्धों के बीच तिब्बत से सांस्कृतिक निकटता को लेकर सशंकित रहेगा. अमरीका, ब्रिटेन और यूरोपीय महासंघ भी तिब्बत की मजबूरियों का फायदा उठाएंगे.
तिब्बत पर चीनी सेनाओं के 1949-1959 के बीच कब्जे से ‘हिमालय बचाओ’ की पुकार शुरू हुई. तिब्बत में 1959 में विद्रोह और परम पावन दलाई लामा द्वारा अपने 60000 से अधिक अनुयायी स्त्री-पुरुषों द्वारा भारत में शरण लेने से कम्युनिष्ट क्रांति से पैदा हुए चीनी राष्ट्रवाद का खूंखार चेहरा बेपर्दा हुआ. फिर 1962 में चीन द्वारा भारत के हिमालय क्षेत्र में हमले से सारी दुनिया में चीनी विस्तारवाद का खतरनाक सच सामने आया. यूरोप और अमरीका ने इसे कम्युनिस्ट शक्ति का विस्तार माना. एशिया-अफ्रीका के नव-स्वाधीन देशों में चिंता हुई. सोवियत संघ तक इससे अचंभित हुआ.

भारत की तिब्बत-चीन नीति की असफलता
फिर भी हमारी हिमालय – तिब्बत – चीन नीति नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक लगातार असफल रही है. इसके तीन कारण हैं: एक, भारत और चीन के बीच संवाद में तिब्बत की अनुपस्थिति, जबकि हिमालय की रक्षा का रास्ता तिब्बत की मदद से ही बनाया जा सकता है. तिब्बत की आज़ादी ही भारत की सुरक्षा की सबसे टिकाऊ बुनियाद है. बिना तिब्बत के प्रश्न को केंद्र में रखे भारत और चीन के बीच परस्पर अविश्वास बना रहेगा.


दूसरे, भारत चीन के सामने आत्म-समर्पण की मुद्रा में रहा करता है. नेहरू-राज में पंचशील का बेढंगा समझौता इसका उदाहरण था, जिसमें तिब्बत में फ़ैल रहे चीनी साम्राज्य का कोई जिक्र नहीं था और सिर्फ 8 बरस की अवधि रखी गयी थी. इंदिरा गांधी ने अपने लम्बे कार्यकाल में पाकिस्तान, बांगलादेश, असम और खालिस्तान के प्रश्नों के मुकाबले तिब्बत के प्रश्न को जस-का-तस रखा. 1988 में राजीव गांधी प्रधानमन्त्री के रूप में चीनी नेताओं से जाकर मिले और ‘सीमा विवाद’ और तिब्बत के प्रश्न पर चीनी नेताओं के दृष्टिकोण के प्रवक्ता बनकर लौटे. चंद्रशेखर के संक्षिप्त प्रधानमंत्रित्व काल में वाणिज्य मंत्री सुब्रह्मण्यम स्वामी ने 1991 में भारत – चीन व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करके आर्थिक सहयोग में बड़ी बढ़ोत्तरी को संभव बनाया. पीवी नरसिम्हा राव का कार्यकाल 1993 और 1996 के दो समझौतों के कारण विशेष सफलता का दौर रहा.

चीन से वाजपेयी का समझौता
अटल बिहारी वाजपेयी ने भी 2003 में चीन के साथ एक समझौता किया. इस समझौते में भारत ने तिब्बत को चीन का ‘अभिन्न अंग’ माना और बदले में चीन ने भारत में सिक्किम के 1976 में हुए विलय को मान्यता दी. लेकिन इस समझौते के बारे में भारतीय जनता पार्टी के संसद सदस्य डाॅ. सुब्रह्मण्यम स्वामी का कहना है कि इससे भारत के आत्मसम्मान को गहरी ठेस लगी और चीन को तिब्बत के चार टुकड़े करने की छूट मिल गयी (देखें: सुब्रह्मण्यम स्वामी (2002), पृष्ठ 116). वह इस सन्दर्भ में प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा भारत द्वारा परमाणु विस्फोट के बाद 12 मई 1998 को अमरीका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को लिखे एक गोपनीय पत्र को भी भारत और चीन के रिश्तों में नयी समस्याओं के लिए जिम्मेदार मानते हैं. इस पत्र ने नरसिम्हा राव के कार्यकाल में 1993 और 1996 में हुए महत्वपूर्ण समझौतों को निरर्थक बना दिया. (देखें: वही, पृष्ठ 110-114)

मोदी की अनदेखी
इधर नरेंद्र मोदी राज में सीमा विवाद और भारत की भूमि पर कश्मीर से लेकर लद्दाख और अरुणाचल तक चीनी कब्ज़े की अनदेखी करते हुए भारतीय बाजार को खोलकर आर्थिक समर्पण किया गया. चीन आज भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है और ‘ब्रिक्स’ जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर रूस, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका के साथ परस्पर सहयोगी हैं. लेकिन भारत ने चीन की ‘एक बेल्ट, एक सड़क’ (‘वन बेल्ट, वन रोड’) योजना से अपने को अलग रखा है, क्योंकि चीन इस योजना में पाकिस्तान के कब्जे के कश्मीरी क्षेत्र को भी शामिल करना चाहता है. इससे चीन नाखुश हुआ है. यह नाखुशी 2020 के मध्य में लद्दाख में सैनिक टकराहट के रूप में और नुकसानदेह हो चुकी है.

क्या हमारे नीति निर्माता इतिहास से सबक सीखने में अक्षम हैं? नेहरू राज ने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाया. चीन के प्रधान मंत्री चाऊ एन लाई का तीन बार दौरा कराया गया – 1954, 1956 और 1960 में. इसके बदले में चीन ने हमें युद्धभूमि में घसीटते हुए पराजित किया और लद्दाख के अक्साई चिन क्षेत्र पर दिन-दहाड़े कब्ज़ा बनाये रखा. इधर नरेंद्र मोदी राज में 2014 और 2020 के 6 बरस में चीन को 18 बार गले लगाने का प्रयास हुआ. लेकिन चीन सरकार की तरफ से 1993, 1996, 2005, 2012 और 2013 में किये गए समझौतों का उल्लंघन किया गया है. भूटान के दोक्लाम से लेकर लद्दाख तक 900 किलोमीटर लम्बी सीमा के पांच क्षेत्रों – देप्संग, गलवान, पांगोंग त्सो, कुगरांग घाटी और चर्डिंग नाला (देमचोक) में 50000 चीनी सैनिकों की तैनाती से सैनिक दबाव बनाकर लद्दाख क्षेत्र को अक्साई चिन से अलग करने वाली 1000 वर्ग किलोमीटर भूमि पर नया कब्ज़ा कर लिया है (देखें: विजयिता सिंह – ‘चाइना कंट्रोल्स 1000 वर्ग किलोमीटर ऑफ़ एरिया इन लद्दाख’, द हिन्दू 31 अगस्त 2020). अब 15 जून 2020 से ही भारत चीन, पाकिस्तान और नेपाल की साझी रणनीति से परेशान है.


तीसरे, किन्ही रहस्यमय कारणों से हमारी सैनिक शक्ति चीन के सामने कागज़ी शेर बना दी जाती है. सिर्फ 1986 में हमने इससे अलग कार्यवाही की थी, जिससे चीन पीछे हटा भी था. जबकि चीन द्वारा वियतनाम में विस्तार करने की कोशिश का कम सैनिक बल के बावजूद भरपूर जवाब मिला. नेहरू काल में 21 अक्तूबर 1959 को लद्दाख के कोंग्का ला में भारतीय सेना की टुकड़ी पर घात लगाकर चीनियों ने हमारे 10 सैनिकों की ह्त्या की और 10 को बंदी बनाया. तीन साल बाद 1962 में हमला करके भारत को ‘कडा सबक’ भी सिखाया. 63 साल बाद 15 जून 2020 को उसी क्षेत्र में गलवान नदी के निकट फिर वैसी ही वारदात की गयी है. इसमें भारतीय कमांडिंग अफसर समेत 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए. चीन के 4 सैनिक मरे.

इसके बाद से अबतक परस्पर विरोधी वक्तव्यों के कारण देश में हिमालय में चीन की घुसपैठ के बारे में अस्पष्टता का माहौल बन गया है. इससे ‘हिमालय बचाओ’ को नयी प्रासंगिकता मिली है. तिब्बत की आज़ादी के बिना भारत की सुरक्षा के अधूरेपन का सच सामने आया है. इस बिंदु पर डाॅ. सुब्रह्मण्यम स्वामी की तरफ से उठाये गए चार सवालों को दुहराना अप्रासंगिक नहीं होगा, क्योंकि यह देश की सरहदों की सुरक्षा का मामला है. इसमें सच ही हमारी सुरक्षा का एकमात्र आधार होगा. एक, क्या चीनी सैनिकों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पार करके हमारी ज़मीन पर कब्ज़ा किया था? यदि नहीं तो 15 जून 2020 को हमारे 20 जवानों और अफसरों की चीनी सेना के जवानों के साथ झगड़े में कहाँ हत्या की गयी? दूसरे, क्या चीनी सेना अभी भारत की जमीन पर बनी हुई है? तीसरे, इस समय दोनों पक्षों के बीच ‘परस्पर दूरी बनाने के लिए’ (डिसइंगेज्मेंट) चल रही वार्ता का भारतीय ज़मीन से वापस जाने से भिन्न क्या उद्देश्य है ? और चौथा प्रश्न यह है कि यदि चीन ने भारत की ज़मीन खाली करके पूर्ववत स्थिति नहीं बनने दी तो नयी दिल्ली इसके लिए क्या उपाय करेगी? (देखें: सुब्रह्मण्यम स्वामी (2020) पृष्ठ 122-3)

जय तिब्बत, जय भारत, जय जगत
वस्तुत: यह स्वीकारने का समय आ गया है कि हिमालय की रक्षा की चुनौती के सन्दर्भ में सरदार पटेल की चीन द्वारा तिब्बत को कब्जे में लेने को लेकर 1950 में लिखी चिट्ठी का सच लगातार हमारे सामने आता जा रहा है. इसी क्रम में लोहिया की ‘तिब्बत बचाओ, हिमालय बचाओ’ की पुकार की अनसुनी करना भारत को महंगा पड़ चुका है. इसलिए जयप्रकाश द्वारा तिब्बत की मदद के लिए भारत में जनमत निर्माण और अफ्रीका और एशिया के देशों को एकजुट करना पहले से ज्यादा प्रासंगिक है.

इसलिए भारत-तिब्बत मैत्री संघ, अन्य तिब्बत समर्थक संगठनों और व्यक्तियों के लिए ‘जय तिब्बत! जय भारत! जय जगत!’ में अपनी आस्था को दुहराते हुए तिब्बत मुक्ति की साधना में भरपूर सहयोग की नयी जरूरत आ गयी है. हम भारतीयों के ऊपर हिमालय बचाने के साथ ही हिन्द महासागर बचाने का भी जिम्मा आ गया है. तिब्बत के मुक्ति साधकों ने अनेक कठिनाइयों के बावजूद 1959 से 2022 के बीच की लम्बी अवधि में दुनिया के हर महाद्वीप में अपनी पीड़ा का सच फैला दिया है. इसी के समांतर दलाई लामा भी भारत के प्रति अपनी श्रद्धा और आभार प्रकट करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते. आइये, हम भी भारत–तिब्बत मैत्री का परचम देश के हर जिले में फहराएं. हर देशभक्त स्त्री-पुरुष को, विशेषकर विद्यार्थियों-युवजनों-भूतपूर्व सैनिकों को इस अभियान से जोड़ें. जब देश की सुरक्षा खतरे में हो तो राजनीतिक मतभेदों को पीछे छोड़कर राष्ट्रीय एकता के बल पर आगे बढ़ना ही नागरिक धर्म है.

-प्रो आनन्द कुमार

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