गाय के बारे में आजकल जो विवाद चल रहे हैं, वह दरअसल केवल गाय के विवाद नहीं हैं। प्रश्न यह है कि पतन और विदेशी शासन के हजार वर्षों में जो विकृत, कुंठित व्यक्तित्व हमारा बना है, क्या उसे ही हम अपनी विरासत मानते हैं? हम इतने दिनों से लकवाग्रस्त हैं कि लकवे को ही हम विरासत मानने लगे हैं और जब हमारे अंग-प्रत्यंग में सामान्य स्पंदन होता है, तो हम समझते हैं कोई अप्राकृतिक घटना हो रही है। स्वास्थ्य हमें चौंका देता है, क्योंकि बीमारी हमारा स्थाई भाव हो गया है। एक बीमार देश न अपनी रक्षा कर सकता है, न गायों की।
आर्यों के जमाने में गाय एक कविता थी, लेकिन भारत के पतन के साथ वह एक धर्म बन गयी। आर्यों के जमाने में भारत स्वयं एक महाकाव्य था, जबकि आज जो हिन्दुस्तान हम देखते हैं, वह उस महाकाव्य का सड़ा-गला, फफूंद लगा संस्करण है। जो लोग इस देश में भारतीयता की रक्षा का नारा लगा रहे हैं, वे दरअसल उस हिन्दुस्तान की रक्षा करना चाहते हैं, जिसका पिछले हजार वर्षों में अचार डल चुका है। वे गलत हैं, बेहद गलत हैं। हिन्दुस्तान का उद्धार तो सचमुच तभी होगा, जब हम इन हजार वर्षों को अपने दिमाग की बरनी से निकाल फेंकेंगे।
धर्म और कविता में अंतर स्पष्ट है। कविता हृदय की सहज संवेदना है (इस घिसी-पिटी परिभाषा के लिए पाठक क्षमा करें), जबकि धर्म एक रूढ़ि है। कविता एक झरना है, जबकि धर्म उस झरने की याद दिलाने वाला सूखा, रेतीला रास्ता है। भारत एक धार्मिक देश है, जिसने अपनी कविता खो दी है। जब हम उस कविता की पुनर्प्राप्ति का प्रयत्न करेंगे, तो धर्म की सीमाएं तड़केंगी और विरोध होगा। लेकिन हम चाहे अपने ऋग्वेदकालीन गौरव को प्राप्त करना चाहें या बीसवीं शताब्दी के विज्ञान से कदम मिलाकर चलना चाहें, यह स्पष्ट है कि भारत को अपनी कविता पुन: प्राप्त करनी होगी। आर्यों के जमाने में गाय इसलिए एक कविता थी कि वह यायावर-युग और कृषि-युग के बीच का संधि-काल था। और घुमक्कड़ मानव के लिए खेती स्वयं कविता की वस्तु थी। आज हम एक दूसरे संविधान की दहलीज पर खड़े हैं, जो कृषि-युग और उद्योग-युग का संधि-काल है। क्या पुराने प्रतीकों और उपमानों से हम आज के युग की कविता गढ़ सकते हैं?
भारत में गाय के महत्त्व के बारे में सबसे अच्छा स्पष्टीकरण प्रसिद्ध लेखक नीरद चौधरी ने अपनी किताब ‘द कांटिनेंट ऑफ सरसी’ में दिया है। नीरद चौधरी इस देश को सरसी का महाद्वीप मानते हैं। यूनानी दंतकथाओं में सरसी एक जादूगरनी का नाम है, जो एक खूबसूरत द्वीप पर अपने महल में रहती थी। उसके पास ऐसी जड़ी-बूटियां और जंतर-मंतर थे, जिनसे वह आदमी को सुअर बना सकती थी। एक बार तूफानों से मजबूर होकर यूनानी महाकाव्यों का नायक ओडीसियस सरसी के द्वीप के किनारे जा लगा। द्वीप के किनारे पहुंचकर उसने देखा कि एक पहाड़ी के ऊपर धुआं निकल रहा है। इनसान की बस्ती जानकर उसने अपने आधे साथियों को वहां तलाश करने भेजा। वे गये और पहाड़ी पर उन्हें संगमरमर का एक भव्य महल मिला, जिसकी रक्षा पालतू शेर और भेड़िये कर रहे थे। उन्होंने कुत्तों की तरह दुम हिलाकर उनका स्वागत किया। महल के अंदर एक सुंदर महिला बैठी थी, जो चरखा चला रही थी और गा रही थी। उसने नम्र शब्दों में उनका स्वागत किया। सब लोग तो चले गये, लेकिन दल के नेता को कुछ शंका हुई और वह बाहर ही रहा। महल की देवी ने उन्हें जड़ी-बूटी मिला हुआ भोजन कराया और वे अपने देश को भूल गये। फिर उसने अपना जादू का डंडा घुमाया और वे सब तत्काल सुअर बन गये। दल के नेता ने यह भयावह समाचार ओडीसियस को पहुंचाया। वह आया, उसने जड़ी-बूटी वाला भोजन भी किया, लेकिन उसे वरदान था, इसलिए उसे कुछ भी नहीं हुआ। सरसी इस दिव्य पुरुष से अत्यंत प्रभावित हुई और उसने सुअरों को फिर से आदमी बना दिया। साल-भर तक वे उस द्वीप पर सानंद रहे।
नीरद चौधरी की राय में सरसी हिन्दुस्तान की देवी है। यह देश एक महल है, जिसमें बहादुर आर्य लोग आये और अब उन्हें एक वरदानी ओडीसियस की प्रतीक्षा है, जिस पर सरसी का जादू न चले और जो अपने पतित साथियों को फिर से आदमी बना दे।
गायों के बारे में नीरद चौधरी के तर्क बिलकुल मौलिक और प्रभावशाली है। वे लिखते हैं कि गाय आर्यों के साथ भारत आयी। आर्यों का सौन्दर्य-बोध बहुत विकसित था। गायों और बैलों की सुंदरता से वे बहुत प्रभावित थे। दरअसल एक हृष्ट-पुष्ट गाय से अधिक सुंदर जानवर दुनिया में कोई है भी नहीं। उसका चिकना सफेद रंग, तीखे नाक-नक्श, विवेकमयी भाव-भंगिमा उसे एक अजीब सतयुगी सात्विकता प्रदान करते हैं। वही एक जानवर है, जो सबसे कम जानवर लगती है और अपने पशुत्व से ऊपर उठी हुई प्रतीत होती है। आर्यों का कवि हृदय इस जानवर की सुंदरता के प्रति और भी चेतन इसलिए था कि भारत का गर्म मौसम उसके लिए अनुकूल नहीं था। भंगुर सौंदर्य का जादू एकाएक कई गुना बढ़ जाता है। आज भी गाय की आंखों में झांकों, तो एक रहस्यमयी करुणा उसके चेहरे पर नजर आती है, मानो कह रही हो कि मैं सरसी के देश में निर्वासित हूं। इस देश में गाय और आदमी का भाईचारा दरअसल निर्वासितों का भाईचारा है। जनसंघ के अंधविश्वासी लोग कहते हैं कि गाय भारतीय संस्कृति की अंग है, वे जानते ही नहीं कि अनजाने में वे कितनी बड़ी सच्चाई कह गये हैं। दरअसल आज हिन्दुस्तान की वह शक्ल है, जो उसकी गायों की है। हम गायों की तरह मरियल हैं और हमारी हडि्डयां निकल रही हैं। जो हाल आर्य गायों की संतानों का है, वही आर्य पुरुषों की संतानों का भी है।
लेकिन भारत के गर्म और आलसी मौसम में (नीरद चौधरी कहते हैं) कविता ज्यादा समय तक जीवित नहीं रह सकती। गाय धीरे-धीरे आर्यों का कुल स्मारक बनने लगी और पूजी जाने लगी। जब भावनाएं जड़ एवं भ्रष्ट हो जाती हैं, तब पूजा शुरू हो जाती है। जब हम कविता की तीव्रता और ताजगी लेते हैं और उस भावना को बनाये नहीं रख पाते, तो हम रूढ़ि अपना लेते हैं और उस भावना को खोखली श्रद्धांजलि अर्पित करने लगते हैं, जो किसी समय थी।
अगर हम आज के हिन्दुस्तान में गाय को उसका सही स्थान देना चाहते हैं, तो पहली जरूरत यह है कि पूजा के घुटन-भरे दायरे से निकालकर उसे सौंदर्य और उपयोगिता के स्तर पर प्रतिष्ठित करें। जिस देश की खेती गिरी हुई हो, जहां दूध मिलावट का हो और घी गायब होता जा रहा हो, जहां दुनिया की सबसे ज्यादा गायें सबसे कम दूध देती हों, वहां गो-पूजा एक बेमतलब और बेजान चीज है। गो-पूजा दरअसल गो-उपेक्षा का दूसरा नाम और दूसरा बहाना है। भारत में जब किसी की उपेक्षा करनी होती है, तो हम उसकी पूजा शुरू कर देते हैं। जैसे आजकल महात्मा गांधी की पूजा कर रहे हैं। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि महात्मा गांधी हमारे मन के किसी तार को झंकृत नहीं करते। वे अवतार और देवता हो चुके हैं और हमने तय कर लिया है कि उन्हें ताख पर रखेंगे, उनके आसपास अगरबत्ती जलायेंगे, लेकिन उनके रास्ते पर चलेंगे नहीं। गाय को भी हम माता मानेंगे, लेकिन अपनी उपेक्षा से उसे कंकाल बना देंगे। मूलत: यह रवैया अधार्मिक और अनार्य है, लेकिन वह भारतीय है। भारत मूलत: एक अनार्य और अधार्मिक देश है। सरसी के चंगुल में हमने अपना मूल स्वरूप खो दिया है। भारत में गया-बीता, घिघियाता जीवन ही मूल्य है, लेकिन जिंदादिली मूल्य नहीं है, अच्छा जीवन मूल्य नहीं है। मरने से तो गया-बीता जीवन ही अच्छा है, यही हमारा उद्देश्य वाक्य है। क्या कुरुक्षेत्र में कृष्ण ने यही उपदेश दिया था?
गाय के बारे में आजकल जो विवाद चल रहे हैं, वह दरअसल केवल गाय के विवाद नहीं हैं। प्रश्न यह है कि पतन और विदेशी शासन के हजार वर्षों में जो विकृत, कुंठित व्यक्तित्व हमारा बना है, क्या उसे ही हम अपनी विरासत मानते हैं? हम इतने दिनों से लकवाग्रस्त हैं कि लकवे को ही अपनी विरासत मानने लगे हैं और जब हमारे अंग-प्रत्यंग में सामान्य स्पंदन होता है, तो हम समझते हैं कोई अप्राकृतिक घटना हो रही है। स्वास्थ्य हमें चौंका देता है, क्योंकि बीमारी हमारा स्थाई भाव हो गया है। एक बीमार देश न अपनी रक्षा कर सकता है, न गायों की। (‘भारत : एक अंतहीन यात्रा’ से)
-राजेन्द्र माथुर