सर्वोदय आंदोलन की चुनौतियां

मैं सर्वोदय आंदोलन से सांगठनिक तौर पर कभी जुड़ा नहीं रहा। मैं सम्पूर्ण क्रांति धारा और सर्वोदय धारा में फर्क करता हूँ। ज्यादा से ज्यादा इन्हें एक दिशा की चाह रखने वाली दो उपधाराओं के रूप में देख पाता हूँ। इस कारण यह एक पड़ोसी, एक मित्र की कोशिश है, एक सांगठनिक या पारिवारिक सदस्य का आंतरिक वक्तव्य नहीं। इसकी अपनी कमी भी है और अपनी खूबी भी। पूरा आंतरिक सच न जानने के कारण कुछ विसंगतियां रह सकती हैं। एक स्पष्ट अलगाव होने के कारण आलोचनात्मक निष्पक्षता की उम्मीद भी बनती है।

 

चुनौतियां तो शाश्वत होती हैं, कभी खत्म नहीं होतीं। हाँ, अपने रूप, अपने आयाम, अपनी मारकता में अपना चरित्र जरूर बदलती रहती हैं, लेकिन चुनौतियां सबके लिए समान नहीं होतीं, बल्कि यह कहें कि व्यक्ति और समूह के मिजाज के हिसाब से बड़ी या छोटी होती हैं, हाजिर या गायब रहती हैं। भाग्यवादी और स्थिति से संतुष्ट लोगों के लिए चुनौती अप्रासंगिक है। चुनौतियों का बोध तो उन्हें ही हो सकता है, जो वर्तमान से असंतुष्ट और बेचैन हैं, जो भविष्य की खास आकांक्षाएं रखते हैं, जो विरासतन हासिल को बदलना चाहते हैं।
काल विशेष की अपनी व्यापक चुनौतियां होती हैं और संगठन या समूह विशेष की अपनी खास चुनौतियां। किसी भी काल के बहुआयामी यथार्थ को कोई भी समूह पूरी तरह से ले नहीं सकता। वह अपनी समझ और अपने मिजाज के हिसाब से उन्हें समझता है और उन पर रिएक्ट या रिस्पांस करता है।

इसी नजरिये से यहां सर्वोदय आंदोलन या समाज की चुनौतियों को समझने की कोशिश है। मैं सर्वोदय आंदोलन से सांगठनिक तौर पर कभी जुड़ा नहीं रहा। मैं सम्पूर्ण क्रांति धारा और सर्वोदय धारा में फर्क करता हूँ। ज्यादा से ज्यादा इन्हें एक दिशा की चाह रखने वाली दो उपधाराओं के रूप में देख पाता हूँ। इस कारण यह एक पड़ोसी, एक मित्र की कोशिश है, एक सांगठनिक या पारिवारिक सदस्य का आंतरिक वक्तव्य नहीं। इसकी अपनी कमी भी है और अपनी खूबी भी। पूरा आंतरिक सच न जानने के कारण कुछ विसंगतियां रह सकती हैं । एक स्पष्ट अलगाव होने के कारण आलोचनात्मक निष्पक्षता की उम्मीद भी बनती है।

सबसे पहले आज के समय की चुनौतियों को यथासंभव पूर्णता में सूत्रबद्ध, सारबद्ध करने की कोशिश करते हैं। मेरा मानना है कि मानवीय मूल्यों के लिए प्रतिकूल और इस कारण अस्वीकार्य यथार्थ को ही चुनौती के बतौर दर्ज किया जाना चाहिए। आज भारत में आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक-सामाजिक निरंकुशताओं के अभूतपूर्व ध्रुवीकरण का दौर है। निरंकुशता की ये शक्तियाँ समता, स्वतंत्रता, न्याय और सद्भाव की शक्तियों और प्रवृत्तियों के सम्पूर्ण ध्वंस पर उतारू हैं। गिने चुने पूँजीपतियों के हाथ सिमटती दौलत, संवैधानिक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संस्थानों की बढ़ती अपंगता, बहुसंख्यकवाद के नाम पर लोकतांत्रिक मूल्यों का नकार, हिन्दू समाज की एक छोटी किन्तु गिरोहबन्द असामाजिक व आपराधिक जमात द्वारा अल्पसंख्यकों पर निरंतर आक्रमण और सामाजिक न्याय के प्रावधानों को षड्यंत्रपूर्वक कम करते जाने के प्रयत्न इसी विनाशक्रम के परिणाम हैं। इन अमानुषिक अत्याचारों और बरबादियों की लम्बी फेहरिस्त है।

जीवन और मनुष्यता के खिलाफ बढ़ रहे हमलों और षड्यंत्रों का मुकाबला करने में अपनी पूरी अंत:शक्ति, अपना समूचा पोटेन्शियल लगा सके, यह किसी भी जनकर्म की प्राथमिक चुनौती है। इसके लिए अपने पोटेन्शियल को आँकना जनकार्मिकों की पहली जरूरत है। करना बहुत कुछ है, लेकिन हम सब कुछ कर नहीं सकते। जो कुछ कर सकते हैं, उसमें भी हर काम बराबर की दिलचस्पी और कुशलता से नहीं कर सकते। इस कारण अपनी सोच और स्वभाव के अनुसार चुनौतियों की अपनी प्राथमिकता तय करनी होती है।

सर्वोदय आंदोलन के हिस्से की चुनौतियों को चिन्हित करने के पहले सर्वोदय समाज के स्वभाव और थाती को चिन्हित करना पड़ेगा। सर्वोदय मानवीय करुणा और संवेदना के उत्प्रेरण और जागरण की शक्ति है। खादी, ग्रामोद्योग, प्राकृतिक खेती आदि इसकी पहलकदमी और हस्तक्षेप के प्रमुख क्षेत्र हैं। संघर्ष या सत्याग्रह की अपेक्षा रचना और सद्भाव के प्रति इस धारा का ज्यादा लगाव है। अध्यात्म और सर्वधर्मसमभाव में इस धारा का अनन्य विश्वास है। मेरे मन पर ऐसी छाप बनी है कि इस समूह में शायद ही कोई नास्तिक हो। अधिकांश लोग हिन्दू धर्म की उदार धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके नेतृत्व में अधिकांश गैर अम्बेडकरी संगठनों की तरह बल्कि उनसे ज्यादा सवर्ण हिन्दू समुदायों की उपस्थिति है। सर्वोदय कार्यकर्ताओं की जीवन पद्धति में धार्मिकता या धार्मिक आचरण मुखर रहता है। सर्वोदय की प्रतीक एवं विश्लेषण परम्परा में रामराज्य, गीता, विष्णु सहस्रनाम स्त्रोत का महत्वपूर्ण स्थान है। शाकाहार एवं गोवंश के साथ भावात्मक लगाव की भी परंपरा रही है। ग्राम स्वराज्य, जय जगत या विश्व बंधुत्व, विकेन्द्रीकरण, पर्यावरण रक्षा और वैकल्पिक विकास सर्वोदय के वैचारिक सरोकार का हिस्सा रहा है। अहिंसा और शांति इस समूह के लिए निष्ठा का विषय है।

आंदोलन और अभियान के स्तर पर देखें तो भूदान ग्रामदान, गोवधबन्दी सत्याग्रह और डाकुओं के आत्मसमर्पण की विरासत इसके पास है। विरासत की इसी जमीन पर खड़े होकर चुनौतियों को निभाना है। यह धारा राजनीतिक स्तर पर, चुनावी मोर्चे पर खास भूमिका नहीं निभा सकती। इस भूमिका के लिए बहुत बड़े बदलाव से गुजरना होगा। हाँ, ग्राम स्वराज के सूत्र के साथ ग्राम सभा सशक्तिकरण का अभियान चलाकर राजनीतिक निरंकुशता का विरोध जरूर किया जा सकता है। आर्थिक स्तर पर प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के अधिकार का अभियान चलाया जा सकता है। सार्वजनिक संस्थानों और संसाधनों की बाजारू लूट के खिलाफ सत्याग्रह छेड़ा जा सकता है ।

ग्रामोद्योगों का तेज अभियान चलाकर, इन अभियानों को संगठित कर पूँजीपतियों के विजय अभियान को रोका जा सकता है। वैसे मेरी समझ यह है कि अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि के कारण गरीबों को अमीरों के विरुद्ध या बढ़ती आर्थिक विषमता के खिलाफ संघर्ष के लिए संगठित करना इस धारा के लिए संभव नहीं है। दूसरी ओर पूँजीवाद की बढ़ती नृशंसता यह एलान करती लगती है कि ट्रस्टीशिप की धारणा आज व्यवहार्य नहीं है। जिस तरह और जिस स्तर पर भूपतियों की संवेदना जगाकर या लिहाज पैदा कर भूदान ले लिया गया, उसका अंशतः भी उद्योगदान नहीं होने वाला। इस दावे को झुठलाने की चुनौती लेकर अगर कोई कामयाबी पा ले तो एक नया इतिहास बनेगा।

सर्वोदय धारा आध्यात्मिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मोर्चे पर अपनी विशिष्ट भूमिका निभा सकती है। अन्य धाराओं से ज्यादा बड़ी भूमिका निभा सकती है। ऐसी भूमिका खास कारणों से इस धारा की जिम्मेदारी भी है और जरूरत भी। धारा की सकारात्मक पहचान बचाये रखने की शर्त भी। उदार, सहिष्णु हिन्दू भावना का इन दिनों तेजी से क्षरण हो रहा है। यह भावना हमलावर, उन्मादी, नफरती बन रही है। एक सामान्य छवि बन रही है कि यह धार्मिक क्षरण सर्वोदय जमात में भी हो रहा है। अन्य धाराओं की अपेक्षा ज्यादा हो रहा है। सवर्णों के भाजपा के सबसे बड़े जनाधार में तब्दील होने के इस दौर में सवर्ण बहुलता वाले सर्वोदय धारा में यह संभावित भी है। राम और गाय जैसी भावात्मकता इस खतरे को बढ़ा सकती है। आशंका को निर्मूल बता देना सही नहीं है। उसकी जगह सावधानी बरतनी होगी।

सर्वोदय धारा को आज के दौर में आध्यात्मिक अभियान बनना चाहिए। सर्वधर्म समभाव और धर्मनिरपेक्षता का अगुआ बनना चाहिए। सद्भाव का संदेशवाहक बनना चाहिए। एक धर्म के वर्चस्व, जातीय प्रभुत्व के खिलाफ वैचारिक अभियान केन्द्रित करना चाहिए। हो सके तो सामाजिक न्याय, विशेष अवसर, आरक्षण और विविधता संरक्षण जैसे मुद्दों पर प्रखर समर्थन की भूमिका में उतरना चाहिए। दलित, अल्पसंख्यक और स्त्री सहभागिता बढ़ाने का विशेष प्रयास करना चाहिए। एक भारतीय, मानवीय सांस्कृतिक अभियान का संगठक बनना चाहिए। वैसे इन भूमिकाओं को तो सभी धाराओं को अपनाना चाहिए। फिर भी यह सर्वोदय समाज के लिए सर्वाधिक स्वाभाविक और जरूरी भूमिका है।

-मंथन

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