कैसे झुकी थीं चम्बल की बन्दूकें!

माखन सिंह ने 13 वर्ष से अधिक समय तक डाकू जीवन व्यतीत करने के बाद जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर 16 अप्रैल 1972 को स्वयं उपस्थित होकर आत्मसमर्पण किया था। यह आत्मसमर्पण अपराध जगत के इतिहास में अप्रतिम घटना के रूप में दर्ज है। माखन सिंह ने अदम्य उत्साह के साथ अपने सारे अपराध स्वीकार किये। दुनिया के इतिहास में अपराध जगत में इस प्रकार के साहस और हृदय परिवर्तन की कोई दूसरी मिसाल कहीं देखने को नहीं मिलती। वे दुर्लभ लोग थे, वे दुर्लभ दृश्य थे. जेपी ने बागियों से कहा था कि आप अपने विरूद्ब लगाये गये सभी सही अपराधों को न्यायालय में स्वीकार कर लें। न्यायालय से जो भी सजा मिले उसे स्वीकार करें और इस प्रकार अपने किये का प्रायश्चित इसी जन्म में कर लें। इससे आपके मन को शान्ति मिलेगी।

30 मार्च 1972 का दिन था, फूलबाग, कानपुर स्थित नगर सर्वोदय मंडल के कार्यालय में बैठक चल रही थी. चम्बल से स्वामी कृष्णानन्दजी पधारे थे, वे चम्बल घाटी शांति मिशन के उपाध्यक्ष भी थे। बैठक में उन्होंने मुझसे कहा कि रवीन्द्र, चम्बल के डाकू समर्पण अभियान में तुम्हारी जरूरत है. मैंने स्वामीजी से पूछा, ‘कब जरूरत है?’ स्वामीजी ने कहा, ‘अभी तरन्त जरूरत है.’ मैने स्वामीजी से 24 घंटे का समय माँगा. स्वामीजी ने कहा, ‘ठीक है, परसों तुम तूफान एक्सप्रेस से आ जाना, आगरा फोर्ट स्टेशन पर उतर कर ताजमहल की ओर जाने वाली ताजगंज रोड पूछ लेना, उसी सड़क पर स्थित सत्संग आश्रम में मैं मिलूँगा।‘

मैं अपने कपड़े, कैमरा, लोटा, डोर आदि जरूरी सामान लेकर जब स्टेशन पहुंचा तो मेरे साथी इकबाल भाई, जगदम्बा भाई, बिन्दा भाई, ओमप्रकाश चतुर्वेदी, शान्तेश्वर मिश्र, सावित्री बहन, बासन्ती बहन और सूर्य प्रसाद द्विवेदी आदि सभी मुझे विदाई देने के लिए सर्वोदय बुक स्टाल पर प्रतीक्षारत मिले. जब गाडी चलने को हुई तो सभी साथियों ने हाथ हिलाकर मुझे भावभीनी विदाई दी। गाड़ी में अकेला बैठा मैं चम्बल के बीहड़ों और डाकुओं के बारे में सोचने लगा. बहन ने खाने के लिए जो पोटली बांध कर दी थी, उसे कुछ देर बाद भूख लगने पर खोलकर खाया। आगरा पहुंचकर स्टेशन से बाहर निकला और ताजगंज रोड पूछ कर अपनी राह पकड़ी. सत्संग आश्रम पहुंचा तो स्वामीजी बैठे मिले. उस दिन शाम को स्वामी जी ने स्वयं चूल्हे पर रोटी और सब्जी बनाई। हम दोनों ने रोटी-सब्जी खाकर रात्रि विश्राम किया। अगली सुबह आगरा से मुरैना जाने वाली बस में मुझे बैठाकर आवश्यक खर्चा भाड़ा देकर स्वामीजी ने मुझसे कहा कि मुरैना उतरकर जौरा में गांधी सेवा आश्रम केन्द्र पहुँच जाना, वहाँ तुम्हें महावीर भाई मिलेंगे. स्वामीजी ने कहा कि वे दो दिन बाद आएंगे।

महावीर सिंह

मुरैना पहुंचते-पहुंचते शाम होने लगी थी और जौरा चुंगी पहुंचते-पहुंचते सूर्यास्त हो गया। डाकुओं के भय से जौरा चुंगी से जौरा की ओर जाने वाली सभी सवारी गाड़ियां बंद हो गयी थीं। चुंगी पर मुझे गांधी आश्रम के एक कार्यकर्ता मिले, उन्होंने बताया कि अब जौरा के लिए सवारी सुबह ही मिलेगी, चलिए रात में मास्टर के यहां रुक जाते हैं। मैं उन के साथ उस रात मास्टर के घर रुक गया। बाद में मुझे पता चला कि वह घर बागी माधव सिंह के परिजनों का ही था, जो कभी सेना में शिक्षक रहे, इस नाते मास्टर भी कहे जाते थे। 3 अप्रैल को दिन में लगभग 10 बजे मैं जौरा के गांधी सेवा आश्रम केन्द्र पर पहुंचा. वहां सुब्बारावजी के सहायक राजीव भाई मिले, उनके आतिथ्य में दो दिन वहीँ रहा और पूर्ण विश्राम किया। 5 अप्रैल को बागी समर्पण अभियान के प्रमुख मंत्री महावीर भाई आ गए. उन्होंने मुझे देखते ही कहा कि अच्छा हुआ रवीन्द्र भाई, तुम आ गए. अच्छा खाना खाकर तैयार रहो, तुम्हें माखन सिंह गिरोह में जाना है. तुम वकील हो, माखन सिंह की कुछ पुलिस सम्बन्धी शिकायतें हैं, उनकी ओर तुम्हीं को ध्यान देना है. उन्होंने एक जीप वाहन, उसका ड्राइवर और साथ में एक नकाबपोश गाइड भी दिया. मेरे अलावा मेरी टीम में रायपुर से आये रामानन्द दूबे और धार जिले के टबलई से आये शिक्षक गोपाल भट्ट भी थे। इस तरह हम तीन लोगों की टीम तैयार हुई। महावीर भाई ने सबलगढ़ में एक बनिये की दुकान बताई थी, जहां से गिरोह के लिए आवश्यक राशन-पानी और जरूरत की वस्तुएं जीप में ले जाने की बात भी कही थी। रामानन्द दूबे हम लोगों में वरिष्ठ साथी थे. वे 1960 में विनोबा जी के समक्ष हुए बागी समर्पण कार्यक्रम में शामिल रहे थे।

बागियों के समर्पण का यह काम बहुत जोखिम भरा था। मुखिया डाकू का विश्वास जीतना सबसे कठिन व प्रमुख काम था. मुखबिर होने का जरा भी संदेह होने पर जान गंवाने का सबसे बड़ा खतरा था। भोजनोपरान्त हम सभी साथी जीप पर सवार होकर सबलगढ़ के लिए चल दिये. वहां जीप में राशन-पानी, आटा, चावल, दाल, तेल, घी, मसाला, साबुन आदि सभी आवश्यक वस्तुएं भरने के बाद गाइड के साथ हम माखन सिंह के डेरे की टोह में चल पड़े. हमारी जीप सफेद रंग की थी, गाइड ने अपना चेहरा कपड़े से ढक रखा था, उसे अपनी पहचान छिपानी जरूरी थी। हमारी जीप गाइड के बताये अनुसार चलती रही. कई स्थानों पर गाइड को उसके सम्पर्क सूत्रों से धोखा भी मिला. अन्तत: लगभग पांच बजे, जब हमारी जीप जंगल की ओर जा रही थी, तभी झाड़ियों में से निकलकर एक बन्दूकधारी ने हमारी जीप को बिलकुल सामने आकर रोक दिया और कड़कती हुई आवाज़ में पूछा, ‘कहाँ जा रहे हो?’ हमने कहा, माखन सिंह के पास जा रहे हैं. उसने कहा, ‘अपनी पहचान बताओ.’ हमने गाइड की ओर इशारा किया, गाइड ने अपने चेहरे पर से नकाब उठाया तो उसने पहचान लिया ओैर हमारी गाड़ी को आगे बढ़ने की स्वीकृति दे दी, साथ ही गैंग के डेरे की ओर जाने वाला रास्ता भी दिखाया। लगभग दो सौ मीटर दूर चलने के बाद हमारी जीप जंगल के किनारे एक रहट लगे स्थान पर पहुंची, जहां माखन सिंह का गिरोह ठहरा हुआ था. गिरोह के मुखिया माखन सिंह जमीन पर पड़े एक गद्दे पर, जिस पर लाल रंग की चादर पड़ी थी, बैठे दिखे. उनका चेहरा रोबीला था, गले में सोने की जंजीरें और उंगलियों में अंगूठियां थीं, उनकी रायफल उनके बगल में रखी हुई थी। कुछ लोग रायफल बंदूक लिए खड़े टहल रहे थे। माखन सिंह के अगल-बगल दो-चार और लोग भी बैठे मिले।

माखन सिंह

माखन सिंह को गिरोह का मुखिया मानकर हमलोगों ने नमस्कार किया, किन्तु उन्होंने काई जवाब नहीं दिया; बस बैठे-बैठे ही पूछा, ‘आप लोग जयप्रकाश जी के साथ हैं?’ हम लोगों ने कहा कि हां, हम कार्यकर्ता हैं जेपी के.’ माखन सिंह बोले, ‘तो हमें क्या सिखाने आये हो?’ इस सवाल ने हम सभी को चौंका दिया और पल भर के लिए हम निरूत्तर से हो गये। हमने बात आगे बढ़ानी चाही और अपने वरिष्ठ साथी रामानन्द दूबे को आगे करने की कोशिश की, किन्तु जब वे भी बात आगे बढ़ाने में असमर्थ दिखे तो हमने गोपाल भट्ट को भार सौंपा. गोपाल भट्ट ने कुछ बात शुरू करने का प्रयास किया, तब तक मुझे सोचने का मौका मिल गया. मैने माखन सिंह से कहा कि देखिए, आप जानते हैं कि यह समर्पण कुछ शर्तों पर हो रहा है. उसके बारे में आपको कोई शंका हो तो हम उसके समाधान के लिए आये हैं। माखन सिंह ने तुरन्त शर्तों वाला कागज जेब से निकाल कर दिखाया तो हमने उसे लेकर सरसरी निगाहों से देख लिया. महावीर भाई ने जौरा केन्द्र से चलते समय शर्तों वाले कागज की प्रति ले लेने को कहा था, किन्तु अति उत्साह में हम उसे लेना भूल गये. मैंने कहा कि आपको ये शंका हो सकती है कि आपके जो साथी अभी गिरोह में नये-नये शामिल हुए हैं और जो कई वर्षों से हैं, क्या दोनों को जमीन बराबर मात्र में मिलेगी. अगर आपके पास पुलिस से सम्बन्धी कोई शिकायत हो तो वो भी बताइये। महावीर भाई ने जौरा से चलते समय मुझे बताया था कि माखन सिंह की पुलिस से सम्बन्धी कुछ शिकायतें हैं, तुम वकील होने के नाते उन्हें देखना। पुलिस समस्या की बात कहते ही माखन सिंह ने अपने एक बगल में बैठे लोगों की तरफ इशारा करते हुए बोले कि इनके परिवार के चार लोगों को पुलिस चौकी रामपुर में महीनों से बंद कर रखा है। अपनी दूसरी तरफ बैठे लोगों की ओर इशारा करते हुए कहा कि इनके चार लोगों को सबलगढ़ थाने में महीनों से बंद कर रखा है। इनके घरों की महिलाएं 15 किलोमीटर दूर रोज खाना देने जाती हैं, बताइये, इस मामले में आप क्या कर सकते हैं? मैने माखन सिंह से पूछा कि रामपुर पुलिस चौकी यहां से कितनी दूर है? उन्होंने बताया लगभग 4-5 किलोमीटर. मैने कहा मैं अभी पुलिस चौकी जाता हूँ. अभी मुश्किल से दस बीस कदम दूर ही गया होऊंगा कि पीछे से मुखिया की आवाज आई, ‘लौट आइये, अभी नहीं जाना है. कल सुबह जाइयेगा.’ मैने लौट आया. मुखिया ने मुझसे पूछा कि मेरे लिए राशन पानी कुछ लाये हैं? जवाब में मैंने बताया कि जीप में काफी कुछ सामान पड़ा है, कम पड़ेगा तो और आ जायेगा. मुखिया ने अपने एक साथी को जीप देखने भेजा. उसने वापस आकर बताया कि जीप ‘छकाछक’ है।

माखन सिंह ने मुझसे पूछा कि आप लोग कहां रहेंगे? मैंने कहा, ‘आपके साथ, जहाँ आप रहेंगे.’ मुखिया ने जंगल के समीप बसे एक गांव की ओर इशारा किया और कहा, ‘सब लोग वहीं रहेंगे.’ गांव की तरफ टीले पर एक छोटी-सी कोठरी भी थी। मैंने मुखिया से कहा कि आप जीप पर बैठकर चलिए, हम बाकी लोग खेतों से होकर सीधे वहीं पहुंच रहे हैं। मुखिया, गोपाल भट्ट के साथ जीप पर बैठ कर टीले की ओर चल दिये, माखन सिंह जब जीप में बैठकर गांव से गुजरे तो जीप रोककर गांव के लोगों से टीले पर पानी व चारपाई पहुंचाने का हुक्म दिया और बोले कि हम हाजिर (समर्पण करने) होने जा रहे हैं. हम लोग जब खेतों से होते हुए टीले पर पहुंचे तो देखा गांव के कुछ लोग चारपाई, तो कुछ लोग पानी का घड़ा लेकर दौड़े चले आ रहे थे. टीले पर एक नीम का पेड़ था, जिसकी डाल पर एक सूती चादर और उसके उपर प्लास्टिक की चादर डालकर चारो खूटों को आपस में फंसाकर पानी का चलता-फिरता हौज बना दिया था, जिसमें ग्रामीणजन घड़ों से पानी लाकर डाल रहे थे। हमने जीप से राशन-पानी निकलवाकर टीले पर स्थित कोठरी में रखवा दिया। सूर्यास्त के पश्चात गिरोह के डाकुओं से भोजन बनाने हेतु राशन लेने की बात कही तो जातिगत आधार पर अलग-अलग टुकड़ियों में किसी ने चार तो किसी ने पांच का राशन प्राप्त किया। यह देखकर हमें आश्चर्य हुआ। गिरोह के लोगों ने हमें बताया कि उनकी भोजन व्यवस्था जातिगत आधार पर ही चलती है।

जिस गांव के बगल में टीले पर हमारा कैम्प पड़ा था, उस गांव का नाम निठार था। रात में हम सभी डाकुओं सहित भोजन करके चारपाइयों पर लेट गए। हमें पता चला कि पास में ही एक किलोमीटर की दूरी पर कुंआरी नदी है. हमने अपने साथियों सहित प्रात: वहीं शौच आदि से निवृत्त होने की सोची थी। रात में अचानक लगभग ढाई बजे नींद खुली तो देखा कि हमारे अगल बगल की सारी चारपाइयां सूनी पड़ी हैं और सारे डाकू गायब हैं. मैंने अपने साथियों को जगाया और सूनी पड़ी चारपाइयों का नजारा दिखाया, सभी देखकर दंग रह गए। भोर में जब पुन: आंख खुली और हम कुंआरी नदी की ओेर चले तो देखा कि डाकू पुआलों के ढेर और इधर-उधर झाड़ियों की ओट में अपनी सुरक्षा भूमिका में लेटे पड़े हैं, जाहिर है कि अभी तक उनका हम पर विश्वास कायम नहीं हुआ था।

कुंआरी नदी से लौटने के बाद चाय पीकर रास्ता बताने वाले साथी को लेकर मैं पैदल ही रामपुर पुलिस चौकी के लिए चल पड़ा। पुलिस चौकी पहुँचकर मैंने देखा कि वहां मप्र पुलिस का सशस्त्र बल वायरलेस सेट सहित तैनात था। चौकी में प्रवेश करते ही मेरी संतरी से भेंट हुई। मैंने उसे अपना परिचय दिया और पूछा कि माखन सिंह के आदमी कहां बंद हैं? उसने मुझे बायीं ओर इशारा किया, जहां दीवार में एक गोल छेद था. माखन सिंह के आदमी मेरी बातें सुन रहे थे और उसी छेद से हाथ जोड़े खड़े मुझे देख रहे थे। मैने उन्हें आश्वस्त किया कि चिन्ता मत करो, मैं आ गया हूँ, तुम्हें छुड़ाकर ले जाऊंगा। संतरी ने मुझे बताया कि चौकी प्रभारी दरोगा अभी चौकी पर नहीं हैं, कहीं बाहर गये हैं। यह जानकर कि मैं कानपुर से आया हूँ, उसने मुझे बताया कि कानपुर के यहां कई सिपाही हैं, जो आज अवकाश पर कानपुर जाने वाले हैं. उसने मेरा उन सिपाहियों से परिचय कराया। सिपाहियों ने मुझसे बड़ा प्रेम जताया और नाश्ता भी कराया, उन्होंने ये भी बताया कि पहले सबलगढ़ थाने जाकर अपना वेतन लेने के बाद वे कानपुर के लिए रवाना होंगे। मैने उनसे सबलगढ़ थाने में तैनात सभी दरोगाओं के नाम पूछे। मैने उन सभी के नाम अपने पैड पर पत्र लिखकर माखन सिंह के बंद साथियों को छोड़ने का अनुरोध किया. पत्र में मैंने मुरैना के पुलिस अधीक्षक सरदार सुरजीत सिंह तथा पुलिस आईजी नागू जी के आश्वासन की बात भी लिखी, जिसमें उन्होंने पुलिस बल से पूर्ण सहयोग मिलने की बात कही थी। मैंने कानपुर जाने वाले सिपाहियों को वह पत्र सबलगढ़ थाने में देने को कहा था। मैने एक पत्र अपने कानपुर के साथियों के लिए भी लिखकर दिया, अपने पत्र में मैंने कानपुर के साथियों को जानकारी दी थी कि मैं मुरैना के सबलगढ़ क्षेत्र के निठार गांव के समीप माखन सिंह गिरोह का समर्पण कराने के कार्य में लगा हुआ हूँ।

सिपाहियों के विदा लेते ही रामपुर पुलिस चौकी के प्रभारी दरोगा आ गए. मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और माखन सिंह के साथियों के चौकी में बंद होने की बात कही. पहले तो उन्होंने इन्कार कर दिया, लेकिन जब मैने कहा कि हवालात में उन्हें बंद मैंने स्वयं देखा है, तब उन्होंने कहा कि रात में किसी ने बंद कर दिया होगा. मैंने उन्हें भी मुरैना के पुलिस अधीक्षक सरदार सुरजीत सिंह तथा पुलिस आईजी नागू जी की बात बताई कि उन्होंने मप्र पुलिस द्वारा समर्पण कार्य में पूरा सहयोग करने का अश्वासन दिया है। दरोगा ने मुझसे पूछा कि आप माखन सिंह से मिल चुके हैं? मैंने कहा कि मैं उनके साथ रात भर रह कर आया हूँ. दरोगा जी ने कहा कि आप वकील हैं, जानते ही हैं, कागजी कार्यवाही पूरी करने के बाद माखन सिंह के सभी साथियों को छोड़ दूँगा, आप मेरी तरफ से आश्वस्त रहिये। मैं निठार गाँव कैम्प वापस आ गया, थोड़ी देर बाद दोपहर लगभग डेढ़ बजे रामपुर पुलिस चौकी से मुखिया के चारों आदमी छूट कर आ गये. माखन सिंह के पैरों पर गिरकर वे पुलिस के मारने से पीठ पर पड़ी चोटें दिखाने लगे. उन्होंने माखन सिंह को बताया कि पुलिस वाले मुखिया का हुलिया पूछते थे. कुछ ही देर बाद सबलगढ़ थाने से भी माखन सिंह के चारों आदमी छूट कर आ गये.

पुलिस की कैद से अपने आठों साथियों के छूटकर आ जाने के बाद मुखिया ने जो तीन बच्चे पकड़ कर रखे थे, उन्हें छोड़ने की बात मैने मुखिया के सामने रखी तो उन्होंने दो बच्चों को तत्काल छोड़ दिया और उन्हें एक कागज पर यह लिखकर भी दिया कि किसी को रूपया पैसा नहीं दें, इन बच्चों को स्वेच्छा से छोड़ा गया है. उन दोनों बच्चों को हमने सबलगढ़ की ओर जाने वाली बस में बैठा दिया. वे उसी क्षेत्र के थे. मुखिया ने केलारस के ऑयल मिल मालिक शांतिलाल जैन के बेटे कैलाशी को नहीं छोड़ा कहा। मुखिया ने शाम को चार बजे मुझे अलग बुलाकर कहा कि अब आप पर मेरा पूरा विश्वास हो गया है. हम आपके साथ कहीं भी चल सकते हैं। सभी डाकुओं को उनके परिवारीजनों से मिलवाने का काम शुरू कर दिया गया. वे सभी अपने परिवारीजनों और गाँव के लोगों के साथ मिलजुलकर उनके घरों मे रहने लगे। कानपुर से मुरैना आने के बाद मेरे कानपुर के ही वरिष्ठ साथी विनय भाई जौरा गांधी आश्रम केन्द्र पहुँचे. उन्होंने मेरे बारे में खोज-खबर ली, किन्तु उन्हें मेरे बारे में जब कुछ पता नहीं चला तो उन्होंने मुरैना से कानपुर के साथियों को यह संदेश भेज दिया कि रवीन्द्र भाई यहां नहीं पहुंचे हैं, कहाँ गए कुछ पता नहीं है. तार पाकर कानपुर के मेरे साथी घबरा गए, उन्होंने शहर में मेरी बहन से जाकर पूछा कि चम्बल से रवीन्द्र भाई का कोई पत्र आया या नहीं. बहन ने उन्हें बताया कि अभी कोई पत्र नहीं आया है. इसी बीच रामपुर पुलिस चौकी के सिपाहियों ने कानपुर स्टेशन पर स्थित सर्वोदय बुक स्टाल पर मेरा पत्र पहुंचा दिया. पत्र मिलने पर मेरे साथियों को चैन आया और उन्हें ये जानकर प्रसन्नता हुई कि मैं माखन सिंह गिरोह के समर्पण कार्य में लगा हुआ हूँ।

इसी दौरान एक घटना और घटी. एक दिन मैं राशन भण्डार वाली कोठरी से मंगल नाम के डाकू को राशन दे रहा था. दरवाजे की चौखट पर रायफल रखकर वह अपना राशन समेट रहा था. उसी समय पीछे से माखन सिंह का जवान बेटा आ गया. उसने उसकी रायफल उठाकर मेरी ओर फायर कर दिया. उससे मेरी दूरी पाँच फीट से अधिक नहीं थी. गोली मेरे बगल की खिड़की पर रखे हुए मेरे लोटे को चीरती हुई निकल गई और मैं बाल-बाल बच गया। फायर की आवाज से कैम्प में अफरा-तफरी मच गई, माखन सिंह दौड़कर आये. उन्होंने रायफल कंधे से नीचे उतारने के लिए मंगल को डाँटा, फिर अपने लड़के को भी डाँटा. लड़के ने भूल से रायफल का ट्रिगर दबने की बात कहकर जान छुड़ाई। भंडार वाला कमरा उपर टीले पर था, इसलिये गोली गाँव के उपर ऊपर ही पार हो गई और कोई घायल नहीं हुआ, बहुत बड़ी अनहोनी से मुक्ति मिल गयी थी। माखन सिंह की पत्नी ने मेरा लोटा बदल कर दूसरा लोटा देने का आग्रह किया, किन्तु मैंने उसे चम्बल की निशानी मानकर फिर किसी को नहीं दिया. वह लोटा आज भी चम्बल की निशानी के रूप में मेरे पास सुरक्षित है।

एक दिन मैं राशन लेने सबलगढ़ गया हुआ था. वहाँ बनिये की दुकान पर मुझे केलारस के ऑयल मिल मालिक शान्तिलाल जैन मिल गये. अचानक वे मेरे पैरों पर गिर पड़े और बोले, माखन ने अभी तक मेरे बेटे को नहीं छोड़ा. मैंने कहा कि मैं प्रयास में लगा हूँ, समर्पण से पहले तो छोड़ना ही पड़ेगा। उस दिन के अखबार में भी यह खबर छपी थी कि माखन सिंह ने दो बच्चे छोड़ दिये, किन्तु शांतिलाल जैन के बेटे को अभी तक नहीं छोड़ा है। शांतिलाल जैन से मैंने कहा कि आपका बेटा कुशल से है, साथ चलिये तो आपको उससे मिलवा दूँ। वे साथ चलने को तैयार हो गये. निठार गाँव कैम्प पहुँचने पर मैने शांतिलाल जैन को अपने निवास पर छोड़ दिया और खुद मुखिया माखन सिंह के पास चला गया. मैंने अखबार की खबर उन्हें सुनाई और कहा कि आपका काफी नाम हो रहा है. लोग जयप्रकाश जी से सवाल पूछ रहे हैं कि शांतिलाल जैन के बेटे को माखन सिंह ने अभी तक क्यों नहीं छोड़ा। माखन सिंह ने खबर सुनकर कहा कि अख़बार वाले मेरा नाम बदनाम कर रहे हैं. मैंने उनसे पूछा कि आखिर आप शांतिलाल जैन के बच्चे को क्यों नहीं छोड़ रहे है, कब छोड़ेंगे? इस सवाल के जवाब में हमेशा वे एक ही बात कहते कि उसने मुझे बहुत तंग किया है। मैंने उनसे कहा कि आप एक बार शांतिलाल जैन से मिलकर शिकवे शिकायतें दूर कर लें. वे ठहाका मारकर हंसने लगे, बोले कि वह मेरे पास यहाँ कैसे आयेगा? मैंने कहा कि मैं मिलवा सकता हूं, मैं उनको अपने साथ लाया हूँ. उन्होंने कहा, कहाँ है वह, उसे मेरे सामने लाइये. मैंने अपने निवास से शांतिलाल जैन को बुलवाया, वे वहीं जमीन पर हाथ जोड़ कर बैठ गए. मेरे इशारा करने पर माखन सिंह ने बड़ी क्रूर आवाज़ में कहा, ‘यही बनिया है? अरे तूने तो मुझे बहुत परेशान किया. देख, तेरे बेटे को अभी तेरे सामने बोटी-बोटी करता हूं. शांतिलाल जैन रोने लगे. मैं माखन सिंह का व्यवहार देखकर दंग रह गया, मैंने शांतिलाल जी को ढाढ़स बंधाया. माखन सिंह के सहयोगी कहने लगे, अरे बनिया कुछ तो सोच, तेरे बेटे को मुखिया ने कितने दिनों से अपने पास रखा हुआ है. सूर्यास्त होने को था, माखन सिंह के व्यवहार से दुखी होकर मैंने कहा कि मैं बहुत थका हुआ हूँ, शांतिलाल जी को ले जाता हूं, फिर बात होगी. ये कहकर शांतिलाल जी को लेकर मैं अपने निवास पर चला आया।

शांतिलाल जी के साथ माखन सिंह के व्यवहार से क्षुब्ध होकर मैंने भोजन नहीं करने की बात अपने साथियों को बतायी. पहले तो वे सहमत नहीं हुए, किन्तु बाद में सभी मेरे भोजन त्यागने के निर्णय से सहमत हो गये। रात में भोजन के लिए कई बार बुलावा आया, लेकिन हम लोगों ने कहला भेजा कि भोजन करने की इच्छा आज किसी की नहीं है. शांतिलाल जी ने भी कह दिया कि वे सूर्यास्त के पश्चात भोजन नहीं करते और रात में जमीन पर ही सोते हैं।

सरला बहन (गांधीजी की अंग्रेज महिला शिष्या मिस केथरीन) बागी माखन सिंह व उनके पुत्र के साथ

करीब आधी रात को हमारे निवास के सामने गिरोह के लोगों ने एक पलंग लाकर डाल दी. उस पर गद्दा आदि भी डाल दिया. पास में पेट्रोमेक्स लाकर रख दी। माखन सिंह आकर उस पलंग पर लेट गये और चादर ओढ़ ली. उनके साथियों ने फिर शांतिलाल जी को धमकाना शुरू किया. अरे बनिया, क्या सोचा कुछ तो सोचा होगा… आदि आदि. मैंने शांतिलाल जी से पहले ही कह दिया था कि वे कुछ नहीं बोलेंगे। मैं उनकी तरफ से बात करूंगा. उनकी किसी भी बात का जवाब मैं ही दूँगा। तभी माखन सिंह के किसी सहयोगी ने कहा कि ऐ बनिया, जरा बाहर चल. तुझसे कुछ बात करेंगे. मैं तुरन्त बोल पड़ा, शांतिलाल जी यहाँ से कहीं नहीं जायेंगे. आपको जो भी बात करनी हो, यहीं मेरे सामने कर लीजिए। मेरे इतना कहते ही वहाँ मरघट जैसी शांति छा गयी. कुछ ही पलों में एक मोटर ट्रक आने की आवाज सुनाई पड़ी. आवाज़ कान में पड़ते ही माखन सिंह सहित सारे पलंग और पेट्रोमेक्स लेकर भाग खड़े हुए. दहशत की लम्बी जिन्दगी जीने के कारण ये सभी पुलिस के भय से भाग खड़े हुए थे. उन्हें लगा कि शांतिलाल जैन की सुरक्षा में पुलिस बल भी साथ आया है. कुछ देर बाद चौपाल से बाहर निकलकर मैंने ट्रक के बारे में पता किया तो मालूम हुआ कि पड़ोस के गाँवों के लोग, जो मुखिया माखन सिंह से गुप्त रूप से जुड़े रहते थे, वे लोग पुलिस से छिपकर रात में ट्रक में बैठकर मुखिया से मिलने आये थे. मैंने मुखिया के लोगों से कहा कि मुखिया का शांतिलाल जी के साथ व्यवहार ठीक नहीं था, उससे मुझे दुख पहुँचा है. कल जब मिशन की गाड़ी आयेगी, तो मैं वापस लौट जाऊँगा. मुझे ऐसा समर्पण नहीं कराना है। मुखिया के लोगों ने कहा कि हमने भी ये बात मुखिया से कही है कि नेताओं के सामने शांतिलाल जी से ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए था। हमने उसी समय सोच लिया कि शांतिलाल जैन को कैम्प में ठहराये रखना उचित नहीं होगा, इसलिए भोर होते ही 5 बजे सबलगढ़ जाने वाली बस में उन्हें इस विश्वास और आश्वासन के साथ विदा किया कि जब तक हम जिन्दा हैं, आपके बेटे को कुछ नहीं होने देंगे। हमें इस बात का दुख रह गया कि इस तनावपूर्ण, गम्भीर वातावरण के चलते हम शांतिलाल जी के बेटे को उनसे नहीं मिलवा सके. दूसरे दिन भी हमारा अनशन जारी रहा। सुबह का नाश्ता और दोपहर का भोजन हम तीनों साथियों ने नहीं लिया। शाम 4 बजे मुखिया माखन सिंह ने मुझे अलग बुलाकर कहा कि आप लोग अनशन छोड़ दीजिए, मैंने शांतिलाल जी के बेटे को उनके घर भिजवा दिया है. हम सुखद आश्चर्य से भर उठे. एक बार फिर अहिंसक संघर्ष की शक्ति के सामने हिंसक शक्ति को झुकने को मजबूर होना पड़ा था. हम सभी ने अनशन खत्म कर रा़त का भोजन ग्रहण किया।

माखन सिंह के गिरोह में मुन्ना धोबी उसका उप मुखिया था, वह समर्पण के लिए तैयार नहीं था, माखन सिंह ने मुझे उसे समझाने के लिए कहा. मैंने सोचा कि समझाने से इसका घमण्ड बढ़ेगा, पत्नी के साथ रहने का जो अवसर समर्पण पूर्व मिल रहा है, वह समर्पण के लिए स्वत: प्रेरित करेगा। उसने मुझे चेतावनी दी थी कि मैं अपने कमरे से उसकी फोटो न लूँ, स्पष्ट था कि वह समर्पण के लिए तैयार नहीं है, किन्तु अन्त में जैसा मैंने सोचा था वही हुआ, वह समर्पण के लिए स्वयं तैयार हो गया. अंतिम समय में उसने पत्नी के साथ अपनी एक फोटो लेने का मुझसे अनुरोध किया. कैमरे की फिल्म समाप्त हो गई थी, किन्तु फिर भी मैंने यह सोचकर कि वह निराश न हो, यूँ ही कैमरा झूठमूठ में क्लिक कर दिया।

जौरा, मुरैना में 14 तथा 16 अप्रैल 1972 को गांधी के चरणों में अपने शस्त्र सौंपने वाले समर्पणकारी 164 डाकुओं ने जेपी से कहा था कि उन्हें डाकू न कहकर बागी कहा जाय और उनकी इच्छानुसार ग्वालियर सेन्ट्रल जेल में उन्हें निजी वाहनों से सर्वोदय कार्यकर्ताओं के संरक्षण में प्रवेश कराया जाय। जयप्रकाश जी ने पांच सर्वोदय कार्यकर्ताओं की टीम बनाई थी, जिसमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल था. इस टीम को ग्वालियर सेन्ट्रल जेल में समर्पणकारी बागियों से भेंट कर उनका संक्षिप्त इतिहास तथा उनकी तात्कालिक एवं दीर्घकालिक समस्याओं का विवरण तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी. लेखक ने स्वयं 40 बागियों का विवरण तैयार किया था।

17 अप्रैल 1972 को जयप्रकाश जी ने ग्वालियर सेन्ट्रल जेल पहुँचकर सभी समर्पणकारी बागियों से भेंट की। लगभग 11 बजे दिन में इस निमित्त जेल के अंदर समर्पणकारी बागियों की एक गोष्ठी हुई. इस गोष्ठी में अनेक साथियों के साथ मैं भी मौजूद था। जेपी ने बागियों से कहा कि ईश्वर ने मुझे इस समर्पण कार्य के निमित्त बनाया है. बगैर उसकी मर्जी के पत्ता भी नहीं हिलता है। जेल में प्रायश्चित करने और अपने आचरण में सुधार करने का अवसर मिला है, आपलोग इसका सदुपयोग करें। उन्होंने कहा कि काश! हृदय परिवर्तन की इस ऐतिहासिक घटना के चित्रांकन और प्रसारण पर रोक नहीं लगायी जाती तो आज दुनिया को इससे प्रेरणा मिलती। इस बागी समर्पण अभियान में, मैं भी जेपी की तरह ही मानता हूँ कि ईश्वर ने मुझे इस ऐतिहासिक घटना में निमित्त बनाया और समर्पण की तैयारी के दौरान जो संकट की घड़ियाँ आयीं, उनसे मैं ईश्वरीय कृपा से ही उबर पाया।

-रवीन्द्र सिंह चौहान

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