चंपारण, नील और गांधी

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-डॉ. विनय कुमार सिंह

इतिहास की दृष्टि से चार-पाँच शताब्दी पूर्व के तथ्यों का अवलोकन करें तो ‘अकबरनामा’ के अनुसार, 1582 ई. में चंपारण तीन भागों में विभक्त था—मझौआ, सिमरौन और मेहसी। उस समय यहाँ की जनसंख्या विरल थी। गोपाल सिंह ‘नेपाली’ के अनुज बम बहादुर सिंह ‘नेपाली’ की पुस्तक ‘चंपारण का इतिहास’ में उल्लिखित तथ्यों के अनुसार, पहले यह जिला तीन परगनों और 32 तप्पों में विभक्त था। मझौआ, सिमरौन और मेहसी तीन परगने थे, जबकि दौलता, बहास, मांडी, सुगाँव, साठी, हरनाटार, ओलाहा इत्यादि तप्पे थे। कालांतर में चंपारण के भौगोलिक आकार में परिवर्तन आया। सच्चिदानंद धूमकेतु के अनुसार 1816 ई. की सुगौली की संधि के बाद सिमरौन राज्य नेपाल के साथ जुड़ गया और सिमरौन में कर्णाट वंशीय राजाओं का प्रभुत्व हुआ।


आज से लगभग डेढ़ सौ साल पूर्व चंपारण सारण जिले में ही सम्मिलित था। 1866 ई. में सारण और चंपारण को अलग किया गया और दोनों जिलों के दो जिलाधीश हुए। 1866-67 में बीम्स नामक ब्रिटिश भारतीय प्रशासनिक सेवा के अंग्रेज अफसर के रूप में दो वर्षों तक चंपारण के कलक्टर रहे।


स्वतंत्र भारत में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री केदार पाण्डेय के शासन काल में चंपारण को विभाजित कर दो जिले बनाये गये—पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण। सम्प्रति, पूर्वी चंपारण का क्षेत्रफल लगभग 3968 वर्ग किमी है और पश्चिमी चंपारण का क्षेत्रफल लगभग 5228 वर्ग किमी है।


चंपारण और नील : इंग्लैंड के वस्त्र उद्योग के विकास के लिए महारानी एलिज़ाबेथ के शासनकाल में भारतीय नील के प्रयोग की अनुमति मिली तो ईस्ट इंडिया कंपनी अत्यधिक लाभ के लिए सक्रिय हुई। 1664-1694 की अवधि में इस कंपनी ने सूरत, बम्बई और अहमदाबाद से नील का व्यापार किया। भैरव लाल दास के अनुसार, ‘वर्ष 1777 में लुईस बन्नो द्वारा बंगाल के चंद्रनगर में नील की पहली फैक्ट्री खोली गयी, लेकिन व्यापार अधिक नहीं चल सका। वर्ष 1779 में कैरेल ब्लूम ने 3 लाख की पूंजी लगाकर हुगली के नजदीक नील का कारखाना स्थापित किया। इस कंपनी द्वारा आधुनिक यूरोपीयन तकनीक का उपयोग भी किया गया। भारी मुनाफे को देखते हुए बंगाल में यूरोप के कई व्यापारी नील व्यापार के लिए आ गये। वर्ष 1800 में चालीस हजार मन तथा वर्ष 1885 में 1 लाख 20 हजार मन नील का निर्यात सिर्फ कलकत्ता से हुआ। बिहार में नील उत्पादन का आरंभ तिरहुत (मुजफ्फरपुर) में एलेक्जेंडर नोएल द्वारा वर्ष 1778 में किया गया। कांटी (1778), देवरिया (1780), और सिंघिया (1791) में नील की फैक्ट्रियाँ स्थापित की गयीं। अठारहवीं सदी के अंत तक करीब 18 फैक्ट्रियाँ यहाँ स्थापित हो चुकी थीं। 1810 तक चंपारण में नील फैक्ट्रियों की तादाद बढ़कर 25 तक पहुँच गयी। उस समय चंपारण से 10 हजार मन नील का निर्यात हो रहा था।’


नील की खेती का कार्य कष्टसाध्य था। जैसे-जैसे नील की खेती बढ़ती जा रही थी, मजदूरों की दुर्दशा भी हो रही थी। 1899 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, चंपारण की खेती योग्य भूमि के मात्र दो प्रतिशत भाग में ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध थी। ऐसी विषम परिस्थिति में खेती करना और उसमें भी बलात् नील की खेती करने की मजबूरी थी। नील की खेती करने वाले मजदूरों पर हुए अत्याचारों का चित्रण करते हुए दीनबंधु मित्र ने 1860 ई. में ‘नील दर्पण’ नाटक लिखा। अभय कुमार दुबे के अनुसार, दीनबंधु मित्र के नाटक ‘नील दर्पण’ ने बंगाल के मानस को झकझोर दिया। माइकेल मधुसूदन दत्त ने उसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया, जिसके खिलाफ अदालत ने 1000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि किसान भी औपनिवेशिक शासन में शोषण के विरुद्ध संघर्ष करते थे, पर संसाधनों के अभाव में उनकी आवाज कमजोर पड़ जाती थी। कृषक संघर्षों के अध्येताओं और सिद्धांतकारों के अनुसार औपनिवेशिक शासन के दौरान 1857 के सिपाही विद्रोह में किसानों ने बड़े पैमाने पर भागीदारी की थी। 1860 में बिहार और बंगाल के नील किसानों ने विद्रोह किया। वस्तुतः, निलहे इतने शक्तिशाली व उद्दंड बन चुके थे कि बंगाल सरकार को 1860 में नील आयोग का गठन करना पड़ा।


चंपारण में भी निलहे निरंकुश व शोषक बन चुके थे। 1866 में जब बीम्स मात्र २१ वर्ष की उम्र में ब्रिटिश भारतीय प्रशासनिक सेवा के अफसर के रूप में चंपारण आये तो उन्हें पता चला कि निलहे काफी रौब-दाब वाले हैं। पटना में ही कमिश्नर ने उन्हें जानकारी दी थी कि निलहों से मिलकर रहना होगा। उस समय चंपारण की अधिकांश जमीन बेतिया राज की थी और कुछ अन्य जमींदार भी थे। राज की जमीन को निलहों ने ठेके पर ले लिया था। उस समय की परिस्थिति का चित्रण बीम्स के माध्यम से करते हुए डॉ. गिरीश मिश्र ने लिखा है, ‘बीम्स ने पूरी व्यवस्था और नील की खेती की पूरी प्रक्रिया का वर्णन किया है। उस समय हर किसान को पूरी जोत के चौथे हिस्से में नील उगाना पड़ता था। दूसरे शब्दों में, पंचकठिया व्यवस्था लागू थी। खेती की पूरी प्रक्रिया पर बड़ी सख्त निगरानी थी। थोड़ी भी चूक होने पर किसानों को भारी सजा झेलनी पड़ती थी। किसान को निलहे कर्ज के जरिए अपने चंगुल में रखते थे। वे किसी भी तरह सरकार और कलक्टर को हस्तक्षेप नहीं करने देना चाहते थे।’ हालांकि बीम्स ने इसके बावजूद निलहों पर कार्रवाई की, पर निलहों ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उसका स्थानान्तरण करवा दिया। डॉ. गिरीश मिश्र ने निलहों के संदर्भ में लिखा है कि उनका शोषण और उत्पीड़न इतना बढ़ा कि रैयत उठ खड़े हुए। उन्होंने नील उगाने और बेगार देने से इंकार कर दिया। जौकटिया गाँव के किसानों ने लाल सरैया के निलहे की कोठी को जला दिया। इसके साथ ही खूनी संघर्ष का सिलसिला शुरू हो गया। किसानों को बीघे में पाँच कट्ठे के बदले तीन कट्ठे पर नील की खेती करने को कहा गया और शर्तों को कुछ ढीला किया गया। इस प्रकार, तीनकठिया व्यवस्था अस्तित्व में आयी। इसके बावजूद, निलहों का शोषण समाप्त नहीं हुआ। नील के उत्पादन में वृद्धि हेतु वे प्रयासरत रहे। ओम प्रकाश प्रसाद के अनुसार उन्नीसवीं सदी के अंत में जिले में नील की 21 फैक्ट्रियाँ और उनकी 48 शाखाएं थीं। जिले के अंदर साल में 17-18 हजार मन नील तैयार होता था और 186 रुपये मन की दर पर बिकता था।’


बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के मध्य तक चंपारण में ऐसी परिस्थिति बन गयी थी कि यहाँ के कुछ लोग निलहों के अत्याचार से मुक्ति पाने हेतु एक नेतृत्वकर्ता की तलाश करने लगे थे। हालाँकि यह भी तथ्य है कि यहाँ के लोग पूर्व में भी निलहों के विरुद्ध विद्रोह कर चुके थे।


चंपारण और गांधी : 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबंदर में जन्मे मोहनदास ने 1887 में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की, उच्च शिक्षा के लिए विलायत गये, 1891 में वकील के रूप में कार्य करने हेतु लंदन के हाईकोर्ट में पंजीयन कराया और 12 जून 1891 को भारत आने हेतु प्रस्थान किया। 1893 में एक मुकदमे के सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका गये और 1914 तक का अधिकांश समय वहीं व्यतीत हुआ। वहाँ की समस्याओं के समाधान में सत्याग्रह और अहिंसा की उनकी नीति सफल रही और 9 जनवरी 1915 को गांधी स्वदेश पहुँचे। गांधी जब भारत आये तो राष्ट्रीय आंदोलन के मंच पर अपनी जगह की तलाश शुरू की। इधर, चंपारण में निलहों के अत्याचार से पीड़ितों की मुक्ति के लिए पं. राजकुमार शुक्ल एक नेतृत्वकर्ता की तलाश में थे। वे ब्रजकिशोर बाबू के साथ दिसम्बर 1916 में लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में गये। पं. शुक्ल ने गांधी जी को अपनी समस्या बतायी। गांधी जी के शब्दों में ‘जब मैं लखनऊ कांग्रेस में गया तो वहाँ इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा। ब्रजकिशोर बाबू आपको सब हाल बतायेंगे, यह वाक्य वे कहते जाते थे और मुझे चंपारण आने का निमंत्रण देते जाते थे। मैंने उनसे चंपारण की थोड़ी कथा सुनी। अपने रिवाज के अनुसार मैंने जवाब दिया कि ‘खुद देखे बिना इस विषय पर मैं कोई राय नहीं दे सकता। आप कांग्रेस में बोलियेगा। मुझे तो फिलहाल छोड़ ही दीजिए।’ राजकुमार शुक्ल को कांग्रेस की मदद की तो जरूरत थी ही। ब्रजकिशोर बाबू कांग्रेस में चंपारण के बारे में बोले और सहानुभूतिसूचक प्रस्ताव पास हुआ। बावजूद इसके, शुक्ल जी गांधी जी को चंपारण लाना चाहते थे। लखनऊ से जब गांधी जी कानपुर गये तो शुक्ल जी वहाँ भी पहुँच गये। गांधी जी ने उन्हें आश्वासन दिया कि जब वे कलकत्ता जायेंगे तो उसके बाद चंपारण आ जायेंगे। पं. शुक्ल इतने सक्रिय थे कि जब गांधी जी कोलकाता पहुँचे, तो वे वहाँ भी हाजिर थे। 10 अप्रैल, 1917 को गांधी जी पं. शुक्ल के साथ कोलकाता से पटना पहुँचे, राजेन्द्र बाबू के निवास पर गये पर वे नहीं थे। उन्होंने मजहरुल हक साहब से भेंट की और मुजफ्फरपुर के लिए प्रस्थान किया। वहाँ 14 अप्रैल तक रुककर किसानों की समस्याओं से संबंधित जानकारी प्राप्त की। 15 अप्रैल, 1917 को वे मोतीहारी पहुँचे। 16 अप्रैल को उन्होंने जाँच कार्य हेतु जसौली पट्टी जाने के लिए प्रस्थान किया, पर चन्द्रहिया गाँव में उन्हें एक पुलिस पदाधिकारी ने जिला छोड़कर जाने की नोटिस दी। तत्कालीन कलक्टर हेकॉक के जिला छोड़ने के आदेश को उन्होंने नहीं माना। 18 अप्रैल को उन पर मुकदमा चला। न्यायालय परिसर में जन सैलाब उमड़ पड़ा। गांधी जी ने अपने पक्ष में अदालत में मार्मिक व प्रभावपूर्ण बयान दिया। 20 अप्रैल को मुकदमा वापस ले लिया गया और उन्हें जाँच की अनुमति दे दी गई। यह चंपारण में गांधीजी की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। इसके बाद गांधी जी ने किसानों की समस्याओं से संबंधित प्रामाणिक तथ्य जुटाने शुरू किये। इस कार्य में ब्रजकिशोर बाबू, अनुग्रह बाबू, धरणीधर बाबू, रामनवमी बाबू, राजेन्द्र बाबू, आचार्य कृपलानी, मजहरुल हक सहित अनेक लोगों ने अपना योगदान दिया।


इसके साथ ही गवर्नर सर एडवर्ड गेट के निर्देशानुसार बनने वाली जाँच समिति में गांधी जी अपनी शर्तों पर शामिल हुए। गांधी जी ने लिखा है, ‘सर एडवर्ड गेट ने इन शर्तों को उचित मानकर उन्हें मंजूर किया। स्व. सर फ्रेंक, स्लाई समिति के अध्यक्ष नियुक्त किये गये। जाँच समिति ने किसानों की सारी शिकायतों को सही ठहराया और निलहे गोरों ने उनसे जो रकम अनुचित रीति से वसूल की थी, उसका कुछ अंश लौटाने और तीनकठिया के कानून को रद्द करने की सिफारिश की।’


इस तरह, चंपारण के किसान नील की खेती की तीनकठिया प्रथा से मुक्त हुए और चंपारण में गांधी के प्रयोग की सफलता ने भारतीय राजनीति में उनके प्रभाव व कद को बढ़ा दिया।

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