संविधान नाम का ग्रन्थ, ‘रिपब्लिक ऑफ इंडिया’ का कुरान, गीता, गुरुग्रन्थ और अवेस्ता है। ये एक नवनिर्मित राष्ट्र के एस्पिरेशन्स की सूची है। इसकी उद्देश्यिका कुछ लक्ष्य तय करती है, इसके नीति निर्देशक तत्व आने वाली सरकारों को उनकी पॉलिसी के लिए गाइडलाइन देते हैं और नागरिकों के लिए गारंटेड मूल अधिकार, सरकार के अधिकार का दायरा तय करते हैं। यह बड़ा ट्रिकी संविधान है।
कलकत्ता यूनिवर्सिटी के कॉपी जांचने वाले शिक्षक ने विद्यार्थी राजेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव की कॉपी पर लिखे जवाब पढकर यह प्रसिद्ध रिमार्क लिखा था। बरसों बाद संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान नाम का जो प्रश्न पत्र बनाया, पहले राष्ट्रपति के रूप में एक बार फिर वे उन्हीं प्रश्नों का उत्तर लिख रहे थे।
संविधान नाम का ग्रन्थ, ‘रिपब्लिक ऑफ इंडिया’ का कुरान, गीता, गुरुग्रन्थ और अवेस्ता है। ये एक नवनिर्मित राष्ट्र के एस्पिरेशन्स की सूची है। इसकी उद्देश्यिका कुछ लक्ष्य तय करती है, इसके नीति निर्देशक तत्व आने वाली सरकारों को उनकी पॉलिसी के लिए गाइडलाइन देते हैं और नागरिकों के लिए गारंटेड मूल अधिकार, सरकार के अधिकार का दायरा तय करते हैं।
पर इसके अलावा संविधान, गवर्नेस का स्ट्रक्चर भी बनाता है। वह तय करता है कि देश, जो लोकतन्त्र होगा, एडल्ट फ्रेंचाइज से अपनी सरकार तय करेगा। सरकार, जो मंत्रिमंडल है, उसका मुखिया प्रधानमंत्री है। मजे की बात यह कि पूरे संविधान में प्रधानमंत्री के अधिकार कहीं नहीं लिखे, मुख्यमंत्री के अधिकार कहीं नहीं लिखे। वह तय करता है कि वे मात्र सलाह देंगे, सरकारों का मुखिया तो राष्ट्रपति होगा, गवर्नर होगा।
संविधान के अनुसार, सरकार का हर एक काम, चाहे वह नियुक्तियां करना हो, कानून बनाना हो या कोई भी और काम, वह राष्ट्रपति के नाम से, उसकी अनुमति और सहमति से होता है। यह बड़ा ट्रिकी संविधान है। इसमें भोली-सी आशा की जाती है कि ब्रिटेन की रानी की तरह राष्ट्रपति, सब कुछ अपने अधिकार क्षेत्र में होते हुए भी अपनी शक्तियों का उपयोग प्रधानमंत्री को करने देगा। 26 नवम्बर को पूरा हुआ यह संविधान, लागू किस तरह होगा, इसकी परिपाटी और इसके हर क्लॉज की व्याख्या, इन दो लोगों के आपसी व्यवहार पर निर्भर थी।
राजेन्द्र प्रसाद और जवाहरलाल नेहरू
राजेन्द्र प्रसाद के शपथ लेते ही ब्रिटिश डोमिनियन खत्म हो जाता है, देश रिपब्लिक हो जाता है, अब रानी की जगह राजेन्द्र हैं। ब्रिटेन में परम्पराएं ही संविधान हैं, पर यहां तो संविधान में परम्पराएं अभी बिठाई जानी हैं। ब्रिटेन का लोकतन्त्र पुराना है, चार सदियों में हर तरह की, कोई न कोई परिस्थिति, कभी न कभी आ चुकी है। उन्हें रोशनी वहां से मिलती है, उसे ही रवायत मानकर मौजूदा निर्णय होता है। रवायत, भावना है। भावना से कोई नहीं लड़ सकता, लेकिन लिखे हुए शब्दों से खेला जा सकता है। भारत के संविधान में लिखे हुए शब्द पूरी तरह राजेन्द्र प्रसाद के फेवर में हैं।
‘मेरे बाद जवाहर मेरी भाषा बोलेगा’- युवा नेहरू को गांधी ने सरकार के मुखिया के रूप में चाहा। गांधी का फैसला हर कांग्रेसी ने सर माथे पर लिया। किसी ने खुश होकर, तो किसी ने निराश होकर। अब नेहरू परिपाटियां बिठा रहे थे। जबतक संविधान नही था, तब तक ब्रिटिश परम्परा की तरह माउंटबेटन ने खुद को रानी की तरह रस्मी मुखिया बनाये रखा। तीन माह में गांधी और माउंटबेटन दोनों चले गए। अब सारे राजनीतिक दांव पेंच नेहरू को अकेले झेलने थे।
पार्टी संगठन पर ओल्ड गार्ड, यानी सरदार और राजेंद्र प्रसाद का होल्ड था। सरदार, गांधी को दिये वादे के अनुरूप कभी नेहरू के लिए चुनौती नहीं बने, लेकिन वक्त बेवक्त अपना वजन दिखाते रहे। माउंटबेटन की जगह बैठे राजगोपालाचारी, उत्तर वालों की सरकार में वस्तुतः दक्षिण का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। गवर्नर जनरल के रूप में रस्मी मुखिया की जिम्मेदारी निभा रहे थे। उन्हें बदलने का कोई कारण नहीं था।
राजगोपालचारी का राष्ट्रपति बनना तय था. लेकिन राजेन्द्र प्रसाद, जो संविधान सभा के स्पीकर थे, इस पद के लिए इच्छुक थे। 1942 के आंदोलन के समय राजगोपालाचारी के बीच में आंदोलन छोड़ने का मुद्दा खड़ा हुआ। अचानक राजगोपालाचारी का विरोध होने लगा। नेहरू ने उनका बचाव करने की कोशिश की। पर राजेन्द्र प्रसाद ने दावेदारी ठोंक दी। सरदार पटेल ने पार्टी संगठन को साधा, राजेन्द्र प्रसाद को समर्थन दिया।
अप्रत्याशित रूप से राजेन्द्र प्रसाद भारत के अंतरिम राष्ट्रपति नियुक्त हुए। रिश्तों के इस बैकग्राउण्ड में भारत के संविधान की परिपाटियां बैठने वाली थीं। शीघ्र ही सरदार के अवसान के बाद राजेन्द्र प्रसाद उसी तरह कवच विहीन हो गये, जैसी गांधी के जाने के बाद नेहरू की अवस्था थी।
राजगोपालाचारी धर्मनिरपेक्ष और पदीय दायरों में रहने वाले जीव थे। राजेन्द्र खुदमुख्तार थे। सरदार पटेल ने जूनागढ़ विजय के बाद जब वहां का दौरा किया, तो हालात के मद्देनजर, उपस्थित जनसमूह की सोमनाथ में मंदिर बनवाने की मांग पर हामी भर दी। हरसम्भव मदद भी की। पर सरदार अब नहीं थे। राजेन्द्र प्रसाद को उद्घाटन समारोह का मुखिया बनने का आमंत्रण आया।
धर्म के आधार पर अभी अभी टूटे और धर्मनिरपेक्ष होने की कसम खाये देश का मुखिया, किसी धर्मस्थल का उद्घाटन करे, यह तो संविधान से पीछे हटने वाली बात थी। नेहरू ने ऑब्जेक्शन किया, राजेन्द्र प्रसाद शब्दों से खेल गये। भारत का संविधान धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी देता है। यह अधिकार, सबसे पहले भारत के राष्ट्रपति पर लागू होता है। और वे इस अधिकार का प्रयोग अवश्य करेंगे।
माना जा सकता है कि उस वक्त सोमनाथ का उद्घाटन, राजेन्द्र प्रसाद की सरदार को निजी ट्रिब्यूट थी। पर संविधान के लूप होल खोजने की, उसे मंशानुरूप परिभाषित करने की परिपाटी, अंतरिम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद खुद डाल गए। पर अब संविधान था। कौन क्या बनेगा, जनता तय करेगी। चुनाव हुए, जनता ने जवाहर पर मुहर लगा दी। अब राष्ट्रपति का चुनाव होना था। नेहरू डॉ राधाकृष्णन को चाहते थे, मगर राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी दावेदारी फिर प्रस्तुत की। नेहरू ने मान रखा।
यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड, नीति निर्देशक तत्वों में शामिल है। महज एक बिंदु के रूप में। मूल स्वरूप में यह बाध्यकारी बनाया जा सकता था। मगर कांग्रेस के हिंदूवादी, हिन्दू महासभा और मुस्लिम प्रतिनिधि इसके खिलाफ थे। जब तक आम सहमति न हो, यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड को मुल्तवी रखा गया। नीति निर्देशक में डालकर छोड़ दिया गया।
अंग्रेजों ने क्रिमिनल और रेवेन्यू कोड पर बड़ी मेहनत की थी। पर भारतीय समाज तमाम कुरीतियों, उत्तराधिकार, विवाह विच्छेद, तलाक आदि में पुरुष की मर्जियां चलतीं, जिसे दूसरे शब्दों में धार्मिक परम्परा कहते हैं। अंग्रेजों ने इसे पूरी तरह, बिना छुए छोड़ दिया। मुसलमानों के लिए 1935 में पर्सनल लॉ बोर्ड बना था। कम से कम एक बॉडी तो थी, जो रूल्स डिफाइन करती थी। हिन्दुओं में यह नहीं था।
नेहरू लाये हिन्दू कोड बिल
हंगामा मच गया। धर्म से छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं। तमाम हिन्दू संगठन एक हो गए। हिंदूवादी पार्टियां एक हो गयीं। ये वही लोग थे, जिन्हें यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड नहीं चाहिए था। ये वही लोग हैं, जो आज यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड लाने को उतारू हैं। कांग्रेस के भीतर, सरकार के भीतर और सरकार के ऊपर यानी राष्ट्रपति तक विरोध पर उतर आए। नेहरू पीछे हटे। यह संविधान की प्रस्तावना की हार थी। हिन्दू कोड बिल के कई प्रमुख मसले थे, नेहरू छोटे छोटे हिस्सों में अलग-अलग कानून ले आये, पर नेहरू के दौर की यह एक बड़ी असफलता थी।
राजेन्द्र प्रसाद ने कई नियुक्तियां अपनी मर्जी से कीं। विशेषकर गवर्नरों की नियुक्तियों में मर्जी उन्हीं की होती। नेहरू उसे अपनी सलाह का स्वरूप देकर संविधान की मर्यादा रख लेते। लेकिन यह सेनाध्यक्ष की नियुक्ति में नहीं चला। 62 के युद्ध के पहले सेना में उथल पुथल थी। सेना का कमांडर इन चीफ राष्ट्रपति होता है। यह देखकर सेनाध्यक्ष ने सीधे राष्ट्रपति को अपने उत्तराधिकारी की रिकमेंडेशन भेज दी। राष्ट्रपति ने मान लिया। आदेश निकालने के लिए पीएमओ भेजा। आपत्ति की गई। सीनियारिटी के आधार पर दूसरे जनरल की अनुशंसा हुई। राष्ट्रपति मजबूर हुए।
राजेन्द्र प्रसाद के मनमर्जी से लिए फैसलों में खुद नेहरू को भारतरत्न देना भी शामिल है। नेहरू विदेश से कुछ कूटनीतिक जीतों के साथ वापस लौटे थे। प्रसाद प्रोटोकॉल के विरुद्ध उन्हें हवाई अड्डे रिसीव करने गए और वहीं घोषणा कर दी- नेहरू को भारतरत्न देंगे।
नेहरू एकमात्र भारतरत्न हैं, जिनकी उपलब्धियों का कोई साइटेशन नहीं है। अपनी ही सरकार में अपने आपको भारतरत्न पाते हुए, नेहरू खुश रहे होंगे, मुझे शक है। इसे जस्टिफाई करते हुए राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा- भारत का राष्ट्रपति सिर्फ नाममात्र का मुखिया नहीं है.’
संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में खुद राजेन्द्र प्रसाद ने आने वाले राष्ट्रपतियों के लिए कुछ दायरे तय किये थे। उसी संविधान की परिपाटियां बिठाते समय कई बार उन्होंने खुद उन दायरों को ढीला करने की कोशिश की। ऐसा करने वाले वे अकेले राष्ट्रपति हैं। सो दिस टाइम, एग्जामिनी हैज़ बीन फेल्ड टू बीकम बेटर दैन एग्जामिनर.
-मनीष सिंह