इधर एक नयी बहस शुरू हो गयी है, कि हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की विजय हुई थी, न कि अकबर की। यह भी कहा जाता है कि अकबर को नहीं, महाराणा प्रताप को महान कहा जाना चाहिए। आरएसएस के मित्र अक्सर यह लांछन लगाते तो हैं कि वामपंथी इतिहासकारों ने देश का विकृत इतिहास लिखा है, पर वे यह नहीं बता पाते हैं कि किस लिखे इतिहास को प्रामाणिक मान कर पढ़ा जाय। मध्यकालीन भारत के इतिहास लेखन के जो श्रोत हैं, वे मूलतः उस समय के लिखे हुए ऐतिहासिक विवरणों पर आधारित हैं जिन्हें मुगल बादशाहों के दरबारी इतिहासकारों ने लिखा है या उनकी अपनी आत्मकथा में लिखे गए हैं। स्थानीय लेखकों ने भी इन युद्धों के बारे में लिखा है। बाद में ब्रिटिश इतिहासकारों ने उन पर अध्ययन किया और एक क्रमबद्ध इतिहास लिखा। इतिहास का पुनर्लेखन बराबर होता रहता है। आज भी इन काल खंडों पर, समय समय पर कोई न कोई इतिहास की पुस्तक आ ही जाती है।
अकबर महान था, यह कोई ऐतिहासिक मान्यता नहीं है, बल्कि विंसेंट स्मिथ ने अकबर पर अपनी किताब ‘अकबर द ग्रेट मुगल’ लिखी, उसमें उसने अकबर को महान कहा है। पर ऐसी धारणाएं बाध्यकारी नहीं होती हैं। कोई भी इतिहास का विद्यार्थी यदि इस धारणा से असहमत है तो वह तथ्यों के अध्ययन के आधार पर, अपनी धारणा बना सकता है। कुछ लोगों का बार बार यह ज़िद ठान लेना कि राणा प्रताप को महान कहा जाना चाहिए, अकबर को नहीं, यह बताता है कि हम प्रताप को अकबर से कमतर आंकने की मनोवृत्ति से ग्रस्त हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि देश और जनमानस में प्रताप जिस प्रेरणापुंज के रूप में गहरे बसे हैं, अकबर वहां कहीं नही है।
1 मई 1540 की तिथि, हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसी दिन भारतीय इतिहास के अत्यंत वीर पुरुष, महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। उदयपुर, राजस्थान का एक अत्यंत खूबसूरत शहर है। उस रेत के विस्तार के बीच प्रकृति ने झीलों का अनुपम उपहार इस नगर को दिया है। उदयपुर, चित्तौड़, एकलिंग महादेव और हल्दीघाटी कोई स्थान विशेष या पर्यटन डेस्टिनेशन ही नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय इतिहास की धरोहर हैं। ये स्थान वीरता और सर्वोच्च बलिदान की कहानियां समेटे हमें युगों से अनुप्राणित करते रहे हैं और करते रहेंगे। मुझे तीन बार उस क्षेत्र में जाने का अवसर मिला है। दो बार घूमने के उद्देश्य से और एक बार 2008 में राजस्थान विधान सभा के चुनाव के सम्बन्ध में। प्रताप की वीरगाथा और महान सिसौदिया राजवंश के दुर्दम्य आत्मसम्मान की कथाएं आज भी हम सबको रोमांचित करती रहती हैं।
प्रताप के पितामह राणा संग्राम सिंह, जिन्हें हम राणा सांगा के नाम से जानते हैं, ने आगरा के पास खानवा के युद्ध में जो 1527 में हुआ था, बाबर का जम कर मुक़ाबला किया था। बाबर कोई बड़ा योद्धा या बड़ा राजा नहीं था। मध्य एशिया के इलाक़ों में कभी कोई सल्तनत जीतते तो कभी गंवाते, कभी ईरान की और बढ़ने का इरादा कर के, फिर बलूचों के विरोध से डर कर वह भारत की ओर मुड़ गया। अपनी आत्मकथा में वह स्वीकार करता है कि इब्राहिम लोधी से वह डरा हुआ था। लेकिन उसके पास तोपें थीं, जो भारतीय सेना के लिए अनजान थीं। वक्त उसके साथ था। पानीपत का युद्ध उसने जीता और आगरा की और बढ़ आया। सांगा के बहादुरी के किस्सों से वह अनजान भी नहीं था। अंत में फतेहपुर सीकरी के पास खानवा के मैदान में 16 मार्च 1527 को उसका सामना राणा सांगा से हुआ। दोपहर तक युद्ध का परिणाम तय हो गया था। राणा सांगा लड़े और अत्यंत वीरता से लड़े, पर वे जीत नहीं पाये। खानवा के युद्ध ने देश में एक नये साम्राज्य की नींव रख दी। लोक में राणा सांगा के बारे में जो वीरगाथा सुरभित है, उसमें राणा सांगा को अस्सी घाव लगने की बात कही जाती है। बाबर ने राणा सांगा का शौर्य देखा और उस महान योद्धा से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। बाबर ने पूरे युद्ध का सार एक ही वाक्य में कह दिया, ‘राजपूत मरना जानते हैं, लड़ना नहीं!’
प्रताप इसी परम्परा के थे। नियति ने इन्हें अकबर से भिड़ा दिया। लेकिन अकबर बाबर की तरह राज्य की तलाश में भटकता हुआ एक सामंत नहीं था। उस तक आते आते मुग़ल साम्राज्य की नींव पुख्ता हो गयी थी। भारत के राजपूत राजवंशों और धर्म के मर्म को वह समझ गया था। उसकी धार्मिक उदारता का प्रतिफल भी उसको मिला। राजस्थान के लगभग सभी बड़े राजवंश उसके वर्चस्व को स्वीकार कर चुके थे। बस शेष था तो यही मेवाड़। मेवाड़ के राजा तो स्वयं एकलिंग महादेव है। एकलिंग शिव, सिसौदियों के कुल देवता हैं और वहां के महाराणा एकलिंग महादेव की ओर से ही शासन करते हैं, ऐसी मान्यता है वहां। जयपुर के राजा मान सिंह, जो मुग़ल सम्राट के सबसे करीबी और सेनापति थे, को इस मुहिम में लगाया गया। प्रताप को मनाने और वर्चस्व स्वीकार करने का दायित्व लेकर वह प्रताप से मिलने गए, लेकिन प्रताप अलग ही मिट्टी के बने थे। उन्होंने अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया। साम्राज्यवाद भी एक नशा है। जब चढ़ता है तो धरती भी छोटी पड़ जाती है। अब युद्ध अवश्यम्भावी हो गया था।
18 जून 1576 को अकबर के राज्यारोहण के बीस साल बाद यह युद्ध हुआ। बीस साल तो अकबर को विरासत में प्राप्त छिन्न भिन्न राज्य को संभालने में लगा था। खमनेर नामक स्थान के पास, दो पहाड़ों के बीच हल्दी जैसे रंग वाली मिट्टी के मैदान में मुग़ल और मेवाड़ सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। प्रताप की तरफ से हकीम खान सूर और मुग़ल सम्राट की ओर से राजा मान सिंह थे। युद्ध भीषण था, पर अंत तक अनिर्णायक ही रहा। इस युद्ध की भीषणता के बाद, मेवाड़ और दिल्ली के बीच कोई युद्ध नहीं हुआ। प्रताप बनवासी हो गए। भटक भटक कर सेना तैयार की। भामाशाह, जो मेवाड़ के बड़े सेठ थे, ने धन दिया। मेवाड़ को मुक्त कराने की अदम्य इच्छाशक्ति लिए प्रताप ने हार नहीं मानी। वे लड़ते रहे और अपनी मृत्यु तक उन्होंने अपनी रियासत का अधिकांश भाग मुक्त करा लिया था। हल्दीघाटी के उस युद्ध के बाद अकबर का प्रताप से कोई सीधा युद्ध नहीं हुआ था। इस युद्ध का आँखों देखा विवरण अब्दुल क़ादिर बदायूंनी, जो एक इतिहास लेखक था, ने ‘तारीख ए बदायूंनी’ में किया है। इस युद्ध में बींदा के झाला मान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की थी।
दिल्ली और मेवाड़ का युद्ध, दिल्ली के साम्राज्य विस्तार और मेवाड़ द्वारा अपने राज्य को बचाने का युद्ध था। यह युद्ध भारत को बचाने या भारत से मुग़ल वंश को उखाड़ने हेतु नहीं लड़ा गया था। साम्राज्य विस्तार दुनिया भर के राज्यों और राजाओं की मूल प्रवृत्ति रही है। अश्वमेध और राजसूय यज्ञ इस प्रवित्ति को शास्त्रीय रूप प्रदान करते हैं। अकबर बड़ा राजा था। प्रताप उसकी तुलना में छोटे राज्यों के राजा थे। राजस्थान की लगभग सभी राजपूत रियासतें दिल्ली के समक्ष नत मस्तक थीं। विरोध का स्वर अकेले मेवाड़ से उठा था। यह दो राजाओं के बीच होने वाली राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई थी, जो ऋग्वेद के सप्तम मंडल में उल्लिखित दाशराज युद्ध और देवासुर संग्रामों की श्रृंखला से लेकर आज तक चल रही है और आगे भी चलती ही रहेगी। यह युद्ध धर्म के लिए नहीं था। अकबर मुस्लिम था, पर मुग़ल सेनापति के रूप में मान सिंह थे। प्रताप हिन्दू थे पर मेवाड़ की सेना का सेनापति हकीम खान सूरी था। जो लोग इस युद्ध के कारण के रूप में हिन्दू मुस्लिम एंगल ढूंढने की कोशिश करते हैं, उन्हें इस युद्ध से जुड़े इतिहास का अध्ययन कर लेना चाहिए।
अक्सर कुछ लोग यह सवाल उठाते हैं कि अकबर को तो महान कहा जाता है, प्रताप को क्यों नहीं ? प्रताप को भी आप महान कहें, किसी को भी इस पर आपत्ति नहीं होगी। देश के शायद सभी बड़े शहरों में राणा प्रताप की मूर्तियाँ है, उनकी जयन्ती मनायी जाती है। उनकी भव्य मूंछों वाली तस्वीर मैं अपने गाँव घर में बचपन से देखता आया हूँ। प्रताप मेवाड़ी लोकगीतों में है और श्याम नारायण पाण्डेय के अमर वीर काव्य में भी हैं। अकबर को महान कह देने से प्रताप की महानता में कमी नहीं आ जाती। मैं मेवाड़ की आज़ादी के युद्ध या संघर्ष को भारत की आज़ादी का संघर्ष नहीं मानता हूँ। वह संघर्ष मेवाड़ के लिए था। भारत की राष्ट्रीय चेतना, जो हमारे स्वाधीनता संग्राम में और वह भी 1857 के विप्लव के बाद आयी, वह अकबर और प्रताप के समय थी ही नहीं। अकबर मेवाड़ को हड़पना और अपनी राजनीतिक आधीनता में लाना चाहता था। लेकिन प्रताप न झुके और न ही टूटे। न च दैन्यम् न पलायनम्! तीस साल की अवधि, हल्दीघाटी के युद्ध के बाद, उन्होंने मेवाड़ के जंगलों में बितायी। घास की रोटियाँ खायीं। पर प्रताप न टूटे, न झुके। अकबर की महानता के बखान से प्रताप की अनुपम वीरता के किस्से धुंधला नहीं जाते।
प्रताप क्षत्रिय थे। वे सिसौदिया राज वंश के थे। पर वह सिर्फ क्षत्रियों के ही पूज्य नहीं है। वह सम्पूर्ण देश की धरोहर हैं। उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने साम्राज्य विस्तार के नशे के विरुद्ध तलवार उठायी और अपनी प्रजा को आज़ादी के लिए अनुप्राणित किया। मेवाड़ के राज परिवार की ओर फिर कभी भी दिल्लीश्वरों या जगदीश्वरों ने आँख उठा कर नहीं देखा। 1911 के दिल्ली दरबार में जब ब्रिटेन के सम्राट, जॉर्ज पंचम आये थे और देश के सारे राजा महाराजा अपनी आन, बान और शान से उस दरबार में उपस्थित थे, तब भी उदयपुर के तत्कालीन महाराणा उस दरबार में नहीं गए थे और उनकी कुर्सी वहाँ खाली थी। वह कुर्सी आज भी उदयपुर के सिटी म्यूजियम में सुरक्षित है। आप उसे देख सकते हैं। मैंने उसे देखा है।
आज यह कहा जा रहा है कि राणा प्रताप ने युद्ध जीता था और अकबर हारा था। इस तर्क को मान भी लें तो कई तथ्य उठ खड़े होते हैं। जैसे, इस युद्ध मे अकबर शामिल ही नहीं था। अकबर की तरफ से उसके सेनापति राजा मान सिंह ने युद्ध में मुग़ल सेना का नेतृत्व किया था। युद्ध का निर्णय ही नहीं हुआ था। मध्ययुगीन साम्राज्य विस्तार के लिए हुए युद्धों में, युद्ध का निर्णय किसी एक पक्ष के राजा की हत्या या उसे बंदी बना लेने या आत्मसमर्पण कर देने से होता था। यहां प्रताप ने, न तो आत्मसमर्पण किया, न ही वे बंदी बनाये जा सके और न ही वे मारे गए। उन्हें मुग़ल फौजें पकड़ ही नहीं सकीं और युद्ध बिना हारजीत के ही अनिर्णीत रहा।
इन सब तथ्यों के विपरीत यदि यह मान भी लिया जाय कि इस युद्ध में प्रताप की विजय हुई थी तो फिर यह सवाल उठता है कि जीतने के बाद फिर प्रताप जंगल जंगल क्यों भटके? उन्होंने घास की रोटियां क्यों खायीं? 30 साल तक का बनवास क्यों झेला? प्रताप की महानता उनकी स्वतंत्रचेता जिजीविषा और दिल्ली के समक्ष न झुकने में हैं। जब राजस्थान के सारे रजवाड़े अकबर के साथ थे, तब प्रताप अपनी रियासत की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे थे। आज़ाद रहने की यही ललक, उन्हें देश के इतिहास में एक अलग स्थान पर रखती है। उन्हें महान कहें या न कहें, पर वे समकालीन इतिहास में सबसे दुर्घर्ष योद्धा थे। प्रताप और अकबर के बीच महान कौन है, इस पर बहस बेमानी है।
-विजय शंकर सिंह