राजनीतिक प्रस्ताव
सर्वोदय समाज और सर्व सेवा संघ ने अपनी 75 वर्षों की लम्बी यात्रा में लोकतंत्र पर आये तमाम संकट देखे हैं और उनका सामना भी किया है। इन संकटों में ‘आपातकाल’ प्रमुख है। उस दौर का हमारा संघर्ष, भारत में लोकतंत्र की बहाली के काम में महत्त्वपूर्ण साबित हुआ, परन्तु वर्तमान में लोकतंत्र पर जो संकट आया दिख रहा है, वह अभूतपूर्व है। गौरतलब है कि यह केवल भारत तक ही सीमित नहीं है, यह वैश्विक संकट बन गया है। भारत के अहिंसक समाज को आज हिंसक बनाने की कोशिश की जा रही है। सत्य की जगह असत्य की स्थापना को जैसे राजकीय मान्यता मिल रही है। भारतीय लोकतंत्र में चुनाव को अर्थहीन बनाया जा रहा है। चुनी हुई सरकारें एक झटके में बदल दी जाती है और जनता अवाक् खड़ी रह जाती है। महात्मा गांधी ने कहा था- ‘‘सच्ची लोकसत्ता या जनता का स्वराज कभी असत्य अथवा हिंसक साधनों से नहीं आ सकता। कारण स्पष्ट और सीधा है, यदि असत्य और हिंसक उपायों का प्रयोग किया जायेगा, तो उसका स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि सारा विरोध या तो विरोधियों को दबाकर या उनका नाश करके खत्म कर दिया जायेगा।’’
राजनीतिक तौर पर हम लोग एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जिसमें आजादी के बाद पहली बार भारतीय संविधान, भारत का संघवाद, भारत का बहुलतावादी चरित्र, साम्प्रदायिक सौहार्द, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सब एक साथ संकट में नजर आ रहे हैं। भारत के संवैधानिक प्रावधानों की मनमाफिक विवेचना की जा रही है। इतना ही नहीं, प्राकृतिक संसाधनों और जनसामान्य की सम्पत्ति की चोरी को जैसे वैधता मिलती जा रही है। राष्ट्र में सम्पत्ति का संग्रहण कुछ गिने-चुने लोगों के पास होता जा रहा है। इसके प्रमाण हम रोज देख रहे हैं। भारत में बढ़ती आर्थिक असमानता इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। नई आर्थिक नीतियों की वजह से भारत में बेरोजगारी पिछली आधी शताब्दी में सर्वाधिक स्तर पर पहुंच चुकी है। युवा लगातार हतोत्साहित हो रहे हैं। गांधीजी तो मानते थे कि बिना रोजगार कोई भी व्यक्ति गरिमामय जीवन नहीं जी सकता। आज करोड़ों करोड़ लोग नैराश्य में डूबते जा रहे हैं। युवा आत्महत्या कर रहे हैं। भर्ती में होने वाले घोटालों के चलते उन्हें रोजगार नहीं मिल पा रहा है। सर्वाधिक रोजगार देने वाले छोटे उद्योग, जिनमें ग्रामोद्योग भी शामिल है, अब अन्तिम सांस ले रहे हैं।
इसके चलते भारत में धर्मान्धता का भयावह दौर शुरू हो गया है। अनेक ऐसे लोग, जो स्वयं को धर्म का प्रवर्तक कहते थे, आज हत्या व बलात्कार के मामलों में सजायाफ्ता होकर जेल में हैं। परन्तु दुखद यह है कि जनता के एक वर्ग का मोह उनसे नहीं छूट रहा है। ऐसे में पूजा और धर्म सम्बन्धी बापू के विचारों का प्रचार व प्रसार करना हम गांधीजनों के लिए अनिवार्य हो गया है। आज धर्म की आड़ में समाज के तमाम लोगों, वर्गों को भयभीत किया जा रहा है। इससे समाज में विभाजन बढ़ता जा रहा है। हमारे संविधान की मंशा के विपरीत आचरण हो रहा है। हमें याद रखना होगा कि बापू ने अपने रचनात्मक कार्यों में पहला स्थान ‘सर्वधर्म समभाव’ को ही दिया था। अल्पसंख्यक आज भयभीत हैं और ऐसा किसी एक ही वर्ग के साथ नहीं है।
वहीं भारतीय समाज के प्रमुख अंग अनुसूचित जाति व जनजातियों के मध्य भी लगातार असुरक्षा बढ़ रही है। नयी आर्थिक नीतियों और अंधाधुंध निजीकरण की वजह से उनके लिए आरक्षित नौकरियां कमोवेश खत्म हो गयी हैं। इन वर्गों में भी आक्रमकता और हताशा बढ़ती जा रही है। इस विषय पर गंभीर मनन करना अनिवार्य है।
भारत में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों में व्याप्त बर्बरता और नृशंसता सभी सीमाएं लांघ रही है। उनमें व्याप्त असुरक्षा हमारे लिए शर्म का विषय है। मनोरंजन के नये माध्यमों और सोशल मीडिया में बढ़ती अश्लीलता ने इसे और हवा दी है।
गौरतलब है कि भारत में लोकतांत्रिक, संवैधानिक संस्थाओं का वास्तविक स्वरूप अब खतरे में है। उनका मनचाहा और मनमाना दुरुपयोग हो रहा है। इनका एकपक्षीय होना भारतीय लोकतंत्र के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने को लेकर प्रयास चल रहे हैं। गांधी, विनोबा, नेहरू, जयप्रकाश, मौलाना आजाद जैसे मनीषियों की मेधा और भारत की महान सांस्कृतिक परम्परा से बने और विकसित हुए भारत नामक ‘विचार’ को नष्ट किये जाने के प्रयास चल रहे हैं। देश में फासीवाद और फासीवादी व्यवस्था दोनों पनप रहे हैं। देश में बढ़ती बेरोजगारी के बरक्स दो-चार उद्योगपतियों का आर्थिक ऊंचाई छू लेना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। हम इस प्रवृत्ति की निन्दा करते हैं। इससे हमें देश को बचाना होगा।
हम सब जानते हैं कि भारत कृषि पर निर्भर देश है। गांधीजी ने तो ग्रामस्वराज का न केवल नारा दिया था, बल्कि उसे पाने का तरीका भी समझाया था। आज भारत में कृषि और कृषक दोनों संकट में है। यदि यह संकट में रहते हैं, तो भारत भी संकट से बाहर नहीं आ सकता। कृषि और गांव बचेंगे, तो ही भारत बचेगा। किसान आन्दोलन के दौरान बहुत सी विषमताएं उभरकर सामने आयी थीं।
हम गांधीजनों को खादी के महत्त्व को पुनः स्थापित करना होगा। विनोबा ने खादी को बापू का सर्वश्रेष्ठ आविष्कार कहा है। खादी एक परिपूर्ण जीवनशैली है, यह महज एक वस्त्र भर नहीं है। गांधी विचार से ओतप्रोत अर्थव्यवस्था, जिसे स्व जेसी कुमारप्पा ने बहुत सुन्दरता से व्याख्यायित किया है, आशा की एकमात्र किरण उसमें ही नजर आ रही है। हमें उसको प्रचारित करना होगा।
आज बापू के विचारों को अप्रासंगिक बनाने के प्रयास जोर-शोर से चल रहे हैं। मुंह पर गांधी का नाम भले ही लिया जा रहा हो, लेकिन वास्तविकता इसके उलट है। इससे पहले सर्वोदय समाज और भारतीय समाज के समक्ष कभी भी इतनी विकट और भीषण परिस्थितियां नहीं थीं। आज मानवता और मानवीय मूल्य दोनों ही गंभीर संकट के दौर से गुजर रहे हैं। मानवाधिकारों पर खतरा मंड़रा रहा है।
हमें याद रखना होगा कि सर्वोदय समाज की स्थापना के समय जो विराट व्यक्तित्व हमारे साथ थे, वे और वैसे लोग अब नहीं हैं। अतएव हमें उनसे प्रेरणा लेकर सामूहिक प्रयास करने होंगे। बापू के एकादश व्रत प्रकाश-स्तम्भ की तरह हमारे साथ हैं। बापू के एकादश व्रत वैश्विक शांति व समृद्धि के लिए भी रामबाण औषधि हैं। विश्व के सबसे हिंसक समय में भी गांधी अहिंसा व सत्य से डिगे नहीं। आज वैश्विक परिदृश्य हिंसा, लूट और अनैतिकता से अटा पड़ा है। लूट पर आधारित शैतानी सभ्यता अब छटपटा रही है। यूक्रेन-रूस युद्ध नया वैश्विक संकट है। बापू कभी चुप नहीं बैठते। सेवाग्राम से उन्होंने हिटलर को दो पत्र लिखे थे, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने उन तक पहुंचने नहीं दिया था। आज भारत की भूमिका नगण्य होती जा रही है, जबकि सारी दुनिया गांधी-विचार को ही विकल्प मान रही है।
48वां सर्वोदय समाज सम्मेलन संकल्पित है कि वह मनुष्यता और भारतीय लोकतंत्र को बचाने के हर संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभायेगा और हमेशा की तरह धर्मनिरपेक्ष व लोकतंत्र में विश्वास रखने वालों का साथ देता रहेगा। निकट भविष्य में हम इसमें अपनी सक्रिय भूमिका को स्पष्ट करेंगे। हमारा मानना है कि सनातन मूल्य कभी नष्ट नहीं होते, परन्तु प्रसारित तो करते ही रहना पड़ता है। यह सम्मेलन लोकतंत्र, संविधान व धर्मनिरपेक्षता को बचाने के प्रत्येक संघर्ष में सहभागी बनने और पहल करने का संकल्प लेता है।
अंत में हम बापू के इस कथन को दोहराते हैं कि ‘मैं यह सिद्ध कर दिखाने की आशा रखता हूं कि सच्चा स्वराज थोड़े लोगों द्वारा सत्ता प्राप्त करने से नहीं, बल्कि सब लोगों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग का प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करने से हासिल किया जा सकता है।’ दूसरे शब्दों में स्वराज्य, जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके प्राप्त किया जा सकता है कि सत्ता का नियमन और नियंत्रण करने की क्षमता उसमें है।