छुट्टा गोवंश : समस्या एवं समाधान

गांवों में चरागाह या अभयारण्य जैसी कोई व्यवस्था शेष नहीं बची है. ऐसे में इन छुट्टा जानवरों के पास अपना जीवन बचाने के लिए किसानों की फसल चरने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. छुट्टा गोवंश की समस्या का स्थायी समाधान सरकार और समाज को ही निकालना होगा. कुछ नये प्रयोग करने होंगे, लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी होगा व्यावहारिक नीति बनाना और उसे दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ क्रियान्वित करना.

 

उत्तर प्रदेश में छुट्टा पशुओं की समस्या एक मानवजनित सामाजिक समस्या है, जिसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव कृषि पर पड़ा है. गांव गांव में सैकड़ों की संख्या में छुट्टा पशु खुले आम घूम रहे हैं और फसलों को बरबाद कर रहे हैं. इस समस्या का स्थाई निराकरण समाज और सरकार को दृढ़ इच्छाशक्ति से मिलजुल कर करना होगा. सरकार के स्तर से प्रत्येक गांव में गौशाला की स्थापना की घोषणा दुर्भाग्य से केवल कागजों पर ही सीमित रह गयी. नीतिगत खामियों के कारण इस प्रयास का व्यावहारिक परिणाम नगण्य रहा. इसके कई कारण हैं, जिन पर गंभीरता से विचार नहीं हो सका. बहुत- सी ग्रामसभाओं में सार्वजनिक जमीन ही उपलब्ध नहीं है, जहां गोशाला की स्थापना हो सके.

इसके अलावा सरकार की तरफ से एक पशु पर केवल 900 रुपये प्रतिमाह यानी 30 रुपया प्रतिदिन का भुगतान किये जाने का प्रस्ताव है. गोशाला के संचालन में सुरक्षा, पानी, छाया, चिकित्सा, टीकाकरण आदि पर होने वाले व्यय को देखा जाय, तो न्यूनतम 100 रूपये प्रति पशु प्रतिदिन से कम खर्च नहीं होगा. ऐसे में किसी भी गोशाला को सरकारी सहायता से लम्बे समय तक संचालित कर पाना संभव और व्यावहारिक नहीं रह गया है. एक-दो प्रतिष्ठित और स्वनामधन्य गोशालाओं, जिनका संचालन किसी बड़ी संस्था या समूह द्वारा किया जा रहा हो, को कुछ आर्थिक सहयोग समाज से भी प्राप्त हो जाता है, किन्तु ग्राम स्तर पर संचालित गोशाला के लिए यह अकल्पनीय बात है कि यहां कोई आर्थिक मदद सतत रूप में समाज से मिलती रहे.


इस कारण तमाम सरकारी घोषणाओं के बावजूद गांवों में गोशालाओं का संचालन हो पाना संभव नहीं हो सका है. कुछ गांवों में संचालन प्रारम्भ भी हुआ तो सरकारी मशीनरी की कागजी खानापूर्ति के चलते महीनों तक संचालक को पैसे का भुगतान ही नहीं हुआ, ऐसे में गोशालाएं अव्यवस्था की शिकार हुईं और प्रायः बंद हो गयीं. दरअसल इस योजना के कुशल संचालन के लिए जिस इच्छाशक्ति की आवश्यकता थी, उसका सरकार या प्रशासन में सर्वथा अभाव रहा. केवल घोषणाएं की जाती रहीं और जमीनी सच्चाई तथा वास्तविकता जानने की कोई कोशिश नहीं की गयी. यही कारण है कि स्थिति बद से बदतर होती चली गयी और यह खेती, किसानी के लिए अभिशाप हो गया. स्थिति यहां तक आ गई कि आज गांव की सड़क हो, बाजार हो या फोरलेन राजमार्ग हो, हर जगह छुट्टा गोवंश समूह में दिखाई दे रहे हैं. आये दिन इनके कारण सड़क दुर्घटनाएं हो रही हैं, जहां एक तरफ किसान चोटिल हो रहे हैं, मौत तक हो जा रही है, वहीं दूसरी तरफ गोवंश घायल होकर तड़प रहे हैं. इनकी तीमारदारी करने कोई नही पहुंच रहा है.

कुछ वर्ष पहले तक गोवंश को लेकर जो श्रद्धा भाव था, जिसके कारण कहीं भी बीमार या घायलावस्था में गोवंश देखने पर आस पास के लोग सेवा को स्वतः तत्पर हो जाया करते थे, वह सेवा भाव अब कम होते होते एक चिड़चिड़ाहट का रूप ले रहा है. पशु चिकित्सालयों को सूचित करने पर वहां से कोई सकारात्मक सहयोग प्रायः नहीं मिल पाता है. गोवंश की यह दयनीय स्थिति केवल इसलिए है कि इनके लिए स्थायी गोवंश आश्रय स्थल की स्थापना नहीं हो सकी है. किसान से गोबर या कम्पोस्ट खरीदने की घोषणा भी केवल जबानी जमा खर्च के अलावा कुछ नहीं रही. व्यावहारिक बात करें तो कृषि के तरीके में बदलाव के कारण पशुओं के चारे के उत्पादन में भी कमी हो गयी है. हार्वेस्टर के प्रयोग से भूंसा या पुआल का काफी अंश बर्बाद हो जाता है, इस कारण पुआल या भूंसे की औसत कीमत 6-8 रुपये प्रति किलोग्राम तक हो गयी है. एक पशु को औसतन 8 किलोग्राम पशु चारे की आवश्यकता होती है. इसके अलावा पानी, खली, चूनी, चोकर, दाना, दवा आदि का भी खर्च है. कोरोना संकट, नोटबंदी, आर्थिक मंदी, मंहगाई आदि के कारण एक आम पशुपालक के लिए निष्प्रयोज्य पशु को रख पाना भी कठिन हो गया है. छुट्टा पशुओं की समस्या के चलते हरे चारे की खेती और उत्पादन नगण्य हो गया है, इसका भी असर पशु पालन पर पड़ रहा है.

ट्रैक्टर और अन्य कृषि यंत्रों के बढ़ते चलन के कारण खेती के कार्यों में बछड़ों और बैलों का प्रयोग अब काफी कम हो गया है, अतः ऐसे पशुओं को सार्वजनिक छोड़ देना अब आम बात हो गयी है. वैसे भी विदेशी नस्ल के बछड़े कृषि कार्यों के लिए प्रायः अनुपयोगी ही होते हैं. इसी प्रकार दूध न देने वाले पशुओं को भी मंहगाई के कारण प्रायः छुट्टा छोड़ देने का चलन बढ़ा है, जबकि नैतिक दृष्टि से देखें तो यह बहुत ही गैरजिम्मेदारी भरा कृत्य है कि आप पशु पालन करते हैं और लाभ प्राप्त करने के बाद निष्प्रयोज्य जानवरों को सार्वजनिक स्थानों पर खुल्ला अपने हाल पर जीने के लिए छोड़ देते हैं. गांवों में चरागाह या अभयारण्य जैसी कोई व्यवस्था शेष नही बची है. ऐसे में इन छुट्टा जानवरों के पास अपना जीवन बचाने के लिए किसानों की फसल चरने के अलावा कोई विकल्प नही बचा है.

तीन वर्ष पहले उत्तर प्रदेश की सरकार ने सड़कों पर घूमते गोवंश के लिए गोशाला के निर्माण और उनके रखरखाव के लिए संसाधन जुटाने हेतु 0.5 प्रतिशत ‘गो कल्याण सेस’ लागू किया था। यह कर शराब, टोल प्लाजा और सरकारी इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों से वसूला जा रहा है। सोच यह है कि इस तरह जो पैसा जमा होगा, उसकी मदद से प्रदेश भर में छुट्टा गोवंश के लिए शेल्टर होम बनाये जायेंगे, लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ होता नहीं दिखा.

छुट्टा गोवंश की समस्या का स्थायी समाधान सरकार और समाज को ही निकालना होगा. कुछ नये प्रयोग करने होंगे, लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी होगा व्यावहारिक नीति बनाना और उसे दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ क्रियान्वित करना. कुछ सुझाव निम्न हैं.

1. पशु गणना और जिओ टैगिंग करा के नियमित रूप से आंकड़े एकत्र करना, जिससे योजना और बजट व्यावहारिक रूप से बन सकें.

2. ग्रामसभा स्तर पर कम से कम 200 गोवंश की क्षमता वाली गोशाला की स्थापना करना, जिसमें बाड़, पेयजल, छाया, चारे के भंडारण हेतु शेड, हरे चारे के लिए व्यवस्था, कम्पोस्ट एवं केंचुआ खाद इकाई की तथा सामुदायिक बायो गैस की स्थापना अनिवार्य रूप से हो. यदि किसी ग्राम सभा में कोई सार्वजनिक भूमि उपलब्ध न हो तो निजी भूस्वामी से किराए पर पर्याप्त भूमि प्राप्त की जाए.

3. गोशालाओं में दैनिक श्रम कार्य हेतु श्रमिकों की व्यवस्था ग्राम सभा द्वारा मनरेगा के अंतर्गत कराई जाय, गोवंश की देखरेख के लिए निश्चित मानदेय पर स्थानीय युवकों की नियुक्ति की जाय.

4. पशुओं की संख्या, उनकी स्थिति और देख रेख के लिए ग्राम स्तर पर सक्रिय निगरानी समिति हो और किसी भी अनियमितता पर उसकी जवाबदेही सुनिश्चित हो.

5. गोशालाओं से उत्पादित दूध, कम्पोस्ट, केंचुआ खाद, बायो गैस आदि के विक्रय की समुचित व्यवस्था हो. इन स्थलों से विद्युत उत्पादन की इकाइयों की स्थापना की सम्भावना भी तलाशी जाय.

6. गोवंश के देख रेख के लिए प्रति पशु न्यूनतम 100 रुपया प्रतिदिन का भुगतान ग्राम सभा के माध्यम से साप्ताहिक अवधि पर किया जाय.

7. यदि कोई गोसेवक सेवा हेतु गोशाला से गोवंश लेना चाहे तो उसे भी प्रति पशु न्यूनतम 100 रुपये प्रतिदिन का भुगतान किया जाय.

8. निजी स्तर पर निष्प्रयोज्य गोवंश रखने के लिए आम जन को प्रेरित किया जाए. गोबर, गोमूत्र, कम्पोस्ट आदि उचित मूल्य पर खरीदने एवं उनको चारे के लिए प्रति पशु न्यूनतम 50 रुपये प्रतिदिन की प्रतिपूर्ति प्रदान करने की व्यवस्था की जाय.

9. कृषि एवं अन्य कार्यों हेतु बछड़ा, बैल, भैंसा आदि के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के लिए परंपरागत तरीकों से तकनीकी को विकसित किया जाए एवं इस प्रकार के प्रयोग करने वालों को विशेष पारितोषिक दिया जाय.

10. उपरोक्त कार्यों के लिए संसाधनों की उपलब्धता हेतु ‘गो कल्याण सेस’ को और मदों तक विस्तारित किया जाए. गोशालाओं की स्थापना और संचालन का काम सामाजिक उत्तरदायित्व प्रोग्राम (सीएसआर) के तहत लाया जाए. धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं, जिन्हें आयकर में छूट की सुविधा मिलती है, उन्हें भी इस कार्य में अनिवार्य रूप से सहयोग करने के लिए बाध्य किया जाए.

11. पशुओं की सामान्य चिकित्सा के लिए ग्राम सभा स्तर पर युवाओं को प्रशिक्षित किया जाय एवं निश्चित मानदेय पर उन्हें गोवंश आश्रय स्थलों पर चिकित्सा सेवा हेतु नियुक्त किया जाय. न्याय पंचायत स्तर पर सचल पशु चिकित्सालय एवं गोवंश एम्बुलेंस की व्यवस्था की जाय.
12. लघु एवं सीमांत किसानों को उनकी कृषि भूमि की सुरक्षा के लिए तार घेराबंदी के काम में कम से कम 50 प्रतिशत का अनुदान उपलब्ध कराया जाय.

यदि उपरोक्त सुझावों पर विचार करते हुए नीतियां बनें और उन पर ईमानदारी से अमल किया जा सके तो छुट्टा गोवंश की समस्या समाप्त हो जाएगी, जिससे गोवंश के साथ ही रोजगार, कृषि और ग्रामीण आर्थिकी का भी कल्याण संभव होगा.

-वल्लभाचार्य पाण्डेय

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