घटते खेत और बढ़ते पेट

यदि कृषि योग्य भूमि का दायरा निरन्तर इसी प्रकार घटता रहा तो भारत की एक अरब चालीस करोड़ आबादी को एक दिन भुखमरी का शिकार बनना पड़ेगा और तब दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है, जो भारत जैसे विशाल देश को खाद्यान्न के संकट से उबारने में समर्थ हो सके।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया के तिरपन देशों को भुखमरी का शिकार बताया है। पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में इक्यावन लाख लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। बहुत वर्ष पहले विश्व खाद्यान्न भण्डार वाच संगठन ने यह बात उजागर की थी कि पूरी दुनिया में शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण कृषि योग्य भूमि का दायरा दिनोंदिन घटता जा रहा है, जिसके कारण पूरी दुनिया में तीन माह के लिए भी खाद्यान्न का भण्डार सुरक्षित नहीं रह गया है।

भारत में भी शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति, रेल, रोड, उद्योगों और हवाई अड्डों तथा नेशनल हाइवे का मकड़जाल बनाने से कृषि योग्य भूमि का दायरा जिस प्रकार घटता जा रहा है, उसके बारे में वैज्ञानिकों का मानना है कि सन् 2035 तक जिसके पास खुद की कृषि भूमि शेष रह जायेगी, उसी को अन्न नसीब हो पायेगा।

राजमार्गों के लिए बेतहाशा हो रहा कृषि भूमि का अधिग्रहण

उप्र की सबसे अधिक उपजाऊ, तीन फसलों वाली कृषि भूमि पर गंगा एक्सप्रेस वे के निर्माण हेतु मेरठ से इलाहबाद तक 594 किमी की दूरी तय करने के निमित्त उत्तर प्रदेश सरकार ने 36230 करोड़ का बजट स्वीकृत कर दिया है। केवल रायबरेली जिले में बारह हजार किसानों से तीन हजार तीन सौ बीघे भूमि अधिगृहीत की जा चुकी है। बेरोजगारी के इस माहौल में लाखों किसानों से आजीविका का मुख्य साधन कृषि भूमि का अधिग्रहण करना प्रदेश में बेरोजगारी में वृद्धि ही लायेगा। यह बात अलग है कि किसानों को भूमि का वाजिब मूल्य या लुभावना मूल्य दिया जा रहा है, किन्तु केवल कृषि कार्य में दक्ष होने के कारण किसान का अन्य किसी धन्धे में सफल होना मुश्किल प्रतीत होता है।

आजादी बचाओ आन्दोलन के प्रणेता स्व बनवारीलाल शर्मा, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गणित विभागाध्यक्ष रहे थे, ने सन 2011 में गंगा एक्सप्रेस वे के विरोध में जन चेतना यात्रा निकाली थी। उनका कहना था कि जब जीटी रोड को फोर लेन में परिवर्तित किया जा चुका है, तब इस गंगा एक्सप्रेस हाईवे की कोई जरूरत नहीं है।

गंगा एक्सप्रेस हाईवे जो जमीन से पाँच-सात मीटर ऊंचा बनेगा, उसके निर्माण में जो आसपास की मिट्टी से भराई की जायेगी, उसके कारण आसपास के खेतों में जलभराव की भी समस्या खड़ी होगी, जिससे कृषि योग्य भूमि का उत्पादन प्रभावित होगा।
कृषि प्रधान देश होने के नाते यदि भारत में कृषि को प्रथम वरीयता प्रदान की जाय तो यह कदम विश्व की सारी आठ अरब जनसंख्या का पेट पालने में काफ़ी मदद कर सकता है। यदि कृषि योग्य भूमि का दायरा निरन्तर इसी प्रकार घटता रहा तो भारत की एक अरब चालीस करोड़ आबादी को एक दिन भुखमरी का शिकार बनना पड़ेगा और तब दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है, जो भारत जैसे विशाल देश को खाद्यान्न के संकट से उबारने में समर्थ हो सके। यदि ऐसी परिस्थिति में हमें किसी से कटोरा लेकर अन्न की भीख मांगनी पड़ी, तो वह स्वाभिमान को गिरवी रखने के समान होगा। उल्लेखनीय है कि सत्तर के दशक में एक बार अमेरिका की बम‌बारी से वियतनाम के सैकड़ों बच्चों की मौत हो गयी, जिसकी दुनिया के तमाम देशों ने तीव्र निन्दा की थी। भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने भी निन्दा की थी। अमेरिका को यह सहन नहीं हुआ। इन्दिरा गांधी ने कहा कि जब अन्य देश निन्दा कर रहे हैं, तो ऐतराज केवल हमारे ऊपर क्यों? इस पर अमेरिका ने कहा कि अन्य देश भारत की तरह अमेरिकी गेहूँ (पीएल-480) नहीं खा रहे हैं।
भारत में खेती का धंधा जुए का खेल माना जाता है, क्योंकि खेती प्राकृतिक आपदाओं की दास मानी जाती है। कभी अति वृष्टि, कभी सूखा, कभी पाला, कभी ओला, कभी आंधी, तो कभी बारिश खेती को प्रभावित करती रहती है।

हमारे देश की आबादी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, अर्थात पेट बढ़ते जा रहे हैं, जबकि खेत अर्थात कृषि भूमि घटती जा रही है। हमें वर्ष 1971 के दिन नहीं भूलने चाहिए, जब गेहूँ का भण्डार कम होने के कारण प्रदेश सरकार ने किसानों पर जबरन लेवी लगाकर गेहूं की वसूली की थी और हजारों किसानों को विरोध स्वरूप जेल जाना पड़ा था। अभी हाल में सरकार की तरफ से अस्सी करोड़ जनता को मुफ्त पाँच किलो गेहूँ वितरण करने के दौरान गेहूं की कमी महसूस होने पर गेहूँ के स्थान पर चावल देना पड़ा था।
विकास की अंधी दौड़ का परिणाम हम उत्तराखण्ड के जोशीमठ में देख रहे हैं। कृषि भूमि का दायरा घटते जाना देश की विशालकाय आबादी को भरपेट भोजन मुहैया कराने की दिशा में महान संकट बन सकता है और इस संकट के बादल घिरने की चेतावनी मिलने लगी है। वैज्ञानिकों द्वारा खाद्यान्न के आसन्न संकट की ओर जो चेतावनी दी जा रही है, उसकी अनदेखी के परिणाम भयंकर होंगे। समय रहते यदि हम नहीं चेते, तो फिर पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत वाली कहावत चरितार्थ होगी। देश और प्रदेश की सरकारों को अपनी विशाल जनसंख्या को ध्यान में रखकर कृषि योग्य भूमि को विकास की अंधी दौड़ से बचाने हेतु हर संभव उपाय सोचना और करना चाहिए। जिस प्रकार जल ही जीवन है, उसी प्रकार धरती माँ भी जीवन है। प्रधानमंत्री ने धरती बचाओ का जो नारा दिया है, वह कृषि भूमि के लिए कितना सार्थक होगा, यह समय ही बतायेगा।

-रवीन्द्र सिंह चौहान

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