नेहरू का इतिहास बोध विराट, प्रवाहयुक्त और सार्वभौम था

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक सेमीनार हो रहा था। विषय था, इतिहास लेखन। उस सेमिनार में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक और उर्दू के महान शायर, रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी भी शामिल थे। फिराक नेहरू के मित्र भी थे। उसी गोष्ठी में नेहरू के इतिहास लेखन पर भी चर्चा हुई। एक विद्वान वक्ता ने नेहरू के इतिहास लेखन को इतिहास लेखन के दृष्टिकोण से गंभीर और अकादमिक नहीं माना। प्रख्यात इतिहासकार डॉ ईश्वरी प्रसाद उस गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने कहा, नेहरू इतिहास के विद्यार्थी नहीं रहे हैं, पर अतीत में झाँकने और उसका मूल्यांकन करने का सभी को अधिकार है। उनकी रचनाओं के मूल्यांकन के पूर्व उनकी पृष्ठिभूमि पर भी विचार कर लिया जाय। ईश्वरी प्रसाद ‘भारत एक खोज’ के प्रशंसक थे। बहस गंभीर हुई। तभी फिराक उठे और उन्होंने बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘तुम इतिहास लिखते हो, उसने इतिहास बनाया है।’ फिराक कभी-कभी बदज़ुबां भी हो जाते थे। नेहरू का इतिहास बोध, भारतीय संस्कृति की तरह विराट और विशाल तो था ही, गंगा की तरह अविरल प्रवाहयुक्त और सार्वभौम भी था।


स्वाधीनता संग्राम में नेहरू ने कुल 9 साल कारागार में बिताये। वह लाहौर, अहमदनगर, लखनऊ और नैनी जेलों में रहे। वहीं इनका अध्ययन और लेखन परिपक्व हुआ। कारागार के समय का उन्होंने सकारात्मक सदुपयोग किया। वह सुबह 9 बजे से लिखना पढ़ना शुरू करते थे और देर रात तक उनका यह क्रम चलता रहता था। जेल के एकांत और अवकाश ने उन्हें देश के इतिहास, सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं के अध्ययन और पुनर्मूल्यांकन का अवसर दिया। उनका लेखन आत्ममुग्धता के लिए नहीं, बल्कि देश की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करने के लिए था, जिस से देश का स्वाभिमान जागृत किया जा सके। उन्होंने कुल चार पुस्तकें लिखीं।


नेहरू की पुस्तवेंâ


1921 में पहली पुस्तक लिखी गयी, ‘लेटर्स प्रâॉम ए फादर टू ए डॉटर’, जिसमें उन्होंने प्रागैतिहासिक काल का विवरण दिया है। 1934-1935 में उनकी क्लासिक कही जाने वाली पुस्तक, ‘The glimpses of world history’, (विश्व इतिहास की एक झलक), आयी। 1936 पं. जवाहर लाल नेहरू की आत्मकथा, ‘माई ऑटोबायोग्राफी,’ और 1946 में दर्शन, इतिहास और संस्कृति को लेकर लिखी गयी पुस्तक ‘The Discovery of india’ (भारत एक खोज) प्रकाशित हुई। उनके इतिहास बोध को समझने के पूर्व उनकी पुस्तकों के बारे में जानना आवश्यक है।


पिता के पत्र पुत्री के नाम, जो 1921 में प्रकाशित पुस्तक थी, में उनके वे पत्र संकलित हैं, जो इन्होंने इलाहाबाद प्रवास के दौरान लिखी थी। इंदिरा उस समय मसूरी में पढ़ रहीं थीं। इतिहास के साथ, वन्य जीव जंतुओं और अन्य विषयों पर इन पत्रों में उन्होंने अपनी पुत्री की बाल सुलभ जिज्ञासाओं के समाधान की कोशिश की है। यह प्रयास यह भी बताता है कि सार्वजनिक जीवन की तमाम व्यस्तताओं के बीच उनमें एक आदर्श पिता जीवित रहा, जिसने संतान को संवारने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। अंग्रेज़ी में लिखे इन पत्रों का पुस्तक के रूप में अनुवाद महान उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद ने किया था।


उनका एक पत्र, जिसका उल्लेख यहां करना उचित होगा, वन्य जीव के विकास पर आधारित है। डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत तब तक अस्तित्व में आ चुका था। उन्होंने लन्दन स्थित केनिंग्स्टन म्यूजियम में रखे जानवरों के चित्रों पर इस पत्र को केंद्रित किया था। उन्होंने यह लिखा कि ठंडे और शीतग्रस्त क्षेत्रों के जंतु अपने वातावरण के अनुसार ही शुभ्र होते हैं, जबकि गर्म क्षेत्रों के जंतु और वनस्पतियाँ विभिन्न रंगों की होती हैं। उनकी इस धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक शोध हो या न हो, लेकिन बाल सुलभ जिज्ञासा को शांत करने की उनकी यह शैली अद्भुत थी।


इतिहास की उनकी अवधारणा, तिथिक्रम का विवरण और घटनाओं का वर्णन ही नहीं है। विश्व इतिहास की एक झलक, जो 1934-35 में प्रकाशित हुई, में उन्होंने एशिया के साम्राज्यों के उत्थान और पतन पर विहंगम दृष्टि डाली है। अर्नाल्ड टॉयनाबी के ‘इतिहास एक अध्ययन’ की तर्ज पर उन्होंने सभ्यताओं के उत्थान और पतन को समझने और समझाने का प्रयास किया है, जिससे उनके अध्येता होने का प्रमाण मिलता है। कोई भी व्यक्ति जो विश्व इतिहास की रूपरेखा समझना और जानना चाहता है और संदर्भों की शुष्क वीथिका से बचना चाहता है, वह इसका अध्ययन कर सकता है।


1934 में ही उनकी आत्म कथा ‘मेरी कहानी’ प्रकाशित हुई। आत्मकथा लेखन एक आधुनिक साहित्य विधा है। पहले खुद के बारे में कुछ कहना और उसे प्रचारित करना आत्ममुग्धता समझा जाता था, इसीलिए पूर्ववर्ती अनेक महान साहित्यकारों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं होता है। जो मिलता है, वह या तो किंवदंति के रूप में या समकालीनों द्वारा दिए विवरण के रूप में दी है। स्वयं को पारदर्शिता के साथ देखना बहुत कठिन होता है, वह भी तब, जबकि मनुष्य सार्वजनिक जीवन में हो। पर अपनी आत्मकथा में पं. नेहरू ने जो भी लिखा है, वह उनकी खुद की ईमानदार विवेचना है। आप यूँ भी कह सकते हैं कि उनकी आत्मकथा का काल 1932 में ही ख़त्म हो जाता है, जबकि उनके जीवन के अनेक विवाद इस काल के बाद हुए। सुभाष बाबू के साथ विवाद, भारत विभाजन और प्रधानमंत्री काल के अनेक निर्णय, जिनको लेकर उनकी आलोचना होती है, के समय की कोई आत्मकथा लिखी ही नहीं गयी। संकट काल और आलोचना से घिरे होने पर, स्वयं को कैसे बिना लाग लपेट के प्रस्तुत किया जाय, इसमें आत्मकथा लेखक की कुशलता और ईमानदारी दोनों ही निहित होती है।


समीक्षकों की दृष्टि में


लन्दन टाइम्स ने पं. नेहरू की पुस्तक मेरी कहानी को उस समय की पठनीय पुस्तकों के वर्ग में रखा था। इस पुस्तक में उनके परिवार, उनकी पढ़ाई और 1933 तक के आज़ादी के लिए किये गए उनके संघर्षों का विवरण मिलता है। उस काल के शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक एक सन्दर्भ और स्रोत का भी काम करती है।


उनकी सबसे परिपक्व कृति, भारत एक खोज है। 1944 में यह पुस्तक प्रकाशित हुई। भारतीय मनीषा, सभ्यता और संस्कृति का अद्भुत सर्वेक्षण इस पुस्तक में है। पूर्णतः अंग्रेज़ी परिवेश में पले और पढ़े लिखे नेहरू द्वारा वेदों से लेकर पुराणों तक का अध्ययन, उनके अंदर छिपे प्राच्य दर्शन को दिखाता है। इस पुस्तक में भारत की एक यात्रा है, इतिहास है, परम्पराएँ हैं और संस्कृति की जीवंतता है। नेहरू के जीवनीकार एम जे अकबर इस पुस्तक की लेखन शैली की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। वह बताते हैं कि उनकी दोनों पुस्तकें ‘विश्व इतिहास की एक झलक’ और ‘भारत एक खोज’ उन की लेखकीय प्रतिभा को ही नहीं, बल्कि उनके पांडित्य को भी प्रदर्शित करती हैं।


इतिहासकार विपिन चंद्र ने उनकी आत्मकथा को आंशिक इतिहास और इतिहास को आंशिक आत्मकथा माना है। उनके मुताबिक नेहरू ने भूत की त्रुटियों को वर्तमान के सन्दर्भ से जोड़ते हुए वर्तमान को आगाह किया है, तो वर्तमान में ही भूत ढूँढने की कोशिश की है। उन्होंने इतिहास को एक जीवंत अंतहीन यात्रा की तरह प्रस्तुत किया है।


नेहरू इतिहास के विद्यार्थी नहीं थे और न ही वह कोई इतिहासकार थे। अतीत को उन्होंने अपनी नज़र से देखा और उसे प्रस्तुत कर दिया। वह स्वयं अपनी पुस्तक में कहते हैं कि अतीत मुझे अपनी गर्माहट से स्पर्श करता है और जब वह अपनी धारणा से वर्तमान को प्रभावित करता है तो मुझे हैरान भी कर देता है। इतिहासकार ई एच कार ठीक ही कहते हैं, सच में इतिहास वही लिख सकते हैं, जिन्होंने इसकी दिशा को बदलते हुए महसूस किया हो। नेहरू खुद इतिहास के दिशा प्रवर्तक रहे हैं। इतिहास लिखना अतीत के दाय का निर्वहन भी है। उन देशों का इतिहास लेखन कठिन होता है, जहां संस्कृति और सभ्यता की एक विशाल और अनवरत परंपरा रही हो। एशिया के दो महान देशों चीन और भारत के साथ यह समस्या अक्सर इनके इतिहास लेखन के समय खड़ी हो जाती है। ऐसा इसलिए कि न केवल स्रोत और सामग्री की प्रचुरता है, बल्कि अनवरतता भी है। अपने इतिहास लेखन को नेहरू अतीत के प्रति अपना कर्तव्य भी मानते हैं। हम कहाँ से आये हैं और हम कौन है कि आदिम दार्शनिक जिज्ञासा ही नेहरू के इतिहास लेखन का प्रेरणास्रोत रहा है और इसी का प्रतिफल है ‘द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया‘, या ‘भारत एक खोज’। अपनी इतिहास की अवधारणा को वह इन शब्दों में व्यक्त करते हैं—‘A study of history should teach us how the world has slowly but surely progressed…man’s growth from barbarism to civilisation is supposed to be the theme of history.’

लोकतांत्रिक और समाजवादी विचारधारा के आग्रही नेहरू

जवाहर लाल नेहरू के समाजवाद की अवधारणा माक्र्सवादी समाजवाद से अलग थी, हालांकि माक्र्स ने उन्हें प्रभावित भी किया था और रूस की सोवियत क्रान्ति के महानायक लेनिन के वे प्रशंसक भी थे, पर इस पाश्चात्य राजनीतिक अवधारणा के बावज़ूद प्राचीन वांग्मय के प्रति उनका रुझान, उनकी पुस्तकों, विशेषकर भारत एक खोज में खूब दिखा है। वह सभ्यताओं का उद्भव एक सजग जिज्ञासु की तरह खोजते हैं, फिर उसे आधुनिक काल से जोड़ते हैं। वह किसी वाद विशेष के कठघरे में नहीं रुकते हैं पर भारतीय दर्शन के मूल समष्टिवाद को लेकर बढ़ते रहते हैं। भारतीय संस्कृति के वह परम प्रशंसक ही नहीं, बल्कि वे दुनिया की सबसे जीवंत संस्कृति के रूप में इस पर गर्व भी करते हैं। यह उनकी विशाल हृदयता और गहन दृष्टि का परिचायक है।


भारत एक खोज में नेहरू लिखते हैं कि पांच हज़ार साल से प्रवाहित हो रही अविच्छिन्न संस्कृति के काल में डेढ़ सौ साल का ब्रिटिश काल एक दुखद कालखंड है, पर उससे संस्कृति की ऊर्जस्विता और ओजस्विता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।


इतिहास में घटनाओं से अधिक व्यक्तित्वों ने उन्हें प्रभावित किया है। व्यक्तित्व घटनाएं गढ़ते हैं या व्यक्तित्व घटनाओं की उपज हैं, इस पर भी बौद्धिक विमर्श हो सकता है, पर दोनों ही एक दूसरे से जुड़े हैं। उन्नीसवीं सदी के इतिहास लेखन में वे व्यक्तित्व की प्रतिभाओं से चमत्कृत होते हैं। वह मुस्तफा कमाल पाशा से बहुत प्रभावित दिखते हैं। उन्होंने इतिहास को वैश्विक समग्रता से देखा है, इसलिए वे एक वैश्विक गाँव का इतिहास प्रस्तुत करते हैं। एक देश की घटनाएं दूसरे को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकती हैं। पूरी दुनिया के एक गांव में बदल जाने की प्रक्रिया उन्नीसवीं सदी से ही शुरू हो गयी थी।


नेहरू का एक इतिहास के विद्यार्थी या इतिहासकार के रूप में मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। उन्होंने इतिहास के छात्रों और शोधार्थियों के लिए इतिहास नहीं लिखा है। ‘विश्व इतिहास की एक झलक’ विश्व इतिहास की कोई टेक्स्ट बुक नहीं है। पर यह विश्व की महान संस्कृतियों के प्रवाह को दिखाती है। ‘मेरी कहानी’ उनकी आत्म कथा तो है, पर वह आज़ादी के संघर्ष के एक कालखंड का इतिहास भी समेटे है। ‘भारत एक खोज’ भारत की एक दार्शनिक यात्रा है। हज़ारों साल से अस्मिता पर जो हमला हुआ था, धर्म और समाज में जो विकृतियां आ गयीं थीं, उन सब के बावज़ूद भी, सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति की अकलुषित आत्मा की खोज है यह पुस्तक। इसमें, धर्म है, दर्शन है और इतिहास है। नेहरू के सारी कृतियों में यह सबसे गंभीर और परिपक्व पुस्तक है।

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