महामारी, जन-जीवन, राजनीति

कोरोना वायरस संक्रमण ने दुनिया को स्वास्थ्य के साथ-साथ आर्थिक संकट की तरफ भी धकेला है। इसकी वजह से वैश्विक मंदी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। दुनिया भर में करोड़ों लोग अपने रोजगार से हाथ धो चुके हैं और करोड़ों के ऊपर रोजगार छिन जाने का संकट खड़ा है। संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी है कि दुनिया भर में कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से सालाना 2.5 करोड़ लोग अपने रोजगार से वंचित होंगे। यह पहले से जारी वैश्विक आर्थिक संकट में कोढ़ के खाज की तरह सिद्ध होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुमान है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को इस महामारी की वजह से 3.6 लाख करोड़ डॉलर का झटका लग चुका है।

 

कोरोना वायरस संक्रमण की दहशत को अब दो वर्ष होने वाले हैं। साल 2020 के अन्त और 2021 के आरम्भ में स्थिति कुछ थमने लगी थी, लेकिन तभी संक्रमण की दूसरी बड़ी लहर ने हालात बेकाबू कर दिये। अप्रैल 2021 में तो देश ने इस वायरल संक्रमण की वजह से मौत का तांडव देखा। सरकारी और निजी अस्पताल मरीजों से भरे पड़े थे। श्मशानों और कब्रगाहों तक में लाशों की लाइनें थीं। बीते सौ बरस में देश ने महामारी से मौत का ऐसा मंजर नहीं देखा था। लाखों परिवार उजड़ गये, हजारों बच्चे अनाथ हो गये, करोड़ों लोगों की नौकरियां छिन गईं। मंहगाई आसमान में है। इलाज के नाम पर निजी अस्पतालों में लोग लूटे जा रहे हैं। सरकारी तंत्र नाकारा और भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। सन् 2021 के अन्त तक उम्मीद की जा रही थी कि स्थिति सुधरने लगेगी, लेकिन तभी ओमिक्रान की तीसरी लहर के आतंक ने भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में फिर से आतंक फैला दिया है। देश के कई राज्यों में आंशिक कर्फ्यू या पाबन्दी लगा दी गई है। महीनों से घरों में कैद लोगों ने दीपावली, ईद या क्रिसमस के बहाने उम्मीद की थी कि खुशियां लौट आएंगी, लेकिन महामारी के संक्रमण फैलाने की आशंका ने लोगों को फिर से भय में ला दिया है। इस संक्रमण की वजह से आम लोगों की तो छोड़िये, चिकित्सकों और वैज्ञानिकों में भी आशंका और चिंता व्याप्त हो गई है।

कोरोना काल में अर्थव्यवस्था
कोरोना काल में देश की आर्थिक हालत बुरी तरह से प्रभावित हुई है। देश के आर्थिक हालात और बेरोजगारी पर नजर रखने वाली संस्था सेन्टर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) का आंकड़ा कह रहा है कि दूसरी लहर की वजह से अप्रैल 2021 में 73.5 लाख लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा। मई 2021 में ही 1.53 करोड़ लोगों की नौकरियां चली गई। कुल मिलाकर 2.26 करोड़ से ज्यादा लोगों को तो केवल दो महीने में ही अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ गया था। कोरोना वायरस संक्रमण ने दुनिया को स्वास्थ्य के साथ-साथ आर्थिक संकट की तरफ भी धकेला है। इसकी वजह से वैश्विक मंदी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। दुनिया भर में करोड़ों लोग अपने रोजगार से हाथ धो चुके हैं और करोड़ों के ऊपर रोजगार छिन जाने का संकट खड़ा है। संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी है कि दुनिया भर में कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से सालाना 2.5 करोड़ लोग अपने रोजगार से वंचित होंगे। यह पहले से जारी वैश्विक आर्थिक संकट में कोढ़ के खाज की तरह सिद्ध होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुमान है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था को इस महामारी की वजह से 3.6 लाख करोड़ डॉलर का झटका लग चुका है। इस महामारी ने दुनिया को एक ऐसे समय में अपनी चपेट में लिया है, जब विश्व की अर्थव्यवस्था पहले से ही सुस्ती से जूझ रही है। विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री कारमेन रेनहार्ट कहते हैं कि कारोना महामारी से उत्पन्न वैश्विक आर्थिक सकंट से उबरने में पांच साल से भी ज्यादा लगेंगे। वे कहते है कि अधिकांश देशों ने लॉकडाउन से जुड़े प्रतिबन्धों को काफी हद तक हटा लिया है। कई देशों ने तो अपनी आर्थिक गतिविधियां विधिवत शुरू भी कर ली हैं, फिर भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर आने में पांच साल इसलिए लगेंगे, क्योंकि बीते 20 वर्षों में पहली बारी वैश्विक गरीबी की दर बढ़ने की ओर अग्रसर है। महामारी के चलते दुनिया भर में करीब 10 करोड़ से ज्यादा लोगों को भीषण गरीबी का सामना करना पड़ेगा। उन्होंने अपील की है कि संपन्न देश गरीब देशों के नागरिकों के लिए खुलकर सामने आएं।

कोरोना वायरस संक्रमण का आम व्यवसाय व रोजगार पर असर साफ तौर पर देखा जा रहा है। ज्यादातर कम्पनियां अपने कर्मचारी और उत्पादन कम कर रही हैं। कर्मचारियों से कहा जा रहा है कि वे घरों से काम करें और पगार भी कम लें। संयुक्त राष्ट्र की कांफ्रेंस ऑन ट्रेड एन्ड डेवलपमेन्ट के अनुसार इस वायरस से प्रभावित दुनिया की 15 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत भी एक है। हम जानते हैं कि इस संक्रमण के कारण चीन की अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा है। बीते 15 महीनों में चीन में उत्पादन में आई कमी के कारण भारत की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुई है। अनुमान है कि इससे भारत की अर्थव्यवस्था को करीब 34.8 करोड़ डालर तक नुकसान उठाना पड़ सकता है। दरअसल भारत के अंधिकांश उद्योग ज्यादातर चीन के बाजार पर निर्भर हैं। इलेक्ट्रानिक्स, घरेलू सामान, कपड़े, कई उपकरण, खिलौने, दवा आदि के उद्योग, यहां तक कि वाहन आदि का उत्पादन चीन में ज्यादा होता है। मोबाइल, एलईडी, फ्रिज, टीवी आदि क्षेत्रों में तो वैसे ही चीन की बड़ी धाक है। पिछले कुछ वर्षों में भारत की चीन पर व्यावसायिक निर्भरता कुछ ज्यादा ही बढ़ी है। आत्मनिर्भर भारत और स्टार्टअप जैसी सरकारी घोषणाएं महज जुमला साबित हुई हैं।

इलाहाबाद संगम की रेती पर दफनाए गये कोरोना मृतकों के शव

देश में टीकाकरण
देश में लगभग 120 करोड़ लोगों में टीकाकरण के दावे किये जा रहे हैं। सरकारी विज्ञापनों की मानें तो 100 करोड़ से ज्यादा लोगों ने वैक्सीन लगवा ली है, फिर भी कोई इस महामारी से बचाव के लिए आश्वस्त नहीं है। सच तो यह है कि संकट पूर्ववत कायम है। मौत का तांडव कभी भी शुरू हो सकता है। चिंता की बात यह है कि दिसम्बर 2021 के अन्त तक कोरोना वायरस का यह वेरिएन्ट भारत सहित 70 से ज्यादा देशों में पहुंच चुका है। आक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनिका वैक्सीन का निर्माण करने वाली वैज्ञानिक प्रो डेम स्परा गिल्बर्ट ने चेतावनी दी है कि हमें कोरोना से भी ज्यादा

खतरानाक महामारियों के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्होंने इसके लिए बड़े फंड की जरूरत भी बतायी है। प्रो गिलबर्ट ने कोरोना वायरस के नये वेरिएन्ट ओमीक्रॉन के बारे में बताया कि यह थोड़ा अलग प्रकार का वैरिएन्ट है, अतः यह सम्भव है कि वैक्सीन से बनने वाली एन्टीबॉडी या दूसरे वैरिएन्ट के संक्रमण से बनने वाली एन्टीबॉडी ओमिक्रान के संक्रमण को प्रभावी तरीके से न रोक पाये, इसलिए जब तक हम इस वैरिएन्ट के बारे में अच्छी समझ नहीं बना लेते, तब तक सभी को सावधान रहने की जरूरत है। किसी भी महामारी की रोकथाम के लिए टीका (वैक्सीनेशन) एक अहम चीज होती है, लेकिन केवल टीके की अनिवार्यता से ही महामारी की रोकथाम हो सकती है, यह समझ से परे है। एक वायरल संक्रमण को रोकने के लिए उसके संक्रमण की चेन को काटना जरूरी होता है। कोरोना वायरस संक्रमण में शुरू से ही देखा जा रहा है कि संक्रमण फैलने के सभी रास्ते सहज रूप से खुल हुए हैं, केवल टीके की अनिवार्यता पर दवाब डाला जा रहा है। जाहिर है कि सरकार और कंपनियां महामारी की रोकथाम के नाम पर अपने धंधे और मुनाफे को ज्यादा तवज्जो दे रही हैं।

कोरोना वायरस संक्रमण की विडम्बना यह है कि हमारे शरीर का इम्यून तंत्र (प्रतिरक्षा प्रणाली) इस वायरस के सैकड़ों हिस्सों को तो पहचान सकता है, लेकिन इसके छः हिस्से ऐसे हैं, जो संक्रमण रोकने में महत्वपूर्ण होते हैं, ये प्रोटीन में होते हैं। ये स्पाइक प्रोटीन कोशिका से वायरस को चिपकाने में मदद करते हैं। खतरा यह है कि यदि वायरस के इस नये वेरियेन्ट के स्पाइक में बदलाव आ गया तो हमारा इम्यून सिस्टम वायरस को नहीं पहचान पाएगा और टीकाकरण के बावजूद संक्रमण का खतरा बना रहेगा। ओमिक्रॉन को लेकर जो दहशत है, वह गैरवाजिब नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इससे चिंतित है। अभी तक इस वेरियन्ट के 30 से ज्यादा म्यूटेशन हो चुके हैं और ये सभी स्पाइक प्रोटीन क्षेत्र में हुए हैं, जो बेहद चिंताजनक हैं। यदि ओमिक्रॉन का बदलाव खतरनाक हुआ तो वैक्सीन के बावजूद संक्रमण की तबाही मच सकती है। ऐसे में कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव के अब तक उपलब्ध सभी टीकों की समीक्षा करनी पड़ेगी। इस वेरियेन्ट के साथ एक दिक्कत यह भी हो सकती है कि इसका पता लगाने के लिए सामान्य आरटीपीसीआर जांच की जगह जिनोम सिक्वेन्सिंग तक का सहारा लेना पड़ सकता है।

ओमिक्रोन वैरिएन्ट की चर्चा होते ही देश में कर्फ्यू जैसे प्रतिबन्ध लागू हो गए और साथ ही बिल गेट्स के ग्लोबल एलाएन्स ऑन वैक्सीनेशन एन्ड इम्यूनाइजेशन (गावी) द्वारा वित्तपोषित दो नई कोविड-वैक्सीनों (कोर्बेवैक्स तथा कोवैक्स) के आपातकालीन इस्तेमाल की मंजूरी भी मिल गई। भारत के स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने ट्वीट कर जानकारी दी कि यह भारत की पहली स्वदेशी आरबीडी प्रोटीन सब यूनिट वैक्सीन है। यह भारत में विकसित तीसरा टीका है, जिसे हैदराबाद के बायोलाजिकल-ई लिमिटेड ने बनाया है। दरअसल भारत में दी जा रही लगभग हर वैक्सीन के साथ बिल ग्रेट्स की फंडिंग जुड़ी हुई है। सनद रहे कि कोवैक्सीन की निर्माता कम्पनी भारत बायोटेक को नवम्बर 2019 में ही लगभग 19 मिलियन डालर दिये जा चुके थे। ऐसे ही सीरम इन्स्टीच्यूट सन् 2012 से ही बिल ग्रेट्स फाउन्डेशन से अनुदान प्राप्त कर रहा है. बायोलाजिकल-ई लिमिटेड भी सन् 2013 से ही बिल ग्रेट्स फाउन्डेशन से अनुदान ले रहा है। अभी अप्रैल 2021 में ही इसे 37 मिलियन डॉलर की राशि मिली है।

इधर एक सामाजिक कार्यकर्त्ता अमित कुमार ने एक आरटीआई के माध्यम से पता किया है कि भारत सरकार ने 1 मई 2021 से 20 दिसंबर 2021 के दौरान मुफ्त टीकाकरण के नाम पर अब तक कोई 19675 करोड़ रुपये खर्च किये हैं। यानी अभी तक 20 हजार करोड़ रुपये भी खर्च नहीं हुए हैं, जबकि वर्ष 2021-22 के बजट में कोविड-टीकारण के लिए 35 हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। वह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का, जिसकी डांट-फटकार के बाद ही सरकार यह रकम खर्च करने की स्थिति में आई। अब आइये, यह समझ लें कि यदि देश में 18 वर्ष से ऊपर के सभी लोगों को टीका लगाया जाय तो कितना खर्च आएगा? इन्डिया रेटिंग्स एण्ड रिसर्च के आंकलन के अनुसार इस पर कुल 67193 करोड़ रुपये खर्च होंगे। यह भारत की जीडीपी का 0.36 फीसद है। इसमें राज्य सरकारों की भी बड़ी हिस्सेदारी होगी। क्या आप जानते हैं कि मुफ्त टीकाकरण के नाम पर सरकार ने जनता से कितना पैसा वसूला है? पेट्रोल, डीजल एवं गैस टैक्स बढ़ाकर केन्द्र सरकार ने जनता से एक वर्ष में 4 लाख करोड़ रुपये वसूले हैं। उल्लेखनीय है कि पेट्रोल, डीजल की टैक्स/मूल्य वृद्धि के पीछे मुफ्त टीकाकरण का जुमला फेंका गया था। आरटीआई से प्राप्त जानकारी के अनुसार वर्ष 2019-20 में पेट्रोलियम पदार्थों से प्राप्त आय 2,88,313.72 रुपये थी, जबकि वर्ष 2020-21 में यही आमदनी बढ़कर 4,13,735.60 रुपये हो गई। यानी खर्च 50 हजार करोड़ तो वसूली 2 लाख करोड़। यह है वैक्सीन-तेल का खेल!

धर्म और जाति की क्षुद्र राजनीति
कोरोना के विभिन्न वैरियन्ट के बहाने देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का अन्दाजा आप को लग गया होगा। आजादी के 75 वर्षों के बाद देश के विकास का अन्दाजा लगाने के लिए सन् 2020-2021 के कोरोना काल को याद कर लीजिये। आपको समझने में देर नहीं लगेगी कि हम सब ने मिलकर देश में कैसी राजनीति विकसित की है। मौत के तान्डव के सामने न धर्म था, न जाति थी, लेकिन चुनाव आते-आते धर्म और जाति ने ऐसी पकड़ बना ली, मानो हम सबके अन्दर वह एक कुंठा की शक्ल में पैठी हुई है। इसी कुंठा को उभार कर नेता हमें हमारे असली रूप में ले आते हैं। हम आप भूल जाते हैं कि हम पहले इन्सान है और मानवनिर्मित आपदाओं से मिलकर मुकाबला करना हमारा धर्म है। इससे पहले भी दुनिया ने कई संकटों का सामना किया है और इतिहास गवाह है कि मानवता की रक्षा सुसंगत व्यवस्था और आपसी भाईचारे ने ही की है। याद रखें, यदि आपने जाहिल, गंवार, कुपढ़ व धूर्त नेताओं की क्षुद्र राजनीति में पड़कर खुद को उन जैसा ही बना लिया, तो तिल तिल कर मरने के अलावा आपके सामने और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

कोरोना वायरस संक्रमण के लगभग 20 महीने के अनुभव के बावजूद हमारा सरकारी स्वास्थ्य तंत्र भरोसे के लायक नहीं बन पाया है। सरकारी दावे के अनुसार कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव के नाम पर कोई 30 लाख करोड़ से भी ज्यादा रकम अब तक खर्च की जा चुकी है, लेकिन फिर भी हम इस आशंका से उबर नहीं पा रहे हैं कि स्वास्थ्य की आपात स्थिति में हमारे नागरिक समुचित स्वास्थ्य सेवा सहजता से प्राप्त कर पाएंगे। सन् 2020 और 2021 के आरम्भिक महीनों में जब देश कोरोना वायरस संक्रमण की पहली और दूसरी लहर का दंश झेल रहा था, तब सरकारी स्वास्थ्य सेवा स्वयं वेंटिलेटर पर थी और निजी क्षेत्र के अस्पताल बेशर्म लूट के अड्डे बने हुए थे, बाजार और कारपोरेट अपना घाटा पूरा करने में लगे थे, गैर जरूरी दवाओं की कालाबाजारी हो रही थी और आम लोगों की दहशत की पूरी कीमत वसूली जा रही थी। हमारे नेता इसे आपदा में अवसर बता रहे थे। लाखों नागरिकों की मौत को देश की बेशर्म राजनीति ने बिना कफन नदियों के किनारे मिट्टी में दबा दिया। तीस करोड़ से ज्यादा मजदूर और सामान्य श्रमजीवी रोजगार से वंचित हो गए, लेकिन सरकारी टैक्स वसूली की बदौलत उपजी महंगाई सामान्य जनों के जले पर नमक छिड़कने का काम करती रही।

कोरोना काल में अन्य रोगों की उपेक्षा
इस महामारी के संक्रमण के अनुभवों में एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि इस 20 महीने के दौरान दूसरे कई रोगों की जबर्दस्त उपेक्षा हुई। बच्चों में टीकाकरण के कार्यक्रम बाधित हुए। स्कूलों में मध्याह्न भोजन, बच्चों व गर्भवती महिलाओं के पोषण, पहले से चली आ रही बीमारियों की रोकथाम और इसके उपचार आदि के कार्यक्रम, कैंसर, किडनी व मूत्र सम्बन्धी रोग, मानसिक रोग, दांत व आंख, नाक, कान, गला सम्बन्धी रोगों तथा मानसिक बीमारियों से ग्रस्त मरीजों की स्थिति बद से बदतर होती गई। कैंसर के विभिन्न रोगियों के कई सामान्य मामले पहले से ज्यादा जटिल हो गए हैं। सामान्य जीवाणु और फंगस से होने वाले रोगों की स्थिति इस कोरोना वायरस ने बिगाड़ दी है। ऊपर से ‘लांग कोविड’ यानी उपचार के बावजूद कोरोना से पूरी तरह ठीक नहीं हुए रोगियों के गुर्दे और फेफड़े खराब हो चुके हैं, उनके इलाज की दिक्कतों ने भी स्थिति को बिगाड़ दिया है। लोगों की आमदनी घटकर बेहद नाजुक स्थिति में आ गई है। देश की आधी आबादी की आय के बारे में जो अध्ययन सामने आए हैं, वे खौफनाक हैं। विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार भारत की 50 फीसद आबादी की औसत सालाना आय केवल 53,610 रुपये यानी पांच हजार रुपये प्रति माह से भी कम रह गयी है।

नये वर्ष में उम्मीदें
आम लोगों के ऊपर महंगाई की मार है, बीमारी/महामारी का आतंक है और सरकार की भेदभावपूर्ण नीति की वजह से सामाजिक अस्थिरता तथा असुरक्षा का माहौल है। चुनाव के बहाने देश जाति/धर्म की लामबन्दी में फंसा हुआ है। सब जानते हैं कि महामारी किसी की जाति या उसका मजहब नहीं देखती, फिर भी नेताओं और कथित धार्मिक गुंडों के बिगड़े बोल नागरिकों के बीच की समरसता को बिगाड़ रहे हैं। नेताओं की ऐयाशी में कोई कमी नहीं है। सरकार की कई अनावश्यक व महंगी परियोजनाएं महज अहंकार या तुष्टिपूर्ति का उदाहरण बनकर रह गयी हैं, फिर भी देश के लोगों का जीवट है कि उम्मीद नहीं छोड़ता। यदि हमें उम्मीदों पर ही जीना है, तो आइये, एक उम्मीद यह भी पालें कि यदि हमने अपनी महान मानवीय परम्पराओं को ठीक से पहचान कर विश्व बंधुत्व, प्रेम, करुणा, भाईचारा, त्याग, सहिष्णुता और आपसी सहयोग के मूल्यों को जीवन में अपनाकर पूरी संजीदगी से मानवीय समाज की रचना का संकल्प लिया तो धार्मिक व जातीय विद्वेष फैलाने वालों से मुक्ति मिल सकती है और एक सुदृढ़-बेहतर समाज के निर्माण का रास्ता खुल सकता है। महामारी की आड़ में हमारे राजनेताओं ने हमें जाहिल, गंवार, भिखारी, लुटेरा, लाचार बनाने की कितनी कोशिशें कीं, हम बने भी लेकिन फिर भी अभी बहुत कुछ बाकी है। यदि हमने अपने विवेक और समझ से अब भी सबक ले लिया तो महामारी तो जाएगी ही, मूर्खता ओर लंपटता की राजनीति का भी अन्त हो सकता है। ध्यान रहे, महामारी भी कमजोर इम्यूनिटी वालों को ही निशाना बनाती है, उसी तरह कट्टरता और जाहिलियत भी बुद्धि-विवेक-हीन व्यक्तियों को ही प्रभावित करती है।

-डॉ. एके अरुण

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