वन क्षेत्र को कॉरपोरेट के हवाले करने की कवायद

वन संरक्षण अधिनियम 1980 में प्रस्तावित संशोधन

वन संरक्षण अधिनियम 1980 के संशोधन प्रस्ताव से वनाधिकार कानून 2006 और आदिवासी इलाकों के लिए पंचायती व्यवस्था कानून (पेसा) द्वारा ग्राम सभाओं को प्राप्त अधिकार निष्प्रभावी हो जायेंगे।

तीन कृिष कानूनों, सार्वजनिक उपक्रमों को औने-पौने दाम पर बेचने और भारतीय जीवन बीमा निगम जैसी लाभकारी इकाइयों के विनिवेश के बीच अब वन क्षेत्र को कॉरपोरेट के हवाले करने की कवायद तेज हो गयी है। इसी प्रयास का हिस्सा है – भारतीय वन संरक्षण अधिनियम 1980 में संशोधनों का प्रस्ताव।


4 अक्टूबर 2021 को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वन संरक्षण अधिनियम 1980 में प्रस्तावित संशोधनों पर टिप्पणियां और सुझाव आमंत्रित करने के लिए सार्वजनिक सूचना जारी की गयी, जो बेहद बेतुकी है। यह सूचना वन आधारित उन करोड़ों समुदायों के साथ भद्दा मजाक है, जिसके पास इंटरनेट, मोबाइल फोन व अन्य आधुनिक सूचना संसाधनों का घोर अभाव है। करोड़ों आदिवासियों व अन्य परंपरागत वन निवासियों तथा वन, वन्य जीव व पर्यावरण संरक्षण का भविष्य तय करने वाले कानून या सुझावों के लिए केवल 15 दिन की मोहलत दी गयी, हालांकि आलोचना के बाद इस अवधि को बढ़ाकर 17 नवंबर 2021 कर दिया गया। हिन्दी भाषा के विकास और प्राथमिकता का दंभ भरने वाली सरकार ने इन संशोधनों को सिर्फ अंग्रेजी भाषा में जारी कर अपना संकीर्ण और स्वार्थपरक उद्देश्य भी जाहिर कर दिया है।
खास बात यह है कि प्रस्तावित संशोधन वन अधिकार कानून (एफआरए) 2006 और पेसा कानून के अस्तित्व को पूरी तरह से नजरअंदाज करते हैं। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 2009 में ही यह आंकलन कर लिया था कि वनाधिकार कानून 2006 के तहत 4 करोड़ हेक्टेयर तक वन-भूूूमि पर अधिकारों की मान्यता मिलने की संभावना है, इसलिए सबसे महत्त्वपूर्ण संशोधन वन अधिकार अधिनियम 2006 के प्रावधानों को वन अधिकार संरक्षण अधिनियम 1980 में शामिल करना चाहिए था, विशेष रूप से ग्राम सभाओं को, जिनको वन भूमि पर सामूहिक वन-संसाधनों के संरक्षण, सुरक्षा और प्रबंधन के लिए अधिकार प्रदान किये गये हैं। ग्रामसभा ही वह प्राथमिक इकाई है, जो तय कर सकती है कि क्या वन-भूमि के किसी भी हिस्से को अन्य किसी उद्देश्य के लिए हस्तांतरित किया जाना चाहिए, चाहे वह गैर वानिकी हो या वानिकी। कानूनी प्रावधानों के अनुसार अब ग्रामसभाएं वन विभाग की कार्य-योजना या वर्किंग प्लान विकसित करने में विशेष भूमिका निभायेंगी।


प्रस्तावित संशोधन

  • 1996 के बाद किसी भी गैर वन-भूमि पर किया गया सभी तरह का वृक्षारोपण वन अधिनियम 1980 के दायरे में नहीं होगा।
  • एक निश्चित समय तक समृद्ध पारिस्थितिक महत्व को प्रदर्शित करने वाले कुछ प्राचीन वनों को बचाये रखने का प्रावधान होगा।
  • अंतर्राष्ट्रीय सीमा से लगे इलाकों में विकास परियोजनाओं के लिए कटने वाले वनों को केन्द्र सरकार की अनुमति से छूट।
  • सड़कों और रेलवे लाइनों के किनारे किये गये वृक्षारोपण क्षेत्र में विकास के लिए संबंधित विभागों को केन्द्र सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं।
  • 1980 से पहले रेल मंत्रालय, सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय द्वारा अधिग्रहीत या क्रय की गयी जमीन के उपयोग से पहले केन्द्र सरकार की अनुमति से छूट। इस क्षेत्र को गैर वानिकी गतिविधियों के लिए अपनी योजना के तहत उपयोग कर सकेंगे।
  • दूरस्थ ड्रिलिंग (Extended drilling), जो बाहरी इलाके से धरती के नीचे सुरंग/छेद बनाकर प्राकृतिक तेल व गैस के सर्वेक्षण व दोहन की नयी तकनीक है, के वन क्षेत्र में उपयोग के लिए केन्द्र सरकार की अनुमति आवश्यक नहीं।
  • चिड़ियाघर, सफारी, वन प्रशिक्षण के बुनियादी ढांचों की स्थापना का अर्थ ‘गैर-वानिकी गतिविधियां’ नहीं माना जायेगा।
  • कानून का उल्लंघन करने पर दंड की कार्यवाई को और अधिक सख्त करते हुए एक साल तक गैर-जमानती कैद की अवधि।
    उपरोक्त प्रस्तावित संशोधन स्पष्ट करते हैं कि वन-क्षेत्र का गैर वानिकी उद्देश्य के उपयोग का मार्ग प्रशस्त करने का प्रयास हो रहा है। इतना ही नहीं, ये प्रस्ताव वनाधिकार कानून 2006 और पेसा कानून (आदिवासी क्षेत्रों की पंचायत व्यवस्था का कानून) द्वारा ग्राम-सभा को प्रदत्त निर्णायक अधिकाराें को निष्प्रभावी बनाते हैं। इन संशोधनों में कुछ प्रावधान जरूर उपयोगी हैं, पर उनका इस्तेमाल सिर्फ असली मकसद को छिपाना है।

-अरविन्द अंजुम

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