सावरकर के मन में भरा था गांधी के प्रति नफरत का जहर, आजादी के आंदोलन से निकालकर नाथूराम का किया ब्रेनवॉश

नई किताब : गांधी’ज असैसिन; द मेकिंग ऑफ नाथूराम गोडसे एंड हिज आइडिया ऑफ इंडिया – धीरेंद्र के झा

धीरेन्द्र झा की यह नयी किताब महात्मा गांधी के हत्यारों के बारे में अब तक प्रचलित कई मिथक तोड़ती है। दो बातें खास हैं। एक तो यह कि क्या नाथूराम शुरू से ही गांधी से इतनी नफरत करता था कि उनकी हत्या करने की हद तक चला गया? और दूसरा यह कि क्या वह सचमुच आरएसएस का सदस्य नहीं था? किताब इन दोनों ही मिथकों को नकारती है। धीरेन्द्र झा एक नहीं, कई प्रमाण देते हैं कि नाथूराम के आरएसएस छोड़कर हिन्दू महासभा से जुड़ जाने की बात एक कोरी गल्प है। वहीं, वे यह भी बताते हैं कि नाथूराम एक साधारण, शांत और विनयशील युवक था, जो गांधी जी द्वारा चलाये जा रहे आंदोलनों में शामिल था। गांधीजी के आह्वान पर उसने मैट्रिक परीक्षा में शामिल न होने का फैसला किया था। सावरकर उस समय लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के नुकसान समझा रहे थे। कालापानी से लौटकर अंग्रेजों से 60 रुपये महीने की पेंशन पाने वाले सावरकर लोगों को अंग्रेजों से मिलकर रहने के फायदे बता रहे थे। इन्हीं दिनों नाथूराम उनके हाथ लगा और उन्होंने लंबा समय लेकर बाकायदे उसका ब्रेनवॉश किया। उन्होंने उसे न केवल आंदोलन से बाहर निकाला, बल्कि महात्मा गांधी के खिलाफ उसके मन में नफरत का वह जहर भी भरा, जो उनके अपने मन में पहले से ही भरा हुआ था।

                 प्रेम प्रकाश

नाथूराम गोडसे को सावरकर से सबसे पहले किसने मिलवाया, इसके बारे में कोई विशेष रिकॉर्ड नहीं मिलता। गोपाल गोडसे के मुताबिक, 1929 में सावरकर के रत्नागिरी आने के बाद गोडसे और सावरकर के बीच धीरे धीरे एक गुपचुप संबंध विकसित हुआ। गोपाल बताता है कि सावरकर रत्नागिरी आने के बाद जहाँ पहली बार रुके थे, यह संयोग की बात थी कि हमारे रहने की व्यवस्था भी वहीं हुई थी।

गोडसे जिस समय वयस्क हो रहा था, उस समय तक सावरकर का नाम प्रसिद्ध हो चुका था, नाथूराम के सावरकर का अनुयायी होने सम्बन्धी दस्तावेज 1930 के आसपास से मिलते हैं. उस समय वह 19 वर्ष का था, जब पहली बार सावरकर से मिला था. उस समय वह बेहद दुबला पतला, लेकिन सावरकर की तुलना में काफी स्वस्थ युवक था, जो उनसे एक बालिस्त ऊंचा था। अपने व्यवहार में संयमित नाथूराम, शांत और विनयशील स्वभाव का था. अंडमान में एक दशक बिताने के बाद लौटे सावरकर के क्रांतिकारी स्वरूप और उनके कद से वह मंत्रमुग्ध था।
उस समय तक उसकी राजनीतिक समझदारी पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी. यद्यपि उसने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ कांग्रेस के नेतृत्व वाले जुलूसों और विरोध-सभाओं में भाग लेना शुरू कर दिया था और उनमें से कुछ को संबोधित भी करने लगा था. उसने अभी तक अपने भविष्य के बारे में अपना मन नहीं बनाया था। इसके बावजूद वह खुद को स्वतंत्रता आंदोलन में झोंकने के लिए तैयार लग रहा था।


नाथूराम का सावरकर का अनुयायी होना और कांग्रेस के नेतृत्व वाला आन्दोलन छोड़कर हिंदुत्व के सिपाही में बदल जाना, कोई सहज हृदय परिवर्तन जैसी बात नहीं थी। अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत में उसकी राजनीतिक अवधारणा सांप्रदायिक नहीं थी, इसलिए सावरकर के विभाजनकारी और साम्प्रदायिक विचारों के प्रति वह कतई आकर्षित नहीं था।

नाथूराम ने बाद में बताया था कि जब मैंने स्कूलों और कॉलेजों का बहिष्कार करने के गांधी के आह्वान के जवाब में मैट्रिक परीक्षा में दोबारा शामिल नहीं होने के अपने फैसले के बारे में सावरकर को बताया, तो वे मुझसे नाराज़ हुए और कहा कि पढ़ाई लिखी जारी रखना बहुत महत्वपूर्ण है. उन्होंने मुझे अपना निर्णय बदलने के लिए तरह-तरह से समझाया।

देखें तो एक बुज़ुर्ग के बतौर किसी युवा को दी गयी इस सलाह में कोई बुराई नहीं थी, लेकिन ऐसा था नहीं. जैसा कि पूरा देश उस समय महसूस कर रहा था, सावरकर हर पल हरसंभव इस प्रयास में लगे रहते थे कि आज़ादी के आन्दोलन की उथल पुथल से अपने लोगों को बचाकर रखा जाय और जो अपने साथ न हो, उसे अपनी तरफ मिलाने की कोशिश की जाय. नाथूराम ने अपने फैसले से पीछे हटने से इनकार कर दिया और इस प्रकार आज़ादी के आंदोलनकारियों के खेमे से निकालकर उसे अपनी तरफ मिलाने की सावरकर की पहली खुली बोली खुद नाथूराम ने ही विफल कर दी। उसके इस प्रतिरोध से पता चलता है कि शुरुआत में वह अपने और अपने आसपास के वातावरण के प्रति कितना जागरूक था! लेकिन उस समय शायद वह किसी ऐसे व्यक्ति से नजदीकियां हासिल करना चाहता था, जिसे खासकर चितपावन ब्राह्मणों, पेशवाओं और महाराष्ट्र के पहले के ब्राह्मण शासकों का विश्वास हासिल हो.

नाथूराम खुद भी चित्तपावन ब्राह्मणों के कुल में ही पैदा हुआ था, जो खुद को पेशवाओं का उत्तराधिकारी मानते थे। इस जातिबंधन के पारम्परिक संस्कार अन्य हिन्दुओं पर श्रेष्ठता के थे. उसके मन में भी इस श्रेष्ठता के बीज मौजूद थे. चितपावन ब्राह्मण, भारत के दुर्लभ ब्राह्मण समुदायों में से एक हैं। परंपरागत रूप से ब्राह्मणों को प्राप्त विशेषाधिकार तो इनके पास के ही, युद्ध के मैदान पर इनकी वीरता का एक लंबा इतिहास भी रहा है। मुगलों और पठानों के खिलाफ संघर्ष की उनकी गाथा इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। इस गौरवशाली अतीत को याद करके चितपावनों में अपने इतिहास की पुनर्व्याख्या करने की प्रेरणा होने लगी थी, हिंदू राष्ट्रवाद की जरूरतों का जन्म यहीं से होता है. उन्होंने खुद को मुस्लिमों के खिलाफ हिंदू प्रतिरोध के समर्थक के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया। नाथूराम के लिए भी गर्व की यह भावना कोई अजनबी चीज़ नहीं थी. सावरकर, हिंदू पुनरुत्थान की इस गर्वीली भावना से नौजवानों को उकसाने में लगे थे। पूना से जुड़े होने के कारण नाथूराम में भी वे इसकी संभावना देख रहे थे. पूना को वे पारंपरिक चितपावन हिंदू राष्ट्रवादियों के मंचन क्षेत्र के रूप में देखते थे। पूना में, जहाँ वे रहते थे, वहां से कुछ ही दूर पहाड़ियों में कभी शिवाजी का जन्म हुआ था, जिन्होंने मुगल सम्राट औरंगजेब की सेना के खिलाफ छापामार युद्ध किया था। शिवाजी मराठा योद्धा थे, लेकिन उनके उत्तराधिकारी, प्रधान मंत्री या पेशवा, चितपावन ब्राह्मण थे। पूना उन सबकी गतिविधियों का केंद्र था। शिवाजी के बाद पेशवाओं ने मुगलों, पठानों और अंग्रेजों का भी सामना किया था।

पूना के चितपावनों ने अंग्रेजों का विरोध करने वाले नेताओं का वर्गीकरण कर डाला था. तिलक जैसे नेताओं को जहाँ वे उग्रवादी नेता मानते थे, वहीं 1897 में पूना के ब्रिटिश प्लेग आयुक्त डब्ल्यू सी रैंड की हत्या में शामिल चापेकर बन्धुओं, दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण हरि चापेकर और वासुदेव हरि चापेकर को क्रांतिकारी नेता मानते थे। नाथूराम एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से था. उसके पूर्वज पूना के पास चित्तपावन ब्राह्मणों के उक्सान गांव के पुजारी वर्ग से थे। परिवार की वंशावली यह बताती है कि सत्रहवीं शताब्दी के अंत में यह परिवार महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले के हरिहरेश्वर से आकर पूना के इस गांव में बस गया था।

महात्मा गांधी की हत्या के आरोप में कठघरे में नाथूराम गोडसे (बाएं, आगे की पंक्ति) और वीडी सावरकर (बाएं से दूसरे, तीसरी पंक्ति)

अपने पूर्वजों की तरह ही नाथूराम के पितामह वामन राव अपने बेटे को आधुनिक शिक्षा देने के इच्छुक थे। जैसे ही उनके बेटे यानि नाथूराम के पिता विनायक राव ने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की, उन्होंने पूना में एक समानांतर प्रतिष्ठान स्थापित किया। विनायक राव मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने वाले परिवार के पहले सदस्य थे। इसके बाद, उन्होंने डाक विभाग में सरकारी नौकरी हासिल की। चूंकि उनका स्थानांतरण होता रहता था, इसलिए उन्होंने पैत्रिक मकान और खेती का एक टुकड़ा होते हुए भी अपना गाँव छोड़ दिया।

नाथूराम की यह पृष्ठभूमि, एक सच्चे चितपावन ब्राह्मण के लिए सहज और स्वाभाविक रास्ता क्या हो सकता है, यह समझाने में सावरकर की सहायक बनी। वैसे अपने अतीत और अपनी जाति के बारे में उसके विचार कट्टर नहीं थे, लेकिन सावरकर द्वारा लगातार उसका ब्रेनवाश किये जाने से वह एक द्वंद्व के बीच झूलने लगा. मुसलमानों से लड़ने के लिए हिंदुओं को तैयार करने के सावरकर के निरंतर अभियान से उसका झुकाव, गांधी जी द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ जारी आन्दोलन की भावना से कमजोर पड़कर, समझौतावादी दृष्टिकोण में परिवर्तित होने लगा। आखिरकार सावरकर की कोशिशें कामयाब हुईं और नाथूराम ‘अपनों’ के बीच अधिक सहज महसूस करने लगा और उनकी पुनरुत्थानवादी योजनाओं में शामिल हो गया।

नाथूराम ने बाद में दावा भी किया कि मेरे पिता को डर था कि मेरी गतिविधियों से उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है, इसलिए उन्होंने मुझसे ऐसे किसी भी आंदोलन में भाग नहीं लेने के लिए कहा, जो कानून तोड़ता है।वे नहीं चाहते थे कि मेरे किसी भी काम से सरकारी अधिकारी नाराज़ हों. यह कहकर वह जताता था कि आज़ादी के आन्दोलन से दूर होना तो उसकी नियति ही थी. हालांकि, सावरकर बहुत सतर्क चालें चल रहे थे। अंग्रेजों के प्रति अपने सॉफ्ट कॉर्नर की भावना छुपाते हुए वे देश में लोकतंत्र लाने की बात तो करते थे, लेकिन अपने भीतर की असली भावना प्रकट करने से कतराते रहे.

यह वह समय था, जब गांधी जी रूढ़िवादी और प्रगतिशील, दोनों तबकों को एक साथ लाने के अपने राष्ट्रव्यापी मिशन में लगे हुए थे। लेकिन सामाजिक परिवर्तन के उनके तरीके और लोगों से राजनीतिक सक्रियता की उनकी मांग रूढ़िवादियों को जरा भी पसंद नहीं आ रही थी. ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ लड़ाई को भारत के गांवों में ले जाकर समाज के निचले वर्गों, गैर-ब्राह्मणों और किसानों को वास्तविक हिंदू के रूप में खड़ा करके, गांधी उस अभिजात्य हिंदू वर्ग को चेतावनी दे रहे थे, जो अपने बीते सामन्ती वर्चस्व को पुनर्जीवित करने का सपना देख रहा था। यहां तक कि पितृसत्ता से लड़ने, महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक दिलाने और उपनिवेशवाद से लड़ने के उनके प्रयास ने भी ऐसे हिंदुओं के माथे पर बल ला दिए थे।

जिस बात ने इस अभिजात्य समूह की असुरक्षा की भावना को कई गुना बढ़ा दिया था, वह यह थी कि गांधी खुद को समाज सुधारक भी नहीं मान रहे थे. वे साफ़ साफ़ कह रहे थे कि मैं एक सनातनी हिंदू हूँ। कोई सनातनी हिन्दू होकर भी ब्राह्मणों के अधिपत्य को नुकसान पहुंचाए, इस बात के निहित संदेश उस समाज के भीतर ही भीतर कोलाहल पैदा कर रहे थे. गांधी की इस दृष्टि की कोई काट सावरकर के पास नहीं थी, तब वे इस प्रभाव को ही तोड़ने की जुगत में लग गये. सावरकर चाहते थे कि पारंपरिक सामाजिक अभिजात्य वर्ग के आधिपत्य को कोई नुकसान पहुंचाए बिना, हिंदुओं की विभिन्न जातियां एकजुट हों और इसके लिए उन्होंने हिन्दुओं के सामने मुसलमानों को राष्ट्रवाद के दुश्मन के रूप में पेश करना शुरू कर दिया।

इस जाल और इस जाल के खतरों को गांधी समझ रहे थे, इसीलिए वे हिंदू-मुस्लिम एकता पर लगातार जोर देते हुए, ब्राह्मणों को समाज के केंद्र से हटाकर, हिंदू धर्म को राजनीतिक रूप से फिर से परिभाषित करने की चेतावनी दे रहे थे। चितपावन ब्राह्मणों के लिए यह चिंता की बात थी, क्योंकि उनका सामाजिक वर्चस्व ही खतरे में था. सदियों पहले अपने खोए हुए गौरव को वापस पाने के लिए वे लालायित हो रहे थे, इसलिए गांधी के इस करिश्मे से वे एक सुरक्षित दूरी बनाकर चल रहे थे। इस घृणा के पीछे जातिवादी एंगल भी था। गांधी व्यापारियों और साहूकारों की जाति से थे और गुजरात से संबंधित थे. महाराष्ट्रियनों के एक वर्ग को गुजरातियों से हमेशा से आपत्ति थी. ब्राह्मण तो बनियों को षड्यंत्रकारी तक मानते थे।

30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद दुनिया में जो आक्रोश पैदा हुआ, उसे देखते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक फरवरी 1948 को बयान जारी करके कहना पड़ा कि हत्यारा नाथूराम गोडसे कभी भी किसी भी तरह आरएसएस से नहीं जुड़ा था। मुकदमे के दौरान नाथूराम ने अदालत में कहा था कि उसने हिंदू महासभा में शामिल होने के लिए आरएसएस छोड़ दिया था, क्योंकि वह हिंदुओं के अधिकारों के लिए लड़ना चाहता था। उसके इसी बयान से इस मिथक का जन्म हुआ कि वह आरएसएस का सदस्य नहीं था।

इस मिथक का अमेरिकी शोधकर्ता जे ए कुरेन जूनियर ने भी समर्थन किया था. उन्होंने 1951 में दावा किया था कि गोडसे 1930 में आरएसएस में शामिल हुआ था और 1934 में हिंदू महासभा का सदस्य बनने के लिए इसे छोड़ दिया था। नाथूराम के आरएसएस छोड़ने के इस मिथक को अब एक ऐतिहासिक तथ्य बना दिया गया है।

धीरेंद्र झा की किताब से पता चलता है कि नाथूराम के बारे में यह मिथक एक झूठ था, जिसे आरएसएस ने अपने खूनी चरित्र को छिपाने के लिए गढ़ा और फैलाया था। आरएसएस के कुछ प्रचारकों के पास से मिले कुछ दस्तावेजों, गांधी की हत्या में भूमिका निभाने वालों के रिश्तेदारों के साक्षात्कारों और आत्मकथाओं की जांच करने के बाद धीरेन्द्र झा ने एक कालक्रम तैयार किया है, जिसमें दिखाया गया है कि गोडसे हमेशा से आरएसएस का आदमी था, यहां तक कि आरएसएस के आदमी के ही रूप में उसकी मृत्यु भी हुई।

1934 में आरएसएस छोड़ने की बात तो दूर, नाथूराम 1934 में ही इसमें शामिल हुआ था, जब उसके पिता सांगली शहर चले गए। यहीं नाथूराम एक करिश्माई ब्राह्मण के बी लिमये के प्रभाव में आया, जो 1932 में आरएसएस में शामिल हुए थे और 1934 में इसकी महाराष्ट्र इकाई के प्रमुख बनाए गए थे। लिमये ने आरएसएस का प्रचार कार्य संभालने के लिए नाथूराम को तैयार किया था। 1936 के अंत या 1937 के प्रारम्भ में लिमये ने उसे पुणे भेज दिया. वहां उसने आरएसएस के एक अन्य कार्यकर्ता के साथ साझे में सिलाई का धंधा शुरू किया. आरएसएस के लोगों ने अपनी वर्दियां उसके यहाँ सिलवानी शुरू कीं, इसलिए उसका यह धंधा फलने फूलने लगा.

नाथूराम के हिंदू महासभा में शामिल होने का पहला ठोस सबूत 1 अक्टूबर, 1938 को मिलता है, जब हैदराबाद के निजाम के खिलाफ हिंदुओं के धार्मिक अधिकारों को कुचलने के विरोध में नाथूराम ने हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं का नेतृत्व किया। 12 महीने के लिए जेल भेजे गए नाथूराम ने वहां जेल परिसर के भीतर भी शाखा का आयोजन किया। धीरेन्द्र झा ने जेल के एक अन्य कैदी वीजी देशपांडे के हवाले से लिखा है कि नाथूराम ने उनको भी आरएसएस की शपथ दिलाई थी।

जेल से रिहा होने के बाद भी नाथूराम ने आरएसएस नहीं छोड़ा और न ही कभी उसे हिन्दू महासभा में सक्रियता के लिए आरएसएस से निष्कासित किया गया। धीरेन्द्र झा एक दस्तावेज के बारे में बताते हैं, जिसमें दिखाया गया है कि नाथूराम ने एक दिसंबर 1939 को पुणे में आरएसएस के सदस्य के रूप में उसकी एक महत्वपूर्ण बैठक में भाग लिया था। अगले साल, उसने आरएसएस की बैठक का आयोजन किया, जिसके बाद उसे पदोन्नति दी गयी थी।

जुलाई 1940 में, अंग्रेज सरकार ने स्वैच्छिक संगठनों के सदस्यों के वर्दी पहनने और परेड आयोजित करने पर प्रतिबंध लगा दिया। इसने युवाओं में आरएसएस के प्रति आकर्षण थोड़ा कम कर दिया, क्योंकि खाकी शॉर्ट्स में अभ्यास, इन युवाओं के लिए बड़ा आकर्षण था। नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे ने इस प्रतिबंध को दरकिनार कर दिया, क्योंकि 1942 में वे हिंदू राष्ट्र दल का गठन करने वाले थे। हिन्दू राष्ट्र दल ने युवकों के सैन्य प्रशिक्षण का आह्वान किया था, जिसमें हवाई बंदूकें भी शामिल थीं।

हिंदू राष्ट्र दल का गठन 1939 में हिंदू महासभा के राष्ट्रीय मिलिशिया के गठन के प्रस्ताव के प्रतिक्रियास्वरूप बनने वाला था। हिंदू राष्ट्र दल पर भी संघ की छाप थी। मई 1942 में हिंदू राष्ट्र दल के पहले शिविर में स्वयंसेवकों और उनके हमदर्दों ने भागीदारी की, नाथूराम का यह बयान रिकॉर्ड में है। धीरेन्द्र झा ने गोडसे के मित्र एलजी थट्टे को यह कहते हुए उद्धृत किया है कि “हिंदू राष्ट्र दल का गठन आरएसएस के भरोसेमंद लोगों से ही हुआ था।” अगले साल हिंदू राष्ट्र दल के दूसरे शिविर के लिए आरएसएस ने अपने दो सर्वश्रेष्ठ शिक्षकों, पीजी सहस्रबुद्धे और डीवी गोखले को भेजा। लिमये ने हिंदू राष्ट्र दल के साथ-साथ एक बार फिर संघ की महाराष्ट्र इकाई का नेतृत्व किया। ‘द ब्रदरहुड इन सैफ्रोन’ में वाल्टर डी एंडरसन और श्रीधर डी दामले का दावा है कि लिमये 1943 और 1945 के बीच आरएसएस के सदस्य नहीं रहे थे। हालांकि धीरेन्द्र झा लिखते हैं कि लिमये का नाम उन वर्षों के दौरान आरएसएस के आयोजकों की सूची में शामिल था।

धीरेन्द्र झा कहते हैं कि नाथूराम की रोजमर्रा की पोशाक आरएसएस की वर्दी ही होती थी, जिसमें खाकी शॉर्ट्स, आधी बाजू की सफेद शर्ट और काली टोपी होती है। बाद के वर्षों में, उसने धोती पहनना शुरू कर दिया, लेकिन हिन्दू महासभा में काम करते हुए भी उसने आरएसएस की टोपी कभी नहीं बदली। एक हिंदू उपदेशक दादा महाराज ने पुलिस को गवाही भी दी थी कि नाथूराम 1947 में भी अपनी बैठकों के दौरान हमेशा आरएसएस की वर्दी पहनता था।

धीरेन्द्र झा लिखते हैं कि आरएसएस और हिंदू महासभा की सदस्यता काफी हद तक एक दूसरे से जुड़ी हुई थी, इससे पता चलता है कि फांसी से पहले नाथूराम ने आरएसएस की प्रार्थना के पहले चार वाक्य क्यों पढ़े थे। यह उसकी वफादारी थी कि अदालती मुकदमे के दौरान उसने गांधी की हत्या के अमिट दाग से आरएसएस को बचाया।

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