अव्यक्त भाई बाबा विनोबा के विचार वाहक के रूप में प्रख्यात हैं। वे विनोबा के अथक अध्यवसायी और अहर्निश अभ्यासी हैं. विनोबा विचार प्रवाह में ब्रह्मविद्या मन्दिर के बारे में आज उनके विचार।
विनोबा ने एक बार कहा था, ‘अपने जीवन में मैंने केवल तीन संस्थाएँ शुरू कीं; बड़ौदा का विद्यार्थी मण्डल, नालवाड़ी का ग्राम सेवा मण्डल और पवनार का ब्रह्म विद्या मंदिर।’ विनोबा की उत्तरोत्तर ब्रह्मोन्मुख जीवन-साधना का एक ऊर्ध्वगामी यात्रा-पथ इसमें दिखाई देता है।
नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की शक्ति को विनोबा ने स्वयं अपनी साधना से जाना था, लेकिन भारत में महिलाओं को भी ब्रह्मचर्य साधना और ब्रह्म-साक्षात्कार का एक उन्मुक्त आध्यात्मिक वातावरण मिले, इसका ठोस प्रयास ब्रह्मविद्या मंदिर के रूप में देखने को मिलता है।
स्त्री-शक्ति के जागरण में विनोबा प्रायः मीरा, अक्का, अण्डाल और लल्लेश्वरी का स्मरण करते-कराते थे, लेकिन बाबा का नवीन उद्घोष था, ‘जागो हे शंकराचार्या!’ वे भक्तिभाव के साथ ही परिव्राजिका, ज्ञानवती, प्रखर और वैराग्यसंपन्न साधिकाओं के लिए उन्मुक्त आकाश चाहते थे। स्त्री-शक्ति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए बाबा में इतना द्रोहभाव शेष था कि उन्होंने मनुस्मृति के श्लोक- ‘पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने’ को मानने से इंकार कर दिया था, यहाँ तक कि आदि शंकराचार्य के यह कथन कि ‘पंडिता गृहकार्यकुशला इत्यर्थः’ को भी ‘अन्यायी अर्थघटन’ की संज्ञा दी थी।
स्त्री-शक्ति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए बाबा में इतना द्रोहभाव शेष था कि उन्होंने मनुस्मृति के श्लोक- ‘पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने’ को मानने से इंकार कर दिया था, यहाँ तक कि आदि शंकराचार्य के यह कथन कि ‘पंडिता गृहकार्यकुशला इत्यर्थः’ को भी ‘अन्यायी अर्थघटन’ की संज्ञा दी थी।
ऐसे विनोबा ने जब ब्रह्मविद्या मंदिर की संकल्पना की और उसे स्वाभाविक रूप में आकार लेने दिया तो उसके पीछे उनकी प्रेरणा इसे आध्यात्मिक क्रांति की जागतिक प्रयोगशाला बनाने की थी। अपनी वृत्ति में वे अनारंभी थे। वे गीता के ‘सर्वारंभपरित्यागी’ की भावना के अनुरूप ही सबकुछ ईश्वर पर छोड़कर चलते थे, फिर भी ब्रह्मविद्या मंदिर के प्रति उनका इतना आग्रह अवश्य था कि यह सामूहिक साधना, सामूहिक समाधि और सामूहिक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करे।
विनोबा की संतोचित दृष्टि थी कि यहाँ सर्वधर्मसमन्वय के व्यापक प्रयोग चलें। ‘मैं’ से ‘हम’ की ओर प्रस्थान हो। यहाँ ‘चिंता’ की जगह ‘चिंतन’ हो। यह आश्रम संयम, सादगी, श्रमनिष्ठा और अहिंसक जीवन का व्यावहारिक आदर्श प्रस्तुत करे। एकादश-व्रत के साथ अनिंदा को जोड़कर जो बारह व्रतों पर आधारित जीवन-साधना का अद्भुत व्याकरण बनता है, उसका अनुशासन यहाँ प्रकट दिखे। सत्य, प्रेम और करुणा से जीवन और जगत का जो अविच्छिन्न त्रिक बनता है, उसकी अविरल धारा यहाँ से अंतर्बाह्य निःसरित हो।
विनोबा की संतोचित दृष्टि थी कि यहाँ सर्वधर्मसमन्वय के व्यापक प्रयोग चलें। ‘मैं’ से ‘हम’ की ओर प्रस्थान हो। यहाँ ‘चिंता’ की जगह ‘चिंतन’ हो। यह आश्रम संयम, सादगी, श्रमनिष्ठा और अहिंसक जीवन का व्यावहारिक आदर्श प्रस्तुत करे। एकादश-व्रत के साथ अनिंदा को जोड़कर जो बारह व्रतों पर आधारित जीवन-साधना का अद्भुत व्याकरण बनता है, उसका अनुशासन यहाँ प्रकट दिखे। सत्य, प्रेम और करुणा से जीवन और जगत का जो अविच्छिन्न त्रिक बनता है, उसकी अविरल धारा यहाँ से अंतर्बाह्य निःसरित हो।
लेकिन आत्मविद्या की इस सहसाधना में सबसे अधिक प्रयास मन की भूमिका से ऊपर उठने की हो, क्योंकि संसार के सारे टकराव मन के स्तर पर ही होते हैं, इसलिए विनोबा ने पवनार धाम को मनोमुक्ति और सहचित्त की प्रयोगशाला कहा। मनोमुक्ति और सहचित्त कितना कठिन है यह तो सत्यनिष्ठा से सतत आत्मावलोकन करते रहने पर ही पता चलता है। आश्रम में व्यावहारिक विषयों के स्तर पर सर्वसहमति और अविरोध कायम रहे, ऐसा पारमार्थिक ब्रह्मसाधना की गहराई से ही हो सकेगा।
एक दिन बाबा ने ब्रह्मविद्या मंदिर की साप्ताहिक सभा में कहा था, ‘तुम लोग स्नेह से एक दूसरे को जीत लो। मुख्य निग्रह रखना होगा वाणी पर। वाणी हमारी शक्ति का स्रोत है। इसे अधीन रखने से सभी हमारे अधीन हो जाएंगे। हर एक श्वास में नामस्मरण करो। ब्रह्मविद्या की साधना तब होगी, जब हम सभी में ब्रह्म देखेंगे, ब्रह्मभावना रखेंगे।’
इस पावन मंदिर की पवित्रता अक्षुण्ण है। इसकी दिव्यता कायम है। चातुर्दिक दुःषम काल में मनोमुक्ति और सहचित्त की कसौटी पर इसका कठोर आत्ममूल्यांकन सतत और सामूहिक अंतर्साधना का विषय है।
आज छः दशक बाद बाबा और उनकी ब्रह्मसाधिकाओं की यह प्रयोगशाला एक जीवंत धरोहर के रूप में हम सबके सामने है। कुछ साधिकाएँ अपना जीवन सार्थक कर सुपक्व अवस्था में ब्रह्मलीन हुईं, जो आज भी सदेह साधनारत हैं, उनका स्नेह और मार्गदर्शन वर्तमान पीढ़ी को मिल रहा है।
इस पावन मंदिर की पवित्रता अक्षुण्ण है। इसकी दिव्यता कायम है। चातुर्दिक दुःषम काल में मनोमुक्ति और सहचित्त की कसौटी पर इसका कठोर आत्ममूल्यांकन सतत और सामूहिक अंतर्साधना का विषय है।
युवावस्था में एक बार पवनार आश्रम गया था। वहाँ पुष्प वाटिका के पास एक तख्ती टंगी थी, जिस पर लिखा था—
कहते हैं ये फूल सुवासी, हम हैं दिव्य धाम के वासी।
हमें न आप यहाँ से तोड़ें, हम संग प्रीत का नाता जोड़ें।
इस दिव्य धाम में मैंने पुष्प के प्रति भी इतनी संवेदना देखी और ये पंक्तियाँ चित्त पर मानो सदा के लिए अंकित हो गईं। प्रीति का यह नाता सबका सबसे जुड़े। आत्मसाधना, सत्यसाधना की सात्विक और पवित्र धारा सदानीरा की भाँति हम सबका सिंचन करती रहे। नवपीढ़ी के नवपुष्प भी यहाँ से जुड़ें, खिलें और संपूर्ण जगत को सुवासित करें, इस साधारण मनुष्य की यही प्रार्थना।
-अव्यक्त