व्यवस्था की देन है बेरोजगारी

देश बचाओ अभियान द्वारा स्थापित पीपुल्स कमीशन ऑन एम्प्लॉयमेंट एंड अनएम्प्लॉयमेंट (पीसीईयू) की रिपोर्ट

यह रिपोर्ट बेरोज़गारी की समस्या पर एक आउटलाइन प्रस्तुत करती है और इसके कारणों, परिणामों और संभावित उपचारों के बारे में बात करती है। इसके अलावा यह रिपोर्ट नीतियों के विकास में अंतर्निहित ऐतिहासिक प्रक्रिया पर भी नज़र डालती है, ताकि यह समझा जा सके कि उन्हें कैसे बदला जा सकता है। बेरोजगारी का मौजूदा मंजर बेहद भयावह है और यह वर्तमान आर्थिक मॉडल का परिणाम है।

जब कोई समाज किसी समस्या का सामना करता है और उसका समाधान करने में असमर्थ होता है, तो इसका अर्थ है कि कहीं न कहीं कुछ बुनियादी गड़बड़ी है। समस्या का समाधान करने के लिए उसके मूल कारणों की तलाश करने की जरूरत होती है। ये कारण उस व्यवस्था तथा समाज में उसकी सामाजिक और राजनीतिक सोच में निहित हो सकते हैं, जो समय के साथ विकसित हुई है। समाधान खोजने और समस्या को ठीक करने का दायित्व अमूमन शासकों पर होता है। समय के साथ ऐसा करने में अगर वे विफल होते हैं, तो इसका तात्पर्य ये है कि समस्या के समाधान के लिए प्रतिबद्धता की कमी है। यह बात देश में रोजगार सृजन और बेरोजगारी के मुद्दे पर भी लागू होती है, जो समय के साथ बढ़ रही है और नागरिकों के विशाल बहुमत को प्रभावित कर रही है।

मूल मुद्दा
गांधीजी ने कहा कि भारत एकमात्र ऐसा देश है, जो सभ्यतागत विकल्प देने में सक्षम है। इस बात को गंभीरता से लेने का समय आ गया है, क्योंकि बेरोजगारी एक गंभीर मुद्दा बन गया है, जिससे तत्काल निपटने की जरूरत है। यह मुद्दा बहुआयामी है, क्योंकि इसके पीछे कई कारण हैं और इसके व्यापक निहितार्थ हैं। यह अर्थव्यवस्था के विकास, असमानता, गरीबी, आदि को प्रभावित करता है। इसके लैंगिक आयाम भी हैं और हाशिए के वर्गों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यह सामाजिक न्याय की कमी को दर्शाता है। बेरोज़गारी अधिकतर युवाओं के बीच व्याप्त है। वे जितने अधिक शिक्षित होते हैं, उतनी ही अधिक बेरोजगारी का सामना करते हैं। इसके राजनीतिक और सामाजिक निहितार्थ भी होते हैं।


आय-सारणी में शीर्ष 1% की तेजी से बढ़ती आय यह इंगित करती है कि अर्थव्यवस्था के पास संसाधन तो हैं, लेकिन उनका वितरण बहुत असमान है। शीर्ष पर अमीरों ने एक ऐसी प्रणाली बना ली है, जो उन्हें विकास से होने वाले अधिकांश लाभों को प्राप्त करने में सक्षम बनाती है और बाकी को थोड़ा कम कर देती है।
यदि बेरोजगारी जैसी कोई भी विकृति लंबे समय तक बनी रहती है, तो समझिये कि इसका मूल, समाज की धारणाओं और प्राथमिकताओं में निहित है। इसे भारत द्वारा स्टेट कैपीटलिज्म अपनाने और अभिजात्य नीति निर्माताओं, जिन्होंने अपने हित में विकास का ट्रिकलडाउन मॉडल अपनाया, की सामंती प्रवृत्तियों के रूप में चिह्नित किया जा सकता है।

इसके अलावा, पूंजीवाद ने विश्व स्तर पर बाजारीकरण का रूप ले लिया है, जो अधिकतम मुनाफे की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। लेकिन क्या ऐसे में मजदूरों को बेरोजगार रखना जायज है? इसका अर्थ तो यह हुआ कि उत्पादन में कमी हो रही है, फलस्वरूप अर्थव्यवस्था का आकार कम हो रहा है, इससे मुनाफे का स्तर भी कम होता है। इसलिए, व्यवस्था को सभी के लिए उत्पादक रोजगार पैदा करना चाहिए।

बाजार की ‘दक्षता’ की धारणा यथास्थितिवादी है, क्योंकि यह समाज में अन्याय को कायम रखने का प्रयास करती है। ‘उपभोक्ता की संप्रभुता’ का अर्थ है कि व्यक्ति जो चाहे, उसे वह करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाना चाहिए। समूह को उनकी पसंद में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, चाहे वे सामाजिक रूप से कितने भी हानिकारक क्यों न हों। यह इस धारणा को बढ़ावा देता है कि अगर मेरे पास पैसा है तो मैं वह कर सकता हूं, जो मुझे पसंद है। बड़े व्यवसायियों और गरीब श्रमिकों के बीच आय का अनुपात एक की तुलना में 10,000 गुना अधिक है। बाजार को इसमें कुछ भी गलत नहीं दिखता, बल्कि वह तो इसका जश्न मना रहा है।
बाजार समाज के हर हिस्से में, उसके हर पहलू में, अपने सिद्धांतों के जरिये समाज के विकल्पों का निर्धारण कर रहा है। इन्हीं सिद्धांतों में से एक है ‘डॉलर वोट’। यह नीति निर्माताओं की पसंद है और वे हाशिए पर पड़े लोगों की तुलना में संपन्न लोगों को प्राथमिकता देते हैं। अमीरों का समूह, नीति निर्माताओं के सामाजिक निर्णयों को निर्धारित करता है। नतीजतन, समानता और हिस्सेदारी उनके एजेंडे में ही नहीं होती।

जैसे-जैसे बाजार बढ़ता जाता है, जीवन से सामाजिक पहलू अलग हो जाता है, लोगों के संकट और जीवन की हालात समाज की चिंता नहीं रह जाते। ऐसे में बेरोजगारी, मशीन का स्विच ऑफ बटन बन जाती है। सामाजिक सरोकारों को इससे जुड़ने की जरूरत नहीं रह जाती। असल में, पूंजीपति श्रम को अपने नियन्त्रण में रखने के लिए बेरोज़गारी का एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करते हैं और आधुनिक अर्थशास्त्र इसे स्वाभाविक मानता है। मुद्रास्फीति बड़ी संख्या में श्रमिकों को कमजोर करती है, क्योंकि उनके पास क्रय शक्ति नहीं रह जाती।

समाज को सभी को उत्पादक रोजगार देने का लक्ष्य रखना चाहिए या नहीं, यह लोगों के बारे में उसके दृष्टिकोण को दर्शाता है। समाज को यह चुनने की जरूरत है कि क्या अधिक महत्वपूर्ण है – लाभ या हाशिए वाले बहुमत का कल्याण। दरिद्र नारायण का गांधीजी का विचार, भारतीय अभिजात्य समाज द्वारा बड़े पैमाने पर खारिज कर दिया गया, जो बताता है कि समाज की प्राथमिकता क्या है।

ऐतिहासिक संदर्भ
स्वतंत्रता के साथ, भारत का अभिजात्य शासक समूह भारत की आधुनिकता पर काम करने के बजाय पश्चिम की आधुनिकता की नकल के चक्कर में पड़ गया। इसलिए, सारा फोकस मॉडर्न सेक्टर के विकास पर ही रहा। शहरी अभिजात्य वर्ग के नीति निर्माताओं ने इसे ही विकास मान लिया। लेकिन, लोगों को कृषि, ग्रामीण क्षेत्रों और गरीबी से बाहर निकालने की भारत की जरूरत की तुलना में यह क्षेत्र बहुत कम रोजगार पैदा करता है। कृषि व्यापार की शर्तें किसानों के खिलाफ शिफ्ट कर दी गईं, ताकि शेष बचे लोगों को उद्योगों और शहरी क्षेत्रों में जोता जा सके। लाखों आदिवासी, भूमिहीन और सीमांत किसान बेसहारा होकर शहरों में आ गए और उद्योगों तथा संपन्न वर्गों के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध कराया। हाशिए पर पड़े इन लोगों की समस्या की असली गंभीरता 2020 में महामारी के दौरान उजागर हुई।

अभिजात्य वर्ग 1991 से लागू हुई अर्थनीति को गरीबी कम करने में सफल मानता है। लेकिन, गरीबी ने अपना रूप बदल लिया है, क्योंकि गरीबी स्थान और समय सापेक्ष, गतिशील लक्ष्य है। गरीबी और यथोचित काम की कमी एकदूसरे के पर्याय हैं, यही कारण है कि ‘काम का अधिकार’ भारत में लंबे समय तक निरंतर चिंता का विषय रहा है।

स्वतंत्रता के बाद सरकार ने गरीबों की मदद के लिए टॉप-डाउन नीतियां अपनायीं। नीतियों की यह खासियत 1991 में एनईपी की शुरुआत के साथ ही खत्म कर दी गयी। नीति के प्रतिमान बदल दिए गये, ताकि किसी व्यक्ति की समस्या के लिए समूह या समाज जिम्मेदार न हो। श्रमिकों के जीवन और पर्यावरण की कीमत पर विकास या किसी भी कीमत पर विकास हमारी नीति बन गया। नतीजतन, प्रति व्यक्ति कम आय के साथ भारत, दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों और नदियों वाला देश बन गया, इस स्थिति ने हाशिए के लोगों को और अधिक प्रभावित किया है।

सघन पूँजी वाले आधुनिक या उन्नत क्षेत्र ग्रामीण इलाकों से विस्थापित होने वाले प्रवासियों को पर्याप्त काम नहीं दे सकते। इसके परिणामस्वरूप श्रमिकों की एक आरक्षित सेना का निर्माण हुआ है, जिसने श्रम को कमजोर कर दिया है और उसे काफी कम मजदूरी स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है। इस संकट ने सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष को जन्म दिया है, जो बताता है कि विकास का यह प्रतिमान सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरण की दृष्टि से अस्थिर है।

1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद हुआ वैश्विक आर्थिक विकास बेहद महत्वपूर्ण है। विश्व में वैश्वीकरण का स्वरूप ही नहीं बदला, विकासशील देशों की आंतरिक गतिशीलता भी बड़ी शक्तियों के वैश्विक हितों से निर्धारित होने लगी। 1980 के दशक में बनने वाली नीतियां बाजार के समर्थन में उतर आयीं। यह मुक्त बाजार की व्यवस्था नहीं थी। विश्व बैंक ने महसूस किया कि असमानता बढ़ने के कारण इन नीतियों के चलते सामाजिक विस्फोट हो सकता है। इसलिए, उसने पूंजीवाद को एक मानवीय चेहरा देने के लिए उसकी सुरक्षा का प्रस्ताव रखा, 1950 के दशक में यूरोप में ‘कल्याणकारी पूंजीवाद ने यही किया था।

लेकिन इससे मांग की समस्या खत्म नहीं हुई। अनेक मोड़ों से गुजरते हुए राजनीति ने पिछले एक दशक में वैश्विक स्तर पर वैश्वीकरण को बदनाम करना शुरू किया है। बढ़ते संकट से निपटने के लिए तकरीबन 2015 से यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBIC) का प्रस्ताव रखा जा रहा है। यह पूंजीवाद के मूल सिद्धांत से पीछे हटने जैसा है। चाहे वह ‘सेफ्टी नेट’ हो या ‘यूबीआईसी’ का विचार, पूंजीवाद ने यह स्वीकार कर लिया है कि यह पर्याप्त रोजगार नहीं पैदा कर सकता।

वैश्विक वित्तीय पूंजी, इस संकट से बाहर निकलने का रास्ता तलाश रही है, लेकिन उन बुनियादी बदलावों के लिए तैयार नहीं है, जो समाधान प्रदान कर सकते हैं। 1960 के दशक के मध्य से भारत में आर्थिक संप्रभुता का ह्रास हुआ है, क्योंकि नीतियां तेजी से वैश्विक पूंजी के प्रभाव में आ गई हैं। नतीजतन, सरकार भारत समस्याओं से निपटने में अक्षम हो रही है।

कानूनी पहलू
संविधान की प्रस्तावना ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का वादा किया था। विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता का वादा किया था। यह व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करते हुए स्थिति और अवसर की समानता तथा बंधुत्व को बढ़ावा देने की बात करता है। लेकिन उचित काम के अभाव में तो व्यक्ति जीवित रहने भर मजदूरी अर्जित करने में भी सक्षम नहीं होगा, इसलिए यह स्थिति संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करने वाली है।

भारतीय संविधान में प्रदान किए गए 6 मौलिक अधिकारों में से 4 आय और कार्य के आर्थिक पहलुओं से सीधे जुड़े हुए हैं। इनका उपयोग काम के अधिकार को फ्रेम करने के लिए किया जा सकता है।

युवा, शैक्षणिक, लैंगिक और रीजनल डिफ़रेंस के मुद्दे
भारत में बेरोजगारी के बारे में चार पहलुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। 15 से 29 आयु वर्ग के युवाओं में बेरोजगारी व्याप्त है। 2. व्यक्ति जितना अधिक शिक्षित होगा, बेरोजगार होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी। यह विशेष रूप से महिलाओं के लिए है। 3. बड़ी संख्या में लोगों को उनके द्वारा अर्जित की गई डिग्री या योग्यता के अनुरूप काम नहीं मिलता है।

उचित नौकरी पाने में असमर्थ बेरोजगार युवक को लगता है कि उसके कारण उसका परिवार भी असफल हो गया है। चारों ओर ताने और हताशा हैं। कई युवा मादक द्रव्यों के सेवन, परिवार में हिंसा, विभिन्न प्रकार की अवांछनीय गतिविधियों या आत्महत्या तक में फंस जाते हैं।


अध्यापन भी संकट में है। यह किसी कार्यालय या कारखाने की नौकरी करने जैसा नहीं है। इसके लिए प्रतिबद्धता और मौलिकता की आवश्यकता होती है। दुर्भाग्य से, अधिकांश पढ़ाई रट कर होती है, जो ज्ञानपरक नहीं है, यह पद्धति शिक्षा को नुकसान पहुंचाती है। इस तरह उदासीन शिक्षकों और उदासीन छात्रों का एक दुष्चक्र पैदा होता है। कोई आश्चर्य नहीं कि शिक्षा के सामान्य मानक खराब हैं और शिकायत बेरोजगारी की होती है। इसके अलावा, शोध और शिक्षण से जुड़े समुदाय की प्रतिष्ठा और आत्मविश्वास में कमी को देखते हुए, नीति निर्माण राजनेताओं और नौकरशाहों के हाथों में चला गया है जो शिक्षा के परिवेश व जरूरतों को ही नहीं समझते। यह खासकर उच्च शिक्षा के लिए एक अभिशाप है।

श्रम बल (एलएफपीआर) में महिलाओं की कम भागीदारी घर और समाज में उनकी स्थिति को कमजोर करती है, क्योंकि उनके हाथ में आय नहीं होती। यह उनकी तरक्की के खिलाफ काम करता है। रोजगार के सन्दर्भ में अलग अलग इलाकों की अलग-अलग क्षेत्रीय विविधताएं हैं। अधिक उन्नत राज्य पिछड़े राज्यों की तुलना में अधिक काम और बेहतर गुणवत्ता का सृजन करते हैं। इसके बाद वाले वे हैं जो सरकारी नौकरियों पर अधिक निर्भर हैं। अधिकतर युवा सरकारी नौकरियों की उम्मीद पाले रहते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र, जो बमुश्किल 4% लोगों को रोजगार देता है, बेरोजगारी की समस्या का समाधान नहीं कर सकता है। आम तौर पर नौकरियों की कमी पर युवाओं का विरोध क्यों नहीं होता? यह सच है कि सार्वजनिक क्षेत्र में बड़ी संख्या में पद खाली पड़े हैं और इन्हें भरने की आवश्यकता है। युवाओं में व्यापक मुद्दों के प्रति जागरूकता की कमी उच्च शिक्षा संस्थानों और यूथ पोलिटिक्स के पतन का प्रत्यक्ष परिणाम है। छात्र अधिक से अधिक अलग-थलग होते जा रहे हैं और सोशल मीडिया तथा मादक द्रव्यों के जाल में फंस रहे हैं। कई लोग झूठी हठधर्मिता, अवैज्ञानिक परंपराओं और धार्मिकता में विश्वास करने के लिए तैयार हो जाते हैं। भविष्य के लिए कोई उम्मीद नहीं दिखती, पर वे यह कहते दिख जायेंगे कि हमारा अतीत गौरवशाली था। यह दक्षिणपंथी विचारों का प्रभाव है।

आंकड़ों से सम्बंधित मुद्दे
भारत में रोजगार की स्थिति का आंकड़ों और उनकी कठिन परिभाषाओं के आधार पर विश्लेषण जटिल है। एक तो आंकड़ों की पर्याप्तता में कमी है, दूसरे वे स्पष्ट नहीं हैं। संगठित क्षेत्र में काम करने वालों का आंकड़ा कुल कार्यबल का केवल 6% बताया जाता है। अब असंगठित क्षेत्र के 94 फीसदी कार्यबल का क्या? यह डेटा गड़बड़ है। भारत के संदर्भ में तीन तरह की परिभाषाओं का उपयोग किया जाता है- सामान्य स्थिति, वर्तमान साप्ताहिक स्थिति और वर्तमान दैनिक स्थिति। कितने ही लोग आधे या चौथाई दिन, कुछ सप्ताह या कुछ महीनों का काम पाते हैं और आंकड़ों में एम्पलॉइड के रूप में गिने जाते हैं। भारत में बेरोजगारों के लिए कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है, दूसरी ओर बेइंतहां गरीबी है। इसका तात्पर्य है कि लोगों को जिंदा रहने के लिए काम करना पड़ता है और उन्हें नियोजित मान लिया जाता है। अधिकांश बड़े देशों की तुलना में भारत में एलएफपीआर कम (45.6%) है। वह भी 1990 में 58.3 से गिरकर 2021 में 45.6% हुआ है। अभी यह कुछ दक्षिण एशियाई देशों की तुलना में भी कम है।

भारत बेरोजगारी के बजाय अल्प रोजगार और प्रच्छन्न बेरोजगारी से कैरेक्टराइज़ किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं और शिक्षित युवाओं में यह समस्या अधिक विकट है। इस प्रकार की बेरोजगारी के परिणामस्वरूप गरीबी और सामाजिक अपशिष्ट पैदा होते हैं और अर्थव्यवस्था के संभावित उत्पादन में कमी आती है। यह व्यवस्था और पूंजीपतियों के लिए बहुत बड़ी कीमत है।

भारत की सरकार में कर्मचारियों की भारी कमी है। प्रति लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों, प्रशासकों, पुलिस आदि की संख्या अधिकांश देशों की तुलना में बहुत कम है। संगठित क्षेत्र का रोजगार 1990-91 में 3.32% से गिरकर 2011-12 तक 2.47% हो गया है। इसी से जुड़ा एक तथ्य यह भी है कि श्रम एक्सचेंजों में रजिस्टर्ड लोगों की संख्या 34.6 मिलियन से बढ़कर 40.2 मिलियन हो गई है। 2014 में वादा था न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन का। सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन इसका मतलब सरकार में रोजगार को और कम करना नहीं होना चाहिए था।

केवल विकास नहीं हो सकता समस्या का समाधान
यदि संगठित क्षेत्र और अधिक निवेश करे और तेजी से बढ़े तो भी बेरोजगारी की समस्या न केवल बनी रहेगी, बल्कि और भी विकराल हो जाएगी। छोटे और सूक्ष्म क्षेत्रों की परिस्थितियों में सुधार करके काम के सृजन पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

अपने नजरिये को सही ठहराने के लिए अभिजात्य नीति निर्माताओं का एक स्वयंभू नारा है- सबसे पहले विकास। उनका तर्क है कि वितरित होने से पहले पैसा बढ़ना चाहिए। उनका ख्याल है कि यह वितरण ट्रिकल डाउन करेगा। हाशिए पर पड़े लोगों को प्रतीक्षा करने की आवश्यकता है। सवाल है कि आखिर कब तक? मौजूदा विकास की तुलना में तेज समान विकास हो सकता है, क्योंकि तब मांग की समस्या प्रकट नहीं होगी। यह अधिक मानवीय और टिकाऊ भी होगा।

इसलिए, जबकि सरकार सीधे तौर पर पर्याप्त रोजगार पैदा नहीं कर पा रही है, अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन के लिए नीतियों पर पुनर्विचार किया जा सकता है, जो सम्पूर्ण रोजगार को संभव बनाए। खेल के नियमों को ठीक करना होगा, इसका मतलब है कि उन नीतियों में बदलाव करना होगा, रोजगार सृजन जिनका लक्ष्य नहीं है।

रोजगार अर्थव्यवस्था में मांग, जीडीपी वृद्धि, निवेश पैटर्न, प्रौद्योगिकी, कराधान-व्यय, उद्यमिता, शिक्षा-कौशल स्तर, काली अर्थव्यवस्था और सामाजिक अपशिष्ट जैसे प्रचलित परिवेश पर निर्भर करता है। यहां तक कि कृषि में भी मशीनीकरण बढ़ रहा है, जो श्रम को विस्थापित कर रहा है। लोग जो कुछ भी कर सकते हैं, वह करने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि सिस्टम उनके लिए काम नहीं कर रहा है और उस अर्थ में वे अवशिष्ट कार्य करते हैं।

देश में लगभग 6,000 बड़े व्यवसाय, 6 लाख छोटी और मध्यम इकाइयाँ और 6 करोड़ सूक्ष्म इकाइयाँ हैं। अधिकांश रोजगार सूक्ष्म इकाइयों में है। दुर्भाग्य से, वर्तमान में समग्र रूप से एमएसएमई के लिए नीतियां बनाई जाती हैं और इसका लाभ ज्यादातर मध्यम क्षेत्र द्वारा लिया जाता है। सूक्ष्म और लघु इकाइयों में तीन चीजों का अभाव है – वित्त, विपणन और टेक्नोलॉजी का उन्नयन। जब भारत में निजी क्षेत्र की बड़ी इकाइयाँ भी शायद ही प्रौद्योगिकी विकसित कर रही हैं, तो ऐसे में यह कल्पना करना मुश्किल है कि छोटी या सूक्ष्म इकाइयाँ ऐसा करेंगी। सरकार द्वारा सहकारी समितियों की स्थापना को प्रोत्साहित किये जाने की आवश्यकता है।

बढ़ती बेरोजगारी के कारक
बेरोजगारी के महत्वपूर्ण कारक ये हैं-
रोजगार एक अवशिष्ट है- ध्यान संगठित क्षेत्र में निवेश पर है जो बहुत कम रोजगार पैदा करता है।

बाजारीकरण, आपूर्ति की पक्षधर नीतियां और श्रम का कमजोर होना-एनईपी ने श्रम को कमजोर और विभिन्न तरीकों से पूंजी को मजबूत किया है। न केवल संगठित और असंगठित क्षेत्रों के बीच, बल्कि श्रम का प्रतिनिधित्व करने वाली कई ट्रेड यूनियनों के बीच विभाजन के कारण श्रम और कमजोर हो गया है। नीति निर्माताओं का तर्क है कि रोजगार में लचीलेपन की आवश्यकता है, यह गलत है क्योंकि 94% लोग असंगठित क्षेत्र में हैं और उन्हें कोई सुरक्षा नहीं है। फिर भी बेरोजगारी बढ़ रही है। श्रम को कमजोर करने वाले ये कारक सबको रोजगार देने वाली नीतियों की मांग करने से रोकते हैं।

बढ़ती असमानता और मांग में कमी- अर्थव्यवस्था में बढ़ती असमानता के परिणामस्वरूप मांग में कमी आती है, जब तक कि निवेश और/या सरकारी व्यय में वृद्धि न हो और/या निर्यात अधिशेष न बढ़े। अतिरिक्त उत्पादन की समस्या पर काबू पाने का एक तरीका आयुध का उत्पादन करना है, जो मशीन का एक रूप है। अगर यह नहीं बिका, तो नष्ट हो जाता है या अप्रचलित हो जाता है और अधिक उत्पादन नहीं करता है। अल्पकालिक तौर पर तो युद्ध और हथियारों के माध्यम से रोजगार पैदा हो जाता है, लेकिन समय के साथ यह रोजगार को कम करता है।

टेक्नोलॉजी तेजी से बदल रही है- ऐसे में कुछ नौकरियां बेमानी हो जाती हैं, जबकि नई संभावनाएं भी खुलती हैं। जब परिवर्तन तेजी से होता है तो श्रमिकों को नई नौकरियों के लिए फिर से प्रशिक्षित करने के लिए बहुत कम समय होता है। पिछले कुछ दशकों में तकनीकी प्रगति की दर तेज और कृत्रिम बुद्धिमत्ता अधिक होने से पुन: प्रशिक्षण के लिए बहुत कम समय मिल रहा है।

काले धन की अर्थव्यवस्था बड़ी और स्थायी है- नीतिगत विफलता, पूंजी का पलायन और सामाजिक अपव्यय इसके परिणाम होते हैं। ये कारक अर्थव्यवस्था को और खराब, विकास को धीमा और रोजगार सृजन को क्षमता से कम कर देते हैं। इसने विकास को 5% तक धीमा कर दिया है। अगर काली अर्थव्यवस्था नहीं होती तो अर्थव्यवस्था 8 गुना बड़ी हो सकती थी। काला धन विकास के लिए संसाधनों की कमी का कारण बनता है। इस प्रकार, अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। रोजगार बढ़ाने के वादे पूरे नहीं होते। काली अर्थव्यवस्था ने ही एनपीए को भी जन्म दिया।

असंगठित क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने वाले आर्थिक झटके- देश की नीतियां संगठित क्षेत्र के पक्ष में हैं। यह असंगठित क्षेत्र की कीमत पर बढ़ रहा है और अर्थव्यवस्था की रोजगार क्षमता को कम कर रहा है। इन त्रुटिपूर्ण नीतियों ने अर्थव्यवस्था को झटका दिया है, जिससे असंगठित क्षेत्र प्रभावित हुआ है। पहला झटका विमुद्रीकरण था, जो इस गलत धारणा पर आधारित था कि काले धन का मतलब नकदी होता है। दूसरा झटका 8 महीने बाद जुलाई 2017 में जीएसटी के रूप में आया। यह भी संगठित क्षेत्र को लाभ और असंगठित क्षेत्र को नुकसान पहुँचने वाला साबित हुआ। 2018 में तीसरा झटका लगा, जब गैर-बैंकिंग फाइनेंस कंपनियां संकट में आयीं। महामारी और लॉकडाउन चौथा और सबसे गंभीर झटका था। परिणामस्वरूप संगठित क्षेत्र अच्छा कर रहा है, असंगठित क्षेत्र लड़खड़ा गया है और इससे रोजगार प्रभावित हुआ है।

सामाजिक क्षेत्रों पर अपर्याप्त ध्यान- निजी क्षेत्र ने बड़े पैमाने पर सामाजिक क्षेत्रों में निवेश कम किया है, ताकि वे वहां व्यापार के अवसरों का फायदा उठा सकें। यह बहुत ही अदूरदर्शी कदम है, क्योंकि सोशल सेक्टर पर सार्वजनिक व्यय में वृद्धि से न केवल अधिक रोजगार मिलेगा, बल्कि अधिक उत्पादक और बेहतर प्रशिक्षित श्रमिक भी मिलेंगे।

गरीबी और निर्वाह मजदूरी का अभाव- गरीबी को न्यूनतम आवश्यक सामाजिक खपत के संदर्भ में परिभाषित किया जाना चाहिए। अर्थव्यवस्था दो हलकों में बंट गई है। 5% संपन्न लोगों में से एक वास्तविक उपभोक्ता हैं और बाकी कम उपभोग करते हैं। अर्थव्यवस्था की वृद्धि पूर्वस्थिति पर निर्भर करती है। यह क्षेत्र, विकास के बावजूद शायद ही अतिरिक्त रोजगार पैदा करता है। इसलिए, यदि सभी को जीवित रहने योग्य मजदूरी देकर गरीबी का उन्मूलन हो तो विकास, इक्विटी और रोजगार सृजन का एक पुण्य चक्र बनाएगा।

रोजगार सृजन का लैंगिक आयाम- श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी दर पुरुषों की तुलना में बहुत कम है। भारत में अवैतनिक कार्य का सर्वाधिक असमान लैंगिक विभाजन है। महिलाओं को उपयुक्त कार्य उपलब्ध कराने से बेरोजगारी दूर करने में काफी मदद मिलेगी।

बेरोजगारी के क्षेत्रीय आयाम- बेरोजगारी गरीब राज्यों में केंद्रित है, इसलिए इक्विटी से अधिक रोजगार मिलेगा। इससे देश में संघवाद को भी बढ़ावा मिलेगा।

वैश्वीकरण और संप्रभुता की हानि- पूंजी अत्यधिक गतिशील है और समाज से रियायतें लेती है। श्रम का कमजोर होना, सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण और बाजार के मुताबिक स्टेट का हस्तक्षेप आदि इसके उदाहरण हैं। लेकिन इन सभी ने रोजगार सृजन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। इसके अलावा, अमीर भारतीय दुनिया के अमीरों के साथ वैश्वीकरण करना चाहते हैं। परिणामस्वरूप, देश और देश में हाशिए पर रहने वालों के साथ उनका भावनात्मक जुड़ाव कम हो गया है। जैसे-जैसे कुलीन शासकों की आत्म-केंद्रण की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे समता के विचार के बारे में समाज का स्मृतिभ्रम बढ़ता जाता है। वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप विकासशील देशों में प्रदूषणकारी उत्पादन के साथ-साथ श्रम का अंतर्राष्ट्रीय विभाजन हो रहा है। इसलिए, प्रदूषणकारी उद्योगों के कारण भले ही रोजगार में वृद्धि हुई है, ख्याल रखिये कि यह पर्यावरण और श्रमिकों के स्वास्थ्य की कीमत पर है।

वर्तमान आर्थिक स्थिति: बेरोजगारी एक बढ़ती हुई समस्या
उच्च मुद्रास्फीति और न्यून विकास की वर्तमान स्थिति को मुद्रास्फीतिजनित मंदी के रूप में जाना जाता है। हाशिए पर पड़े लोगों के लिए, यह दोहरी मार है। यूक्रेन में युद्ध, चीन की शून्य-कोविड नीति और केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने से स्थिति और जटिल हो गई है।

सरकार का समाधान हाशिये पर पड़ा है और जब समस्या पर्याप्त मांग की कमी की है, तब वह सप्लाई सपोर्टेड नीतियां लागू कर रही है। 2014 के बाद से सत्तारूढ़ सरकार जो कुछ नहीं कर सकी, उसे दो कमजोर वर्गों- किसानों और श्रमिकों पर थोपने की कोशिश की गई। कृषि विधेयक और नई श्रम संहिता लागू की गई। आंकड़ों और नीतियों दोनों में बहुमत अदृश्य है। घटते हुए असंगठित क्षेत्र का सीधा संबंध बढ़ते संगठित क्षेत्र से है। इसलिए, विकास के आंकड़े गलत हैं, लेकिन नीति इस पर काम करती है।


रोजगार और प्रौद्योगिकी
समाज में कितना रोजगार सृजित होगा, यह निर्धारित करने में प्रौद्योगिकी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रौद्योगिकी तीव्र गति से बदल रही है, भारत में कमजोर अनुसंधान एवं विकास के कारण अधिकांश प्रौद्योगिकी का आयात किया जाता है। इस तकनीक में भारत में पहले से मौजूद तकनीक की तुलना में रोजगार क्षमता कम है, इसलिए बेरोजगारी बढ़ती है।

तकनीकी परिवर्तन और सामाजिक नीति- प्रौद्योगिकी के कारण परिवर्तन की प्रक्रिया की एक लागत होती है। समाज में तकनीकी परिवर्तन लाने के लिए उपयुक्त सिस्टम विकसित करने की आवश्यकता है, ताकि इसकी सामाजिक लागतों को सबके साथ साझा किया जा सके। नई तकनीक बड़े पैमाने पर विकसित देशों में ही विकसित हो रही है और यह उनकी जरूरतों के लिए उपयुक्त है, लेकिन जरूरी नहीं कि भारत जैसे विकासशील देश के लिए भी अच्छी हो। उच्च तकनीक से कंपनी को लाभ की ओर अग्रसर होना चाहिए, लेकिन रोजगार की संभावना कम हो जाती है। इसलिए, जो लोग प्रौद्योगिकी का आयात करते हैं और रोजगार को कम करते हैं, उनके ऊपर टैक्स लगाया जाना चाहिए, जिसका उपयोग रोजगार के क्षेत्र में किया जा सकता है।

पूर्ण रोजगार नीति के तत्व
पूर्ण रोजगार प्राप्त करने की दिशा में खंडित दृष्टिकोण का कोई उपयोग नहीं होता। इसके लिए ऐसी नीतियों की आवश्यकता होती है, जो अर्थव्यवस्था को अद्यतन बनाए रख सकें। इसके लिए राष्ट्र के कानूनी, सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं में भारी बदलाव की आवश्यकता है। कुछ प्रमुख आवश्यक परिवर्तनों की चर्चा नीचे की गई है। कार्यान्वयन के लिए इन पर और काम किया जा सकता है-

कानूनी/संवैधानिक पहलू- एक ‘काम का अधिकार’ कार्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए।

सामाजिक-राजनीतिक पहलू- प्रस्तावों का समर्थन करने के लिए युवाओं, किसानों, श्रमिकों, मध्यम वर्गों, महिलाओं, हाशिए के वर्गों आदि को लामबंद किया जाना चाहिए।

सामान्य आर्थिक पहलू- परिवर्तन के परिणामस्वरूप मुद्रास्फीति होगी। जो मुद्रास्फीति के अनुकूल नहीं होंगे, उनकी क्रय शक्ति खो जाएगी। सवाल यह है कि सिस्टम कितनी महंगाई बर्दाश्त कर सकता है? निवेश में तेजी आएगी तो ग्रोथ बढ़ेगी। यदि काली अर्थव्यवस्था में कटौती की जाती है, तो दक्षता और हिस्सेदारी बढ़ेगी तथा विकास होगा।

उत्पादन संरचनाओं में परिवर्तन- जैसे-जैसे हाशिए पर पड़े लोगों की आय बढ़ेगी, भोजन और बड़े पैमाने पर उपभोग की वस्तुओं की मांग बढ़ेगी। सेमी-ड्यूरेबल्स की मांग भी एक हद तक बढ़ेगी। जरूरी चीजों की डिमांड कम बढ़ेगी। इस प्रकार, अर्थव्यवस्था में उत्पादन की संरचना बदल जाएगी और आयात की तीव्रता कम होगी।

सबसे बड़े नियोक्ता कृषि में सुधार- यदि कृषि में श्रमिकों को वर्तमान में मिलने वाली मामूली मजदूरी के बजाय पर्याप्त मजदूरी मिलती है, तो इससे भोजन और उपभोग की वस्तुओं की मांग बड़े पैमाने पर बढ़ेगी। पूर्ण लागत के आधार पर सभी फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा से किसानों के लिए उच्च मूल्य सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी। तो, किसानों और श्रमिकों दोनों की आय में वृद्धि होगी। इससे छोटे और सूक्ष्म क्षेत्रों में गैर-कृषि और रोजगार की मांग भी बढ़ेगी। शहरी क्षेत्रों में पलायन रुकेगा। महंगे शहरी बुनियादी ढांचे की जरूरत घटेगी।

सामाजिक क्षेत्र और सेवाएं- सामाजिक क्षेत्रों में तेजी से निवेश बढ़ाने की जरूरत है। चूंकि ये श्रम प्रधान क्षेत्र होते हैं, इसलिए वे अधिक रोजगार पैदा करेंगे। शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय को सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 6% और स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 3% तक बढ़ाया जाना चाहिए। देश में भौतिक बुनियादी ढांचा कमजोर है, खासकर ग्रामीण इलाकों में। इसके लिए निवेश की जरूरत है। मनरेगा के लिए आवंटन को सकल घरेलू उत्पाद के कम से कम 1% तक बढ़ाया जाना चाहिए। बेरोजगार युवाओं के लिए एक शहरी रोजगार गारंटी योजना शुरू करने की आवश्यकता है। बुनियादी ढांचे के लिए बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के बजाय बजटीय आवंटन छोटी स्थानीय परियोजनाओं पर केंद्रित होना चाहिए।

वित्तीय सेवाएं- विकास में इनकी अहम भूमिका होती है। अधिकांश सूक्ष्म क्षेत्र और कृषक समुदाय का एक बड़ा हिस्सा अनौपचारिक बाजारों पर निर्भर करता है, जहां ब्याज दरें अधिक होती हैं। इन्हें स्वयं सहायता समूहों और माइक्रो बैंकिंग से मदद मिलेगी। बैंकिंग क्षेत्र भी धन को अर्थव्यवस्था के पिछड़े भागों से उन्नत भागों में ले जाने का एक साधन है और इसमें सुधार की आवश्यकता है।

निर्माण और व्यापार क्षेत्र- कृषि के बाद, ये वर्तमान में बड़े नियोक्ता हैं। लेकिन उनके पारंपरिक श्रम को स्वचालित व्यवस्था द्वारा विस्थापित किया जा रहा है। सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को मजबूत करना होगा, ताकि कीमतों पर नियंत्रण रखा जा सके। गांवों में स्थानीय हाट और शहरी क्षेत्रों में झुग्गियों के पास व्यवस्थित रूप से साप्ताहिक बाजार को बढ़ावा देने की जरूरत है। कम पूंजी वाली परियोजनाओं के निर्माण में अधिक समय लगेगा, लेकिन प्राथमिकता रोजगार होनी चाहिए। परियोजनाओं के विवेकपूर्ण मिश्रण की आवश्यकता होगी।

उद्योग- उद्योग में कई बैकवर्ड और फॉरवर्ड लिंकेज हैं, इन्हें बढ़ावा देने की जरूरत है, खासकर बड़े क्षेत्र के बजाय एमएसएमई में। जिन उद्योगों को विशेष रूप से बढ़ावा देने की आवश्यकता है, उन्हें उनके द्वारा सृजित रोजगार की मात्रा से निर्धारित किया जाना चाहिए। इन उद्योगों में भी रोजगार सृजन को प्रौद्योगिकी के चुनाव का निर्धारण करना चाहिए। सार्वजनिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उन्हें संसद के प्रति जवाबदेही के साथ ही काम करने में स्वायत्तता की आवश्यकता है। एक मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र भी नीति निर्माताओं और संकट के दौरान हाशिए पर रहने वालों के लिए एक सहायता है, जैसा महामारी के दौरान देखा गया था।

उत्पादन की आयात तीव्रता को कम करना- आवश्यक वस्तुओं का आयात कम करना होगा। फॉर ह्वीलर्स का आयात सघन है। उनके उत्पादन को हतोत्साहित करने की जरूरत है। एक सिस्टम, जो अधिक से अधिक आयात की ओर ले जा रहा है, वह है विदेशी परामर्श फर्मों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों के विशेषज्ञों का बढ़ता उपयोग। विदेशी मुद्रा के संरक्षण और पूंजी की उड़ान को रोकने के लिए उदारीकृत प्रेषण योजना (LRS) को बंद किया जाना चाहिए। भारत विकास के वैकल्पिक रास्ते पर काम करने के में सक्षम है, यह निरंकुश भी नहीं है और बुनियादी जरूरतों पर आधारित है।

जनजातीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना- आदिवासी भारतीय आबादी के सबसे वंचित वर्गों में से एक हैं, जबकि वे अत्यधिक आत्मनिर्भर होते हैं। यदि उन पर उचित ध्यान दिया जाय, तो उन्हें अपने रोजगार के लिए बाहरी समर्थन की आवश्यकता नहीं होगी।

पांच वर्षों में पूर्ण रोजगार के लिए आवश्यक संसाधन- यहाँ दी हुई संख्याएँ सांकेतिक हैं। वर्तमान में संगठित क्षेत्र में लगभग 30 मिलियन श्रमिक हैं, तो असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या 398 मिलियन है। इस प्रकार कुल 428 मिलियन का कार्यबल उपलब्ध है। इनमें शहरी बेरोजगार 9 मिलियन, प्रच्छन्न बेरोजगार 19 मिलियन, नियोजित बेरोजगार 24 मिलियन, मनरेगा बेरोजगार 36 मिलियन, यानी कुल मिलाकर 88 मिलियन हैं। यानि 340 मिलियन कार्यबल को प्रॉपर कार्य उपलब्ध है। 88 मिलियन में यदि लैब फ़ोर्स के 190 मिलियन कार्यबल को जोड़ दें, तो कुल 278 मिलियन कार्यबल को प्रॉपर काम की जरूरत है।

अगर इनमें से नियोजित और मनरेगा बेरोजगारों की 60 मिलियन संख्या घटा भी दें, तो 218 मिलियन के लिए तत्काल काम की जरूरत है।

अब साल के 310 दिनों के लिए 200 रुपये/प्रतिदिन की दर से (वर्तमान प्रति व्यक्ति वार्षिक आय का लगभग 30%) प्रति व्यक्ति 62,000 रुपये प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष की आवश्यकता है। और इस तरह 21.8 करोड़ लोगों के लिए प्रतिवर्ष 13.52 लाख करोड़ रुपये की जरूरत है। यानी 270 लाख करोड़ रुपये के सकल घरेलू उत्पाद का 5% और 5 वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद का 1% हिस्सा इस मद में जायेगा। जब 278 मिलियन और अधिक उत्पादक करेंगे, तो अर्थव्यवस्था में उत्पादन बढ़ेगा। इससे निर्भरता अनुपात कम होगा, परिवार की आय बढ़ेगी और गरीबी कम करने में मदद मिलेगी।

पूर्ण रोजगार के लिए फाइनेंस
संसाधन कम नहीं हैं- अक्सर पूर्ण रोजगार के खिलाफ तर्क दिया जाता है कि संसाधन नहीं हैं। लेकिन पूर्ण रोजगार का अर्थ ही है संसाधनों का पूर्ण उपयोग और इससे अर्थव्यवस्था में अधिक संसाधन उत्पन्न होंगे। सकल घरेलू उत्पाद में 15.5% (गैर-कृषि असंगठित क्षेत्र में उत्पादन का आधा) की वृद्धि होगी। इससे अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ती है। संगठित क्षेत्र की आय भी बढ़ेगी। इस तरह पूर्ण रोजगार प्राप्त करना स्व-वित्तपोषित होगा।

यदि संसाधनों की कमी है तो यह अमीरों और उच्च वर्गों (जनसंख्या का 5%) के उपभोक्तावाद के लिए है, न कि बहुसंख्यकों की बुनियादी जरूरतों के लिए। यह राजनीतिक इच्छाशक्ति है, जो आज हाशिए के लोगों और उनके रोजगार की समस्याओं को हल करने के लिए नहीं दिखती है।

क्या पूर्ण रोजगार की यह योजना पूंजी और अमीरों की उड़ान को गति प्रदान कर सकती है? यह संभावना है। वित्तीय बाजारों पर प्रभाव को कम करने के लिए, नीति निर्माताओं को पूंजी खाता आंदोलनों पर नियंत्रण रखना होगा।

संसाधन जुटाने के लिए कर सुधार- प्रत्यक्ष कर मुद्रास्फीति नहीं बढ़ाते हैं, बल्कि इससे सरकार को अधिक कर राजस्व प्राप्त हो सकता है। वर्तमान में सकल घरेलू उत्पाद के 6% पर, भारत प्रत्यक्ष करों की सबसे कम राशि एकत्र करता है। एक अनुमान के मुताबिक यहां सुझाए गए परिवर्तनों से सकल घरेलू उत्पाद का 6% और मिलेगा। काली आय की जाँच करके और उन्हें कर के दायरे में लाकर अतिरिक्त राशि एकत्र की जा सकती है।

अप्रत्यक्ष कर से मुद्रास्फीति बढ़ती है। हाशिए पर पड़े लोगों से कर कम करने की जरूरत है। जरूरी चीजों पर से जीएसटी हटाकर इसमें सुधार की जरूरत है। ये सुधार असंगठित क्षेत्र के मौजूदा नुकसान को दूर करेंगे और अधिक से अधिक रोजगार सृजन होगा। अर्थव्यवस्था में विलासिता की खपत को कम करने के लिए ऐसी वस्तुओं पर उप-कर लगाया जा सकता है। शुरुआत में अप्रत्यक्ष करों में जीडीपी के 5% की कटौती की जानी चाहिए। विलासिता पर उप-कर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 2% बढ़ाना चाहिए।

कर संग्रह पर प्रभाव: मांग में परिवर्तन- इसका असर होगा, क्योंकि उच्च कर वाली वस्तुओं का उत्पादन स्थिर हो जाएगा, जबकि अन्य वस्तुओं पर कर या शून्य कर की दर कम होगी।

व्यय का सुधार- बजट से बाहर का खर्च सरकार की प्राथमिकताओं को दर्शाता है। व्यय का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव रोजगार सृजन पर पड़ेगा। सरकार के सभी तीन स्तरों को ध्यान में रखा जाना चाहिए, न कि केवल केंद्र सरकार के बजट को। यह रिपोर्ट उन प्राथमिकताओं को प्रस्तुत करती है, जिनका पालन करने की आवश्यकता है।

काली आय की जाँच और संसाधनों का पुनर्नियोजन हो- ब्लैक इनकम टैक्स के दायरे से बाहर है। यह विकास के लिए सरकार के संसाधनों को कम करती है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों की वर्तमान दरों पर यह कर राजस्व का अतिरिक्त 24% प्राप्त कर सकता है। यह उपर्युक्त आवश्यक व्यय के लिए आवश्यक सभी संसाधन प्रदान करेगा। इसे रोकने के लिए आवश्यक कदम वैकल्पिक बजट, 1994-95 में प्रस्तावित किए गए थे।

संकल्प पूरा करने के विकल्पजॉब ओरिएंटेड टिकाऊ विकास की ओर- इसके लिए नीतिगत प्रतिमानों में बदलाव की आवश्यकता है, केवल कुछ कदम स्थिति को बदलने में सक्षम नहीं होंगे। पिच वर्क, केवल समस्या को एक मोर्चे से दूसरे मोर्चे पर ले जाता है।

वैश्वीकरण संबंधित मुद्दे
बाजारीकरण एक दोहरी चुनौती बन गया है। यह न केवल हाशिए के लोगों को और हाशिए की तरफ ठेलता है, बल्कि उपभोक्तावाद को भी प्रोत्साहित करता है। बाजार विफल हो जाते हैं, इसलिए सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है। बाजार न केवल पूर्ण रोजगार की गारंटी नहीं देते हैं, बल्कि वे यह भी चाहते हैं कि बेरोजगारी बनी रहे, ताकि श्रम कमजोर रहे।

तकनीकी का तेजी से परिवर्तन
टेक्नोलॉजी पूर्ण रोजगार की दुश्मन साबित हो रही है। समाज में इसकी शुरूआत को नियंत्रित करने की आवश्यकता होगी, ताकि समय के साथ बेरोजगारी की समस्या से निपटा जा सके। यह लगातार बदलती रहती है, इसलिए कोई एक स्टेप संकल्प नहीं हो सकता है। वर्तमान में, वैश्वीकरण प्रौद्योगिकी के पक्ष में है, क्योंकि अर्थव्यवस्था खुली अर्थव्यवस्था बन गई है और पूंजी अत्यधिक गतिशील है, जबकि देश में प्रौद्योगिकी को कम किया जा सकता है। अनुसंधान एवं विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी, ताकि भारत प्रौद्योगिकी के विकास के बराबर बना रहे। यह रिपोर्ट पूर्ण रोजगार का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए, वैश्वीकरण की डिग्री को कम करने का सुझाव देती है।

समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता
यह रिपोर्ट बेहद जरूरी सुझाव देती है। आज के स्थापित कुलीन शासकों से विरोध रहेगा। यह रिपोर्ट काम के अधिकार को स्वीकार करने के लिए नागरिकों की चेतना को बदलने के लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आंदोलनों की आवश्यकता का सुझाव देती है। अत्यधिक प्रतिकूल रोजगार की स्थिति के बारे में लोगों के बीच व्यापक जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है। अंततः समाज में राजनीतिक और सामाजिक ताकतें निर्णायक कारक होंगी और इसके लिए हाशिए के वर्गों के प्रस्तावों के लिए मजबूत समर्थन की आवश्यकता होगी।

निष्कर्ष
बेरोजगार हारे हुए हैं, इसलिए नहीं कि वे आलसी या अयोग्य हैं, बल्कि इसलिए कि वे व्यवस्था के शिकार हैं। इस रिपोर्ट को उन प्रस्तावों में विभाजित किया जाएगा, जिन्हें लघु, मध्यम और दीर्घावधि में लागू किया जा सकता है। कुल मिलाकर नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन लाना होगा और हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए तत्काल राहत प्रदान करनी होगी। रोजगार बढ़ने से उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ मांग में भी वृद्धि होगी। पूर्ण रोजगार प्राप्त करने के लिए संसाधनों की कमी अमान्य तर्क है, क्योंकि इसे स्व-वित्तपोषित बनाया जा सकता है। यह अभिजात्य वर्ग की धारणा के विपरीत है कि पूर्ण रोजगार का विचार उनके लिए नकारात्मक साबित होगा।
उत्पादकता के निम्न स्तर पर भी सकल घरेलू उत्पाद में वे 16% जोड़ सकते हैं, इस तरह अर्थव्यवस्था की विकास दर में वृद्धि होगी। यदि भारत में अंतर्राष्ट्रीय पूंजी द्वारा थोपी गई वर्तमान प्रणाली के व्यावहारिक विकल्प पर काम किया जाता है, तो यह एक ऐसा मॉडल हो सकता है, जिसका अन्य विकासशील देश भी अनुसरण कर सकते हैं। पूर्ण रोजगार की ओर बढ़ते हुए अधिक सभ्य तथा लोकतांत्रिक समाज का निर्माण संभव है और यह राष्ट्र के हाथ में है। आइए, हम सब मिलकर इस सपने को पूरा करने के लिए आगे बढ़ें।

-प्रो अरुण कुमार

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