संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी तभी कारगर होगी, जब पत्रकारों को निर्भय होकर काम करने का मौक़ा मिले और ग़लत करने वालों के खिलाफ शिकायत का एक स्वतंत्र क़ानूनी फ़ोरम हो।
हाल ही में एक टेलीविज़न डिबेट में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा इस्लाम के पैग़म्बर मोहम्मद साहबके बारे में कही गयी कथित आपत्तिजनक बातों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया हुई और भारत सरकार को सफ़ाई देनी पड़ी। देश में अनेक स्थानों पर पुलिस और मुस्लिम समुदाय के लोगों के बीच हिंसक झड़पें हुईं, जिसको आधार बनाकर तमाम गिरफ़्तारियाँ हुईं, बुलडोज़र न्याय के तहत संदिग्ध आरोपियों के मकान ध्वस्त कर दिये गये।
इस पूरे घटनाक्रम में मीडिया का एक वर्ग एक बार फिर विलेन बनकर सामने आया है। इससे एक बार फिर यह तथ्य भी उजागर हुआ है कि विध्वंसक मीडिया को रेगुलेट करने के लिए वर्तमान में कोई कारगर व्यवस्था नहीं है। दूसरी ओर कई बार अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के लिए मीडिया संस्थानों और मीडिया कर्मियों को प्रताड़ित करने और उन्हें जेल भेजने की घटनाएँ सामने आती रहती हैं।
दोनों तरह के मामलों में अदालतें समय पर कारगर हस्तक्षेप नहीं कर पातीं। अदालत की प्रक्रिया में बहुत समय और धन खर्च होता है। यह काम सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि कई मामलों में सरकार पर ही ज़्यादती या पक्षपात का आरोप होता है, इसलिए प्रेस मीडिया को रेगुलेट करने के लिए एक स्वतंत्र और भरोसेमंद संस्था होनी चाहिए।
अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार स्वस्थ समाज और लोकतंत्र के लिए प्राणवायु का काम करता है। यह अभिव्यक्ति तभी तक प्राणवायु है, जब तक उसके पीछे नेकनीयती और लोक हित की भावना हो, लेकिन अगर इस प्राणवायु को ही ज़हरीला बना दिया जाए तो समाज का क्या होगा? निश्चित रूप से समाज में तनाव और विखंडन होगा। भारतीय दंड संहिता में मानहानि के आरोप से तभी बचत हो सकती है, जब कोई बात लोकहित में कही गयी हो, केवल तथ्यों का सत्य होना पर्याप्त नहीं है। इसी तरह मौलिक अधिकारों में भी तर्कसंगत प्रतिबंधों की व्यवस्था की गयी है।
अख़बारों अथवा प्रिंट मीडिया के लिए बहुत पहले प्रेस काउन्सिल की व्यवस्था की गयी थी। प्रेस काउन्सिल का वर्तमान स्वरूप भले ही बहुत अधिकार सम्पन्न न हो, लेकिन कम से कम एक ऐसा मंच तो है जहां शिकायत की जा सकती है। लेकिन पिछले नवंबर महीने से प्रेस काउन्सिल के चेयरमैन की नियुक्ति ही नहीं हुई है। दूसरे प्रेस काउन्सिल में जिन संगठनों को प्रतिनिधित्व प्राप्त है, वे भी अब पत्रकारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते, इसलिए उसमें भी बदलाव की ज़रूरत है।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, नया भस्मासुर
भारत में सबसे ज़्यादा चिंताजनक स्थिति इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानि टेलीविजन न्यूज़ चैनलों की है। टेलीविजन एक महँगा माध्यम है, जिसमें फ़ील्ड में समाचार संकलन का काम खर्चीला और श्रमसाध्य है। इसका रास्ता यह निकाला गया कि अब तमाम कार्यक्रम, रैली, जुलूस, सभा, प्रेस कॉंफ़्रेंस आदि लाइव दिखाया जाते हैं, जिसमें कोई संपादकीय सूझबूझ, फ़िल्टर या गेटकीपर की ज़रूरत नहीं होती। शाम का जो समय बचता है, उसमें एक ऐंकर और चार पांच पार्टी प्रवक्ता अथवा तथाकथित एक्सपर्ट बुलाकर लंबी लंबी डिबेट आयोजित करायी जाती है। इस पूरे सिस्टम को पैसे और सत्ता के बल पर हैक कर लिया जाता है। जानकार बताते हैं कि इन दिनों मीडिया के एक बड़े वर्ग का सारा एजेंडा राजनीतिक ज़रूरतों के हिसाब से सत्ता केंद्र से सेट होता है। ऐसे में निष्पक्ष और संतुलित समाचार विश्लेषण की अपेक्षा करना ही अपने आपको धोखा देना है। लेकिन यह तो अपेक्षा की ही जा सकती है कि ज़हर न परोसा जाये और यह सुनिश्चित करने के लिए कोई सिस्टम तो बनाना होगा।
वर्तमान में टेलीविजन न्यूज़ चैनलों को लाइसेंस देने से लेकर इन्हें रेगुलेट करने तक का काम सरकार ने अपने हाथ में ले रखा है। सरकार यह काम कैसे कर रही है, हम सब देख रहे हैं। पिछले चुनाव के दौरान तो सरकार के समर्थन में एक ऐसा ग़ैर क़ानूनी चैनल चल रहा था, जिसने लाइसेंस के लिए आवेदन भी नहीं किया था। चुनाव ख़त्म होते ही वह चैनल भी बंद हो गया।
कुछ चैनलों ने सेल्फ़ रेगुलेशन के लिए अपना संगठन बनाया है, लेकिन अनुभव बताता है कि यह संस्था सक्षम और कारगर नहीं है। इसलिए टेलीविजन न्यूज़ चैनलों को लाइसेंस देने से लेकर उनके कंटेंट पर नज़र रखने और शिकायत सुनकर तुरंत कारगर उपाय करने के लिए एक स्वतंत्र रेगुलेटर की स्थापना हेतु कानून संसद को बनाना चाहिए, जिसमें मीडिया के प्रतिनिधि भी शामिल हों।
कुछ दशक पहले तक ऐसे अनेक मीडिया मालिक थे, जो चैरिटी के तौर पर पत्र पत्रिकाएँ प्रकाशित करने के लिए प्रतिबद्ध थे और उसके लिए धन की व्यवस्था करते थे। ये लोग ऐसे संपादक नियुक्त करते थे, जिनका अपना स्वाभिमान, गरिमा और समाज में सम्मान होता था। ये संपादक अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता का उपयोग समाज हित, लोकतंत्र, सामाजिक सद्भाव और न्याय के लिए करते थे। ये संपादक इन्हीं सबके लिए प्रतिबद्ध पत्रकार नियुक्त करते थे। पूरे संपादकीय विभाग को वर्किंग जर्नलिस्ट क़ानून का संरक्षण हासिल था। यानी अट्ठावन वर्ष तक के लिए स्थायी नियुक्ति, प्राविडेंट फंड और ग्रेच्युटी आदि के साथ रिटायरमेंट बेनिफिट। किसी तरह के उत्पीड़न पर श्रम विभाग और लेबर कोर्ट का संरक्षण प्राप्त होता था। ये पत्रकार निर्भय होकर स्वतंत्र रूप से काम कर सकते थे। अब अख़बार और टीवी दोनों में पत्रकार कांट्रेक्ट पर रखे जाते हैं, जिन्हें कभी भी निकाल दिया जाता है। ऐसे माहौल में पत्रकार मालिक या सरकार अथवा प्रशासन के दबाव के सामने स्टैंड नहीं ले पाते। आवश्यकता इस बात की है कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों जगह काम करने वाले पत्रकारों को इस तरह का विधिक संरक्षण दिया जाये, जिससे वे अपने कर्तव्यों का समाज हित में ईमानदारी से पालन कर सकें और उन्हें मालिक अथवा शासन प्रशासन के दबाव के सामने झुकना न पड़े और न ही नाजायज तरह से किसी को सेवा मुक्त किया जा सके।
संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी तभी कारगर होगी, जब पत्रकारों को निर्भय होकर काम करने का मौक़ा मिले और ग़लत करने वालों के खिलाफ शिकायत का एक स्वतंत्र क़ानूनी फ़ोरम हो।
-राम दत्त त्रिपाठी