भय से निर्भयता की ओर कदम कैसे बढ़े?


दुनिया के लोगों के मन आज भय से व्याकुल हैं। दुनिया भर की राज काज की व्यवस्थाओं, समाजों और मनुष्यों के मन में जो चिन्ता और भय अपने जीवन की सुरक्षा और जनजीवन की गतिशीलता के बारे व्याप्त हो गया है, उससे आज की दुनिया कैसे उबरे? यह वह सवाल है, जिसे लेकर हम सब चिंतनरत हैं। ऊपर ऊपर हम सब यह जरूर कह रहे हैं कि डरने की नहीं, महामारी से लड़ने के लिए सतर्क रहने की जरूरत है। पर हकीकत यह है कि अंतर्मन में सारी दुनिया की सरकारें और लोग भय से उबर नहीं पा रहे हैं। हम भयभीत क्यों होते हैं? सारी दुनिया अपने मन में समाये भय से अपने आपको कैसे मुक्त करे? भयभीत मन निर्भय मन में कैसे बदले? यह एक मनोवैज्ञानिक सवाल के साथ ही दार्शनिक और आध्यात्मिक सवाल भी है।
एक सवाल यह भी है कि क्या हम वाकई भयभीत हैं? एक सवाल यह भी है कि हम किस बात से भयभीत हो रहे हैं—मृत्यु, बीमारी या महामारी? पर ये तीनों तो दुनिया में सनातन काल से मौज़ूद हैं, इसमें नया क्या है? फिर हम सब के मन में इतनी हलचल क्यों हैं? मनुष्य का मन सदैव आशा और भरोसे की छत्रछाया में रहना ज्यादा पसंद करता है। निराशा मन की गति को कमतर कर देती हैं। सुरक्षित जीवन से भरपूर खुद के घर परिवार के साथ भी निराशा में मन में उत्साह नहीं होता। सब कुछ होते हुए भी कुछ भी अच्छा नहीं लगता, पर आज की दुनिया का भय, निरी निराशा या हताशा जैसी मन:स्थिति वाला भय नहीं है।
ज्ञान और अज्ञान इन दोनों की मनुष्य के जीवनयापन और मन की स्थिति के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती हैं। ज्ञान से प्राय: भय बढता है, मन में कई तरह की उथल पुथल चलती रहती हैं। अज्ञान प्राय: निर्भयता को बनाये रखने का एक कारक है। खतरे का ज्ञान न हो तो भय की उत्पति खतरे के मौजूद होते हुए भी नहीं होती। कानून का भय उसे होता हैं जो कानून का जानकार होता हैं। जिसे कानून का ज्ञान ही न हो, उसके मन में कानून को लेकर प्राय: कोई भय नहीं होता।


आध्यात्मिक साधना में रत साधक जब आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं तो उनका मन भय से परे हो सकता है। भयप्रद परिस्थितियों में आत्मज्ञानी के मन में भी शंका आशंका का जन्म तो होता है, पर उनके मन का जाग्रत विवेक मन को भयग्रस्त नहीं होने देता है और मन निर्भय स्थिति में बना रहता हैं। इस तरह हम मान सकते हैं कि भयभीत होना या निर्भीक रहना, मन की अवस्था है।


आजादी के आन्दोलन में संत विनोबा भावे धुलिया जेल में बन्द थे। विनोबा जी उन दिनों सोमवार को मौन रहते थे। एक सोमवार को शाम के बाद जब अंधेरा हो चुका था और विनोबा जी सोने की तैयारी में थे तो उन्हें जेल की अपनी कोठरी में सांप दिखाई दिया। अंधेरा हो चुका था, ताला बंद हो चुका था और कोठरी के पास कोई सिपाही नहीं था। विनोबा जी का उस दिन मौन था, किसी को आवाज देकर बुलाने पर विनोबा जी के मौन व्रत का भंग होना तय था। विनोबा जी जैसे आत्मज्ञानी के लिए व्रत भंग संभव ही नहीं था। विनोबा जी ने सोचा कि जैसे मनुष्य के मन में सांप को लेकर भय हैं, वैसे ही सांप भी तो मनुष्य से डरता है। मैं मनुष्य हूं और सांप का प्राकृतिक भोजन नहीं हूं। मेढक सांप का भोजन हैं, यदि मैं मेंढक होता तो मेरे मन में यह भय उत्पन्न होना स्वाभाविक होता कि सांप मुझे खा सकता है, पर जब तक मैं सांप को हानि न पहुंचाऊं, तब तक सांप मुझ पर हमला नहीं करेगा। उन्होंने अपना मौन व्रत जारी रखते हुए किसी को भी आवाज नहीं दी और न ही सांप को भगाने का कोई उपक्रम किया। विनोबा जी ने सांप की उपस्थिति में ही सोने का निर्णय किया। वे रात को सोते समय जेल की कोठरी का दिया बुझा देते थे, पर उस रात उन्होंने दिया नहीं बुझाया और कोठरी में सांप के रहते हुए ही सो गये। विनोबा जी ने लिखा है कि रोज मुझे लेटते ही नींद आ जाती है, पर उस दिन दो तीन मिनट बाद आयी। प्रात: दो बजे नींद खुली तो मैंने देखा कि सांप वहां से निकल गया था। उस भय को मैंने जीत न लिया होता तो मौन व्रत का भंग होता। मौन व्रत ने मेरी रक्षा की। यह आध्यात्मिक मन की जीवन दृष्टि का प्रत्यक्ष उदाहरण है। सम्पूर्ण एकाकार स्थिति हो तो मन में कोई भय और भेद नहीं रहता। जीवन यात्रा में हर पड़ाव पर चुनौतियां और खतरे होते ही हैं पर शांन्त और व्यापक जीवन दृष्टि के साथ पूरी एकाग्रचित्तता से मनुष्य को शांत और निरापद जीवन की राह मिलती जाती है।


दुनिया भर में ज्ञानी, अज्ञानी और आध्यात्मिक मन, तीनों वृत्तियों के लोग हैं और तीनों की अपनी अपनी भूमिका है। हमारी इस दुनिया में महासागरों की तरह मनुष्यों के कई लोकसागर भी मौज़ूद हैं। जैसे महासागर निरन्तर हिलोरें लेता रहता है, वैसे ही लोकसागर का मानस भी हमेशा शांत नहीं रहता है। उसमें तरह तरह की हलचलें चलती ही रहती हैं। इन हलचलों को रोका नहीं जा सकता। ऐसी हलचलों के साथ ही दुनिया में मनुष्य की जीवन यात्रा सनातन समय से चलती रही है और सनातन समय तक चलती रहेगी। इसे ही मनुष्यों ने संसार की संज्ञा दी है। ज्ञानी, अज्ञानी और आध्यात्मिक मानस के त्रिवेणी संगम से ही अनेक समस्याएं चुनौती बनकर खड़ी होती हैं, कुछ का समाधान होता हैं और कुछ जीवन का हिस्सा बन जाती हैं, ऐसे ही समस्याओं के साथ जीते रहने की मनुष्यों को आदत हो जाती है। निरन्तर जीते रहना मनुष्य मन का सहज स्वभाव है। इसी कारण मनुष्य हर काल और परिस्थिति की चुनौतियों को स्वीकार कर जीते रहने का इंतज़ाम करता रहता है। शायद यही कारण हैं कि मनुष्य मृत्यु के क्षण तक को भी जीना चाहता है। जीते-जी मरना या समर्पण करना नहीं चाहता। मनुष्य की यह अनन्त काल से चली आ रही जीवनी शक्ति, मनुष्य मन की अनन्त हलचल है। मनुष्य का मन ही वह अनोखी शक्ति है, जो उसकी गतिशीलता का मुख्य कारक है।
भय से निर्भयता की ओर कदम मनुष्य के मन में तभी उठता है, जब मनुष्य ज्ञान अज्ञान की बहस में उलझे बिना अपने को प्रकृति का हिस्सा समझने लगता है। जगत से एकाकार होने का भाव मन में आते ही सारे भयों का लोप हो जाता है और मनुष्य का मन निर्भयता की धारा में समा जाता हैं। जीवन का निरन्तर प्रवाह मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन दृष्टि से ओतप्रोत करता रहता है। यही कारण है कि मनुष्य की जीवन यात्रा में ज्ञान, अज्ञान और विज्ञान तीनों का योगदान है, पर जब मनुष्य भय के भाव से ऊपर उठ जाता है, तब आप सांप के साथ गहरी नींद सो रहे हैं या महामारी में सतर्कता से जी रहे हैं, दोनों में कोई भेद नहीं रह जाता। जीवन यात्रा का अंत विराट में विलीन होना है तो जीवन के आरम्भ से अंत तक विराट से एकाकार होकर जीना ही जीवन का आंतरिक आनन्द है।

-अनिल त्रिवेदी

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