जो शिक्षा कार्य-प्रवृत्त नहीं करती, वह निरर्थक है

मैं आशा करता हूँ कि हम ‘स्कूल’ और ‘कॉलेज’ की शिक्षा का बेवकूफी-भरा भेद मिटा देंगे। शुरू से आखिर तक एक ही उद्देश्य रहेगा- प्रत्यक्ष कार्य; क्योंकि विचारों को चाहे कितनी ही उत्तेजना दीजिए, जब तक हम कार्य-प्रवृत्त नहीं होते, वे निरर्थक ही हैं। यही बात हृदय के धर्मों के विषय में भी कही जा सकती है। पर अधिकांश आधुनिक शिक्षा-प्रणालियों में इनकी बड़ी उपेक्षा की जा रही है, जो एक भयंकर बात है।

 

राष्ट्रीय शिक्षा के मूलभूत सिद्धान्त क्या हैं, यह प्रतिपादन न करते हुए इतना कह देना आवश्यक है कि जहां तक लड़के और लड़कियों की स्कूली-शिक्षा का सम्बन्ध है, मैं आशा करता हूँ कि हम ‘स्कूल’ और ‘कॉलेज’ की शिक्षा का बेवकूफी-भरा भेद मिटा देंगे। शुरू से आखिर तक एक ही उद्देश्य रहेगा- प्रत्यक्ष कार्य; क्योंकि विचारों को चाहे कितनी ही उत्तेजना दीजिए, जब तक हम कार्य-प्रवृत्त नहीं होते, वे निरर्थक ही हैं। यही बात हृदय के धर्मों के विषय में भी कही जा सकती है। पर अधिकांश आधुनिक शिक्षा-प्रणालियों में इनकी बड़ी उपेक्षा की जा रही है, जो एक भयंकर बात है। आज हिन्दुस्तान के युवकों को कार्यकर्ता बनने की जरूरत है; ऐसे कार्यकर्ता, जिनके चरित्र का शिक्षा द्वारा इस प्रकार निर्माण हुआ हो कि वह स्वभावत: कार्य में, वास्तविक योग्यता में, सेवा में परिणत हो जाय। हिन्दुस्तान को ऐसे जवान नागरिकों की जरूरत है, जो परिस्थिति और परम्परानुसार जिस किसी क्षेत्र में जाएं, वहीं कुछ अच्छा काम करके दिखा सकें। पाठ्यक्रम के प्रत्येक विषय का उद्देश्य यही है कि बच्चों का जीवन ठीक वैसा ही हो, जैसा उसे होना चाहिए। प्रत्येक विषय जीवन के धर्म को, विधि और उद्देश्य को खोलकर रख दे। कठोर वास्तविकताओं का मुकाबला करते समय शिक्षक इन बातों को कभी न भूलें। वे यह स्मरण रखें कि हमारा बुद्धि-क्षेत्र वास्तविकताओं से नहीं, रूढ़िगत विश्वासों से भरा हुआ है। सर आर्थर एडिंग्टन ने बिल्कुल ठीक कहा था कि विज्ञान ने यह एक जबरदस्त सेवा की है कि उसने हमें सन्देह से सत्यता की ओर प्रयत्न करना सिखाया है। इसलिए बच्चों को पढ़ाया भी इस तरह जाय कि वे सच-सच बातें अच्छी तरह जान लें और दूसरी तमाम बातों के अलावा वे उनके चरित्र-निर्माण में सहायक हों, क्योंकि राष्ट्र और व्यक्ति दोनों के लिए यही तो सबसे अधिक सुरक्षित आधारभूत वस्तु है।


जब एक बार चरित्र-निर्माण हुआ तो कुछ करने की इच्छा प्रबल होगी ही, दोनों ही क्षेत्रों में – स्वावलम्बन में और स्वार्थत्याग में। जमीन अर्थात् भू-माता की ओर हमारी अधिक-से-अधिक बढ़ने की इच्छा होगी। खेती द्वारा हम उसकी पूजा करना चाहेंगे। हमारी जरूरतें कम होंगी और इच्छाएं धर्मानुकूल। मैं तो मानता हूँ कि भू-माता का कोई भी बालक ऐसा न हो, जो किसी-न-किसी रूप में अपनी आजीविका खुद उसी से प्राप्त न कर सकता हो। और हर प्रकार की शिक्षा में, शहर की शिक्षा-संस्थाओं में भी, मैं चाहूँगा कि किसी-न-किसी अंश में उससे हमारा संपर्क बना रहे।
आज उन सब रूढ़ियों से हमें एकबारगी अपना नाता तोड़ देना चाहिए, जिन्होंने शिक्षा को इतना अधिक निरर्थक बना दिया है। राष्ट्रीय मंत्रिमंडल के संरक्षण में हमें सच्ची शिक्षा की पद्धति शुरू कर देनी चाहिए। सच्ची शिक्षा के मानी यह नहीं है कि हम बच्चों के दिमाग में कोरी जानकारी ठूंस दें। हम शिक्षा सम्बन्धी उन रूढ़ियों और ढकोसलों के अन्दर बुरी तरह कैद कर दिये गए हैं, जो अब पुराने और बेकार साबित हो चुके हैं। डॉ. जीएस अरंडेल ने मुझे अपना एक लेख भेजा है, जिसमें वे लिखते हैं कि स्वावलम्बी शिक्षा-पद्धति का हृदय से स्वागत करता हूँ। अभी मुझे इसका पूरा निश्चय तो नहीं हुआ है कि वे कितनी दूर तक हमें ले जाना चाहते हैं और वहां तक हम दरअसल जा सकेंगे या नहीं। पर मैं उनकी इस तजबीज से पूरी तरह सहमत हूं कि सात वर्ष की पढ़ाई के बाद हर विद्यार्थी को एक स्वाश्रयी नागरिक बनकर संसार में प्रवेश करना चाहिए। मुझे खुद यही लगता है कि प्रत्येक मनुष्य को कुछ हद तक शिक्षा द्वारा अपनी सृजन शक्ति का भान हो जाना चाहिए, क्योंकि वह भी तो उस परमात्मा की एक विकासोन्मुख कला है, इसलिए उसमें परम ईश्वरीय गुण का, सृजन-शक्ति का होना जरूरी है। मनुष्य के इस श्रेष्ठ धर्म को यदि शिक्षा जागृत नहीं कर सकती, तो वह आखिर है किस मसरफ की? तब तो यह शिक्षा नहीं, किसी न किसी प्रकार से मस्तिष्क में जानकारी ठूंस देना है।

मस्तिष्क की भांति हमारे हाथों में भी तो कला-कौशल का निवास है। लम्बे अरसे से निष्क्रिय बुद्बि को ईश्वर समझकर हम उसकी पूजा करते आये हैं। उसने हम पर बड़ा जुल्म किया है। वह हमारी शासिका और स्वामिनी रही है। हमारी नवीन समाज-रचना में बुद्बि हमारे अनेक सेवकों में से एक होगी। जो-जो बातें हमारे जीवन को सरल और सादा बनाने वाली हों, प्राकृतिक सुन्दरताओं की ओर हमें खींचकर ले जाएं, अपने हाथ से काम करके उसके सहारे अपनी आजीविका कमाने में सहायक हों, ऐसे हर तरह के काम को चाहे वह कलाकार का हो, शिल्पकार को हो या किसान का हो, हमें गौरवान्वित करना सीखना चाहिए। -गांधी

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